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जच्जा-बच्चा की जान नहीं बचा पा रहा है सिस्टम, क्या सिर्फ फाइलों में चल रही हैं योजनाएं?

भारत में प्रसव के दौरान महिलाओं, मृत शिशुओं के जन्म और नवजात शिशुओं की मौत के मामले सबसे ज्यादा हैं. 2020-2021 में 23 लाख नवजात शिशुओं की मौत हुई, जिनमें से भारत में मरने वालों की संख्या 7,88,000 रही.

संयुक्त राष्ट्र की एक ताजा रिपोर्ट में ये जानकारी छपी है कि भारत में प्रसव के दौरान महिलाओं, मृत शिशुओं के जन्म और नवजात शिशुओं की मौत के मामले सबसे ज्यादा पाए गए हैं. इस रिपोर्ट में 10 देशों की लिस्ट में भारत टॉप पर है. विश्व स्वास्थ्य संगठन, संयुक्त राष्ट्र बाल कोष और संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष की रिपोर्ट में मंगलवार को प्रकाशित हुए आंकड़ों को अंतरराष्ट्रीय मातृ नवजात स्वास्थ्य सम्मेलन (International Maternal Newborn Health Conference) 2023 के दौरान मंगलवार को जारी किया गया. 

इन आंकड़ों के मुताबिक 2020-2021 में प्रसव के दौरान दो लाख 90 हजार महिलाओं की मौत हुई. 19 लाख मृत शिशुओं का जन्म हुआ और 23 लाख नवजात शिशुओं की मौत हुई. यानी वैश्विक स्तर पर कुल 45 लाख मौतें हुईं, जिनमें से भारत में मरने वालों की संख्या 7,88,000 रही.

रिपोर्ट में ये बताया गया कि 2020 से 21 के बीच दुनिया भर में पैदा हुए बच्चों में से 17 फिसदी शिशुओं का जन्म भारत में हुआ.

सरकारी स्कीम का फायदा उठाने वाले राज्यों के हालत बदतर

बताते चलें कि भारतीय अस्पतालों में सबसे ज्यादा प्रसव कराया जाता है. इसकी सबसे बड़ी वजह प्रसूताओं को मिलने वाली नकद लाभ स्कीम है. जिसे केंद्र सरकार ने 16 साल पहले शुरू किया था. 

संस्थागत डिलीवरी के मामले में प्रसूताओं को मुख्य रूप से तीन योजनाओं का लाभ मिलता है. पहली योजना जननी सुरक्षा योजना (जेएसवाई) है.  इसे 2005 में शुरू किया गया था. 

सरकार ने इस योजना की शुरुआत गर्भवती महिलाओं और नवजातों की स्थिति में सुधार लाने के लिए की है. जेएसवाई में गर्भवती महिला की डिलीवरी होने पर सीधे उनके बैंक अकाउंट में 6000 रुपये दिए जाते हैं. जेएसवाई में मदद की यह रकम जच्चा-बच्चा को पर्याप्त पोषण उपलब्ध कराने के हिसाब से दी जाती है.

यह योजना सामाजिक व आर्थिक रूप से पिछड़े 9 राज्यों बिहार, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, झारखंड, राजस्थान, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और असम में लागू है. 2013 में स्वीडन के कारोलिंस्का इंस्टीट्यूट और युमिया विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने प्लोस वन में एक लेख प्रकाशित किया था. इसके मुताबिक भारत की कुल आबादी का आधा हिस्सा इन्हीं राज्यों में बसता है. 60 प्रतिशत मातृ मृत्यु और 70 प्रतिशत नवजात मृत्यु इन राज्यों में दर्ज की जाती है. 

2020-2021 में प्रकाशित हुई केंद्रीय स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक केंद्र सरकार ने वित्त वर्ष 2005-06 में इस योजना पर 38 करोड़ रुपए खर्च किए थे, जो साल 2019-2020 में बढ़कर 1,773.88 करोड़ रुपए पर पहुंच गया.

जननी शिशु सुरक्षा कार्यक्रम की भी हुई शुरुआत 

जून 2011 में केंद्रीय स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय ने जननी शिशु सुरक्षा कार्यक्रम (जेएसएसके) की शुरुआत की. इस कार्यक्रम के तहत गर्भवती महिलाओं को कई तरह की सुविधाएं देने की स्कीम थी. जैसे घर से स्वास्थ्य केंद्र तक आने जाने का खर्च, डिलीवरी प्रक्रिया, दवाइयां, पौष्टिक आहार, इलाज, ब्लड ट्रांसफ्यूजन सभी निशुल्क दिया जाता था. 

