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Birthday Special: जावेद अख़्तर, जिनकी लेखनी मोहब्बतों का गीत भी है और बग़ावतों का राग भी

Javed Akhtar Birthday: जावेद अख्तर फिल्म इंडस्ट्री के एक ऐसे नाम हैं जिन्हें किसी पहचान की जरूरत नहीं है. उनकी किताब 'तरकश' में उनकी जिंदगी से जुड़े कई दिलचस्प किस्सों का ज़िक्र है. आइए जानते हैं उन्हीं किस्सों में से कुछ के बारे में.....

Javed Akhtar Birthday: एक शख़्स जिसे जिधर सब जाते हैं उधर जाना अच्छा नहीं लगता है. एक शख़्स जिसे पामाल रस्तों का सफ़र अच्छा नहीं लगता है. एक शख़्स जिसके मकां को ऊंची इमारतों ने घेर लिया. एक शख़्स जिसके हिस्से का सूरज लोग खा गए. एक शख़्स जिसे जिंदगी ने इतनी तकलीफ दी कि उसकी आवाज़ में छाले हो गए लेकिन फिर भी उसके होंटों पर ज़माने के लिए लतीफ़े रहें. एक शख़्स जिसने जो ख़्वाब देखा उसे उसने पा लिया मगर फिर भी उसका दिल बेचैन रहता है और सोचता है कि जो चीज़ खो गई वो चीज क्या थी. वो शख़्स मोहब्बतों का गीत है, बग़ावतों का राग है, रोटी के लिए भूखे आदमी का सब्र है, खिलौने के लिए किसी बच्चे की बेचैनी है. उस शख़्स का नाम जावेद अख़्तर है.

आज जावेद अख़्तर साहब का जन्मदिन है. जावेद अख़्तर वह नाम है जो किसी परिचय का मोहताज नहीं है. आज ही के दिन वह 1945 में ग्वालियर में पैदा हुए थे. ग्वालियर से जो जिंदगी का सफर शुरू हुआ वो कई शहरों में होता हुआ मुसलसल गुजर रहा है. जिंदगी के इस भागमभाग सफर की बात जावेद साहब के शेर में ही करें तो कहेंगे

इक खिलौना जोगी से खो गया था बचपन में ढूंढता फिरा उस को वो नगर नगर तन्हा

अपनी किताब तरकश में जावेद अख्तर ने उनकी जिंदगी से जुड़े कई दिलचस्प किस्सों का जिक्र किया है. आज उनके जन्मदिन पर आइए उन्हीं किस्सों को जानते हैं. अपने शहर को लेकर जावेद अख़्तर तरकश में लिखते हैं, ''लोग अपने बारे में लिखते हैं तो सबसे पहले यह बताते हैं कि वह किस शहर से हैं. मैं किस शहर को अपना कहूं. पैदा होने का जुर्म ग्वालियर में किया, लेकिन होश संभाला लखनऊ में, पहली बार होश खोया अलीगढ़ में, फिर भोपाल में रहकर कुछ होशियार हुआ लेकिन मुंबई आकर काफी दिनों तक होश ठिकाने रहे.''

बचपन में तय किया कि बड़े होकर अमीर बनेंगे

जावेद अख़्तर के किरदार में ग्वालियर से मुंबई तक सभी शहर दिखाई देते हैं. हालांकि ग्वालियर से ख़्वाबों के शहर मुंबई तक का उनका सफर इतना आसान नहीं रहा. मशहूर शायर रियाज़ ख़ैराबादी का एक शेर है कि ''मुफ़लिसों की ज़िंदगी का ज़िक्र क्या, मुफ़्लिसी की मौत भी अच्छी नहीं'' जावेद साहब ने बचपन में ही तय किया था कि वह अमीर बनेंगे.

तरकश में उन्होंने अपने बचपन के दौर के एक वाकए जा ज़िक्र किया है. दरअसल जावेद साहब लखनऊ के मशहूर स्कूल कॉल्विन ताल्लुक़ेदार कॉलेज में छठी क्लास में पढ़ते थे. वह लिखते हैं, '' पहले यहां सिर्फ ताल्लुक़ेदार के बेटे पढ़ सकते थे, अब मेरे जैसे कामज़ातों को भी दाखिला मिल जाता है. अब भी बहुत महंगा स्कूल है. मेरी फीस सत्रह रुपये महीना है.मेरी क्लास में कई बच्चे घड़ी बांधते हैं. वो सब बहुत अमीर घरों से हैं. उनके पास कितने अच्छे स्वेटर हैं. एक के पास फाउन्टेन पेन भी है. ये बच्चे इंन्टरवल में स्कूल की कैंटीन से आठ आने की चॉकलेट खरीदते हैं. कल क्लास में राकेश कह रहा था उसके डैडी ने कहा है कि वो उसे पढ़ने के लिए इंग्लैंड भेजेंगे. कल मेरे नाना कह रहे थे कि अरे कमबख़्त मैट्रिक पास कर ले तो किसी डाकखाने में मोहर लगाने की नौकरी तो मिल जाएगी. इस उम्र में जब बच्चे इंजन ड्राइवर बनने का ख़्वाब देखते हैं, मैंने फैसला कर लिया कि बड़ा होकर अमीर बनूंगा.''

