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इजरायल-हमास युद्धविरामः जंग रोकने में हो गयी बहुत देर, मानवता का हुआ बड़ा नुकसान

पंद्रह महीने तक हज़ारों लाशें बिछाने और ख़ौफ़नाक बर्बादी की दास्तान तहरीर करने के बाद ग़ज़ा में रविवार 19 जून के सवेरे नौ बजे से फ़ायरबंदी (Ceasefire) या अपनी भाषा में कहें तो युद्ध विराम अमल में आ गया और फ़लस्तीनी इलाक़ों में ख़ुशीयों का जश्न आम हो गया. क्या ये कोई जश्न का मौक़ा है? नहीं ये दरअसल जश्न नहीं बल्कि तबाहियों और बर्बादी का मातम है.अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की ताजपोशी से ठीक पहले हुई यह फ़ायर बंदी बहुत कुछ कहती है. इसमें सबसे अहम बात ये है कि जब हम चाहते हैं तो तोपों के दहाने खुल जाते हैं, बमों की बारिश आम हो जाती है और आग और ख़ून के दरिया बह निकलते हैं. यही नहीं जब हम चाहते हैं तो अमन की बाँसुरी बजने लगती है, शांति के गीत गए जाते हैं, सुकून की लहरें उठने लगती हैं और दुनिया शांति के झूले में पींगे बढ़ाने लगती है. इस सब में जो सबसे ज़्यादा सोचने वाली, चिंतन और चिंता करने वाली बात है वो ये है कि हमारी इन दोनों चाहतों के बीच ख़ून का दरिया बहता है, लाशों के टीले उभरते हैं और तबाही और बर्बादी के कभी न मिटने वाले पहाड़ बुलंद होते चले जाते हैं.

सब कुछ होगा बातचीत से ही हल

जब सब कुछ ही बातचीत की मेज़ पर ही हल होना होता है तो फिर ये युद्ध क्यों? हम देर क्यों कर देते हैं. लाशों पर लाशें गिरती रहती हैं और हम गिनतियां गिनते रहते हैं. एक लाश, दो लाश, सौ लाश, हज़ार लाश, दस हज़ार लाश, पच्चास हज़ार लाश. क्या कम से कम इतनी ही लाशें ज़रूरी होती हैं फ़ायर बंदी के लिए?

इजरायल पर जो दहशत का हमला हुआ था उसकी दुनिया भर में ज़बरदस्त लानत और निंदा हुई थी. दुनिया भर में लोग ग़ुस्से से भर उठे थे. किस तरह तमाम सुरक्षा व्यवस्थाओं को नाकाम करते हुए इजरायल में आतंक के दिल दहला देने वाले हमले में सैंकड़ों बेगुनाह लोगों की हत्या की गई बल्कि महिलाओं समेत सैंकड़ों का अपहरण भी कर लिया गया. ऐसा हमला जो केवल जेम्स बॉन्ड जैसी फ़िल्मों में तो देखा गया था लेकिन हक़ीक़त में उस समय ही देखा. इस हमले को वहां की सरकारी इंटेलिजेंस एजेंसियों की नाकामी से भी जोड़ के देखा गया, लेकिन इस के बावजूद लोग चाहते थे कि आतंकियों को उनके किए की सज़ा हर हाल में मिले. इसराईल ने शुरू में जो कुछ भी आतंकियों को जवाब देने के लिए किया इस पर पूरी दुनिया ने उसका साथ दिया. जैसे-जैसे उस ने जंग का दायरा बढ़ाया,  उसके कट्टर हिमायती भी कन्नी काटने लगे क्योंकि अब मामला हाथ से निकलने लगा था. अब आप भी बेकसूरों की लाशें बिछाने लगे थे. 

इसका असर ये हुआ कि अमेरिका समेत पूरी दुनिया में इस को लेकर आंदोलन होने लगे और माहौल जंग के विरुद्ध तैयार होने लगा. एक वक़्त तो ऐसा लगने लगा कि अब इस आग में ईरान के भी कूद जाने से कहीं पूरे क्षेत्र में ही युद्ध न शुरू हो जाये. कुछ लोग इसे तीसरे विश्व युद्ध से जोड़ने लगे जिसकी शुरुआत उनके मुताबिक़ रूस यूक्रेन युद्ध से हो चुकी थी. हालांकि, ईरान ने भी जितना ज़रूरी हुआ उतना अपने होने का एहसास करवाया और दूर से ही अपने लिए तैयार की गई संस्थाओं के ज़रिए जंग में अपनी हाज़िरी लगाने का काम किया और सीधे तौर पर इस युद्ध में नहीं कूदा हालांकि उस को इस जंग में अपनों का काफ़ी नुक़सान उठाना पड़ा था. कई मौके़ आए भी जहां जंग में कूद जाना उसकी मजबूरी बन सकता था लेकिन ईरान हर तरह के अंदरूनी और बाहरी दबाव के बावजूद युद्ध में पूरी तरह नहीं कूदा और शायद ये ठीक ही हुआ वर्ना लाशों की गिनतियां और बढ़ जातीं और तबाही के पहाड़ और बुलंद हुए जाते.

