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रिपोर्टर डायरी : लॉकडाउन में रिपोर्टिंग का पहला दिन

Coronavirus : जान के डर ने लोगों को घर पर रहने के लिए मजबूर कर दिया है. लेकिन पुलिस और मीडिया अपना काम लगातार कर रही है.

नई दिल्ली: न्यूज़ चैनलों के काम का मिजाज ऐसा है कि सब को एक साथ छुट्टी पर नहीं भेजा जा सकता. एबीपी न्यूज़ ने रिपोर्टरों को ज़्यादा से ज़्यादा घर पर रखने के लिए उन्हें आधे-आधे के ग्रुप में बांट दिया है. आधे रिपोर्टर 3 दिन ड्यूटी कर रहे हैं और आधे अगले 3 दिन फील्ड में जा रहे हैं. इस लिहाज से लॉकडाउन के इस दौर में फील्ड में जाने का ये मेरा पहला दिन था.

आम दिनों में मैं सुप्रीम कोर्ट की रिपोर्टिंग करता हूं. अपने घर, गाज़ियाबाद के इंदिरापुरम से कभी मेट्रो, कभी अपने वाहन और कभी ऑफिस की गाड़ी से कोर्ट चला जाता हूं. जब ऑफिस की गाड़ी से कोर्ट से जाता हूं, तो ऑफिस जाकर कैमरा यूनिट लेने वाले कैमरा सहयोगी मुझे पिक करते हैं.

आज शायद पहला मौका था, जब मैंने कैमरामैन को उनके घर से पिक किया. दरअसल, ऑफिस में लोगों की आवाजाही कम करने के लिए कैमरामैन को कैमरा यूनिट फिलहाल घर पर ही रहने को कहा गया है. इसलिए, उन्हें ऑफिस आ कर कैमरा लेने की जरूरत नहीं पड़ती.

ठीक सुबह 9 बजे मैं इंदिरापुरम से उत्तर पूर्वी दिल्ली के गोकुलपुरी की तरफ बढ़ चला, जहां मेरे आज के कैमरा सहयोगी आशीष सक्सेना का घर है. बेहद खुशमिजाज और हमेशा उत्साहित दिखने वाले आशीष के पास बातों का खजाना होता है. करीब 9:30 बजे जब वो गाड़ी में बैठे तो उन्होंने हमेशा की तरह बातचीत शुरू कर दी. मुझे बताने लगे कि यह इलाका पिछले महीने हुए दंगों से बहुत ज्यादा प्रभावित रहा.

धीरे-धीरे गाड़ी आगे बढ़ी और हम मौजपुर-बाबरपुर इलाके में आ पहुंचे. आशीष जी की रनिंग कमेंट्री जारी थी. उन्होंने बताया कि उस इलाके में महीना भर पहले लोग एक-दूसरे के सामने आ जमे थे. सड़क के दोनों तरफ अलग-अलग समुदायों की आबादी है. दोनों तरफ से लोग पथराव कर रहे थे. वहां पर गोलियां भी चली थी.

रिपोर्टर डायरी : लॉकडाउन में रिपोर्टिंग का पहला दिन

पीछे मैं जली हुई गाड़ियों की कालिख, टूटे हुए शीशों, दरकी हुई दीवारों के नजारे देखता हुआ आया था. आखिर दंगों को 1 महीने का ही तो समय हुआ है. मौजपुर से गुजरते हुए आशीष की बात ने मुझे ठिठकने को मजबूर कर दिया. इलाका पूरा शांत पड़ा था. बंद पड़ी दुकानें, सड़क पर इक्का-दुक्का लोग और गलियों के बाहर पुलिस. मेरे मन में ख्याल आया कि जो लोग सांप्रदायिकता के उन्माद में पागल हुए जा रहे थे. कर्फ्यू लगा देने के बावजूद घरों के अंदर नहीं जा रहे थे, आज कैसे एक बीमारी ने उन्हें घरों पर रहने के लिए मजबूर कर दिया है.

मेरे कहने पर गाड़ी रूक चुकी थी. मैं गहरी सोच में जा चुका था. कैसे बीमारी ने लोगों को समझा दिया कि वह जात-धर्म-मजहब देखकर किसी को अपना शिकार नहीं बनाएगी. बीमारी किसी भी मजहब के व्यक्ति को हो सकती है. और उससे आगे फिर किसी को भी हो सकती है. बीमारी ने शायद लोगों को समझा दिया कि हिंदू मुसलमान होने से पहले वो इंसान हैं.

मैंने गाड़ी पीछे करवाई और ठीक उसी जगह ले गया, जहां महीना भर पहले लोग एक-दूसरे पर पथराव कर रहे थे. वहां से एक वीडियो रिपोर्ट तैयार की. बताया कि कैसे दंगों में 53 लोग मारे गए थे. ऐसी हिंसा और आगजनी हुई थी, जैसी दिल्ली में बरसों से देखी-सुनी नहीं गई थी. लोगों से दुआ करने की अपील की कि बीमारी से लड़ाई हम सब जीत जाएं. सब जिएं और भविष्य में हिंदू मुसलमान से पहले इंसान बन कर जिएं.

