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इन अक्षरों की तरह ही धूमिल होती उम्मीदें, पान के हरे पत्तों के बीच जिंदगी का एक स्याह सच

उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में आने वाले महोबा जिले में 10वीं शताब्दी से ही पान की खेती होती हो रही है. इस क्षेत्र में पान की खेती की शुरुआत करने का श्रेय चंदेल शासकों को जाता है

करीब 70 साल के हो चुके मोतीलाल के चेहरे पर बुढ़ापे की झुर्रियां दिखने लगी हैं. वो पान की खेती करते थे, लेकिन अब निराश हैं. अपने जिले महोबा के देशावरी पान की बड़ाई करते हुए वो कहते हैं कि सब खत्म हो गया. न अब मिट्टी का तेल मिलता है, न घास और न तार. पान की खेती कोई करे तो कैसे? पानी की खेती के करने वाले किसानों में एक बैजनाथ चौरसिया भी दुखी हैं. उनका कहना है कि पान की खेती में लगने वाले सामान की कीमत बहुत ज्यादा हो चुकी है. अभावों में हर साल पान सूख जाते हैं. मिट्टी का तेल न मिलने से मशीनें भी ठप पड़ी हैं. 

रामेश्वर चौरसिया कहते हैं, 'पान की खेती छोड़कर अब हम लोग पेट की खातिर कुछ और कामकाज करते हैं. कर्ज ले लेंगे तो मकान भी जब्त हो जाएगा. फिर हम हमारे बच्चे कहां रहेंगे'. वो कहते हैं कि सरकार की ओर से पान के किसानों कोई मदद अभी तक तो नहीं मिल पाई है. चौरसिया कहते हैं 'हमारे पास तो जमीनें भी नहीं है कि बदले में सरकारी मदद मिल सके'. बता दें कि सरकारी मदद से उनका मतलब बैंक से मिलने वाला कर्ज है'. 


इन अक्षरों की तरह ही धूमिल होती उम्मीदें, पान के हरे पत्तों के बीच जिंदगी का एक स्याह सच

abp से बातचीत में एक और किसान ने बताया कि पान की फसल को बीमा का भी लाभ नहीं मिलता है. इसको लेकर डीएम को भी एक बार ज्ञापन दिया गया चुका है, लेकिन कुछ नहीं हुआ. सरकारी आंकड़ों की मानें तो साल 2021-22 में ही भारत ने  6517.26 टन पान का निर्यात किया है. जिसकी कुल कीमत 45.97 करोड़ रुपये है. इन आंकड़ों से इतर सच्चाई एक ये भी है कि  लगभग 600 एकड़ में होने वाली पान की खेती सिमट कर 80-100  एकड़ में ही रह गई है. पान किसान बुरी आर्थिक तंगी से जूझ रहे हैं. 

काम हो रहें पान के किसान
वहीं महोबा के पान किसानों ने एबीपी न्यूज़ से बात करते हुए बताया कि पिछले कई वर्षों से आंधी, तूफ़ान और ओला गिरने से पान किसानों को करोड़ों की चपत लगी है. घास-फूस और बांस के छप्पर के बने पान बरेजे हर साल आग की चपेट में भी आ जाते हैं. पान किसानों को भारी नुकसान होने के चलते उन्हें दाने-दाने के लिए मोहताज होना पड़ता है. बताया जाता है कि दशकों पूर्व मध्य प्रदेश के छतरपुर, पन्ना, सतना के व्यापारी बैलगाड़ी-घोड़ों पर लाखों पान के टोकरे लादकर महोबा से पान ले जाते थे, लेकिन अब पान का उत्पादन कम होने से लोगों की यह संख्या लगातार कम होती जा रही है. 

पान किसानों को अब तक सरकारी कागजों में किसानी का दर्जा प्राप्त नहीं हो सका है. सरकारी मशीनरी द्वारा पलायन को लेकर दिखाए जाने वाले आंकड़े और वास्तविक आंकड़ों में जमीन और आसमान का अंतर स्पष्ट रूप से दिखाई देता है. पलायन की रोकथाम को लेकर केंद्र और प्रदेश सरकार द्वारा संचालित अधिकांश योजनाओं के धरातल में दम तोड़ने के चलते ज्यादातर किसानों ने दो वक्त की रोजी-रोटी के लिए पलायन का रास्ता अपना लिया.

पान किसानों के अलावा बुदेलखंड के सीमावर्ती क्षेत्र में आने वाले 50 हजार से अधिक गरीब लोग इस फसल से जुड़े हुए थे. पान की फसल में इस्तेमाल किया जाने वाला बांस, प्लास की जड़, घास, टोकरी, मिट्टी, जैविक खाद, गन्ने की पत्ती और सनई जैसी सामग्री इस काम से जुड़ें लोगों द्वारा पान किसानों को काफी कम पैसों में उपलब्ध कराई जाती थी. लेकिन, प्राकृतिक आपदाओं, सरकारी उपेक्षा और बीमारी के चपेट में आने के चलते इन किसानों को मजबूरी में पलायन का रास्ता चुनना पड़ा है. इसके चलते पान की खेती में आसानी से उपलब्ध होने वाली सामग्री पान किसानों की पहुंच से काफी दूर और मंहगी हो गई है. 

