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Faiz Ahmed Faiz Death Anniversery: पढ़िए सआदत हसन मंटो, फिराक़ गोरखपुरी और अटल बिहारी वाजपेयी से जुड़ा फै़ज़ का दिलचस्प किस्सा

फैज ने न सिर्फ लिखा बल्कि ऐसा लिखा जो आज तक जिंदा है और आगे भी सदियों तक वह जिंदा रहेगा. फैज़ की लेखनी को सरहदों में नहीं बांटा जा सकता क्योंकि उनके कलम से निकला मोहब्बत का पैगाम हो या इंकलाबी बोल वो सरहदों के दोनों तरफ उसी तरह से अपनाए गए जैसे खुद फैज़ को उनके चाहनेवालों ने अपनाया.

कलम की नोक से कागज के साथ छेड़छाड़ करने का अपना मजा है...तभी तो कलमकारों से कलम छीन लेने पर वो खून में अपनी ऊंगलियां डुबो लेते हैं.फक़ीरों और दर्वेश सिफ़त शायरों की वो नस्ल गायब होती जा रही है जिनकी जुरअते रिन्दाना के सामने अमीराने शहर सर झुकाये रहते थे...ऐसे शायर अब कहां हैं जो उदास रातों में जुगनुओं सा उम्मीद जगाते थे. वो शायर जो इंसानियत के क़त्ल पर सैलाब बन जाते थे..जिनके एक-एक लफ़्ज से इत्र की खुशबू आती थी...

बीसवीं सदी के उन आखिरी सालों में जब एटम और बारूद की सियासत सारी दुनिया को बंजर बना देने पर तुली थी, उस वक्त फैज़ का जाना एक बड़ा हादसा था..फ़ैज़ इंसानियत और मोहब्बत का वो दरख्त थे जिसके छांव में एकता और इंकलाब के तराने गूंजते थे...फै़ज़ सिर्फ उर्दू या पाकिस्तान के नहीं बल्कि पूरी दुनिया के आवाम के शायर थे.. वो एक लहलहाते हुए फसल की तरह थे, जो हर किसी के आंखों को सुकून देते थे..कभी फै़ज़ ने कहा था

अपने बेख़्वाब किवाड़ों को मुकफ़्फ़िल कर लो यहां अब कोई नहीं कोई नहीं आएगा

लेकिन फै़ज़ की शायरी को चाहने वाले मुझ जैसे लोग दरवाजे और खिड़कियां बंद नहीं करते बल्कि फै़ज़ को फै़ज़ के ही लफ़्जों में आवाज़ देकर बुलाते हैं..

गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौ-बहार चले चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले

जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रोटोकॉल तोड़ कर फैज़ से मिलने उनके घर गए

फैज ने न सिर्फ लिखा बल्कि ऐसा लिखा जो आज तक जिंदा है और आगे भी कई सालों तक वह जिंदा रहेगा. फैज़ की लेखनी को सरहदों में नहीं बांटा जा सकता क्योंकि उनके कलम से निकला मोहब्बत का पैगाम हो या इंकलाबी बोल वो सरहदों के दोनों तरफ उसी तरह से अपनाए गए जैसे खुद फैज़ को उनके चाहनेवालों ने अपनाया.

Faiz Ahmed Faiz Death Anniversery: पढ़िए सआदत हसन मंटो, फिराक़ गोरखपुरी और अटल बिहारी वाजपेयी से जुड़ा फै़ज़ का दिलचस्प किस्सा

