कॉरपोरेट जगत का मकसद सिर्फ मुनाफा, योजना आयोग में फूंकें जान, भारत को नई अर्थव्यवस्था की जरुरत

भारत आने वाले दस दिनों में केंद्रीय बजट पेश करने वाला है और हर बार की तरह. लोग इस बजट से चमत्कार की उम्मीद कर रहे हैं. ये उम्मीद कोई नई बात नहीं है, यह पिछले कई वर्षों से बनी हुई है. लेकिन इन उम्मीदों को पूरा करने में नीतियां और योजनाएं अब तक असफल रही हैं. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण की आर्थिक नीतियां, जिन्हें मनमोहनॉमिक्स के रूप में देखा जा सकता है, कर और मुद्रास्फीति से गति थम सा गया हैं. इसका सीधा असर विकास दर पर पड़ता है, जो बाधित होती जा रही है.
भारत को अपने इतिहास से सीखने की जरूरत है, खासकर स्वतंत्रता के बाद के पहले दशक से, जब देश ने आर्थिक नीतियों में एक दृढ़ दृष्टिकोण अपनाया था. ये वो समय था जब पंचवर्षीय योजनाओं का सूत्रपात हुआ, बिजली परियोजनाएं स्थापित की गईं, नई सड़कों और उद्योगों का निर्माण हुआ. भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र और अन्य संस्थानों की स्थापना हुई. विशाल सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयां (पीएसयू) भी उभरीं. ये तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में एक दूरदर्शी दृष्टिकोण का हिस्सा था. इसके साथ ही, श्रम कानूनों में सुधार किए गए, जिससे श्रमिकों को अधिकार और सुरक्षा प्रदान की गई.
हालांकि, समय के साथ इन नीतियों को कमजोर कर दिया गया. अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की रिपोर्ट बताती है कि स्वतंत्रता के शुरुआती दशक में अपनाई गई नीतियों ने देश की आय में 18% की वृद्धि की, जबकि उस समय 11-12% वृद्धि का लक्ष्य रखा गया था. प्रथम पंचवर्षीय योजना के दौरान ये उम्मीद की गई थी कि राष्ट्रीय आय में 11-12% की वृद्धि होगी, लेकिन वास्तविक वृद्धि 18% से अधिक थी. इस सफलता ने न केवल आत्मविश्वास को बढ़ाया, बल्कि आने वाली योजनाओं के लिए और भी महत्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित किए गए.

1991 के आर्थिक उदारीकरण और लाइसेंस-परमिट राज की समाप्ति के बाद, यह धारणा बनी कि भारत तेज़ी से प्रगति करेगा. हालांकि, वास्तविकता में ऐसा नहीं हुआ. निजी क्षेत्र और कॉरपोरेट जगत ने आम जनता के हितों की अनदेखी करते हुए अपने मुनाफे पर ध्यान केंद्रित किया. निवेश की कमी और बैंकों में गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (एनपीए) के बढ़ते बोझ ने आर्थिक प्रणाली को कमजोर किया.
वित्तीय प्रबंधन में सुधार की आवश्यकता स्पष्ट है. कॉरपोरेट जगत ने अपने मुनाफे को बढ़ाने पर जोर दिया, लेकिन उन्होंने पर्याप्त निवेश नहीं किया. बैंकिंग प्रणाली से ऋण लेने के बाद भी, ऋण वापस नहीं किया गया. कई व्यवसायी देश छोड़कर भाग गए, जबकि अन्य ने अपने नुकसान को राइट-ऑफ करा लिया. इस स्थिति ने रोजगार के अवसरों को भी बुरी तरह प्रभावित किया. सार्वजनिक संस्थानों को बंद कर दिया गया और इससे निजी क्षेत्र को बिना एकाधिकार बनाने में मदद मिली.
सरकार की नीतियां और बजट इस स्थिति से निपटने में असमर्थ दिखते हैं. मनरेगा जैसी योजनाओं पर भारी खर्च किया जा रहा है, लेकिन यह खर्च निवेश और प्रगति को धीमा कर देता है. किसानों को लाभकारी मूल्य और बाजार की स्थिरता के लिए संघर्ष करना पड़ता है, जबकि उर्वरक सब्सिडी जैसे कदम सरकार के लिए भारी वित्तीय बोझ बन रहे हैं.

विदेशी निवेश के मोर्चे पर भी भारत को झटके लगे हैं. 2023 में मजबूत प्रदर्शन के बाद, 2024 में विदेशी पोर्टफोलियो निवेश (एफपीआई) में भारी गिरावट आई है. अक्टूबर 2024 में एफपीआई ने भारतीय इक्विटी से 22,194 करोड़ रुपये की निकासी की. ये आर्थिक सुस्ती का स्पष्ट संकेत है. देश की वृद्धि दर 5.4% तक गिर गई है और 2024-25 के लिए इसे और भी कम कर 6.4% तक आंका गया है.
शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे बुनियादी क्षेत्रों में भी स्थिति चिंताजनक है. राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) को बिना व्यापक चर्चा के लागू किया गया. इस नीति ने शिक्षा की अवधि को बढ़ा दिया है, जिससे छात्रों को नौकरी के बाजार में आने में और भी अधिक समय लग रहा है. चार वर्षीय बीए/बीएससी कोर्स अभी तक उचित पाठ्यक्रम तक नहीं पहुंच सका है.
स्वास्थ्य क्षेत्र में भी सरकारी खर्च में गिरावट आई है. राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (एनएचएम) का बजट घटकर 0.74% रह गया है, जिससे महिलाओं और बच्चों को पर्याप्त दवाएं और सुविधाएं नहीं मिल पा रही हैं. शिक्षा और स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च बढ़ाने की आवश्यकता है, लेकिन इसके बजाय, नीतियां आम आदमी पर बोझ डाल रही हैं.

भारत को आर्थिक नीति पर पुनर्विचार करना चाहिए. भारतीय जनता पार्टी के पास एक समय अंत्योदय और स्वदेशी जैसे सिद्धांत थे, जिन्हें पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है. “मेक इन इंडिया” अभियान को वास्तविक रूप से “मेड इन इंडिया” के रूप में लागू करना होगा. यह न केवल रोजगार सृजन में मदद करेगा, बल्कि आर्थिक आत्मनिर्भरता की दिशा में भी एक बड़ा कदम होगा.
देश को अपनी आर्थिक नीतियों और योजनाओं को फिर से मजबूत करने की जरूरत है. भारत को मनमोहनॉमिक्स को दरकिनार करते हुए अर्थव्यवस्था की नइ शुरुआत करनी है. योजन आयोग को फिर से स्थापित करना चाहिए. यह एक चुनौतीपूर्ण कार्य है, लेकिन अगर सही दिशा में प्रयास किए जाएं, तो भारत फिर वैश्विक आर्थिक नेतृत्व दे सकता है. भारत को अपनी स्वतंत्रता के शुरुआती दिनों के विजन से प्रेरणा लेकर एक नई अर्थव्यवस्था का निर्माण करना होगा, जो हर वर्ग और समुदाय को साथ लेकर चले। अगर सही दिशा में काम किया जाए, तो कोई भी भारत को दुनिया की सबसे जीवंत अर्थव्यवस्था के रूप में उभरने से नहीं रोक सकता.
[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.]


























