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मायावती की राजनीति तेज़ी से अवसान की ओर, बीएसपी के लिए आम चुनाव, 2024 है अस्तित्व की लड़ाई

आम चुनाव 2024 कई राजनीतिक दलों के अस्तित्व के नज़रिये से बेहद महत्वपूर्ण साबित होने वाला है. उन्हीं में से एक राजनीतिक दल बहुजन समाज पार्टी यानी बीएसपी है. आगामी लोक सभा चुनाव के नतीजों से बसपा अध्यक्ष मायावती की राजनीति की दशा-दिशा दोनों तय होगी, भविष्य के लिहाज़ से इतना ज़रूर कहा जा सकता है.

बहुजन समाज पार्टी की राजनीति मूल रूप से उत्तर प्रदेश में फली-फूली. मध्य प्रदेश, राजस्थान समेत कई राज्यों में इसका थोड़ा ही, लेकिन जनाधार रहा है. राजनीतिक नज़रिये से पिछला एक दशक मायावती और उनकी पार्टी के लिए बेहद ही ख़राब रहा है. अभी भी उत्तर प्रदेश में बसपा का कोर वोट बैंक की वज्ह से अच्छा-ख़ासा जनाधार है, लेकिन उसके बावजूद हमने देखा है कि पिछले दस साल में मायावती की राजनीति तेज़ी से अवसान की ओर गयी है. उत्तर प्रदेश की राजनीति में मायावती मार्च 2012 से हाशिये पर हैं.

लोक सभा चुनाव, 2024 को देखते हुए सत्ताधारी दल बीजेपी...एनडीए के कुनबे को मज़बूत बनाने में जुटी है. दूसरी तरफ़, कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, डीएमके, आरजेडी, जेडीयू समेत कई  विपक्षी दल 'इंडिया' गठबंधन का हिस्सा बन 2024 के समीकरणों को साधने के लिए रणनीति बनाने में जुटे हैं.

मायावती की राजनीति का 2024 के लिए अलग सुर

इस बीच मायावती की राजनीति का सुर कुछ अलग ही है. मायावती न तो एनडीए का हिस्सा बनेंगी और न ही विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' का. मायावती पहले ही एलान कर चुकी हैं कि आम चुनाव, 2024 में उनकी पार्टी उत्तर प्रदेश में लोक सभा की सभी 80 सीट पर अकेले चुनाव लड़ेगी. मायावती की तरह ही नवीन पटनायक की बीजू जनता दल (BJD)ओडिशा में, के. चंद्रशेखर राव की भारत राष्ट्र समिति (BRS)तेलंगाना में और जगन मोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस आंध्र प्रदेश में न तो सत्ताधारी गठबंधन एनडीए का हिस्सा रहेंगी और न ही विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' का.

हालांकि मायावती और इन तीनों नेताओं की वर्तमान राजनीतिक स्थिति में ज़मीन-आसमान का फ़र्क़ है. नवीन पटनायक, के. चंद्रशेखर राव और जगन मोहन रेड्डी अपने-अपने राज्यों में राजनीतिक तौर से बेहद मज़बूत स्थिति में हैं. वे अपनी ताक़त से अपने-अपने राज्यों में किसी और दल का फ़ाइदा नहीं होने देना चाहते हैं, इसलिए किसी गुट का हिस्सा नहीं बनने का फ़ैसला किया है.

इसके विपरीत मायावती की वर्तमान राजनीतिक हैसियत अपने सबसे निचले स्तर पर है. पिछले दो लोक सभा चुनाव और दो विधान सभा चुनाव के आँकड़े गवाही देते हैं कि उत्तर प्रदेश में बसपा अपने दम पर कोई दमख़म नही रखती है. उसके बावजूद मायावती का किसी गठबंधन का हिस्सा नहीं बनना या बनने की कोशिश नहीं करना थोड़ा चौंकाने वाला ज़रूर है.

