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BLOG: क्या एंटी इनकम्बेंसी शब्द चुनावी पंडितों के शब्दकोश से खारिज हो गया है?

आम तौर पर होता यह है कि भले ही सत्तारूढ़ दल या गठबंधन ने रामराज्य ला दिया हो, इसके बावजूद जनता के कुछ तबके ऐसे होते हैं, जिनकी आशाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति में कुछ कोर-कसर रह ही जाती है, और वे वर्तमान सरकार से असंतुष्ट बने रहते हैं.

आगामी लोकसभा के पहले चरण का चुनाव-प्रचार चरम पर है, लेकिन आश्चर्य की बात है कि कोई एंटी इनकम्बेंसी यानी जनविरोधी लहर या भावना का जिक्र तक नहीं कर रहा है. सत्ता में बैठे लोगों से इस चर्चा की उम्मीद नहीं की जाती, मगर जब विपक्षी दल भी इस भावना के बारे में मुंह सिए बैठे हों, तो किससे उम्मीद की जाए? चुनावी पंडित, विशेषज्ञ और विश्लेषकों के लिए एंटीइनकम्बेंसी का पारा मापना पहला और सबसे जरूरी काम हुआ करता था, मगर इस बार वे भी इस कीवर्ड की तरफ से आंखें मूंदे बैठे हैं!

आम तौर पर होता यह है कि भले ही सत्तारूढ़ दल या गठबंधन ने रामराज्य ला दिया हो, इसके बावजूद जनता के कुछ तबके ऐसे होते हैं, जिनकी आशाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति में कुछ कोर-कसर रह ही जाती है, और वे वर्तमान सरकार से असंतुष्ट बने रहते हैं. कुछ लोग इस बात से भी खफा रहते हैं कि चुनाव के वक्त उनसे किए गए वादे अधूरे ही रह गए हैं और कुछ लोग इसलिए नाराज हो जाते हैं कि जिन मुद्दों को लेकर उन्होंने वोट दिया था, उनका कोई समाधान नहीं निकला. तो क्या यह मान लिया जाए कि 2014 के आम चुनाव से पहले नरेंद्र मोदी, बीजेपी और एनडीए गठबंधन ने जनता से किए गए सारे वादे पूरे कर दिए हैं, इसलिए जनता के बीच एंटीइनकम्बेंसी नाम की कोई चीज ही नहीं है!

जमीनी हकीकत इससे उलट है. इसका जायजा लेने के लिए बीजेपी के घोषणापत्र (2014) पर एक नजर डाल लेना काफी होगा, जिसकी मुख्य घोषणाएं और प्रमुख बिंदु इस प्रकार थे:- कालाधन और भ्रष्टाचार पर लगाम लगाना, न्यूनतम सरकार अधिकतम शासन, सबका साथ सबका विकास, मूल्य वृद्धि रोकने का प्रयास, केंद्र और राज्यम सरकारों के मध्य संबंधों का विकास, शासकीय तंत्र का विकेंद्रीकरण, ई-गर्वनेंस, न्याय-व्यवस्था का सशक्तीकरण, अमीर-गरीब के मध्य अंतर को कम करना, शिक्षा के स्तर का विकास, कौशल विकास, कर नीति में बदलाव, जल संसाधनों का संवर्धन, बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराना, किसानों की आय दुगुनी करना, सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण एवं संवर्द्धन करना आदि.

बीजेपी ने घोषणा की थी कि वह राम मंदिर निर्माण और राम सेतु के सरंक्षण के साथ-साथ गंगा की सफाई, ऐतिहासिक इमारतों व प्राचीन भाषाओं के संरक्षण के लिए भी कार्य करेगी. बीजेपी ने यह भी रेखांकित किया था कि उसकी सरकार बनने पर भ्रष्टाचार की गुंजाइश न्यूनतम करके ऐसी स्थिति पैदा की जाएगी कि कालाधन पैदा ही न होने पाए. इसके तहत यह भरोसा दिलाया गया था कि विदेशी बैंकों और समुद्र पार के खातों में जमा कालेधन का पता लगाने और उसे वापस लाने के लिए हरसंभव प्रयास किया जाएगा. जनता से पक्का वादा यह भी था कि कालेधन को वापस भारत लाने के कार्य को प्राथमिकता के आधार पर किया जाएगा. बीजेपी ने सत्ता में आने पर देश में तेज गति की बुलेट ट्रेनें शुरू करने, 100 नए आधुनिक शहरों (स्मार्ट सिटीज) की स्थापना तथा माल परिवहन और औद्योगिक परिवहन गलियारों का निर्माण कार्य तेज करने का वादा किया था. यहां हम कश्मीरी पंडितों की समस्या, धारा 370 और एक के बदले दस पाकिस्तानी सैनिकों के सिर लाने का जिक्र भी नहीं कर रहे हैं.

