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'वेटिंग पीरियड' पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले से क्या कुछ बदला? क्या भारत में आसान हुआ तलाक लेना? जानें कानूनी पहलू

सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की बेंच ने तलाक को लेकर एक बड़ा फैसला सुनाया है. पांच जजों की खंडपीठ ने कहा है कि संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए सुप्रीम कोर्ट किसी पत्नी को बिना फैमिली कोर्ट गए तलाक मंजूर कर सकता है. इससे पहले कूलिंग पीरियड के लिए 6 से 18 महीने का वक्त जरूरी होता था. खंडपीठ के इस नए आदेश के बाद हिंदू मैरिज एक्ट में क्या कुछ परिवर्तन हो सकता है और क्या कुछ तलाक को लेकर बदलाव हो सकता है. इसी पर आज हम बात करेंगे.

सुप्रीम कोर्ट का यह जजमेंट उसके पहले दिए गए हर इस तरह के फैसले को एक नया आयाम देता है. सुप्रीम कोर्ट इस देश का सर्वोच्च न्यायालय है और उसके द्वारा दिए गए हर निर्णय निचे के अदालतों पर अनुच्छेद 141 के तहत बाइंडिग इन नेचर होते हैं. निश्चित रूस से सर्वोच्च अदालत ने अगर कोई निर्णय दिया है, तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए. जिस तरीके से हमारे देश में तलाक के मामलों की संख्या बढ़ रही है, उसमें लोअर कोर्ट को निश्चित रूप से यह निर्णय उनके फैसलों में गाइड करेगा. क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने जो निर्णय दिया है वह समझने की बात है और संविधान के अनुच्छेद 142 के अंतर्गत सुप्रीम कोर्ट की शक्तियों की व्याख्या की गई है.

अनुच्छेद 142 सुप्रीम कोर्ट को इतना बड़ा पावर देता है कि वह न्याय के हित में कोई भी फैसला दे सकती है. हालांकि उसके अंदर अगर कोई भी कानून हो या नहीं हो. सुप्रीम कोर्ट ने पहले भी न्याय को पूरा करने के लिए कई निर्णय दिए हैं. जस्टिस एसके कौल की बेंच द्वारा केवल ये व्याख्या की गई है कि हिंदू मैरिज एक्ट 1955 के अंतर्गत पारस्परिक सहमति के आधार पर यानी की अनुच्छेद 13 (b) के तहत जो तलाक के लिए पहले 6 महीने का कूलिंग पीरियड होता था हिंदू मैरिज एक्ट के  तहत उसे सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 142 के तहत खत्म कर सकता है. यह निर्णय निश्चित रूप से एक अच्छा निर्णय है.

हिंदू मैरिज एक्ट 1955 है और इसमें तलाक की प्रक्रिया को लेकर सेक्शन 13 में जिक्र किया गया है. किसी भी शादी के बंधन में बंधने वाले दंपति को इस कानून के अस्तित्व में आने और उसके आने से पहले और तलाक लेने के लिए या तो पति और पत्नी में से किसी एक भी द्वारा याचिका लगाई गई हो, उसे तलाक के निर्णय से ही सुलझाया जाएगा. अनुच्छेद 13 (1) (a) आई है उसमें घरेलू क्रूरता के आधार पर आप याचिका लगा सकते हैं. 13 (b) के तहत आप पारस्परिक सहमति के आधार पर तलाक के लिए जा सकते हैं. इसमें कई तरह के ग्राउंड पर निर्णय दिया जा सकता है. यानी, तलाक लेने के लिए जितने भी तरीकों का हिंदू मैरिज एक्ट में जिक्र किया गया है उसमें से किसी भी ग्राउंड पर आप लोअर कोर्ट या हाई कोर्ट में अपनी याचिका लगा सकते हैं और लोअर कोर्ट मेरीट के आधार पर तलाक का निर्णय सुना सकता है.