बिना मायावती विपक्षी गठबंधन यूपी में कमज़ोर

ऐसे इसका एक और पहलू है. वर्तमान में बसपा की राजनीतिक ताक़त की दयनीय स्थिति को देखते हुए न तो विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' की ओर से और न ही एनडीए की ओर से मायावती को अपने पाले में लाने के लिए कोई ख़ास प्रयास होता दिखा है. हालांकि यह इतना सरल भी नहीं है. वास्तविकता यही है कि भले ही बसपा अकेले चुनाव लड़कर उत्तर प्रदेश में कुछ ख़ास करने की स्थिति में नहीं है, लेकिन मायावती का जो कोर वोट बैंक अभी भी उनके साथ है, अगर वो एनडीए में मिल जाए या विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' में मिल जाए तो उत्तर प्रदेश के नतीजों पर काफ़ी असर पड़ेगा.

ऐसा होने के बावजूद भी दोनों ही ओर से ख़ासकर विपक्षी गठबंधन से मायावती को अपने कुनबे में लाने के लिए कोई ठोस प्रयास नहीं होना भी चौंकाने वाला ही पहलू है. ख़ासकर विपक्षी गठबंधन को इस पहलू पर ध्यान देना चाहिए था. मायावती अगर विपक्षी गठबंधन का हिस्सा नहीं बन पाती हैं, अलग अकेले चुनाव लड़ती हैं, तो उत्तर प्रदेश में बीजेपी को फ़ाइदा पहुंचाने वाला ही यह क़दम साबित होने वाला है. इसके साथ ही उत्तर प्रदेश में जिस तरह से अभी बीजेपी मज़बूत स्थिति में है, मायावती के अलग रुख़ से समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और आरएलडी के गठजोड़ का असर प्रदेश में काफ़ी कम हो जाता है. प्रदेश के सियासी समीकरणों के लिहाज़ से इससे कोई इंकार नहीं कर सकता है.

क़रीब दो दशक तक मायावती का प्रभाव

अब बात करते हैं, मायावती के लिए 2024 का लोक सभा चुनाव कितनी अहमियत रखता है. दलित राजनीति को नया आयाम देने वाले कांशी राम से मायावती को बहुजन समाज पार्टी विरासत में मिली. 1990 के दशक और इस सदी के पहले दशक में मायावती की राजनीति उफान पर थी. 1990 का दशक और इस सदी का पहला दशक या'नी दो दशक उत्तर प्रदेश का राजनीतिक सिरा मायावती के प्रभाव और प्रभुत्व से जुड़ा रहा है.

इन दो दशकों में प्रदेश के सियासी समीकरणों को साधकर मायावती उत्तर प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री बनने में सफल रहीं. सबसे पहले मायावती जून 1995 से अक्टूबर 1995 तक मुख्यमंत्री रहीं. दूसरा बार में वे मार्च 1997 से सितंबर 1997 में मुख्यमंत्री बनी. मायावती तीसरी बार मई 2002 से अगस्त 2003 तक प्रदेश की मुख्यमंत्री रहीं. मायावती को बतौर मुख्यमंत्री पांच साल का कार्यकाल पूरा करने का मौक़ा चौथी बार में मिला. मायावती मई 2007 से मार्च 2012 तक उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रहीं.

मायावती का 2007 में सबसे अच्छा प्रदर्शन

मायावती का ही प्रभाव था कि अप्रैल-मई 2007 में हुए उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में बसपा का अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन देखने को मिला था. उस चुनाव में बीएसपी ने प्रदेश की कुल 403 में अकेले दम पर 206 सीट जीत आसानी से बहुमत का आँकड़ा पार कर लिया था. सबसे ज़्यादा सीटों पर जीत के साथ ही यह पहला और आख़िरी मौक़ा था, जब विधान सभा चुनव में बसपा का वोट शेयर 30 फ़ीसदी के आँकड़े को पार कर गया था. बीएसपी का वोट शेयर 30.43% रहा था. पिछले चुनाव या'नी 2002 के मुक़ाबले बीएसपी को 108 सीटें अधिक मिली थी, वहीं वोट शेयर में 7.37% का इज़ाफ़ा हुआ था.

