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Independence Day 2022: जंग-ए-आजादी का जिक्र है जिनके बगैर अधूरा, वतन पर मर मिटी थीं ये वीरांगनाएं

Women Warriors Of Freedom Struggle: भारत की आजादी का एक लंबा इतिहास और ये इतिहास तब-तक अधूरा जब-तक आजादी की लड़ाई में अपनी जान की बाजी लगा देने वाली वीरांगनाओं (Women Warriors) का जिक्र न किया जाए.

Women Warriors Of Indian Freedom Struggle: कोख में इंसान को रखती हैं जो, बचपन अपने दामन में महफूज करती हैं जो, वक्त पड़ने पर बन जाती है कभी झांसी की रानी, तो कभी बन जाती है रण में काली-भवानी... ऐसे ही कुछ वीरांगनाओं की हम आपको कहानी सुनाते हैं, जिनके जिक्र के बगैर आजादी का जश्न भी अधूरा है. तो आएं जंग-ए-आजादी के मैदान में जान की बाजी लगाकर कूद पड़ने वाली वीरांगनाओं (Women Warriors) को याद करते हुए इस साल आजादी का अमृत महोत्सव (Azadi Ka Amrit Mahotsav) मनाएं.

भारत की आजादी के संग्राम की वीरांगनाएं

ऐतिहासिक दस्तावेजों पर नजर डालें तो भारत की आजादी का पहला स्वाधीनता संग्राम 1857 को माना जाता है, लेकिन इससे पहले भी ब्रितानी हुकूमत को हिंदोस्तान से बाहर खदेड़ने की कई कोशिशें हुई. भले ही ये 1857 के संग्राम की तरह इतिहास के पन्नों पर दर्ज न हो, लेकिन देश की आजादी में इनकी भी अहम भूमिका रही है. आजादी के लिए हुई कोशिशों या संग्राम को केवल पुरुषों के नाम कर दिया जाए तो यह उन वीरांगनाओं के साथ जुल्म होगा जो जान की बाजी लगाकर अनाम नायिकाओं की तरह इतिहास की गर्त में गुम हो गईं. यहां हम रानी लक्ष्मी बाई से भी पहले अंग्रेजों से लोहा लेने वाली कित्तूर की रानी चेनम्मा से शुरुआत करते हैं.

कित्तूर की रानी चेनम्मा

रानी लक्ष्मी बाई से भी पहले कित्तूर की रानी चेनम्मा ने अंग्रेजों के दांत खट्टे करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. चेनम्मा को दक्षिण की लक्ष्मी बाई भी कहा जाता है. वह पहली भारतीय रानी थी जो अंग्रेजों के खिलाफ  सशस्त्र मैदान में उतरीं थीं.अंग्रेजी सेना की तुलना में भले ही उनकी सैन्य शक्ति कम थी, लेकिन हिम्मत और हौसले के मामले में वह ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी से बढ़कर ही थीं. वह 23 अक्टूबर, 1778 को कर्नाटक के बेलगावी जिले के एक छोटा सा गांव ककाती में जन्मी थीं.

देसाई वंश के राजा मल्लासारजा से विवाह के बाद वह कित्तुरु की रानी बनीं. उनके बेटे की 1824 में मौत हो गई. इसके बाद उन्होंने एक बच्चे शिवलिंगप्पा को गोद लेकर उसे अपना वारिस बनाया. ईस्ट इंडिया कंपनी  रानी के वारिस को दरकिनार कर 1824 में कित्तुरु पर काबिज हो गई. ब्रितानी सरकार ने शिवलिंगप्पा को निर्वासित करने को कहा, लेकिन रानी चेनम्मा ने उनकी बात नहीं सुनी.

रानी चेनम्मा ने बॉम्बे प्रेसिडेंसी के लेफ्टिनेंट गवर्नर लॉर्ड एलफिंस्टन को पत्र लिखकर अपने राज्य कित्तुरु को नहीं हड़पने का अनुरोध किया, लेकिन अपनी फितरत के मुताबिक अंग्रेजों ने इसे नहीं माना. इसके बाद रानी और ब्रिटिश सरकार के बीच ठन गई. अंग्रेंजों ने रानी के 15 लाख रुपये के खजाने को हड़पने की पुरजोर कोशिश की, लेकिन इसमें वह कामयाब नहीं हो पाए.

कित्तुरु पर 20,000 सिहापियों और 400 बंदूकों के अंग्रेजों ने हमला बोल दिया. इस लड़ाई में अंग्रेजों को मुंह की खानी पड़ी. जंग न करने के अंग्रेजों के वादे बाद रानी चेनम्मा ने बंदी बनाए ब्रिटिश अधिकारियों सर वॉल्टर एलियट और स्टीवेंसन को रिहा कर दिया. पनी फितरत के मुताबिक अंग्रेजों ने रानी को धोखा दिया और पहले भारी सैन्य बल लेकर ब्रिटिश अफसर चैपलिन की अगुवाई में कित्तुरु पर हमला बोल दिया.

