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21-Gun Salute: 21 तोपों की सलामी की कहानी, कब हुई शुरू और क्यों दी जाती है...

The Story Of The 21-Gun Salute: देश की नई राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू (Droupadi Murmu)ने शपथ ली और उन्हें 21 तोपों की सलामी दी गई. आज जानें इस सलामी में ऐसा क्या खास है कि ये परंपरा लगातार चली आ रही है.

The Story Of The 21-Gun Salute: देश की 15 वीं राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू (Droupadi Murmu) ने शपथ ली और उन्हें 21 तोपों (21-Gun Salute) की सलामी भी दी गई. इसके साथ ही 21 तोपों की सलामी की इस परंपरा को जानने की उत्सुकता भी मन में उठने लगी है कि आखिर गणतंत्र दिवस (Republic Day), स्वतंत्रता दिवस (Independence Day) या किसी विदेशी राष्ट्राध्यक्ष को इज्जत देने के लिए 21 तोपों की सलामी ही क्यों होती है ? आखिर इस परंपरा के पीछे की कहानी कहां से शुरू होती है ? क्यों इसे इतना सम्मानजनक माना जाते हैं ? ऐसे ही कुछ सवालों के जवाब हम यहां जानने की कोशिश करेंगे. 

ये सलामी समाज में कद का पैमाना

आप ने भी नई राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को दी गई 21 तोपों की सलामी की गूंज सुनी होगी. यहीं नहीं हर साल जब राष्ट्रपति 26 जनवरी को राष्ट्रीय ध्वज फहराते हैं. तब आप राष्ट्रगान को बजते हुए सुनने के साथ बैकग्राउंड में तोपों की गोलीबारी की अचूक आवाजें सुनते होंगे. यह तोपों की आवाज  राष्ट्रगान (National Anthem)की पूरी 52-सेकंड की अवधि को कवर करने के लिए हर 2.25 सेकंड के अंतराल पर तीन राउंड में सात तोपें दागी जाती हैं. जैसा कि इसे 21 तोपों की सलामी कहा जाता है, हमारे सभी गणतंत्र दिवसों की एक लगातार खासियत रही है और वह है देशभक्ति के उत्साह, परेड और उत्सव का दिन. किसी जमाने में दिल्ली में ये बंदूकें सबकी निगाहों का केंद्र थीं. इतना अधिक कि भारतीय महाराजाओं ने इन आवाजों को ध्यान से सुनने के लिए और उनके बैरल से चलाई गई गोलियों की सटीक संख्या गिनने के लिए लोगों को नियुक्त किया था. आखिरकार, यह उनके सार्वजनिक कद का एक पैमाना था और इसलिए बेहद संजीदगी से लिए जाने वाला मसला था. 

तोपों की सलामी की कहानी डेढ़ सौ साल से अधिक पुरानी

21 तोपों की सलामी की कहानी कोई नवजात नहीं है. ये कहानी काफी उम्रदराज है जो 150 साल से भी पहले से शुरू होती है. तब ये सलामी औपनिवेशिक शक्ति की भव्यता और रौब के प्रदर्शन का जरिया थी. अंग्रेजों के अधीन दिल्ली (Delhi) ने औपनिवेशिक शक्ति ( Colonial Power) और भव्यता के बेधड़क प्रदर्शन के तीन अवसरों की गवाह रही है. ये तथाकथित 'शाही दरबार' या सम्मेलन थे. ये 1877, 1903 और 1911 में आयोजित किए गए थे. वायसराय लॉर्ड लिटन (Viceroy Lord Lytton) ने 1877 में दिल्ली में पहले दरबार (Durbars) का आयोजन किया था, जिसे अब 'कोरोनेशन पार्क (Coronation Park) के नाम से जाना जाता है. यह दरबार 1 जनवरी, 1877 को आयोजित किया गया था. इसमें सभी भारतीय महाराजाओं और राजकुमारों को एक उद्घोषणा पढ़कर महारानी विक्टोरिया (Queen Victoria) को भारत की महारानी घोषित करने के लिए इकट्ठा किया गया था. इसी तरह के दरबार दो अन्य अवसरों पर आयोजित किए गए थे. इस तरह का दूसरा दरबार इंग्लैंड(England)में एक नए सम्राट की ताजपोशी की गई थी. साल 1911 का दरबार किंग जॉर्ज पंचम (King George V) और क्वीन मैरी (Queen Mary) की मौजूदगी की वजह से खासतौर पर अहम रहा.  इनके सम्मान में 50,000 ब्रिटिश और भारतीय सैनिकों की परेड की गई थी. इस दरबार के बारे में कहा जाता है कि यह 5 किमी से अधिक तक फैला हुआ था.

दरबारों का आयोजन मुख्य रूप से भारतीय राजकुमारों की वफादारी सुनिश्चित करने के इरादे से किया गया था. जैसा कि भारत के राज्य सचिव रॉबर्ट गैस्कोइग्ने (Robert Gascoigne) ने 1867 में तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री बेंजामिन डिजरायली (Benjamin Disraeli) को लिखा, "महाराजा केवल वही थे जिन पर हम कोई उपयोगी असर छोड़ने की उम्मीद कर सकते हैं". इसके साथ ही ये दरबार भी हलचल वाले अखाड़े बन गए, जहां महाराजा ब्रितानी सरकार शाही शासन में एक बेहतरीन पद या पोजिशन पर आने के लिए युद्धाभ्यास का प्रदर्शन करते रहे. इस शाही पदानुक्रम में अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए भारत के राजा-महाराजा बदूंकों की सलामी का सहारा लेते थे. इसी के तहत ईस्ट इंडिया कंपनी ( East India Company) ने फैसला किया कि भारतीय राजकुमारों में जो 11 या उससे अधिक की तोपों की सलामी के हकदार थे, केवल उन्हें ही "महामहिम -His Highness" के रूप में संबोधित किया जा सकता था. 

