By: ABP News Bureau | Updated at : 31 Jul 2016 02:08 PM (IST)
नई दिल्लीः आज हम आपको दो दोस्तों की कहानी सुनाते हैं. अखाड़े के दोस्तों की. बचपन से छत्रसाल स्टेडियम के अखाड़े में एक दूसरे के साथ दांव लगाते सुशील कुमार और योगेश्वर दत्त की कहानी. लंदन ओलंपिक्स में इन दोनों ही पहलवानों ने तिरंगे की शान बढ़ाई थी.
इस कहानी को आगे बढ़ाने से पहले इस बात पर भी थोड़ी चर्चा करनी जरूरी है कि पिछले 5-6 महीने सुशील कुमार के लिए अच्छे नहीं रहे हैं. इसके पीछे कुछ बातों के लिए वो खुद ही जिम्मेदार हैं और कुछ बातों के लिए हालात. अव्वल तो कमजोर पक्ष होने के बाद भी वो रियो ओलंपिक्स में जाने के लिए दावा ठोकते रहे. उन्होंने नरसिंह यादव के खिलाफ अपनी दावेदारी को मजबूत बताते हुए कोर्ट जाने तक का फैसला कर लिया. जहां उन्हें मायूसी हाथ लगी. उसके बाद हालात भी कुछ ऐसे बन गए जो कहीं से उनके पक्ष में नहीं हैं. नरसिंह यादव को डोपिंग का दोषी पाया गया. उन्होंने इसके पीछे साजिश बताई. एक पहलवान का नाम भी सामने आ गया और वो पहलवाल छत्रसाल अखाड़े का ही है. इस सारे घटनाक्रम का एक बहुत बड़ा असर ये हुआ कि सुशील कुमार के कोच सतपाल अब न्यूज चैनलों पर ये कहते सुनाई दे रहे हैं कि नरसिंह यादव के मामले से उन लोगों का कोई लेना देना नहीं है. जिस दिन नरसिंह यादव को डोपिंग का आरोपी पाया गया उस दिन सोशल मीडिया पर सुशील कुमार की पोस्ट “इज्जत कमाने से मिलती है...” भी लोगों को बड़ी बेतुकी लगी. कुल मिलाकर जो कुछ हुआ वो भारतीय खेल के लिए, सुशील कुमार के लिए, नरसिंह यादव के लिए...और सबसे ऊपर खेल भावना के लिए अच्छा नहीं हुआ.

खैर, इन दिनों हम ओलंपिक 2016 की सीरीज में 2012 की यादों को हम ताजा कर रहे हैं. आज बारी सुशील कुमार के सिल्वर मेडल और योगेश्वर दत्त के ब्रांज मेडल की यादों की है. मौजूदा विवादों से अलग इतिहास के पन्नों में चलते हैं जहां सुशील कुमार हम सभी के लिए एक स्टार एथलीट थे. मैंने सुशील कुमार को दोनों ओलंपिक मेडल जीतते देखा है. 2008 बीजिंग ओलंपिक की बात है. सुशील कुमार कांस्य पदक जीतकर हिंदुस्तान लौटे थे. तमाम अखबार और समाचार चैनलों पर सुशील की खबरें थीं. सुशील के संघर्ष को बताया जा रहा था. उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि की चर्चा हो रही थी. इस बात पर चर्चा हो रही थी कि किस तरह एक बस कंडक्टर के घर से ओलंपिक मेडलिस्ट निकला है. इन सारी खबरों से बेखबर सुशील कुमार अगले दिन वापस छत्रसाल अखाड़े में थे. उन्हें कुश्ती के बाहर की दुनिया से कोई मतलब ही नहीं था. कुश्ती को लेकर सुशील की यही लगन थी जिसकी बदौलत उन्होंने लंदन ओलंपिक्स में अपने मेडल का रंग बदला था. हिंदुस्तान के खेल इतिहास में यह पहला मौका था जब किसी खिलाड़ी ने लगातार दो ओलंपिक में मेडल जीता हो. बीजिंग में सुशील को बहुत गिने चुने लोग जानते थे, लंदन में सुशील को हर कोई जानता था. बीजिंग में सुशील से मेडल की उम्मीद कम ही लोगों को थी, लंदन में सुशील मेडल के तगड़े दावेदार थे. लेकिन, अच्छी बात यह है कि सुशील में आए सभी बदलाव सकारात्मक थे. लंदन में भारतीय दल की अगुवाई का जिम्मा भी सुशील के पास ही था. मुझे उनकी इस जिम्मदारी को लेकर उनसे बात करने का मौका मिला था, आप भी सुनिए ये बातचीत जो ओलंपिक की ओपनिंग सेरेमनी से कुछ घंटे पहले रिकॉर्ड हुई थी.