रानी चेन्नम्मा ने अपने साथियों  संगोल्ली रयन्ना और गुरुसिदप्पा के साथ अंग्रेजों का जमकर मुकाबला किया, लेकिन सैन्य बल कम होने की वजह से उन्हें हार का सामना करना पड़ा.अंग्रेजों ने उन्हें बेलहोंगल के किले में बंदी बनाया और यहां 21 फरवरी 1829 को रानी ने अंतिम सांस ली.  आज भी तालुका के एक पार्क रानी की समाधि आज भी उनकी गौरव गाथा सुना रही है. वहीं रानी चेनम्मा की एक मूर्ति उनकी एक प्रतिमा नई दिल्ली के संसद कंप्लेक्स में भी है.

बेग़म हज़रत महल

अंग्रेजों ने अवध के नवाब वाजिद अली शाह को उनकी गद्दी से बेदखल कर डाला, लेकिन उनकी बेगम हज़रत महल ने ईस्ट इंडिया कंपनी की नाक में दम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. उन्होंने 1857 के संग्राम में अंग्रेजों के साथ सबसे लंबे वक्त जंग की. बेगम हजरत महल के विश्वासपात्र साथियों सरफ़द्दौलाह, महाराज बालकृष्ण, राजा जयलाल और मम्मू ख़ान ने अंग्रेजों के खिलाफ उनका पूरा साथ दिया. इसके अलावा हिंदू राजाओं बैसवारा के राणा बेनी माधव बख़्श, महोना के राजा दृग बिजय सिंह, फ़ैज़ाबाद के मौलवी अहमदुल्लाह शाह, राजा मानसिंह और राजा जयलाल सिंह  भी बेगम हजरत महल की लड़ाई में उनके साथ रहे. 

हज़रत महल ने चिनहट जंग के बाद 5 जून, 1857 को अपने 11 साल के बेटे बिरजिस क़द्र को अवध का ताज पहनाया. इस लड़ाई का नतीजा ये रहा कि अंग्रेज़ों को लखनऊ रेजिडेंसी में शरण लेने को मजबूर होना पड़ा. विलियम होवर्ड रसेल ने अपने संस्मरण- ‘माय इंडियन म्यूटिनी डायरी’ में लिखा," बेग़म हजरत ज़बरदस्त ऊर्जा और क्षमता से लबरेज हैं. उन्होंने पूरे अवध को अपने बेटे के हक़ की लड़ाई में शामिल किया है. उनके सरदारों ने उनके लिए वफ़ादार रहने की कसम ली है और बेगम ने हमारे ख़िलाफ़ आख़िरी दम तक जंग का एलान किया है."

बेगम हजरत को ब्रितानियों ने समझौते के तीन प्रस्ताव भिजवाएं, लेकिन बेगम ने इन्हें ठुकरा दिया. हज़रत महल ने अपने बेटे की गद्दी के प्रतिनिधि के नाते दस महीने तक अवध का राजकाज संभाला. जब-तक बेगम हजरत महल अंग्रेजों से लड़ सकीं वो लड़ती रहीं. आखिरकार उन्होंने नेपाल में जाना पड़ा और वहीं साल 1879 में उनकी मौत हो गई. 

झांसी की रानी लक्ष्मीबाई

बुंदेलों हरबोले के मुंह सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी. कविता की ये पंक्तियां आज भी रोम-रोम में रोमांच भर देती हैं. अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का परचम लहराने वाली रानी झांसी का नाम इतिहास के पन्नों में शौर्य और हौसले की प्रतिमूर्ति के तौर पर दर्ज है. आज भी वह बुंदेलखंड की कई लोक-कहानियों और लोक-गीतों में वह जीवंत होती है.

लक्ष्मीबाई वाराणसी के एक पंडित के घर में जन्मी थीं. उनके बचपन का नाम मणिकर्णिका था. मई,1842 में झांसी के महाराज गंगाधर राव के साथ उनका विवाह हुआ और उनका नाम रानी लक्ष्मीबाई पड़ा. साल 1853 में उनके पति की मौत के बाद डलहौजी की हड़प नीति के तहत झांसी का विलय ब्रितानी राज में कर लिया. अंग्रेजों ने उनके दत्तक पुत्र दामोदर राव को गद्दी का वारिस मानने से इंकार कर दिया.

रानी लक्ष्मीबाई को झांसी के क़िले से निकाल कर उन्हें पेंशन लेने पर विवश किया गया, लेकिन रानी ने हार नहीं मानी. वह मरते दम तक कहती रहीं कि मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी. अंग्रेजों ने विलय के बारे में रानी की एक बात नहीं सुनी. ऐसे में रानी ने 1857 में पड़ोसी राज्यों और झांसी की गद्दी के दूर के दावेदारों के साथ मिलकर एक सेना बनाई.