800 साल से हो रही है खेती

उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में आने वाले महोबा जिले में 10वीं शताब्दी से ही पान की खेती होती हो रही है. इस क्षेत्र में पान की खेती की शुरूआत करने का श्रेय चंदेल शासकों को जाता है, वहीं बाद में इस खेती को मुगल शासकों ने भी संरक्षण दिया. चंदेलों के शासन में तालाब के किनारों पर पान के बरेजे (पान की खेती में इस्तेमाल किए जाने वाला ढांचा) बनवाए गए थे. 

महोबा में पान की खेती करने वाले किसान डॉ. रामसेवक चौरसिया बताते है कि "राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान ने उत्तर प्रदेश विज्ञान एवं प्रोधोगिकी के सहयोग से वर्ष 1986 में पान की खेती की दशा सुधारने के लिए कई कार्यक्रम आयोजित किए. इसके बावजूद 600 एकड़ में होने वाली पान की खेती अब 80-100 एकड़ में सिमट कर रह गई है. कारण चाहे जो रहे हो लेकिन इस संस्थान का लाभ पान किसान नहीं उठा सके. हालांकि बाद में इस केंद्र को ही बंद कर दिया गया." 

रामसेवक चौरसिया आगे कहते हैं, पान किसान का अशिक्षित और अंधविश्वासी होना भी पान उत्पादन की कमी का दूसरा कारण माना जा सकता है. यही नहीं महोबा में पान कृषि का क्षेत्रफल काफी घट गया और पान किसान इस व्यवसाय से मुहं मोड़ने लगा है. इससे पान का विदेशी निर्यात भी प्रभावित हुआ है. इन अक्षरों की तरह ही धूमिल होती उम्मीदें, पान के हरे पत्तों के बीच जिंदगी का एक स्याह सच

वहीं किसान गया प्रसाद बताते हैं कि "हमें इस बात का भी अफसोस है कि आम किसानों की तरह पान किसानों को सरकार किसान ही नहीं समझती. किसानों को न तो कोई मुआवजा मिलता है और न ही पान खेती के बढ़ावा के लिए कोई आर्थिक मदद मिलती है. यही वजह है कि पान की खेती दम तोड़ती जा रही है. पान की सिंचाई के लिए कोई व्यवस्था नहीं है और न ही कोई ईंधन दिया जाता है. अधिकतर पान किसानों के पास खुद की जमीन भी नहीं है, वो दूसरों की जमीन किराए पर लेकर खेती करते हैं. जिस कारण भी इन्हें किसान ही नहीं समझा जा रहा. सरकार का ऐसा ही रुख पान किसानों को लेकर रहा तो आने वाले समय में महोबा की पहचान बन चुका पान विलुप्त हो जाएगा."

वैदिक काल से पान का प्रयोग
वैदिक काल में प्रत्येक मांगलिक कार्यों में पान का इस्तेमाल हुआ करता था, जो आज तक चला आ रहा है. महोबा में पान बरेजे का काम बड़ी तादाद में होता था. यहां का देशावरी और बंगला पान अपनी खास पहचान रखता है. होठों को लालिमा देने वाला देशावरी पान की बड़ी खेप विदेशों में जाया करती थी, लेकिन इसकी उपेक्षा के कारण अब पान देश में ही पान प्रेमियों तक नहीं पहुंच पा रहा है. 

खेती करने वाले पान किसान बताते हैं कि अब पान किसानों के लिए घाटे का काम हो गया है. इस खेती में मजदूरी निकालना भी मुश्किल पड़ रहा है. पान की खेती दशकों पूर्व फायदे का काम था, मगर अब ऐसा नहीं है. पान की कम पैदावार और लगने वाले सामान की महंगाई भी पान खेती से किसानों को दूर कर रही है.

इन अक्षरों की तरह ही धूमिल होती उम्मीदें, पान के हरे पत्तों के बीच जिंदगी का एक स्याह सच

किसानों को अच्छे दिनों की आस
फिलहाल, मौजूदा हालात की बात की जाए तो न तो अभी तक पलायन जैसे दंश से किसानों को निजात मिल सकी है. सरकारी फाइलों में भले ही महोबा के पान को जीआई टैग का दर्ज मिल गया हो. लेकिन इसका फायदा किसानों को कैसे मिलेगा ये महोबा में किसी को नहीं पता. 

महोबा में पान की खेती करने वाले कुछे ऐसे भी किसान हैं जो सिर्फ इसलिए खेती कर रहे हैं क्योंकि वो अपने बाप-दादा की परंपरा को आगे बढ़ाना चाहते हैं. कुछ किसानों का मानना है कि वो अपनी आने वाली पीढ़ियों को खेती नहीं करने देगें, उन्हें खेती में दूर-दूर तक फायदा और उम्मीद की किरण नजर नहीं आती. किसानों को पान की खेती का भविष्य अंधकार में लगता है. परंपराएं सहेजना आसान नहीं है.

(इनपुट इमरान खान)

 

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