वहां के बाद अगला ठिकाना बना मंडी हाउस का इलाका. मीडिया से जुड़े लोगों की पसंदीदा जगहों में से एक. हिमाचल भवन के बाहर कभी भी चले जाइए. अच्छी खासी संख्या में टीवी के रिपोर्टर और कैमरामैन नजर आ जाते हैं. चाय पीते, समोसा, राजमा चावल खाते. लेकिन आज सारी दुकानें बंद थी. मीडिया के कुछ लोग वहां नजर भी आए. सबने मास्क पहन रखे थे और एक-दूसरे से थोड़ी दूरी पर ही खड़े होकर बात कर रहे थे.

टीवी मीडिया की दुनिया अभी भी काफी छोटी है. फील्ड के रिपोर्टर और कैमरामैन एक दूसरे को पहचानते हैं. इसलिए, चेहरों पर मास्क के बावजूद न तो मुझे किसी को पहचानने में दिक्कत हुई, न किसी को मुझे पहचानने में समस्या हुई. अभिवादन का लेनदेन हुआ. पता चला कि कुछ रिपोर्टर और कैमरामैन को उनके संस्थान ने क्वॉरेंटाइन पर जाने के लिए कह दिया है. वजह है उनका संदिग्ध लोगों से मिलना. यानी काम की मजबूरी के चलते चैनलों ने भले ही अपने फील्ड स्टाफ को बाहर निकाला हो, लेकिन स्वास्थ्य को लेकर हर मुमकिन सावधानी बरती जा रही है.

मंडी हाउस के बाद गोल मार्केट के इलाके में गया. वहां कोरोना के प्रति जागरूकता के लिए एबीपी न्यूज़ के एक अभियान का वीडियो शूट कर ही रहा था कि चैनल के असाइनमेंट से कॉल आ गया. फोन पर सभी रिपोर्टरों के चहेते धर्मेंद्र जी थे.

उन्होंने अनुरोध भरे स्वर में कहा, “आप गुरुग्राम निकल जाइए. इस समय रिपोर्टरों के काफी कमी हो गई है. इसलिए, आपसे कहा जा रहा है.“ मैंने पूछा कि बात क्या है? तो उन्होंने बताया कि हरियाणा में लॉकडाउन के बावजूद शराब की दुकानें खुले रखने की इजाज़त है. अब पता चला है कि सरकार आज उन्हें बंद करने का फैसला ले सकती है. ऐसे में हो सकता है कि शराब की दुकानों पर भारी भीड़ हो जाए. इस पर एक रिपोर्ट बनाई जा सकती है.

आम दिनों में कोर्ट में व्यस्त रहने के चलते इस तरह की कोई स्टोरी मैं नहीं कर पाता. सुबह से लॉक डाउन के कई रंग देख चुका था. चहल-पहल वाली हर जगह पर वीराना पसरा देखा था. जगह जगह पुलिस वालों को लोगों को रोकते देखा था. लॉकडाउन के दौरान मीडिया को रिपोर्टिंग की इजाजत दी गई है. इसलिए, हर जगह मीडिया का आइडेंटिटी कार्ड दिखा कर ही आगे जाने की अनुमति मिली थी. गुरुग्राम जाने की बात पर शुरू में तो मैं थोड़ा सा अनमना सा हुआ. लेकिन तुरंत अंदर का रिपोर्टर जाग उठा. लॉकडाउन का एक और दिलचस्प असर देखने की उत्सुकता मन में भर गई.

गाड़ी गोल मार्केट से गुड़गांव के रास्ते बढ़ चली. महिपालपुर से आगे एयरपोर्ट की तरफ बढ़ते हुए यकीन नहीं आ रहा था कि यह वही सड़क है जहां आम दिनों में एयरपोर्ट और गुड़गांव की तरफ जाने वाली गाड़ियां एक दूसरे को तेज़ी से ओवरटेक करती हैं. यहां तो सड़क पर दूर-दूर तक हमारे अलावा कोई दूसरी कार थी ही नहीं. गुरुग्राम बॉर्डर पर पहले दिल्ली पुलिस और फिर हरियाणा पुलिस में हमें रोका. पहले की तरह मीडिया का कार्ड देख कर आगे बढ़ने दिया.

बॉर्डर से आगे बढ़ते ही बाई तरफ एक शराब की दुकान दिखाई दी. दुकान बिल्कुल खाली पड़ी थी. उसे देखकर थोड़ा ताज्जुब हुआ. हम तो यह समझ कर आए थे कि शराब की दुकान पर जबरदस्त भीड़ होगी. फिर मैंने और आशीष सक्सेना ने आपस में बात की. दोनों का ख्याल था कि बॉर्डर के पास पुलिस का जमावड़ा होने के चलते लोग इस दुकान में नहीं आ रहे होंगे. इसलिए आगे चलकर देखा जाए. सड़क खाली थी. हम शराब की दुकान ढूंढते हुए 3-4 किलोमीटर तक बढ़ गए. इस दौरान 2-3 और दुकाने नजर आईं. सब की स्थिति वैसी ही थी. मैंने अपने ड्राइवर से कहा, “यह मेन रोड है. किसी अंदर के इलाके में लीजिए. शायद वहां की दुकान पर भीड़ मिले.“ गाड़ी मुख्य सड़क से अंदर की तरफ मोड़ ली गई. कुछ आगे जाने के बाद एक और दुकान देखी. उसकी भी वही स्थिति थी. हमने गाड़ी वापस मुख्य सड़क पर डाल ली.