समय अभी युद्ध का है ही नहीं

फिर भी युद्ध नहीं रुका. युद्ध चलता रहा. देर होती रही, दोनों तरफ़ लाशें गिरती रहें. कहीं कम कहीं ज़्यादा. और फिर वही हुआ जो बहुत पहले ही हो जाना चाहिए था. बातचीत की मेज़ पर आकर फ़ायरबंदी या युद्ध विराम का ऐलान. दुनिया की कोई भी समस्या हो उस का हल युद्ध है ही नहीं. बातचीत की मेज़ ही है. सच कहें बातचीत की मेज़ पर आने से पहले के इंटरवैल का नाम ही युद्ध है.

इसराईल फ़लस्तीन जंग में किसी की भी जीत नहीं हुई है अलबत्ता मौत और तबाही की फ़तह का परचम लहराता हुआ साफ़ दिखाई दे रहा है. दुनिया में दिमाग़ों की कोई कमी नहीं है. एक से बढ़कर एक दिमाग़. पश्चिमी देशों अरब एशिया से लेकर यूरोप तक दिमाग़ ही दिमाग़. इन सब दिमाग़ों पर संयुक्त राष्ट्र जैसा दुनिया भर के दिमाग़ों का केंद्र बिंदु. यहां हैं दुनिया भर के सब से विशेष बेशुमार दिमाग़. इस के बाद भी किसी दिमाग़ को ये नहीं मालूम कि एक मानव जीवन कितना मूल्यवान है. जंग मसले का हल नहीं ख़ुद एक मसला है. युद्ध समस्या का निवारण नहीं स्वयं समस्या है. अब तो युद्ध तब तक लंबे खिंचते हैं जब तक कि तमाम अतिरिक्त हथियार तबाह न कर दिए जाएं ताकि नए हथियार ख़रीदने के लिए माहौल बनाया जा सके. हथियारों के सौदागरों की भूख ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेती. उसे लाशें चाहिऐं, हर हाल में लाशें, आग और ख़ून, तबाही और बर्बादी. उनका कहना है कि अमन के लिए जंग ज़रूरी है.

बंद हो रूस-यूक्रेन की जंग

यूक्रेन जंग को कितना ज़माना बीत गया? जारी है. एक तरफ़ दुनिया की सबसे बड़ी ताक़त रूस है तो दूसरी ओर रूस के ही शरीर से निकला छोटा सा पिद्दू सा इत्तू सा यूक्रेन. लेकिन युद्ध जारी है, वर्षों से. न रूस को यूक्रेन को तबाह करने की जल्दी है और न ही यूक्रेन को पुदीने के पेड़ पर चिढ़ाने वाले मुल्कों को कोई जल्दी है रूस को बुरी तरह से ख़त्म करने की. लेकिन जंग जारी रहना चाहिए. भले ही दोनों तरफ़ की माताओं की गोद सूनी होती रहे, सुहागिनों का सुहाग उजड़ता रहे, बुज़ुर्गों की बुढ़ापे की लाठी के हाथ पांव कट जाएं. युद्ध नहीं रुकना चाहिए. आपको मालूम है इस युद्ध का अंत क्या होगा? कुछ नहीं. आख़िर में युद्ध का हल मोर्चे पर नहीं बल्कि बातचीत की मेज़ पर ही निकलेगा. तब हम ख़ुशी के ढोल पीटेंगे. शांति का जश्न मनाएंगे. आसमान को आतिशबाज़ी से भर देंगे. यह भी मुमकिन है कि युद्ध रुकवाने के लिए किसी को शांति का नोबल पुरस्कार भी प्रस्तुत कर दें. उस वक़्त कोई नहीं कहेगा कि हमसे देर हो गई. हमने देर कर दी. हम युद्ध बहुत पहले भी रोक सकते थे. या हम युद्ध शुरू होने ही नहीं देते क्योंकि हम दुनिया के बड़े दिमाग़ हैं. हमको दुनिया का सफ़ल नेतृत्व करने के लिए चुना गया है.