देश के बंटवारे की कहानी का जिक्र

किस्सा उन दिनों का है जब जावेद साहब सैफिया कॉलेज भोपाल मध्य प्रदेश में पढ़ते थे. इस दौरान वह अपने एक दोस्त मुश्ताक सिंह के साथ रहते थे. वह उन्हें एक दिन देश के बंटवारे का किस्सा सुनाने लगा. जावेद साहब इस घटना के बारे में बताते हुए लिखते हैं, '' अब मैं कभी-कभी शराब पीने लगा हूं. हम दोनों रात में बैठे शराब पी रहे हैं. वह मुझे पारटीशन और उस ज़माने के दंगो के किस्से सुना रहा है. वो बहुत छोटा था लेकिन उसे याद है. कैसे दिल्ली के करोल बाग में दो मुसलमान लड़कियों को जलते हुए तारकोल के ड्रम में डाल दिया गया था और कैसे एक मुसमान लड़के को. मैं कहता हूं, मुश्ताक सिंह तू क्या चाहता है जो एक घंटे से मुझे ऐसे किस्से सुना-सुना कर मुस्लिम लीगी बनाने की कोशिश कर रहा है. जुल्म की ये ताली दोनों हाथों से बजी थी. अब ज़रा दूसरी तरफ की भी सुना..

मुश्ताक हंसने लगता है..चलों सुना देता हूं..मेरा ग्यारह आदमियों का खानदान था, दस मेरी आंखों के सामने क़त्ल किए गए.''

मुंबई का सफर

जावेद अख्तर फिल्म इंडस्ट्री में एक ऐसा नाम हैं जिन्हें किसी पहचान की जरूरत नहीं है. सलीम के साथ उनकी जोड़ी ने कई हिट फिल्में दी हैं और 70 से 80 के दशक में दोनों की जोड़ी बॉलीवुड में काफी मशहूर थी. दोनों ने एक साथ फिल्म अंदाज, यादों की बारात, जंजीर, दीवार, हाथी मेरे साथी और शोले की पटकथा लिखी.

हालांकि यह सफर इतना आसान नहीं था. तरकश में उन्होंने इस कहानी का जिक्र भी किया है. उन्होंने लिखा है,'' 4 अक्टूबर 1964 मैं बंबई सेंट्रल स्टेशन पर उतरा हूं. अब इस अदालत में मेरी जिंदगी का फैसला होना है. मुंबई आने के छह दिन बाद बाप का घर छोड़ना पड़ा. जेब में सत्ताइस पैसे हैं. मैं खुश हूं कि जिंदगी में कभी अट्ठाइस पैसे भी जेब में आ गए तो मैं फायदे में रहूंगा और दूनिया घाटे में.''

उन्हें कई रातें सड़कों पर खुले आसमान के नीचे सोकर बीतानी पड़ी थी. फिर बाद में कमाल अमरोही के स्टूडियो में उन्हें ठिकाना मिला. इस किस्से का जिक्र करते हुए वह लिखते हैं, '' साल भर से कमाल स्टूडियो में रहता हूं. आजकल एक कमरे में सोने का मौका मिल जाता है. स्टूडियो के इस कमरे में चारो तरफ दीवारो पर लगी बड़ी-बड़ी आलमारियां हैं, जिनमें फिल्म पाकिजा के दर्जनों कॉस्टूम रखे हैं. मीना कुमारी कमाल साहब से अलग हो गईं हैं. इन दिनों फिल्म की शूटिंग बंद है. एक दिन मैं आलमारी का खाना खोलता हूं. इसमें मीना कुमारी के तीन फिल्मफेयर अवार्ड पड़े हैं. मैं उसे झाड़-पोछकर अलग रख देता हूं. मैंने जिंदगी में पहली बार किसी फिल्म का अवॉर्ड छुआ है. रोज रात को कमरा बंद कर के वो ट्रॉफी अपने हाथों में लेकर आईने के सामने खड़ा होता हूं और सोचता हूं कि जब ये ट्रॉफी मुझे मिलेगी तो तालियों से गूंजते हुए हॉल में बैठे हुए लोगों की तरफ मैं देखकर कैसे मुस्कुराऊंगा.''

कहते हैं कि ख़्वाब अगर सच्चा हो और लगन में ईमानदारी रखें तो वह ख़्वाब जरूर पूरा होता है. जावेद अख्तर को उनके गीतों के लिए आठ बार फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया है. 1999 में साहित्य के जगत में जावेद अख़्तर के बहुमूल्य योगदान को देखते हुए उन्हें पदमश्री से नवाजा गया. 2007 में जावेद अख्तर को पदम भूषण सम्मान से नवाजा गया. कमाल अमरोही के स्टूडियो के बंद कमरे में जावेद साहब ने जो ख़्वाब देखा वह पूरा हुआ.