साल 2013 में इस कार्यक्रम में और सुधार हुआ, और “डिलीवरी से पहले व डिलीवरी के बाद आने वाली स्वास्थ्य संबंधी दिक्कतों और एक साल तक की उम्र के बीमार नवजातों” के इलाज की भी सहूलियत दी गई.

प्रधानमंत्री सुरक्षित मातृ अभियान के तहत पूरी तरह से मुफ्त इलाज 

साल 2016 में गर्भवती महिलाओं को डिलीवरी से पहले मुफ्त और गुणवत्तापूर्ण चिकित्सा मुहैया कराने के लिए प्रधानमंत्री सुरक्षित मातृ अभियान की शुरुआत की गई. केंद्रीय स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय की 2020-2021 वार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक 5 जनवरी 2021 तक देशभर के 17,000 सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों में कुल 2.63 करोड़ चेकअप हुए . 

साल 2017 में गर्भवती महिलाओं की मदद पहुंचाने के लिए "लक्ष्य" कार्यक्रम की शुरुआत की गई. ये कार्यक्रम सीधे तौर पर संस्थागत प्रसव पर नकद मदद नहीं देता है. ये गर्भवती महिलाओं को संस्थागत प्रसव के लिए आकर्षित करता है. 

लक्ष्य कार्यक्रम सरकारी चिकित्सा केंद्रों के लेबर रूम और ऑपरेशन थियेटर में गर्भवती महिलाओं की देखभाल पर फोकस करता है. केंद्रीय स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्ट बताती है कि 14 अक्टूबर 2020 तक इस कार्यक्रम के लिए 2,805 सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों का चयन किया गया, जिनमें से 614 लेबर रूम और 538 ऑपरेशन थियेटरों को राज्य प्रमाणपत्र दिया जा चुका है.

फेल हो रही हैं सारी योजनाएं

सुरक्षित डिलीवरी को बढ़ावा देने के लिए चलायी जा रही इन तमाम योजनाओं का मकसद बच्चे के जन्म के समय होने वाली स्वास्थ्य संबंधी दिक्कतों का कम करना है. बड़े पैमाने पर चलाई जा रही इन योजनाओं से नवजात और प्रसूता की मृत्यु दर में कमी आना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ है.

जच्चा-बच्चा कार्यक्रम 9 राज्यों बिहार, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, झारखंड, राजस्थान, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और असम लक्षित है, लेकिन रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया की तरफ से जारी साल 2017-2019 की सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम रिपोर्ट के मुताबिक इन राज्यों के आंकड़ों पर गौर करने से पता चलता है कि यहां मातृ मृत्यु दर बहुत ज्यादा है और इनमें से कुछ राज्यों में तो ये दर राष्ट्रीय औसत से भी ज्यादा है. राष्ट्रीय औसत दर 103 है. नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के मुताबिक 15 सालों में प्रसव के दौरान मातृ मृत्यु इन्हीं 9 राज्यों में बढ़ा है. 

क्या इन कार्यक्रमों में सुधार की जरूर है? 

अलग-अलग रिसर्च ये दावा करती हैं कि केवल संस्थागत प्रसव को बढ़ावा देने से मातृ मृत्यु दर में कमी नहीं आएगी. साल 2013 में प्लोस वन जर्नल में छपे अध्ययन के मुताबिक “ग्रामीण इलाकों में गर्भवती महिलाएं निम्नस्तरीय स्वास्थ्य केंद्रों में जाती हैं. यहां पर सेवाएं बदहाल होती हैं. इन केंद्रों में इलाज के लिए पर्याप्त उपकरण भी नहीं होते. ऐसे में महिलाओं की सुरक्षित डिलीवरी चुनौती बन जाती है”. 

केंद्रीय स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय की एक रिपोर्ट ये भी बताती है “संस्थागत डिलीवरी में बढ़ोतरी से जरूरी नहीं है कि महिलाओं को प्रसव के वक्त बेहतर सुविधा मिल जाएगी, क्योंकि ज्यादातर नर्स व एएनएम (ऑक्जिलरी नर्स मिडवाइव्स) प्रशिक्षित नहीं हैं. 

जून 2019 में छात्र वांलटियर द्वारा आयोजित जच्चा-बच्चा सर्वेक्षण (जेएबीएस), छह राज्यों: छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, मध्य प्रदेश, ओडिशा और उत्तर प्रदेश में हुआ. प्रत्येक राज्य में सर्वेक्षण टीमों ने 10 से 12 आंगनवाड़ियों (एक ही जिले में दो ब्लॉकों में फैली) का दौरा किया और उन आंगनवाड़ियों में पंजीकृत गर्भवती और नर्सिंग महिलाओं में से का साक्षात्कार लिया. क्या जवाब मिला नीचे जानिए