यह दिलचस्प संयोग ही है कि लंदन ओलंपिक्स के दौरान सुशील को हिदुस्तानियों ने सिर्फ दो बार ही देखा. पहली बार ओलंपिक के उद्घाटन समारोह के दौरान हाथ में तिरंगा लिए भारतीय दल की अगुवाई करते हुए और दोबारा ओलंपिक के आखिरी दिन भारतीय तिरंगे की शान एक बार फिर बढ़ाते हुए. यह लम्हा अब इतिहास में दर्ज हो चुका है. ओलंपिक का पदक जीतने के लिए अगर 'लेजर बीम फोकस' की जरूरत हो तो सुशील उसका बेमिसाल उदाहरण है. सुशील की कामयाबी के लिहाज से लंदन ओलंपिक की एक और खासियत थी. दरअसल 2008 ओलंपिक्स के दो और मेडलिस्ट निशानेबाज अभिनव बिंद्रा और बॉक्सर विजेंद्र सिंह लंदन में पदक से चूक गए थे. सुशील की शुरूआत भी अच्छी नहीं हुई थी. मुझे याद है कि सुशील का पहला ही मुकाबला ओलंपिक चैंपियन से था. पहले दौर में पिछड़ने के बाद सुशील ने दोबारा खुद को संभाला. एक बार संभलने के बाद सुशील सिर्फ आगे बढ़ते चले गए. अगले राउंड में उजबेकिस्तान और फिर कजाकिस्तान के पहलवान को हराकर सुशील फाइनल में पहुंच गए. यानि उन्होंने देश के लिए मेडल पक्का कर दिया था. लंदन के एक्सेल स्टेडियम में जब सुशील कुमार फाइनल बाउट लड़ रहे थे, तो स्टेडियम में उनके नाम के नारे लग रहे थे. थोड़े बहुत ही सही लेकिन करीब आधा दर्जन लोगों के हाथ में तिरंगा था. आप भी देखिए उस मुकाबले को

फाइनल में भी सुशील सोने से कम पर मानते नहीं दिख रहे थे, लेकिन जापान के पहलवान योनेमित्सु के खिलाफ सुशील दूसरे राउंड में थोड़ी गलती कर गए और उन्हें सिल्वर मेडल से संतोष करना पड़ा. ताज्जुब ये जानकर हुआ था कि फाइनल बाउट से पहले सुशील कुमार की तबियत बहुत खराब थी. मुझे ये भी याद है कि सेमीफाइनल बाउट के बाद सुशील पर ये आरोप भी लगा था कि उन्होंने अपने प्रतिद्वंदी पहलवान के कान काट लिए थे. इस मामले की बाकयदा शिकायत हुई थी, इस बात का डर भी था कि कहीं सुशील कुमार पर ‘बैन’ ना लग जाए. हालांकि बाद में उन्हें क्लीन चिट मिल गई थी और उन्होंने मेडल जीता था. सिल्वर मेडल जीतकर इतिहास रचने के बाद मैंने उनसे बड़ी दिलचस्प बातचीत की थी.
इस बातचीत में उनकी पत्नी सावी भी साथ में थीं. आप भी देखिए वो बातचीत
इससे पहले सुशील के दोस्त योगेश्वर दत्त ने इतिहास कायम किया था. दिलचस्प बात ये है कि योगेश्वर के मेडल जीतने का अंदाज भी बिल्कुल अपने बचपन के दोस्त सुशील कुमार की तरह ही था. उन्होंने भी ‘रैपेशाज’ राउंड के जरिए मेडल जीता था. मुझे याद है कि सिर्फ 40 मिनट के भीतर ‘बैक-टू-बैक’ बाउट लड़कर उन्होंने ब्रांज मेडल पर कब्जा किया था. योगेश्वर ने मेडल जीतने के लिए जो ‘फीतले’ दांव मारा था वो अब तक खेल प्रेमियों को याद है. आंखें सूजी हुई थी, लेकिन योगेश्वर के इरादे इतने मजबूत थे कि वो चूके नहीं. रियो में सुशील तो नहीं लेकर योगेश्वर कुमार एक बार फिर ‘मैट’ पर उतरेंगे. दुआ करनी चाहिए कि वो भी अपने मेडल का रंग बदलें और वो कारनामा करें जो सुशील कुमार ने 2012 में किया था.
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