बसपा को विधान सभा चुनाव, 2007 से पहले 2002 में 98 सीट (23.06% वोट) पर जीत मिली थी. उत्तराखंड के अलग राज्य बनने से पहले 1996 के विधान सभा चुनाव में कांग्रेस के साथ चुनाव लड़कर बसपा को प्रदेश की कुल 425 सीटों में से 67 सीटों पर जीत मिली थी. उसका वोट शेयर 19.64% रहा था. वहीं 1993 के विधान सभा चुनाव में समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ने से बसपा को 67 ही सीटों पर जीत मिली थी. हालांकि इस चुनाव में बसपा का वोट शेयर महज़ 11.12% ही था. बसपा को 1991 में 9.44% वोट शेयर के साथ मात्र 12 सीट पर जीत मिली थी.

कांशी राम ने अप्रैल 1984 में बहुजन समाज पार्टी की स्थापना की थी. बसपा पहली बार उत्तर प्रदेश में 1989 के विधान सभा चुनाव में उतरती है और उसे 13 सीटों पर जीत मिल जाती है. इस पहले चुनाव में बसपा का वोट शेयर 9.41 फ़ीसदी रहता है.

बसपा का 2022 के चुनाव में एक तरह से सफ़ाया

क़रीब दो दशक तक उत्तर प्रदेश की राजनीति में मज़बूत दख़ल रखने वाली मायवती के लिए 2012 में हुए विधान सभा चुनाव से अवसान का दौर शुरू होता है. इस चुनाव में बसपा महज़ 80 सीट ही जीत पाती है, जिससे प्रदेश में मायावती की सत्ता भी चली जाती है. बसपा का वोट शेयर 25.91% पर पहुंत जाता है, जो पिछली बार की तुलना में साढ़े चार फ़ीसदी कम होता है. इसके पाँच साल बाद 2017 के विधान सभा चुनाव में बसपा महज़ 19 सीटों पर सिमट जाती है और उसका वोट शेयर गिरकर सिर्फ़ 22.23% रह जाता है.

आख़िरी विधान सभा चुनाव यानी 2022 में सीटों की संख्या के लिहाज़ से एक तरह से बसपा का उत्तर प्रदेश से सफ़ाया ही हो जाता है. सभी 403 सीटों पर लड़ने के बावजूद बसपा सिर्फ़ एक सीट रसड़ा पर जीत पाती है. बसपा के वोट शेयर 9 फ़ीसदी से अधिक की गिरावट होती है. बसपा का वोट शेयर महज़ 12.88% रहता है. बसपा की स्थिति कितनी दयनीय हो जाती है, यह इससे समझा जा सकता है कि उसके 287 उम्मीदवारों की ज़मानत तक ज़ब्त हो जाती है.

बसपा से ज़्यादा सीट अपना दल (सोनेलाल),  निषाद पार्टी, राष्ट्रीय लोक दल, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी, जनसत्ता दल (लोकतांत्रिक) जैसी पार्टियाँ ले आती हैं, जिनका प्रदेश में वोट शेयर के हिसाब से बहुत ही मामूली सा और क्षेत्र विशेष तक सीमित जनाधार है. जिस तरह का प्रदर्शन बसपा को 2022 के विधान सभा चुनाव में रहा, उससे कई गुणा बेहतर प्रदर्शन पार्टी ने अपने पहले चुनाव 1989 में किया था. उस वक्त़ नई पार्टी बसपा 13 सीट पर जीत दर्ज करने में कामयाब रही थी.

लोक सभा चुनाव के लिहाज़ से प्रदर्शन

लोक सभा चुनाव के नज़रिये से भी मायावती की पार्टी पिछले एक दशक में बेहद कमज़ोर हुई है. पिछला लोक सभा चुनाव या'नी 2019 में बसपा और समाजवादी पार्टी का गठबंधन रहता है. इस वज्ह से बसपा 10 सीट जीतने में सफल हो जाती है. उसका वोट शेयर 19.34% रहता है.