फ़ैज़ हर मुल्क़ के आवाम के शायर थे. उनकी लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाइए कि एक बार हमारे पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी उनसे मिलने प्रोटोकॉल तोड़ कर उनके घर गए थे. बात साल 1977 की है. जब देश में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी और अटल बिहारी वाजपेयी को विदेश मंत्रालय की जिम्मेदारी दी गई. वाजपेयी पाकिस्तान के आधिकारिक दौरे पर गये हुए थे. पहले से तय कार्यक्रम और बतौर विदेश मंत्री उनको प्रोटोकॉल को फॉलो करना था, लेकिन फ़ैज़ से मोहब्बत ऐसी कि अटल बिहारी वाजपेयी उनसे मिलने उनके घर गए. फैज़ अहमद फैज़ तब एशियाई-अफ़्रीकी लेखक संघ के प्रकाशन अध्यक्ष थे. बेरुत (लेबनान) में कार्यरत थे. उन दिनों पाकिस्तान आए हुए थे. अटल बिहारी वाजपेयी ने मिलते ही कहा, मैं सिर्फ एक शेर के लिए आपसे मिलना चाहता था.

फैज़ ने पूछा कौन सा शेर अटल जी... अटल बिहारी वाजपेयी ने फैज़ की एक मशहूर ग़ज़ल का शेर पढ़ा,

मकाम ‘फैज़’ कोई राह में जंचा ही नहीं, जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले

फैज़ भावुक हो गए. अटल बिहारी वाजपेयी, उन्हें भारत आने का न्योता देकर लौट आये.

मंटो को लेकर क्या सोचते थे फ़ैज़

1916 में, फैज़ ने मौलवी इब्राहिम सियालकोटी जो एक स्थानीय विद्यालय था उसमें प्रवेश लिया. बाद में स्कॉट मिशन हाई स्कूल में दाखिला लिया जहां उन्होंने उर्दू, फारसी और अरबी का अध्ययन किया. उन्होंने अरबी में स्नातक की डिग्री हासिल की. फैज़ गवर्नमेंट कॉलेज लाहौर से मास्टर्स करने के बाद 1935 में लेक्चरर के रूप में अमृतसर गए. वहां उनकी मुलाकात महान अफसानानिगार सआदत हसन मंटो से हुई जो उस वक्त कॉलेज में फैज़ के छात्र थे.

कुछ इंटरव्यू में फै़ज़ साहब ने खुद मंटो का जिक्र किया है. ये सभी इंटरव्यू डॉ अयूब मिर्जा की किताब 'हम के ठहरे अजनबी' में दर्ज है. फैज़ साहब कहते हैं-हां मंटो MO कॉलेज अमृतसर में मेरा छात्र था. उसने कभी ज्यादा पढ़ाई नहीं की, वह शरारती था. उसने कभी किसी का सम्मान नहीं किया लेकिन मेरा सम्मान करता था और मुझे अपना 'उस्ताद' मानता था. ''

Faiz Ahmed Faiz Death Anniversery: पढ़िए सआदत हसन मंटो, फिराक़ गोरखपुरी और अटल बिहारी वाजपेयी से जुड़ा फै़ज़ का दिलचस्प किस्सा

एक और दिलचस्प किस्सा है. मंटो क्लास में न के बराबर आते थे. एक दिन फैज़ साहब ने उनसे पूछा, ''क्यूं भई, क्लास में क्यों नहीं आते हो? क्या करते हो सारा दिन?'' इसका मंटो ने जवाब दिया कि वह अपना सारा समय अंग्रेजी से उर्दू में कहानियों और उपन्यासों का अनुवाद करने में बिताते हैं. फैज़ ने मंटो को अपने अनुवादों के कुछ नमूने कक्षा में लाने के लिए कहा और फिर मंटो ने ऐसा ही किया. नमूना देखने के बाद फ़ैज़ ने कहा, "ठीक है, आपको कक्षा में नहीं आना है, जो आप कर रहे हैं उसे करते रहिए."

