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ई-कचरे के भस्मासुर को कौन भस्म करेगा?

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आदमी के दिमाग़ से साल भर में कितना कूड़ा-करकट निकलता है इसको मापने का कोई साधन और पैमाना नहीं है लेकिन ‘एसोचैम’ और ‘फ्रॉस्ट एंड सुलिवन’ ने हाल ही में सर्वे करके बताया है कि देश में हर साल 18.5 लाख टन इलेक्ट्रॉनिक कचरा निकल रहा है. यही रफ़्तार रही तो आशंका है कि 2018 में इस कचरे का उत्सर्जन 30 लाख टन की सीमा पार कर जाएगा. आदमी के दिमाग़ में घुसे कचरे का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उसने अपने घर में ही एलेक्ट्रॉनिक कचरे का माउंट एवरेस्ट बनाने की ठान ली है, जो ख़ुद उसके स्वास्थ्य, पारिस्थितिक-तंत्र और पर्यावरण के लिए दिन-ब-दिन घातक बनता जा रहा है. इस कचरे के लगातार संपर्क में रहने से आदमी को सिरदर्द, उल्टी और आंखों की बीमारियों के अलावा जानलेवा कैंसर तक हो सकता है. इलेक्ट्रॉनिक कचरा अजर-अमर है. यह न अग्नि में जलता है न पानी में गलता है. इसे बस नए चोले में ढाला जा सकता है (रिसाइक्लिंग), जिसकी अत्याधुनिक तकनीक और पर्याप्त संसाधन भारत में नहीं हैं. लेकिन आदमी का दिमाग़ है कि इस कचरे को जमा करने से बाज़ नहीं आ रहा. कुछ लोग इस कचरे से छुटकारा पाने की गरज से इसे रद्दी पेपर की तरह स्थानीय कबाड़ी के हवाले कर देते हैं जो कबाड़ी का भी कबाड़ा कर सकता है. बाज़ार में कम्यूटर, टीवी, होम थिएटर, प्ले स्टेशन, मोबाइल, रेफ्रीजरेटर, वैक्युम क्लीनर, टोस्टर, इलेक्ट्रिक शेवर, वीडियो कैमरा, वाशिंग मशीन, इलेक्ट्रिक स्टोव-ओवन आदि का नया मॉडल आया नहीं कि पुराना फेंक कर हम नए को दौड़ने लगते हैं. पुराने उपकरण का क्या किया जाए, यह सोचने की फ़ुरसत ही नहीं है. आज लोगों के ड्राइंग रूम और बेडरूम चार्जर, एडॉप्टर, हैंडसेट, रिमोट, चिप्स, मेमोरी कार्ड्स, एलईडी, प्रिंटर और अन्य इलेक्ट्रॉनिक खोखों की कब्रगाह बने हुए हैं. पिछले कुछ दशकों में आदमी की औसत आयु बढ़ी है लेकिन देखने में आ रहा है कि पिछले कुछ वर्षों में ही कंप्यूटर और मोबाइल उपकरणों की औसत आयु लगातार घटती जा रही है और इलेक्ट्रॉनिक कचरे की समस्या विकराल होती जा रही है. इस कैंसरकारी सामग्री को ठिकाने लगाने को लेकर कोई जागरूकता नहीं. ये कचरा रात-दिन कितना रेडिएशन पैदा करता है, और किस तरह धीमी मौत मारता है; इसकी किसी को परवाह नहीं. सीधे-सीधे कहा जाए तो पैर में कुल्हाड़ी नहीं बल्कि कुल्हाड़ी में पैर मारने का काम किया जा रहा है. जितना बड़ा शहर उतना ऊंचा ई-कचरे का ढेर. मुंबई टॉप पर है जहां सामान्य कचरे के एक डंपिंग ग्राउंड में लगी आग भी हफ्तों बुझाई नहीं जा सकी थी. एसोचैम के मुताबिक इस महानगर ने पिछले साल 1 लाख 20 हज़ार टन ई-कचरा पैदा करके शीर्ष स्थान हासिल किया है. इसके बाद 98,000 टन के साथ नंबर आता है दिल्ली-एनसीआर का. चेन्नई हर साल 67,000 टन, कोलकाता 55,000 टन, अहमदाबाद 36,000 टन, हैदराबाद 32,000 टन और पुणे 26,000 टन ई-कचरा का योगदान देने के साथ अलग-अलग पायदानों पर विराजमान हैं. कह सकते हैं कि मेट्रो शहर इलेक्ट्रॉनिक वेस्ट से मार पटे पड़े हैं. इलेक्ट्रॉनिक वेस्ट यानी ई-कचरा कुछ और नहीं बल्कि वह उच्छिष्ट है जो किसी भी विद्युत या इलेक्ट्रॉनिक उपकरण के पुराना पड़ने, टूटने-फूटने, ख़राब होने यानी उसकी उपयोगिता समाप्त हो जाने की स्थिति में उसे त्याग या फेंक देने से प्राप्त होता है. ऐसा कचरा या तो इलेक्ट्रॉनिक कम्पोनेंट के निर्माण से आता है जैसे पी.