उससे पहले 2014 में बसपा सभी 80 लोक सभा सीटों पर अकेले चुनाव लड़ती है और उसमें मायावती की पार्टी  का पूरी तरह से सफ़ाया हो जाता है. बसपा 19.60% वोट पाने के बावजूद एक भी सीट नहीं जीत पाती है.  उससे बेहतर प्रदर्शन तो अपना दल का रहता है, एनडीए में रहते हुए महज़ एक फीसदी वोट पाने के बावजूद दो सीट पर जीत हासिल करने में सफल रहती है.

बसपा को आम चुनाव 2009 में उत्तर प्रदेश में 20 सीटों पर जीत मिली थी. उसका वोट शेयर 27.4% रहा था. उसके पहले 2004 में बसपा 24.7% वोट पाकर उत्तर प्रदेश में 19 सीट जीत जाती है. बसपा को 1999 में 14 सीट, 1998 में 4 सीट, 1996 में 6 सीट और 1991 में एक सीट पर जीत मिली थी. अपने पहले लोक सभा चुनाव में बसपा को 1989 में उत्तर प्रदेश में दो सीट पर जीत मिली थी और उसका वोट शेयर यहाँ 9.9 फ़ीसदी रहा था.

इन आँकड़ों से स्पष्ट है कि बसपा के लिए लोक सभा चुनाव, 2009 सीटों की संख्या और वोट शेयर दोनों के लिहाज़ से सबसे बेहतर रहा था. हालांकि उसके बाद ही उत्तर प्रदेश में पार्टी की स्थिति तेज़ी से दयनीय होने लगी.

क्या 2024 में मायावती को मिलेगा सहारा?

बसपा की जो अभी राजनीतिक स्थिति है, उसको देखते हुए फ़िलहाल 2024 के लिए कोई सकारात्मक पहलू नज़र नहीं आ रहा है. एक बात ग़ौर करने वाली है कि बसपा का मूल प्रभाव वाला राज्य हमेशा से ही उत्तर प्रदेश ही रहा है.  हालांकि 2024 से पहले मायावती मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और तेलंगाना को लेकर थोड़ी सक्रिय दिख रही हैं. इन राज्यों में पहले बसपा का छोटा सा ही सही, एक जनाधार था. मायावती की कोशिश है कि आम चुनाव 2024 से पहले इन राज्यों के विधान सभा चुनाव में बसपा को मज़बूती मिल सके. लेकिन इसका कोई बहुत ज़्यादा लाभ 2024 में बसपा को उत्तर प्रदेश में होगा, इसकी गुंजाइश कम ही है.

उत्तर प्रदेश में पार्टी को फिर से पुरानी राजनीतिक हैसियत दिलाने के लिए मायावती कुछ महीनों से हाथ-पैर मार रही हैं, उनकी राजनीतिक सक्रियता हाल-फिलहाल के दिनों में बढ़ी भी है. जिस तरह की ख़बरें आ रही हैं, 2024 में मायावती अपने पूर्व सांसदों और पूर्व विधायकों को ही उत्तर प्रदेश में मौक़ा देने के मूड में हैं. इस दांव के ज़रिये मायावती उत्तर प्रदेश में जातीय समीकरणों को एक बार फिर से साधना चाहती हैं.

बसपा की दयनीय स्थिति के लिए कौन है ज़िम्मेदार?

एक समय में पूर्वांचल से लेकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक दबदबा रखने वाली बसपा के सामने 2024 के लिए ऐसे चेहरों की भी कमी है, जिनके सहारे पार्टी की सीट बढ़ने की संभावना दिखती हो. बसपा की राजनीति के इस तरह से दयनीय स्थिति में पहुँचने के लिए कई कारक ज़िम्मेदार हैं.

दरअसल मायावती ही 90 के दशक और इस सदी के पहले दशक में बसपा की ताक़त रही हैं, यह जितना सत्य है, उतना ही सत्य यह भी है कि बसपा को इस बुरे दौर में पहुँचाने के लिए भी मायावती का रवैया ही सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार रहा है.

