स्वामी सहजानन्द सरस्वती: धर्म का दंड धरने करने वाला एक क्रांतिकरी सन्यासी

सभ्यता के उदय काल से ही सामाजिक विकास की प्रक्रिया में धर्म, दर्शन और परंपरा के माध्यम से ऋषि-मुनियों ने भारत को सींचा है. कालखंड चाहे कोई भी हो भारत के पास सेवा, वैराग्य और बलिदान को आत्मसात करने वाले ऋषियों, मुनियों व सन्यासियों की गौरवपूर्ण श्रृंखला रही है. आधुनिक भारत में इन्हीं तीन विशिष्टतायों के साथ स्वामी सहजानन्द सरस्वती सन्यासियों के आदर्श प्रतिनिधि हैं. महान विभूति दंडी स्वामी सहजानन्द सरस्वती की गिनती उन मौलिक भारतीय विचारकों में है, जिन्होंने समान्य जन का जीवन जीया. जनसाधारण की समस्यायों को करीब से जाना और देश की आत्मा किसानों को पहली बार सबल नेतृत्व प्रदान किया.
उनके व्यक्तिव में साहित्यकार, धर्माचार्य, लोक चिंतक और जननायकों का अनोखा समिश्रण था. वे सूक्ष्मदर्शी विद्वान थे, जिनकी प्रतिभा विलक्षण थी. इसी विलक्षणता के मद्देनजर प्रोफेसर राजनाथ पाण्डेय ने स्वामी सहजानन्द सरस्वती को अभिनव युग का प्रचंड सूर्य कहा है. स्वामी सहजानन्द की साहित्यक कृतियों में दोपहर के सूर्य की प्रचंडता जाहिर भी होता है. उनकी दर्जनों प्रकाशित पुस्तकों एवं लघु निबन्धों में एक अन्वेषी पाठक को न सिर्फ सामाजिक क्रांति के पूर्ववर्त्ती आधारभूत विचारों के गहन दार्शिनिक चिंतन की छाप मिलती है, बल्कि उन विचारों के वैज्ञानिक विश्लेषण का ठोस प्रमाण भी मिलता है.
स्वामी सहजानन्द सरस्वती के साहित्यक कृति के विभिन्न भाग हैं. धर्म, परंपरा जाति और कर्म की दृष्टि से उनके द्वारा रचित गीता ह्रदय और झूठ, भय मिथ्या अभिमान अत्यन्त ही शोधपरक रचना है. चौदह सौ पृष्ठों का कर्मकलाप कर्मकांड संबंधी रचना है. इस विषय की सरल सुबोध हिन्दी में लिखी गई ऐसी कोई दूसरी पुस्तक नहीं है. एक हजार पृष्ठों की उनकी रचना गीता हृदय इतिहास, पुराण, धर्मशास्त्र, दर्शन और ज्योतिष जैसे विषयों का दर्पण है. स्वामी सहजानन्द की महत्वपूर्ण रचनाओं के एक भाग में किसान-मजदूर एंव जमींदारी की समस्यायों से संबंधित है. जिसमें किसान कैसे लड़ते हैं ?, किसान क्या करें ?
महारुद्र का महातांडव, किसान आंदोलन क्यों ?, किसान के दोस्त और दुश्मन महत्वपूर्ण है. इन रचनायों में देश के किसानों की समस्या और निदान को उन्होंने बड़ी बारिकी से उकेरा है. धर्म और किसानों की समस्या को उकेरने के साथ ही राजनीति एंव राष्ट्रीयता से संबंधित उनकी चार साहित्यक कृति कांति और सुयुक्त मोर्चा, जंग और राष्ट्रीय लडाई, अब क्या हो और क्षय (2) उस समय के समाज की समस्या और निदान से संबंधित है. वही मेरा जीवन संघर्ष उनकी अनमोल साहित्यक कृति हैजिसमें उनकी आत्म कथा है. यह ग्रंथ अपने समय की सामाजिक और राजनीतिक गतिविधयों का दर्पण है.
स्वामी सहजानन्द सरस्वती के बारे में कुछ विद्वानों का मत है कि ये विवेकानन्द की अगली कड़ी हैं. अगर गंभीरता से मनन हो तो यह बात एकबारगी सच होगी और कई मायनों में विवेकानन्द से स्वामी सहजानन्द आगे की सोच प्रतीत होंगे. एक सन्यासी का जीवन व्यतीत करते हुए भी सहजानन्द धार्मिक रुढ़िवादिता के शिकार नहीं रहे. उन्होंने रुढ़ीवादी धर्मावलम्बियों को आदिकाल से वैज्ञानिक प्रगति को धर्म-विरोधी मानकर परित्याग करने की जबरदस्त वकालत की. यह उनके प्रयासों का ही नतीजा था कि भारत में हिन्दु धर्म के शास्त्रों को पढने का हक सबको प्राप्त हुआ.