सी.बी., सेमीकंडक्टर, कंडेंसर, कैथोड-रे ट्यूब, पिक्चर ट्यूब, पी.वी.सी. या धातु की शीट आदि; या फिर अनुपयोगी इलेक्ट्रानिक उपकरणों से छुटकारा पाने के दौरान निकलता है. दोनों ही तरह का कचरा जैविक रूप से नष्ट नहीं होता यानी नॉन-बायोडिग्रेडेबल होता है. पहली स्थिति में निर्माण के दौरान प्रयोग में लाए गए विभिन्न रसायन अवयव, तो दूसरी स्थिति में अवैज्ञानिक तरीके से अनुपयोगी उपकरणों को नष्ट करने की प्रक्रिया से पर्यावरण बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो रहा है. इलेक्ट्रॉनिक वेस्ट का प्रबंधन करने के सभी नियम अपने देश में काग़ज़ी साबित हो रहे हैं. भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में इलेक्ट्रॉनिक वेस्ट से निबटने की तस्वीर दारुण है. यूनाइटेड नेशंस यूनिवर्सिटी (यूएनयू) द्वारा तैयार ग्लोबल ई-वेस्ट मॉनीटर 2014 की रिपोर्ट के अनुसार ई-कचरा पैदा करने के मामले में अमेरिका पहली, चीन दूसरी, जापान तीसरी, जर्मनी चौथी और भारत पांचवीं पायदान पर था. जबकि सबसे कम ई-कचरा अफ्रीका महाद्वीप में पैदा हुआ. यानी ई-कचरे का संबंध समृद्धि के वितरण से भी है. भारत में पैदा होने वाले कुल ई-कचरे का 70 प्रतिशत देश के 10 राज्यों से आता है और कुल पैंसठ शहर देश का 60 फीसदी ई-कचरा पैदा करते हैं. सबसे ज्यादा ई-कचरा पैदा करने वाले राज्य हैं - महाराष्ट्र, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, दिल्ली, कर्नाटक, गुजरात, मध्य प्रदेश और पंजाब. अपने देश की मुसीबत यह है कि यह अपने ही देश में उत्सर्जित ई-कचरे से नहीं निबट पा रहा है, तिसपर विकसित देश भारत को अपने ई-कचरे का डंपिंग ग्राउंड बना चुके हैं. विकसित देशों में पैदा होने वाला अधिकतर ई-कचरा रीसाइक्लिंग के लिए एशिया और पश्चिमी अफ्रीका के गरीब अथवा अल्प-विकसित देशों में भेज दिया जाता है. जबकि एसोचैम की रिपोर्ट कहती है कि बाहर का कचरा जाने दीजिए, भारत अपने भीतर पैदा किए ई-कचरे का केवल 2.5 प्रतिशत हिस्सा ही रीसाइकल कर पाता है. अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण संगठन ''ग्रीनपीस'' के एक अध्ययन के अनुसार दुनिया के 49 देशों से इस तरह का कचरा भारत में आयात होता है. लेकिन इसके निबटान का कोई समुचित प्रबंध देश में नहीं है. इस समय देश में सिर्फ चेन्नई और बंगलुरू में ही ई-कचरा निबटान के छोटे-छोटे संयंत्र हैं जो अपना ही कचरा डिस्पोज नहीं कर पाते. देश की अलग-अलग जगहों पर ई-कचरे को ठिकाने लगाने का काम पूर्ण रूप से अप्रशिक्षित असंगठित क्षेत्र में होता है. इस वक़्त देश में मुठ्ठी भर कंपनियां ई-कचरे की रीसाइक्लिंग के काम में लगी हैं जिनकी कुल क्षमता साल में लगभग 70 हज़ार टन ई-कचरा निस्तारित करने की है. रीसाइक्लिंग में महिलाएं और 10 से 14 साल की उम्र के लगभग 5 लाख बच्चे लगे हैं जो इसके लिए ज़रूरी तकनीक तथा सुरक्षा मानकों से पूरी तरह अनभिज्ञ हैं. ई-कचरे को ये सामान्य कचरे की तरह जलाते हैं या फिर सेठों के कहने से उसे तेजाब में