संसाधन की कमी बना सबसे बड़ा रोड़ा

रिपोर्ट्स ये बताती हैं कि ग्रामीण इलाकों में गर्भावस्था के दौरान विशेष आवश्यकताओं पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है. घरों में अच्छा भोजन,  आराम और स्वास्थ्य देखभाल की जानकारी गर्भवती महिलाओं के परिवारों को नहीं होती है. काउंटर करेंट डॉट ओआरजी में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक यूपी में 48% गर्भवती महिलाओं और 39% नर्सिंग महिलाओं को पता नहीं है कि गर्भावस्था के दौरान उनका वजन बढ़ा है या नहीं.  इसी तरह गर्भावस्था के दौरान और बाद में अतिरिक्त आराम की आवश्यकता के बारे में बहुत कम जागरूकता है.

काउंटर करेंट डॉट ओआरजी को केवल 22% नर्सिंग महिलाओं ने बताया कि वे अपनी गर्भावस्था के दौरान सामान्य से ज्यादा खा रही थीं, और सिर्फ 31% ने कहा कि वे सामान्य से ज्यादा पौष्टिक भोजन खा रही थीं.

49% प्रतिशत गर्भवती महिलाओं ने कहा कि बहुत ज्यादा कमजोर महसूस करने की बात कही. 41% प्रतिशत महिलाओं के पैरों में सूजन, 17 प्रतिशत महिलाओं ने दिन की रौशनी में दिखाई न देने की शिकायत, 9 प्रतिशत महिलाओं ने शरीर में ऐंठन की शिकायत की. निराशाजनक ये था कि गर्भवती और नर्सिंग महिलाएं स्वास्थ्य सेवाएं से बुरी तरह से वंचित हैं. 

मातृत्व लाभ से वंचित हैं कई महिलाएं

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम 2013 (एनएफएसए) के तहत सभी गर्भवती महिलाएं ₹ 6,000 के मातृत्व लाभ की हकदार हैं. केंद्र सरकार ने 2017 में प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना (पीएमएमवीवाई) शुरुआत की लेकिन जमीनी तौर पर गांवों में ये स्कीम नहीं पहुंची. ये अधिनियम का घोर उल्लंघन है कि जिन गांवों में पीएमएमवीवाई की योजना पहुंच रही है वहां पर 6000 रुपये की जगह 5000 रुपये ही औरतों को दिए जा रहे हैं.

गर्भवती महिलाओं में जागरुकता का अभाव भी एक समस्या है. 28 महिलाओं में से सिर्फ एक महिला तीन बार एएनसी चेकअप कराती है, जबकि ज्यादातर महिलाएं दो बार ही चेकअप कराती हैं कुछ तो एक बार भी चेकअप कराना जरूरी नहीं समझती. जानकारों का ये भी कहना है कि कई महिलाएं प्रसव के लिए अस्पताल इसलिए आती हैं क्योंकि उन्हें पैसा मिलता है. लेकिन उन्हें ये नहीं बताया गया है कि किस तरह का पौष्टिक आहार उन्हें लेना चाहिए.

दूसरी समस्या प्रजनन दर का अधिक होना है. ज्यादा प्रजनन करने वाली महिलाओं में खून की कमी यानी एनिमिया हो जाता है.  ये महिलाएं  एएनसी चेकअप भी नहीं कराती हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक 98 प्रतिशत प्रेगनेंट भारतीय महिलाओं को एनिमिया है. जिससे बच्चे की पैदाइश के दौरान खतरा होता है. 

क्या बदलाव की कोई तस्वीर नहीं है 

इस निराशाजनक तस्वीर के खिलाफ कुछ सकारात्मक परिवर्तन के कुछ संकेत भी हैं. जो इस तरह हैं. 

• सार्वजनिक एम्बुलेंस सेवाओं का इस्तेमाल अब बहुत आम है - अधिकांश नर्सिंग महिलाएं "108" डायल करके एम्बुलेंस की सेवाओं का इस्तेमाल करती हैं.  इस सेवा के लिए मात्र 58 रुपये देने होते हैं.  

• कुछ राज्य, विशेष रूप से ओडिशा, अब गर्भवती और नर्सिंग महिलाओं को "टेक-होम राशन" (टीएचआर) के रूप में अंडे दे रहे हैं.  यह एक अच्छी पहल है जिसे सभी राज्यों में अपनाया जाना चाहिए. ओडिशा में मातृत्व लाभ योजना और ममता योजना की भी शुरुआत हुई है. 

• कुछ राज्यों ने स्थानीय आंगनवाड़ी में गर्भवती और नर्सिंग महिलाओं को पका हुआ भोजन प्रदान करना शुरू कर दिया है.  संयोग से, यह एनएफएसए की धारा 4 के तहत एक कानूनी अधिकार है.

 

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