इस वाकये से जो बात साबित होती है वह यह है कि फैज़ के कद का ही कोई कवि मंटो जैसे लेखक की लेखनी को प्रोत्साहित कर सकता है. 1955 में जब मंटो की मृत्यु हो गई तो फैज़ ने अपनी पत्नी को लिखा, “मंटो की मौत के बारे में सुनकर मुझे बहुत दुख हुआ. अपनी सभी कमियों के बावजूद वह मुझे बहुत प्रिय था और मुझे गर्व है कि वह अमृतसर में मेरा छात्र था. हालांकि वह शायद ही कभी कक्षा में आता था, लेकिन हम अक्सर अपने घर पर मिलते और अंतोन चेखव, सिगमंड फ्रायड जैसे लोगों पर बहस किया करते थे.''

फैज़ ने मंटो पर लगाए गए आरोपों के खिलाफ मंटो का बचाव किया. इसलिए नहीं क्योंकि वह मंटो की कला और उनके लेखनी से बहुत ज्यादा प्रभावित थे बल्कि इसलिए क्योंकि उनका मानना ​​था कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक बुनियादी मानव अधिकार है जिसका हर कीमत पर बचाव किया जाना चाहिए.

जब फ़ैज़ ने फिराक़ को लेकर कहा- यह शख़्स 'बला' है

एक दफा लायलपुर काटन मिल्स के मुशायरे में शिरकत करने हिन्दुस्तान से असरारुल हक़ मज़ाज और फिराक़ गोरखपुरी तशरीफ लाए. इमरोज़ के दफ्तर में अहमद नदीम कासमी साहब बैठे थे कि फिराक़ साहब वहां आए.अहमद नदीम कासमी साहब ने पूछा- फिराक़ साहब चाय पीना पसंद करेंगे... फिराक़ ने तुरंत कहा- चाय हम जरूर पिएंगे लेकिन पहले फै़ज़ को बुलाओ..दरअसल उस समय फिराक और अली सरदार ज़ाफरी साहब में मतभेद हो गया था. दोनों एक-दूसरे पर अखबारों में खुलकर कटाक्ष करने लगे थे. अली सरदार जाफरी साहब के किसी बात का फ़ैज़ ने समर्थन कर दिया था. अब फिराक साहब उसी बात को लेकर फै़ज़ से नाराज़ थे.

बहरहाल फिराक़ के कहने पर अहमद नदीम कासमी साहब ने फ़ैज़ साहब को फोन पर इत्तिला दे दी और फ़ैज़ साहब भी तुरंत पहुंच गए. आते ही फै़ज़ साहब ने फिराक़ को गले से लगा लिया.

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इसके बाद फ़िराक़ साहब ने पूछा- फैज़ अली सरदार जाफरी के बचकाने नजरिए के बारे में तुम्हारा क्या कहना है... फैज़ ने कहा- मैं आपसे बहस नहीं करूंगा..मैं माफी चाहता हूं.

फिराक़ तुरंत बोले- अखबारों में तो तुमने मेरे नज़रिए के खिलाफ दबंग बयान दिया था...फ़ैज़ ने कहा- फिराक साहब गलती हो गई...

फिराक ने तुरंत अहमद नदीम कासमी से कहा- अब चाय मंगवाओ...

जब फिराक साहब चले गए तो अहमद नदीम कासमी ने फ़ैज़ से कहा- इतनी जल्दी हार नहीं मानना चाहिए था..फ़ैज़ ने कहा- आप जानते नहीं नदीम साहब, ये शख़्स बला है..उर्दू, अंग्रेजी, फारसी और हिन्दी सब घोल कर पी चुका है. भिड़ भी जाते तो हार हमारी ही होती...

यकीनन फ़ैज़ उन शायरों में हैं जिनकी शायरी जन्नत के सब्जबाग नहीं दिखाते बल्कि अपने खून-पसीने से सींचकर इस धरती को ही जन्नत बनाने की जद्दोजहद करते हैं. वो मसीहा या पैगंबर तो नहीं लेकिन अपनी शायरी से मोहब्बत, इंकलाब फैलाने वाले नेकदील और तारीखी इन्सान जरूर हैं.

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