स्वामी सहजानन्द ने सन्यास धारण करने और शास्त्रों के गहन मनन और अध्ययन के बाद पहलीबार धार्मिक व्यवस्था का ही विरोध किया. तब वेद हो या कोई अन्य ग्रंथ सब-के-सब सुस्कृत भाषा में ही उपलब्ध थे और समाज का बहुत बड़ा तबका इस भाषा से ही वंचित था. ऐसे में इस भाषा में लिखे ग्रंथों को समझने का सवाल ही नहीं पैदा होता था. उन्होंने संस्कृत भाषा पर किसी एक जाति विशेष के अधिकार को चुनौती देकर एक समाजिक क्रांति का सूत्रपात किया. जबकि इसका यह मतलब कतई नहीं है कि सहजानन्द परम्परागत शिक्षा के विरोधी थे, बल्कि वे उसमें भी विज्ञान एंव शोध संभावनायों को उचित समोवेश कर उसे ज्यादा व्यवहारिक बनाना चाहते थे. यही कारण है उन्होंने जबबिहटा के सिताराम आश्रम में छात्रों को शिक्षा देना शुरु किया तो उसका माध्यम संस्कृत ही था.
असल में स्वामी सहजानन्द वह सरल और सहज सन्यासी थे जिन तक आम जनों की भी पहुंच थी और वे भी आमजनों के बीच रह कर जननेता की भांति कार्य करते थे. आमजनों की बात करते थे और किसान समस्या को सशक्त और सक्रिय ढंग से समाज के सामने रखकर जनता की वाणी बनने का सार्थक प्रयास किया. उन्होंने धर्म का दंड धारण करने के बाद भी धार्मिक मानदंडों से उपर रोटी को रखा. उनके सन्यास जीवन को समझने के लिए अपने बारे में किया उनका गया वह टिप्पणी महत्वपूर्ण है, जिसमें उन्होने कहा था कि "मुनी लोग तो स्वामी बनकर अपनी ही मुक्ति के लिए एकांतवास करते हैं. लेकिन में ऐसा हर्गिज नहीं कर सकता. सभी दुखियों को छोड़ मुझे सिर्फ अपनी मुक्ति नहीं चाहिए. मैं तो इन्हीं के साथ रहूंगा और मर जाउंगा."
दरअसल, सहजानन्द का जीवन कांतिकारी परिवर्तन का सर्वोत्तत उदाहरण है. उत्तर प्रदेश के गाजीपुर में जन्म लेने के बाद बिहार को कार्यक्षेत्र बनाकर पूर देश को साधने वाले इस सन्यासी ने पहली बार किसानों को राष्ट्रीय फलक पर संगठित करने का कार्य किया. राष्ट्रीय स्तर पर सहजानन्द वह पहला नाम है जिसने किसानों की समस्या को समझा, उसे मुद्दा बनया, निकराकरण की वकालत की और जब सब ने अनसुना किया तो आंदोलन कर दिया. तब के राजनेताओं ने सहजानन्द के किसान आंदोलन पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि सन्यासी को परलोक की चिंता करनी करनी चाहिए तो उन्होंने टका सा जवाब दिया था पहले लोगों के इहलोक को सुधारने की आवश्यकता है न कि उन्हें परलोक के सपने दिखाने की जरुरत.
यही कारण है कि राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने स्वामी सहजानन्द सरस्वती को दलितों का सन्यासी से नवाजा था तो महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने उन्हें नये भारत का नया कहकर नेता' संबोधित किया था. अमेरिकी विद्वान वाल्टर हाउजर ने किसान आंदोलन पर अपने शोध कार्य में स्वामी सहजानन्द का जिक्र करते हुए उन्हें किसान आंदोलन का सबसे बड़ा नायक माना है. इतिहासकार विलियम पिंच ने अपने शोध ग्रंथ पेजेन्ट और मौक्स ने बताया है कि ग्रामीण क्षेत्र में संत एवं किसानों का पारस्परिक संबंध बढा मधुर था और संत समाज किसानों की विविध सम्सयाओं के समाधान के लिए सहयोग देता था, जिसके बदले किसान उनके जीवन का भरण-पोषण करते थे.
निश्चित रुप से अपनी संत छवि के कारण स्वामी सहजानन्द ग्रामीण क्षेत्रों में सहज स्वीकार्य किए गए और उनके क्रांतिकारी कार्यों का जोरदार समर्थन किसान वर्ग ने किया. 1929 के 17 नवंबर को बिहार राज्य किसान सभा और 1936 के 11 अप्रैल को अखिल भारतीय किसान सभा की स्थापना स्वामी सहजानन्द की अध्यक्षता में हुई. उन्होंने किसान संघर्ष को राष्ट्रीय संघर्ष की मुख्य धारा से जोडने का सफल प्रयास किया. जिसके बाद किसान आंदोलन से स्वामी का जुडाव आजीवन बढ़ता चला गया.
वे किसान सभा का विस्तार खेत मजदूरों तक करना चाहते थे. इससे बड़े किसान नाराज थे. स्वामी जी के संघर्ष का ही प्रतिफल था की जमींदारी उन्मूलन का पहला राज्य बिहार बना. आज भी देश के किसान परेशान हैं. किसानों का हक़ दिलाना ही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी.
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