डुबोकर उसमें से सोना-चांदी, प्लैटिनम और दूसरी धातुएं निकालने का ख़तरनाक काम करते हैं. ये मंहगी धातुएं तो सेठ ले जाता है लेकिन वे बेचारे तो यह भी नहीं जानते कि इस ई-कचरे में सिर्फ सोना-चांदी ही नहीं बल्कि उसमें 38 अलग प्रकार के रासायनिक तत्व जैसे निकेल, क्रोमियम, एंटीमोनी, आर्सेनिक, बेरिलियम और पारा आदि शामिल होते हैं. ये उनके और धरती के स्वास्थ्य का बंटाढार कर रहे हैं. ई-कचरा सचमुच भस्मासुर है. इसे ज़मीन में दबाना या जलाकर आसमान में उड़ा देना दोनों ख़तरनाक है. ज़मीन में दबाएंगे तो यह मिट्टी की उर्वरता घटाने के साथ-साथ भूमिगत जल का सत्यानाश करेगा और अगर जलाएंगे तो वायुमंडल को गरम कर देगा. यह अपने जलाने या दबाने वाले मजदूरों को भी नहीं छोड़ता. उनमें कैंसर, त्वचा एवं फेफड़ों के रोग तथा पागलपन तक पैदा कर सकता है. टीवी व पुराने कम्प्यूटर मॉनिटर में लगी सीआरटी (केथोड रे ट्यूब) को ही ले लीजिए. इससे निकलने वाले कैडमियम के धुएं और धूल के कारण फेफड़ों व किडनी को गंभीर नुकसान पहुंचता है. आम तौर पर एक कम्प्यूटर में 3.8 पौंड सीसा, फासफोरस, केडमियम व पारा जैसे घातक तत्व होते हैं जो जलाए जाने पर सीधे जलाने वाले की नाक में घुसते हैं. कल्पना कीजिए कि हज़ारों तरह के इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को जलाने से कितने ज़हरीले तत्व हवा-पानी में न घुलते होंगे. बहु प्रचारित ‘स्वच्छ भारत अभियान’ में अगर ई-कचरे के निस्तारण को भी शामिल कर लिया जाता तो यह सोने पर सुहागा वाली बात होती. यूपीए सरकार ने ई-कचरा प्रबंधन के जो नियम बनाए थे वे 1 मई 2012 से प्रभाव में आ गए थे, लेकिन इन पर अमल कितना हुआ, यह बताने वाला कोई नहीं है. उससे पहले ई-कचरे के प्रबंधन एवं संचालन नियम 2011 में इसकी रीसाइक्लिंग और निपटान को लेकर विस्तृत निर्देश जारी किए गए थे, उनके पालन की जिम्मेदारी तय करने वाला कोई नज़र नहीं आता. होना यह चाहिए कि ई-कचरे का प्रबंधन उत्पादक, उपभोक्ता और सरकार की संयुक्त जिम्मेदारी होनी चाहिए. उत्पादक कम से कम हानिकारक या रेडियोएक्टिव तत्वों का प्रयोग करे और उपभोक्ता ई-कचरे का घर में पहाड़ न बनाकर उसे रीसाइक्लिंग के लिए उचित संस्था को दे. मुझे याद है, मेरे एक पूर्व नियोक्ता ने कार्यालय परिसर में ई-कचरे को एकत्रित करने के लिए जगह-जगह डस्टबिन लगा रखी थीं जहां से एक एनजीओ के कार्यकर्ता उठा ले जाते थे. इस तरह की टोकरियां हर शहर में लगाई जा सकती हैं. सरकार को चाहिए कि वह ई-कचरा प्रबंधन के ठोस तथा व्यावहारिक नियम बनाए और उनका पालन करने के लिए सबको मजबूर करे. पालन न होने की स्थिति में कठोर दंड और भारी जुर्माने का प्रावधान हो. आख़िर यह समूची पृथ्वी के अस्तित्व का सवाल है. अगर हम आज इसे अन्य समस्याओं की ही तरह ‘चलता है’ मानकर चले तो यह समस्या इतनी विकराल हो जाएगी कि ई-कचरे के इस भस्मासुर को भस्म करने के लिए कोई मोहिनी रूप कारगर नहीं होगा. लेखक से ट्विटर पर जुड़ने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/VijayshankarC और फेसबुक पर जुड़ने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/vijayshankar.chaturvedi
Published at : 09 May 2016 01:03 PM (IST)
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