'बस हम ही हम हैं' वाला रवैया से नुक़सान

'बस हम ही हम हैं' वाला रवैया अपनाते हुए मायावती ने शुरू से पार्टी को संचालित किया है. छोटा से लेकर बड़ा.. वर्षों से हर फ़ैसला वही लेती आ रही हैं. मायावती को छोड़ दिया जाए, तो बड़े-बड़े नेता लंबे समय तक टिककर बसपा में नहीं रहे हैं. बसपा की राजनीति को इतने साल हो गये, लेकिन इसके बावजूद मायवती के अलावा दो-चार नाम नहीं कोई बता सकता है, जो शुरू से इस पार्टी में रहा हो और लगातार रहकर अभी भी बना हुआ हो. मायावती ने अपने रवैये की वज्ह से पार्टी में अपने बाद दूसरे स्तर के नेतृत्व की पौध कभी तैयार करने पर ध्यान दी नहीं दिया. आज स्थिति यह हो गयी है कि 67 साल की मायावती के बाद बसपा में कौन दूसरे नंबर का नेता है, इसको लेकर भी कुछ ज़्यादा नहीं कहा जा सकता है. यह स्थिति कमोबेश हमेशा ही रही है.

बसपा के सामने उम्मीदवारों का संकट

अब तो स्थिति यह हो गयी है कि बसपा के लिए चाहे विधान सभा चुनाव हो या लोक सभा चुनाव.. पार्टी उम्मीदवार बनाने के लिए प्रदेश के लोगों के बीच पहचाने जाने वाले चेहरों तक की कमी हो गयी है. आम चुनाव 2019 और विधान सभा चुनाव 2022 में इस तरह की स्थिति हम सब देख चुके हैं.  अगर 2024 में अकेले ही सभी 80 लोक सभा सीटों पर चुनाव लड़ती है, तो उसके लिए हर सीट पर चुनाव जीतने की संभावना लायक चेहरों की कमी से भी बसपा को जूझना पड़ेगा. यह एक तरह से पार्टी के अवसान को ही दर्शाता है.

मायावती की सक्रियता चुनाव तक ही सीमित

बसपा की राजनीति उत्तर प्रदेश में शुरू से पूरी तरह से जातीय समीकरणों को साधने पर टिका रहा है. 21वीं सदी के पहले दशक तक सिर्फ़ इसी को आधार बनाकर उत्तर प्रदेश में बसपा कभी सबसे अच्छा, तो कभी बेहतर.. तो कभी ठीक-ठाक प्रदर्शन करते आ रही थी. हालांकि जैसे ही जातीय समीकरण बसपा के पक्ष में नहीं रहा, मायवती की राजनीति की नैया डूबने के कगार पर पहुँच गयी. इसकी पुष्टि पिछले तीन विधान सभा चुनाव और दो लोक सभा चुनावों के नतीजों से भी होती है.

मायावती चुनाव के समय तो रैली और जनसभाओं के ज़रिये सक्रिय दिखती हैं, लेकिन बाक़ी समय प्रदेश के लोगों के बीच उनकी सक्रियता एक तरह से नगण्य की स्थिति में होती है. यह सिलसिला पिछले कई सालों से जारी है. प्रदेश के लोगों के साथ उनका सीधा संवाद कम होते गया. मायावती धीरे-धीरे प्रदेश के लोगों के लिए सड़क पर संघर्ष करने की राजनीति से दूर होती गयीं. हालांकि पहले भी इस दिशा में वो उतनी सक्रिय कभी नहीं रही हैं. मायावती की राजनीति का प्रभाव हमेशा ही जातीय गणित पर निर्भर रहा है. उत्तर प्रदेश की राजनीति पर बसपा की कमज़ोर होती पकड़ के पीछे यह भी एक बड़ा कारण रहा है.

अब बसपा के सामने 2024 में खु़द को बचाने की चुनौती है. अगर 2024 में बसपा का प्रदर्शन नहीं सुधरा, तो एक तरह से यह मायावती की राजनीति का अंत बिंदु भी साबित हो सकता है. अगर ऐसा हुआ तो यह भारतीय राजनीति की उस विरासत को नुक़सान होगा, जिसकी शुरूआत कांशी राम ने आज से क़रीब 4 दशक पहले की थी.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ़ लेखक ही ज़िम्मेदार हैं.]

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