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यूपी: जानिए आखिर क्यों बेअसर रहा महागठबंधन और क्या रहा बीजेपी का विनिंग फैक्टर?

उत्तर प्रदेश की राजनीतिक हैसियत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस राज्य ने देश को 10 प्रधानमंत्री दिए हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद दूसरी बार यूपी के बनारस से मैदान में है.

नई दिल्ली: लोकसभा चुनाव में बीजेपी की ऐतिहासिक बढ़त के चर्चे हर तरफ है. रुझानों के मुताबिक अब ये साफ हो चुका है कि यूपी में बीजेपी बड़ी जीत हासिल करने वाली है. पर ऐसे में सवाले ये उठता है कि आखिर यूपी को साधने के लिए जोड़-तोड़ में लगा गठबंधन क्यों ज्यादा असरदार नहीं रहा और बीजेपी को इतनी सीटें कैसे मिलती दिखाई दे रही हैं.

हम बात कर रहे हैं उत्तर प्रदेश की हर पार्टी की नजर उत्तर प्रदेश पर है. और हो भी क्यों ना लोकसभा सीटों की संख्या के मामले में भारत का सबसे बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश है. कहा जाता है कि दिल्ली की सत्ता हासिल करने का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर गुजरता है इसमें कोई शक नहीं. उत्तर प्रदेश में जिस पार्टी का झंडा बुलंद होता है दिल्ली में भी सरकार उसी की बनती है. उत्तर प्रदेश की राजनीतिक हैसियत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस राज्य ने देश को 10 प्रधानमंत्री दिए हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद दूसरी बार यूपी के बनारस से मैदान में है.

यूपी को फतह करने के लिए अखिलेश और मायावती ने गठबंधन किया ताकि बीजेपी का मुकाबला मजबूती से किए जा सके. फिर शुरू हुआ छोटी-बड़ी पार्टियों को खुद से जोड़कर अपनी जड़ मजबूत करने का दौर. मायावती ने अपने राजनीतिक अनुभव और अखिलेश ने अपनी युवा सोच के साथ रणनीतियां बनाईं पर मोदी लहर के आगे कुछ टिक नहीं पाया.  अपने कोर वोटर्स का वोट पाने के बाद भी महागठबंधन उन्हें सीटों में नहीं बदल पाय  कम से कम अबतक के रुझानों में तो यही बात सामने आई है.

यूपी को साधने के लिए अखिलेश-मायावती ने 22 बार साझा किया मंच

लोकसभा चुनाव के सातों चरणों में मायावती ने 22 बार अखिलेश के साथ मंच साझा किया और साथ मिलकर करीब आधा दर्ज रोडशो किए. कई लोगों को ताज्जुब में डालते हुए अखिलेश ने मायावती को मैनपुरी की एक रैली में मुलायम सिंह यादव के साथ भी मंच साझा करने के लिए राजी कर लिया.

प्रदेश में सपा-बसपा की कुल 97 रैली हुईं जबकि बीजेपी ने 407 रैली कीं. राज्य में प्रचार समाप्त होने के बाद भावी रणनीति के लिए अखिलेश ने मायावती के साथ कई बैठकें की हैं. पर ये सब ज्यादा असरदार नहीं रहा.

वहीं बात करें बीजेपी की तो इन कारणों से पार्टी यूपी के साथ-साथ पूरे देश में ज्यादा सीटें पाती नजर आ रही है.

प्रभावशाली चेहरा और ब्रांड मोदी पूरे चुनावी कैंपेन के दौरान बीजेपी ने 'मोदी नहीं तो कौन?' यानि कि विपक्ष के पास प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार कौन है का मुद्दा उठाया. बीजेपी-एनडीए हर एक लोकसभा सीट पर प्रधानमंत्री मोदी के नाम पर वोट मांगे. जिस सीट पर उम्मीदवार कमजोर भी थे वहां भी बीजेपी ने पीएम मोदी के नाम पर वोट करने की अपील की. बीजेपी ने यह बताने की कोशिश की कि विपक्ष मोदी को हराने के लिए एकजुट हो रहा है.

वहीं सभी विपक्षी पार्टियां चुनाव परिणाम बाद चेहरे पर फैसले की बात कहती रही. विपक्षी दलों ने साल 1977 की याद दिलाई जब पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी. चुनाव में तब की विपक्षी पार्टियों ने चेहरे का एलान नहीं किया था. 2019 के चुनाव में विपक्षी पार्टियां मतदाताओं को समझाने में विफल रही. वहीं बीजेपी-एनडीए एक मजबूत चेहरे के तौर पर प्रधानमंत्री मोदी की तरफदारी करती रही और जनता ने भी दोबारा पीएम मोदी को चुना.