अंग्रेजों ने जब मार्च, 1958 में झांसी पर हमला बोला तो रानी ने उनसे  जमकर लोहा लिया. अंग्रेजों की बड़ी सैन्य शक्ति के सामने वह हारी नहीं अपने बेटे को पीठ पर बांध कर वह सरपट घोड़ा दौड़ाते हुए किले से बाहर निकल गईं.कल्पी पहुंचकर रानी तात्या टोपे के साथ लड़ी और उन्होंने ग्वालियर पर जीत हासिल की, लेकिन धूर्त अंग्रेज यहां उन्हें पीछे हटाने में कामयाब हो गए.अब जंग ग्वालियर के बाहरी इलाके तक सीमित हो गई. अंग्रेजों ने 17 जून, 1858 को ग्वालियर से पांच मील की दूरी पूरब कोटा की सराय की जंग में रानी पर गोली चलाई तो वो अपने घोड़े से गिर पड़ी और वीरगति को प्राप्त हुईं. 

दुर्गाभाभी ने दिया अंग्रेजों को चकमा 

महान क्रांतिकारी चन्द्रशेखर आजाद के कहने पर ‘दि फिलॉसफी ऑफ बम’ दस्तावेज बनाने वाले भवतीचरण वोहरा की पत्नी ‘दुर्गा भाभी’ नाम से मशहूर थी. वह एक सक्रिय क्रांतिकारी रहीं. उन्होंने भगत सिंह को लाहौर से फरार कराने अहम भूमिका निभाई थी. जब साल 1928 में जब अंग्रेजी अफसर साण्डर्स को मौत के घाट उतारने  के बाद भगत सिंह और राजगुरु लाहौर से कलकत्ता के लिए निकल रहे थे तब उनकी पहचान छुपाने के लिए वह भगत सिंह की पत्नी बनी और राजगुरु भगत सिंह के नौकर बने. इस तरह से दुर्गा भाभी अंग्रेजों की नजर से भगत सिंह को बचाकर ले गईं. गौरतलब है कि भगत सिंह और दुर्गा भाभी दोनों 1907 में जन्में थे.

लाहौर में साल 1927 में लाला लाजपतराय की मौत का बदले की रणनीति तैयार करने की बैठक की अध्यक्षता दुर्गा भाभी ने की थी. वह अंग्रेज एसपी जेए स्कॉट को मौत के घाट उतारने की जिम्मेदारी लेना चाहती थी, लेकिन संगठन ने उन्हें मना कर दिया. तत्कालीन बम्बई के गर्वनर हेली को मारने के दौरान एक अंग्रेज अफसर घायल हो गया था, उस अफसर पर  दुर्गा भाभी ने फायर किया था. इस केस में उनके खिलाफ वारंट आया था. दो साल से अधिक फरार होने के बाद 12 सितम्बर 1931 को दुर्गा भाभी को लाहौर में गिरफ्तार किया गया. 

कनकलता बरुआ

कनकलता बरुआ असम के बांरगबाड़ी गांव में 22 दिसंबर, 1924 को कृष्णकांत बरुआ के घर पैदा हुई थीं. उनकी मां कर्णेश्वरी देवी कनकलता के पांच साल की उम्र के दौरान ही चल बसी थीं. साल 1938. में उनके पिता की भी मौत हो गई. कुछ दिन उनकी सौतेली मां भी चल बसी, बहुत कम उम्र में ही कनकलता अनाथ हो गई. उनका पालन–पोषण उनकी नानी ने किया. वह नानी के साथ घर के कामों में हाथ बंटाती और मन लगाकर पढ़ाई भी करती थी. 

इतनी विषम पारिवारिक परिस्थितियों के बाद भी उनका झुकाव राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन की तरफ बढ़ता गया. जब मई 1931 में गमेरी गांव में रैयत सभा हुई.  उस वक्त कनकलता केवल सात साल की थीं, लेकिन इसके बावजूद भी वो सभा में अपने मामा देवेन्द्र नाथ और यदुराम बोस के साथ पहुंची थी.   

उन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन में बढ़ चढ़कर भागीदारी की थी.जब 20 सितंबर, 1942 को हुई एक गुप्त सभा में  तेजपुर की कचहरी पर तिरंगा झंडा फहराने का फैसला लिया गया था तो कनकलता ने इसकी जिम्मेदारी ली. इस आंदोलन के वक्त उन्होंने केवल 17 साल की उम्र में कोर्ट परिसर और पुलिस स्टेशन में तिरंगा फहराने का जज्बा दिखाया था. इसकी वजह से वह अंग्रेजों की आंख की किरकिरी बन गई. इसी दौरान वह 20 सिंतबर 1942 को ब्रितानी पुलिस की गोलियों का शिकार हुआ. उनकी ये शहादत आजादी की जंग में कई लोगों के लिए प्रेरणा बनी. उन्हें वीर बाला भी कहा जाता है.

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