इसके बाद मैंने ऑफिस में फोन कर के जानकारी दी. बताया कि यहां पर शराब की दुकानों में भीड़ जैसी कोई स्थिति नहीं है. इसलिए, जो नजर आ रहा है, मैं उसी पर एक रिपोर्ट तैयार करने जा रहा हूं. तब तक मैं सिकंदरपुर इलाके में पहुंच चुका था. वहां पर शीशे के विशाल दरवाजे वाली एक बड़ी सी शराब की दुकान नजर आई. दुकान में सब कुछ था. हर तरह की शराब, बियर और सेल्समैन. कुछ नहीं था, तो बस कोई ग्राहक. मैं दुकान के अंदर गया और वहां के कर्मचारियों से बात की. उन्होंने बताया कि लॉकडाउन के दौरान धंधा बिल्कुल बंद सा है. मैंने उनसे मिली जानकारी के आधार पर एक वीडियो रिपोर्ट तैयार करना शुरू कर दिया.

सिकंदरपुर से आगे बढ़ा तो पास के ही डीएलएफ फेज 3 इलाके में शराब की 2 दुकानें नजर आईं. एक अंग्रेजी शराब की और उससे लगी दूसरी दुकान देसी शराब की. दोनों दुकानों की स्थिति वैसी ही थी, जैसी बाकी की नजर आई थी. ग्राहक नहीं थे, कोई चहल-पहल नहीं थी. दूसरी दुकानों की तरह यहां शीशे का कोई दरवाजा नहीं था, तो अंदर दो बिन बुलाए मेहमान ज़रूर आकर बैठ गए थे. जिस जगह से आम दिनों में दुत्कार कर भगा दिए जाते होंगे, वहां आज दो कुत्ते आराम फरमा रहे थे.

दुकान के बाहर मुझे रिपोर्ट तैयार करता देख एक सज्जन ने अपनी बाइक रोकी. कहा, “दुकानदार गरीबों को लूट रहे हैं. डेढ़ गुनी कीमत पर शराब दी जा रही है. आप इनसे कुछ कहते क्यों नहीं?” गरीबों के लुटने पर भाई साहब की चिंता पर मैं मन ही मन मुस्कुराया और दुकान के अंदर गया. बड़े से काउंटर पर अकेले बैठे एक कर्मचारी से पूछा, “क्यों भाई, तुम लोग डेढ़ गुना कीमत पर शराब क्यों दे रहे हो?” तो उसने इससे साफ मना कर दिया. कर्मचारी ने देख लिया था कि मैं मीडिया से हूं और बाइक वाले सज्जन तब तक जा चुके थे. इसलिए, सच कौन बोल रहा था, इसका पता लगा पाना थोड़ा मुश्किल था.

इसके बाद मैं दिल्ली की तरफ वापस लौट गया. लौटते हुए यही सोचता रहा कि आज क्या क्या देखा? मैंने देखा कि जान के डर ने लोगों को घर पर रहने के लिए मजबूर कर दिया है. लेकिन पुलिस और मीडिया अपना काम लगातार कर रही है. रास्ते पर जगह-जगह जमा पुलिस के लोगों को देखकर मेरे मन में उनके लिए सम्मान का भाव आया. किसी हॉस्पिटल में जाने का तो आज मौका नहीं मिला, लेकिन जानता हूं कि डॉक्टरों और मेडिकल स्टाफ के ऊपर इस समय बड़ी जिम्मेदारी है. और वो पूरी कर्तव्य निष्ठा से काम कर रहे हैं.

निजामुद्दीन ब्रिज के रास्ते गाज़ियाबाद की तरफ बढ़ते हुए, मैंने थोड़ी-थोड़ी दूरी पर कई लोगों को पोटली-गठरी सर पर रखे, कंधे पर बैग लटकाए, पैदल बढ़ते देखा. ये वो लोग थे, जो रोज कमाने खाने वाले हैं. लॉकडाउन के दौर में उनके पास दिल्ली में रोजगार का कोई जरिया नहीं है. शायद कमरों का किराया देने के पैसे भी नहीं. ऊपर से बड़े शहर में बीमारी का खतरा ज्यादा होने का भी डर है. यातायात बंद है. इसलिए, पैदल ही अपने कस्बे, अपने गांव की तरफ बढ़े चले जा रहे हैं. शायद सैकड़ों मील. उनकी हालत देखकर अफसोस हुआ. सरकार ने जिस आर्थिक पैकेज का ऐलान किया है, उम्मीद है कि वह ऐसे गरीब लोगों के काम आए. क्योंकि अमीर भारत में अपने साथ जिस बीमारी को ले आए हैं, उसका सबसे बड़ा नुकसान गरीबों को ही हो रहा है.

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