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मूवी रिव्यू: असली ‘सरबजीत’ की ‘फिल्मी’ दास्तां

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मुम्बई: दो मुल्कों के बॉर्डर से सटे पंजाब के एक छोटे से गांव का किसान सरबजीत सिंह बेगुनाह था या फिर पाकिस्तान में पकड़ा गया एक हिंदुस्तानी जासूस? दोनों मुल्कों के अपने-अपने नजरिए और अपनी-अपनी सियासत के बीच 21 साल तक पाकिस्तान के जेल में सड़नेवाला और एक वक्त के बाद सालों तक अपनी फांसी का इंतजार करनेवाला सरबजीत सिंह आखिरकार हिंदुस्तान लौटा, मगर एक लाश बनकर.

एक परिवार को जीते-जीते मार देनेवाली ‘सरबजीत’ की कहानी उसकी मौत के 5 साल बाद फिल्मी पर्दे पर आई तो भावनाओं का अतिरेक लेकर. ‘सरबजीत’ देखने के बाद लगता है कि जैसे फिल्म बनाने की एक की तयशुदा मंशा देखनेवालों को जज्बाती बनाना और उनके मन में सरबजीत और उसके परिवार के प्रति हमदर्दी के भाव जगाना ही है. फिल्म के शुरु होते ही इसका एहसास होने लगता है. पूरी फिल्म इसी ढर्रे पर चलती है. हमदर्दी पैदा करने की यही ‘कोशिश’ फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी साबित होती है. 21 साल बाद भी सरबजीत के जेल से ना निकलने पाने का दर्द और उसकी इसी बेबसी को दिखाने का अंदाज उतना असरदार नहीं है, जितनी संभावना इस फिल्म की कहानी में छिपी थी. ज्यादातर सीन्स और डायलॉग्स सरबजीत सिंह की तकलीफ, उसे छुड़ाने के लिए की गई बहन दलबीर कौर की लगातार कोशिशों को सटल अंदाज में कहने की बजाय उसे मेलोड्रैमेटिक अंदाज में पेश करते हैं. मेलोड्रामा का अतिरेक फिल्म को एक औसत फिल्म के धरातल से ज्यादा ऊपर नहीं उठने नहीं देता है. फिल्म के पार्श्व में चलनेवाला संगीत भी फिल्म की तय की गई इस लकीर पर ही बजता है. उदासीनता के माहौल के हिसाब से भले ही कुछ गाने सुनने में अच्छे लगें, मगर हमदर्दी बनाए रखने की गीत-संगीत की ‘कोशिश’ फिल्म के खत्म होने के साथ ही खत्म होती है. वैसे, कैमरा जेलों में बंद सरबजीत सिंह की ना खत्म होनेवाली तकलीफ को दिखाने वाले दृश्यों में कमाल करता है, मगर इसके अतिरिक्त पूरी फिल्म में सामान्य से नजारे ही दिखाता है. sarabjit8 1994 में मिस वर्ल्ड बनने के फौरन बाद एक्टिंग की दुनिया में कदम रखने वाली ऐश्वर्या राय 40 की उम्र को पार करने के बाद आज भी महज अपनी ब्यूटी के लिए जानी जाती हैं, अपनी एक्टिंग से किरदार में घुसकर उसे जीने के लिए नहीं. सरबजीत सिंह की बहन दलबीर कौर के किरदार में उन्हें अपनी सीमित अभिनय क्षमता की जंजीर को तोड़ने का एक दुर्लभ मौका मिला था. मगर, अफसोस ऐसा हो ना सके. ना ऐश्वर्या के बोलने के लहजे में निरंतरता है और ना ही ढलती उम्र के साथ बदलते मेक-अप में. अपने अभिनय के जरिए दलबीर कौर के किरदार के साथ-साथ ‘सरबजीत’ को एक अलग मुकाम पर ले जाने में भी ऐश्वर्या नाकाम साबित होती हैं. दलबीर के रोल में ऐश्वर्या भले ही निराश करती हों, मगर रणदीप हूडा ने सरबजीत सिंह के कैरेक्टर को जीने में जैसे जान लगा दी है, खासकर पाकिस्तान की जेल में सड़ रहे एक कैदी के रूप में. पहली बार हाथों से बेड़ी खोल जाने के बाद अपने दोनों हाथों को थोड़ा ऊपर उठाकर चेहरे पर हल्की मुस्कान लाने का छोटा सा सीन हो, अपने वतन से एक चिट्ठी आने और काल-कोठरी में रोशनी के हिसाब से एडजस्ट कर उन खतों में लिखे लफ्जों को पढ़ने की मशक्कत हो या फिर अपने टूटे चश्मे को धागे से जोड़ने का मामूली-सा सीन हो, रणदीप अपनी एक्टिंग की काबिलियत से बेहद प्रभावित करते हैं. गुजरते वक्त और बढ़ती यातनाओं के साथ बदलता सरबजीत का मेकअप और उसके उठने-बैठने-लेटने-चलने-बोलने का अंदाज देख लगता है मानो सरबजीत सिंह की तरह ही रणदीप ने भी 21 साल तक जेल की यातनाएं सहीं हैं. ‘सरबजीत’ बने रणदीप अपनी एक्टिंग से रुला देते हैं और उसका गम जैसे हमें अपना असली गम लगने लगता है. बतौर निर्देशक ओमंग कुमार की पहली फिल्म ‘मैरी कॉम’ भी एक बायोपिक थी. दूसरी फिल्म भी सरबजीत सिंह की जिंदगी पर आधारित है. शायद ही किसी डायरेक्टर का नाम जेहन में आए, जिसने एक के बाद एक दो बायोपिक का निर्देशन किया हो. एक आर्ट डायरेक्टर से निर्देशक का चोला ओढ़ने वाले ओमंग की ये ताजा कोशिश भले ही सामान्य और उतनी असरदार ना लगे, मगर वो बॉलीवुड में भेड़चाल वाली मानसिकता रखनेवाले कई निर्देशकों से ज्यादा काबिलियत रखते हैं, इसमें कोई दो राय नहीं है. sarabjit असली सरबजीत सिंह की ये ‘फिल्मी’ दास्तां देखनी चाहिए या या फिर नहीं ? बिल्कुल, देखनी चाहिए. कहानी कहने के जज्बाती अंदाज के लिए ना सही, मगर ‘सरबजीत’ की दर्दनाक कहानी के लिए, सरबजीत सिंह के किरदार को जीवित करनेवाले रणदीप हूडा के लिए. समीक्षक से ट्विटर पर जुड़ने के लिए नीचे क्लिक करें- https://twitter.com/ravijain0701
Published at : 21 May 2016 02:47 PM (IST) Tags: Sarabjit biopic Randeep Hooda Aishwarya Rai Bachchan Movie Review
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