ये हमारा कर्तव्य है कि हम दुनिया को अमन दें. सलामती दें. शांति दें. दुनिया के हर शख़्स को अमन और शांति से जीने का अधिकार है. सभी देशों के नेतृत्व का ये फ़र्ज़ है कि वो अपने लोगों को अमन और शांति की दुनिया दें. उन्हें युद्ध से बचाएं. आने वाली नसलों को सुकून और शांति का जीवन दें. दुनिया भर के देशों के नेता, पूरी दुनिया की ज़िम्मेदारी लेने वाले संयुक्ति राष्ट्र परिषद के द्वारा दुनिया भर में अमन और शांति के रखवाले बनते हैं लेकिन क्या वो शांति दे पाते हैं? अगर देखें तो इसराईल फ़लस्तीन युद्ध के दौरान संयुक्त राष्ट्र तो कहीं नज़र ही नहीं आया. कहीं दिखाई भी दिया तो उसकी सुनी किस ने. युद्ध में ख़ुद उस की अपनी संस्थाओं की सुरक्षा तक के लाले पड़ गए थे. ये फ़ायरबंदी समझौता भी अमरीका, मिस्र और क़तर की कई मास की लगातार कोशिशों से सफ़ल हो पाया है. इस में भी संयुक्त राष्ट्र की मौजूदगी कहीं नज़र आए तो बता दीजीएगा. वैसे भी ये तो साफ़ झलकता है कि अगर डोनल्ड ट्रम्प की अमरीका में राष्ट्रपति के रूप में ताजपोशी अभी न हो रही होती तो शायद ये जंग और लंबी खींची जा सकती थी.

जान-बूझकर दुनिया करती है देर

देर हो जाती है या हम जान बूझ कर देर कर देते हैं. जब समस्या को बातचीत की मेज़ पर ही हल होना है तो फिर जंग का बिगुल क्यों फूँका जाये? क्यों ये बेहतरीन दिमाग़ धोका खा जाते हैं और जंग में कूद जाते हैं. युद्ध तो किसी भी देश के लिए घाटे का सौदा होना चाहीए. लेकिन मुल्कों मुल्कों देखिए तो लगता है कि युद्ध में बहुत शुद्ध लाभ है. तभी तो हज़ारों करोड़ के बम ऊपर से बरसाते हुए गुज़र जाते हैं. ये देखे बिना कहाँ गिरा? अस्पताल है या स्कूल? खेत या खलियान? किसी माँ की गोद को सूना कर रहा है या किसी सुहागन की मांग के सितारे नोच रहा है या किसी के हाथों की बैसाखी को जला कर राख कर रहा है.

देर क्यों हो जाती है? एक अंदाज़े के मुताबिक़ युद्ध में पच्चास हज़ार के क़रीब फ़लस्तीनी मरे गए हुए हैं. हज़ारों अभी इमारतों के मलबे में दबे हुए होंगे. यक़ीनी तौर पर इसराईल में भी कम तबाही नहीं हुई होगी. सवाल ये है कि कितनी लाशें देखने के बाद ही बातचीत ज़रूरी हो पाती है? क्या इस का भी कोई अपना फार्मूला होता है कि इतनी लाशें इतनी माताओं की गोद उजाड़ने के बाद ही बातचीत की मेज़ पर जाना होता है?इस सब के बावजूद सवाल यही फिर भी बाक़ी रह जाता है कि क्या ये फ़ायरबंदी या युद्धविराम या सीज़फायर देर तक चलेगा? या फिर ये बदनसीब लोग फिर दरबदर होने पर मजबूर कर दिए जाऐंगे. क्या अब भी वक़्त नहीं है कि यूक्रेन में भी यही फार्मूला अपनाते हुए बातचीत की मेज़ पर ही युद्ध कर लिया जाए. वहां तो वैसे भी सिर्फ देर ही नहीं हुई है बल्कि बहुत देर हो चुकी है. वहां तो दोनों ओर की लाशों की तादाद लाखों में है. वहां भी तबाही के मंज़र भयानक रूप ले चुके हैं. कहाँ हैं दुनिया के दिमाग़? क्यों नहीं आते बातचीत की मेज़ पर? क्यों नहीं करते अमन और शांति की बात? क्यों नहीं जंग के हौसलों को पस्त करते? क्यों नहीं अमन और शांति की जीत का पर्चम लहराते? क्यों देर कर रहे हैं? क्यों देर हो जाती है?

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.]

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