साल 1877 तक तय नहीं थे सलामी के मानक 

साल 1877 तक कितने तोपों की सलामी दी जानी थी, इसके लिए कोई मानक तय नहीं थे. हालांकि वायसराय (Viceroy)ने 31 तोपों की सलामी का आनंद लिया, जो कि ईस्ट इंडिया कंपनी की बंधी हुई एक सीमा थी, कुछ रियासतों के शासकों ने अपने घरेलू मैदान के भीतर उच्च सलामी का फैसला किया. उदाहरण के लिए, ग्वालियर (Gwalior) के महाराजा ग्वालियर में रहते हुए वायसराय की तुलना में अधिक तोपों की सलामी लेते थे. इसी साल के दरबार के दौरान, लंदन (London) में ब्रिटिश सरकार की सलाह पर वायसराय ने एक नया आदेश जारी किया था, जिसके तहत ब्रिटिश सम्राट (British Monarch) के लिए बंदूक की सलामी 101 और भारत के वायसराय के लिए 31 निर्धारित की गई थी. सभी भारतीय शासकों की व्यवस्था की गई थी. ब्रिटिश राज (British Raj)के साथ भारतीय राजाओं के संबंधों के आधार पर उन्हें 21, 19, 17, 15, 11और 9 बंदूक सलामी का पदानुक्रम दिया गया था.

साल 1911 की सलामी जो तमाशा से बनी

साल 1911 का दरबार न केवल आंखों के लिए बल्कि कानों के लिए भी एक तमाशा साबित हुआ. उस दौरान एक सौ से अधिक भारतीय शासकों के भाग लेने के साथ, लगभग पूरे दिन तोपों की गोलीबारी हो रही थी. केवल तीन रियासतों को 21 तोपों की सलामी का सर्वोच्च सम्मान दिया गया. इनमें बड़ौदा (Baroda) राज्य के महाराजा गायकवाड़ (Maharaja Gaekwad), मैसूर (Mysore) के महाराजा, हैदराबाद (Hyderabad) के निज़ाम( Nizam) शामिल थे. इस लिस्ट में साल 1917 में ग्वालियर के महाराजा सिंधिया का और साल 1921 में जम्मू-कश्मीर के महाराजा का नाम जोड़ा गया. ये तोपों की सलामी किसी की स्थिति के लिए इतना प्रभावशाली और परिभाषित संकेतक बन गई कि जिन रियासतों के शासकों को तोपों की सलामी दी जाती थी, उन्हें 'सैल्यूट स्टेट्स (Salute States) का तमगा दिया गया.आजादी के वक्त हमारे देश में 565 में से लगभग 118 सलामी राज्य थे. सलामी राज्यों की व्यवस्था 1971 तक जारी रही, जब कि प्रिवी पर्स (Privy Purses ) को खत्म न कर दिया गया. प्रिवी पर्स से मतलब राजभत्ते से है, जो किसी संवैधानिक या लोकतांत्रिक राजतंत्र में राज्य के स्वायत्त शासक और राजपरिवार को मिलने वाली खास धनराशि होती है. भारत में राजभत्ता देने की शुरुआत सन 1950 में लोकतांत्रिक गणराज्य की स्थापना के बाद हुई थी.

जब बना 21 तोपों की सलामी का अंतरराष्ट्रीय मानदंड

26 जनवरी, 1950 को, डॉ राजेंद्र प्रसाद (Dr Rajendra Prasad) ने भारत के पहले राष्ट्रपति के रूप में शपथ ली. इसके बाद वह राष्ट्रपति भवन से इरविन ( Irwin ) एम्फीथिएटर जो अब मेजर ध्यानचंद स्टेडियम (Major Dhyanchand Stadium) के नाम से जाना जाता है, वहां से  एक सोने की परत चढ़ा घोड़े की गाड़ी में सवार होकर तब देश के राष्ट्रपति को दी जाने वाली 31 तोपों की सलामी लेने के लिए आए थे. इसके बाद ही आखिरकार 21 तोपों की सलामी का अंतरराष्ट्रीय मानदंड बन गया. साल 1971 के बाद, 21 तोपों की सलामी हमारे राष्ट्रपति और अतिथि राष्ट्राध्यक्षों को दिया जाने वाला सर्वोच्च सम्मान बन गया. इसके अलावा जब भी कोई नया राष्ट्रपति शपथ लेता है तो सलामी देने के अलावा यह गणतंत्र दिवस (Republic day) जैसे चुनिंदा अवसरों पर भी दी जाती है. इस तरह से अब बंदूकें और तोपें हमारे शासक और महाराजाओं के लिए नहीं, बल्कि हमारे लिए, हम लोगों के लिए चलती हैं. 

21 गोलों की सलामी में महज आठ तोपें होती हैं अब

अब जो सलामी दी जाती है उसमें  21 गोलों तो होतें हैं, लेकिन तोपें महज 8 होती हैं. इसमें से 7 तोपों का इस्तेमाल सलामी के लिए होता है, जिससे हर तोप 3 गोले फायर करती है. इसे सलामी को देश का सर्वश्रेष्ठ सम्मान माना जाता है. इस 21 सलामी देने वाले लगभग 122 जवानों के दस्ते का हेडक्वार्टर मेरठ में है. गौरतलब है कि ये सेना की स्थायी रेजीमेंट नहीं होती है. अब बात करते हैं,सलामी के लिए छोड़े जाने वाले गोले कि यह खास सेरोमोनियल कारतूस (Ceremonial Cartridge ) होता है और खाली होता है. इससे केवल  धुआं और आवाज निकलती है, कोई हानि नहीं होती.

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