ताबड़तोड़ रैलियां और रोड शो 10 मार्च 2019 को लोकसभा चुनाव के एलान के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने करीब 150 रैलियां और रोड शो किये. उनके साथ बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह, केंद्रीय मंत्री राजनाथ सिंह, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान समेत अन्य स्टार प्रचारकों की रैलियों, रोड शो को मिला दिया जाए तो देशभर में इसकी संख्या 1000 से अधिक हो जाती है. सभी रैलियों में विपक्षियों खासकर कांग्रेस पर हमले के साथ राष्ट्रवाद, प्रधानमंत्री पद का चेहरे और पांच साल की योजना जैसे मुद्दे हावी रहे. बीजेपी यह बताने में सफल रही कि मोदी के बिना बालाकोट एयर स्ट्राइक, सर्जिकल स्ट्राइक संभव नहीं है. जनता के जेहन में यह सवाल डालने में कामयाब रही कि मोदी नहीं तो देश का नेतृत्व कौन करेगा? राहुल गांधी, मायावती, ममता बनर्जी?

जनता तक पहुंच लोकसभा चुनाव आते ही नरेंद्र मोदी ने ताबड़तोड़ रैलियां कीं. लोगों के बीच गए, उनसे बातें कीं. कहीं ना कहीं मोदी ने खुद को जनता से जोड़े रखा. लगातार बातचीत से पीएम मोदी ने जनता तक अपनी पहुंच बनाए रखी, जिसका परिणाम सामने आया.

राष्ट्रवाद चुनाव की घोषणा से करीब एक महीने पहले 14 फरवरी को जम्मू-कश्मीर के पुलवामा में हुए पाकिस्तानी आतंकी संगठन जैश ए मोहम्मद के हमले से देश आहत था. पाकिस्तान पर हमले की मांग उठ रही थी. तभी 26 फरवरी की रात को एक गुप्त ऑपरेशन में भारतीय वायुसेना ने पाकिस्तानी सरज़मी पर आतंकी ठिकानों को निशाना बनाते हुए हमला कर दिया. 250 से अधिक आतंकियों के मारे जाने की खबर देशभर में फैली (आधिकारिक बयान नहीं).

बीजेपी ने इसे खूब भुनाया. इसके ठीक बाद भारतीय वायुसेना के पायलट अभिनंदन वर्दमान की सुरक्षित वतन वापसी ने जनभावनाओं को मोदी सरकार के पक्ष में ला दिया.

महंगाई और भ्रष्टाचार इस चुनाव में देखें तो आम जनता को सीधे तौर पर प्रभावित करने वाले दो मुद्दे महंगाई और भ्रष्टाचार मुद्दा नहीं बन पाया. चुनाव से कुछ महीने पहले बढ़े पेट्रोल की कीमतों को छोड़ दें तो मोदी सरकार को महंगाई के आक्रोश का सामना नहीं करना पड़ा. सरकार ने दावा किया कि उसके कार्यकाल में महंगाई पूरी तरफ नियंत्रण में रहा, कलाबाजारियों पर नकेल कसा गया. जिसका असर चुनाव में साफ दिखाई दिया.

योजनाएं मोदी सरकार ने आम लोगों को सीधे तौर पर प्रभावित करने वाली चार योजनाओं का जिक्र खूब किया. इसमें स्वच्छता अभियान, किसान सम्मान निधि योजना, सौभाग्य योजना और उज्जवला योजना शामिल है.

किसान सम्मान निधि योजना चुनावी साल में मोदी सरकार ने किसान सम्मान निधि योजना की शुरुआत की. इससे तहत किसानों को सालाना छह हजार रुपये दिये जा रहे हैं.

स्वच्छता अभियान मोदी सरकार ने पांच साल में स्वच्छता पर जोर दिया और हर घर शौचालय बनवाने की कोशिश की. ग्रामीण इलाकों में लोगों को इसका फायदा मिला और इसका फायदा चुनाव में बीजेपी को मिला.

उज्जवला योजना उज्जवला योजना के तहत लाखों लोगों को मुफ्त में गैस सिलेंडर मिला. यही नहीं प्रधान मंत्री सहज बिजली हर घर योजना (सौभाग्य) का भी काफी असर मतदाताओं पर पड़ा.

बाकी योजनाएं यही नहीं सवर्ण आरक्षण, एससी-एसटी एक्ट की पुन: बहाली, 13 प्वाइंट रोस्टर जैसे मुद्दे को भी सरकार

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