एनडीए के शासनकाल में बीते 5 वर्षों के दौरान उपर्युक्त वादों का क्या हश्र हुआ है, यह जनता के सामने है. लेकिन एंटीइनकम्बेंसी नामक चिड़िया किसी को दिखाई नहीं दे रही है! स्वयं मोदी जी अपनी रैलियों में सड़क, बिजली, पानी, स्वास्थ्य, शिक्षा, कौशल-विकास, मेक इन इंडिया, स्टार्ट अप इंडिया, उज्जवला योजना, बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ अभियान, स्वच्छता मिशन, अन्य पीएम योजनाओं आदि का नाम तक नहीं लेते. नोटबंदी और जीएसटी अगर इतने ही कामयाब आर्थिक सुधार थे, तो बीजेपी के नेता अपने भाषणों में इनका जिक्र करके वोट मांगने की हिम्मत क्यों नहीं जुटा पा रहे हैं? वर्षों से बेरोजगारी के आंकड़े दबा कर बैठे रहने के बाद जब हकीकत सामने आई, तो 2 करोड़ युवाओं को प्रतिवर्ष नौकरी देना तो दूर, उल्टे करोड़ों लोगों का रोजगार छिन जाने का तथ्य सामने आया. आखिर रोजगार छिन जाने से किस देश के लोग खुश होते हैं?

अगर एंटीइनकम्बेंसी नहीं होती, तो बीजेपी पिछले पांच सालों में कई लोकसभा और विधानसभा उपचुनाव न हार जाती. अगर हिंदी राज्यों की जनता पीएम मोदी और बीजेपी की राज्य सरकारों से इतनी ही खुश थी, तो राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव में उसने बीजेपी को धोबी पछाड़ क्यों दे दिया? सारे धतकरम करने के बावजूद पार्टी कर्नाटक में हार गई. गुजरात किसी तरह बचाया गया और गोवा में तकनीकी नुक्तों से बीजेपी की सरकार बनी. नागरिकता संशोधन विधेयक लाने के सवाल पर उत्तर-पूर्व में लोग बीजेपी से खार खाए बैठे हैं. पार्टी अगर इतनी ही निश्चिंत होती, तो बिहार में जेडीयू और महाराष्ट्र में शिवसेना के सामने अपनी जीती हुई सीटें त्याग कर समर्पण वाला गठबंधन करने को मजबूर न होती. केरल समेत दक्षिण के जिन राज्यों में बीजेपी का गठबंधन है, वहां पहले से ही एंटीइनकम्बेंसी अपना असर दिखा रही है. उड़ीसा में बीजद और पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के सामने बीजेपी का टिकना कठिन है. पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह फिलहाल किसी भी नेता से ज्यादा लोकप्रिय हैं.

जनता तो जनता, जिस तरीके से सरकारी कारखानों, संस्थाओं और विभागों का निजीकरण किया जा रहा है, उससे सरकारी कर्मचारी भी खासे नाराज चल रहे हैं. जांच एजेंसियों का दुरुपयोग और सेना के कंधे पर आत्मप्रचार की बंदूक चलाना सैन्य अधिकारियों को भी रास नहीं आ रहा है. जो लोग अब भी मोदी जी की आंधी की बात कर रहे हैं, उन्हें याद कर लेना चाहिए कि दिल्ली, बिहार, पंजाब, कर्नाटक, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभा तथा कई उपचुनावों में मिली हार के पहले भी वे मोदी की आंधी का जिक्र कर रहे थे. जबकि यह जनता का असंतोष ही था, जिसने आंधी की हवा निकाल दी थी. अब मोदी जी एयर स्ट्राइक और स्पेस स्ट्राइक के सहारे जनता की नाराजगी को अलग दिशा में ले जाने का प्रयास कर रहे हैं.

स्पष्ट है कि जो एंटीइनकम्बेंसी चौतरफा बिखरी हुई है, उसे नजरअंदाज करने से संकट नहीं टलने वाला है. शुतुरमुर्ग के रेत में सिर गड़ा लेने से तूफान की तबाही नहीं टला करती!

-विजयशंकर चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार

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(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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