जावेद अख़्तर ने अपने करियर की शुरुआत सरहदी लूटेरा की थी. इस फिल्म में सलीम खान ने छोटी सी भूमिका भी अदा की थी. इसके बाद सलीम-जावेद की जोड़ी ने मिलकर हिंदी सिनेमा के लिए कई सुपर-हिट फिल्मो की पटकथाएं लिखी. दोनों की जोड़ी ने वर्ष 1971-1982 तक करीबन 24 फिल्मों में साथ किया जिनमे सीता और गीता, शोले, हठी मेरा साथी, यादों की बारात, दीवार जैसी फिल्मे शामिल हैं. उनकी 24 फिल्मों में से करीबन 20 फ़िल्में बॉक्स-ऑफिस पर ब्लाक-बस्टर हिट साबित हुई थी.

'शबाना सिर्फ मेरी बीबी नहीं मेहबूबा भी है'

जावेद अख्तर साहब के बारे में ऊपर ही बता दिया है कि वह बग़ावतों का राग तो हैं लेकिन मोहब्बतों का गीत भी हैं. उन्होंने दो शादी की. पहली शादी हनी ईरानी से हुई. हनी से मुलाकात को लेकर जावेद साहब लिखते हैं, '' सीता और गीता फिल्म के सेट पर मेरी मुलाकात हनी ईरानी से होती है. वो एक खुले दिल की, खरी ज़बान की मगर बहुत हंसमुख स्वभाव की लड़की है. मिलने के चार महीने बाद हमारी शादी हो जाती है. दो साल में एक बेटी और एक बेटा जोया और फरहान होते हैं.''

जावेद साहब आगे लिखते हैं,'' मेरी मुलाकात शबाना से होती है. कैफी आज़मी की बेटी शबना भी शायद अपनी जड़ों की तरफ लौट रही है. कोई हैरत नहीं कि हम करीब आने लगते हैं. 1983 में मैं और हनी अलग हो जाते हैं."

हनी से अलग होने के बाद जावेद साहब हमेशा के लिए शबाना आज़मी के हो गए. शबाना आज़मी के बारे में वो लिखते हैं,'' मैं खुश हूं कि शबाना मेरी बीबी भी है और मेहबूबा भी, जो एक खूबसूरत दिल भी है और कीमती ज़हन भी. 'मैं जिस दुनिया में रहता हूं वो उस दुनिया की औरत है' अगर ये पंक्ति बरसों पहले मज़ाज ने किसी न किसी के लिए नहीं लिखा होता तो मैं शबाना के लिए लिखता.''

जावेद अख़्तर साहब ने मोहब्बत से शिकायत तक और शिकायत से सियासत तक जो भी लिखा सब उसके कायल हो गए. होना भी स्वभाविक है, कहते हैं बाग के फूलों पर मिट्टी का असर होता है. जावेद अख़्तर, दादा मुज्तर खैराबादी, पिता जां निसार अख्तर, मामा मजाज और ससूर कैफ़ी आज़मी जैसे बड़े शायरों के बाग के फूल हैं. वो फूल जो हमेशा मुल्क़ में अलग-अलग रंगों के फूलों को एक साथ खुद देखना चाहते हैं. तभी तो वह सीधे सियासत से आंख मिलाकर कहते हैं

किसी का हुक्म है इस गुलिस्तां में, बस अब एक रंग के ही फूल होंगे, कुछ अफसर होंगे जो ये तय करेंगे, गुलिस्तां किस तरह बनना है कल का यकीनन फूल यकरंगी तो होंगे, मगर ये रंग होगा कितना गहरा कितना हल्का, ये अफसर तय करेंगे किसी को कोई ये कैसे बताए, गुलिस्तां में कहीं भी फूल यकरंगी नहीं होते कभी हो ही नहीं सकते कि हर एक रंग में छुपकर बहुत से रंग रहते हैं जिन्होंने बाग यकरंगी बनाना चाहे थे, उनको ज़रा देखो कि जब यकरंग में सौ रंग ज़ाहिर हो गए हैं तो, वो अब कितने परेशां हैं, वो कितने तंग रहते हैं किसी को ये कोई कैसे बताए, हवाएं और लहरें कब किसी का हुक्म सुनती हैं हवाएं, हाकिमों की मुट्ठियों में, हथकड़ी में, कैदखानों में नहीं रुकतीं ये लहरें रोकी जाती हैं, तो दरिया कितना भी हो पुरसुकून, बेताब होता है और इस बेताबी का अगला कदम, सैलाब होता है किसी को कोई ये कैसे बताए

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