कोई भी हिंदू तलाक के लिए कोर्ट में याचिका तभी लगा सकता है, जब हिंदू मैरिज एक्ट (1955) के अनुच्छेद 14 की प्रक्रिया को पूरा करता हो. क्योंकि अनुच्छेद 14 में यह स्पष्ट तौर पर लिखा गया है कि कोई भी दंपति शादी के एक साल के अंदर तलाक के लिए कोर्ट में याचिका नहीं लगा सकता है. दूसरी बात यह कि जो कूलिंग पीरियड की व्याख्या की गई है और इसका जिक्र एक्ट के अनुच्छेद 13 (B) सब क्लॉज में है. जिसके अंतर्गत यह लिखा गया है कि तलाक के लिए लगाई गई याचिका के दिन से छह महीने से पहले और 18 महीने से अधिक का कूलिंग पीरियड नहीं होगा. जब ये कानून बनाया गया तो इस प्रावधान का एक ही उद्देश्य था कि हमारे यहां जो शादियां होती हैं वो एक पवित्र रिश्ता होता है और शादी के बंधन को इतना आसानी से खत्म नहीं किया जाना चाहिए.  ऐसा हो सकता है कि पति-पत्नी के बीच बहुत सारी चीजों को लेकर सहमति नहीं बने, लेकिन ऐसा भी तो हो सकता है कि बाद में दोनों के बीच जो दूरियां बनी वो समाप्त हो जाए. ऐसी परिस्थिति में वो कोर्ट में अपने तलाक के लिए लगाए गए याचिका को वापस ले सकते हैं.

मान लें कि कोई व्यक्ति ने तलाक के लिए कोर्ट में याचिका दी और बाद में दोनों के बीच सुलह हो गई तो वह अपना याचिका वापस ले सकता है. इस तरह की परिस्थितियों से प्रभावी तरीके से निपटने के लिए एक्ट के अंदर इस तरह की व्याख्या की गई थी. यानी दोनों के बीच में जो मतभेद या मनभेद हुए उसे खत्म करने के लिए यह कानून बनाया गया था कि छह महीने तक दोनों को अलग-अलग रहकर सोचने का मौका दिया जाना चाहिए. हालांकि, पहले जब तलाक कि याचिका दायर की जाती थी तब कोर्ट में याचिकाकर्ता इस कूलिंग पीरियड को खत्म करने के लिए भी एक याचिका लगाता था. लेकिन जब शादी को फिर से पुनर्जीवित करने का कोई स्कोप नहीं रह जाता है तो उस स्थिति में इस कूलिंग पीरियड को देने का कोई औचित्य नहीं रह जाता है. कोर्ट इस तरह के मामलों में पहले भी कूलिंग पीरियड को खत्म करने की छूट दे दिया करती थी.

सुप्रीम कोर्ट लॉ की व्याख्या करती है. फैक्ट की जो व्याख्या की जाती है वो लोअर कोर्ट में किया जाता है. लोअर कोर्ट यानी निचली अदालतें सुप्रीम कोर्ट के कानून के व्याख्या से बंधा होता है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट संविधान से बंधा होता है और संवैधानिक कानूनों की व्याख्या करके सुप्रीम कोर्ट कोई भी निर्णय सुनाता है और वह पब्लिक पॉलिसी के अंतर्गत होती है. लोअर कोर्ट भी पब्लिक पॉलिसी को समझती है. लेकिन ये जो कानून में लिखा गया है उसकी व्याख्या करके निर्णय देते हैं. इसलिए जहां तक न्याय देने की बात है तो सुप्रीम कोर्ट और लोअर कोर्ट के पावर को आप एक समान नहीं देख सकते हैं. चूंकि सुप्रीम कोर्ट के न्याय देने का स्तर काफी ऊंचा है.

लोअर कोर्ट का अलग स्तर है. दोनों के कानून अलग हैं. लोअर कोर्ट के पास अनुच्छेद 142 का पावर नहीं है, उसके पास अनुच्छेद 32 के अंतर्गत यानी मौलिक अधिकारों के हनन होने पर भी न्याय देने का अधिकार नहीं है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट के पास अनुच्छेद 136 है, 132 है, 142 है. यानी कि सुप्रीम कोर्ट के पास बहुत अधिक शक्तियां हैं. सुप्रीम कोर्ट को अगर कोई कानून बेकार लगता है तो वो उसे समाप्त करने की भी शक्तियां रखता है. इस फैसले के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट ने यह बताया है कि उसके पास अनुच्छेद 142 के तहत वह किसी भी व्यक्ति को पूरा न्याय दे सकता है. ये जरूरी नहीं है कि उसे लोअर कोर्ट में रेफर कर दिया जाए.

सामान्यतः होता ये है कि अगर लोअर कोर्ट या हाई कोर्ट कोई गलत निर्णय देता है तो उसे रिमांड बैक कर दिया जाता है कि आप फिर से निर्णय करें क्योंकि सुप्रीम कोर्ट उनके फैक्टस में नहीं जाना चाहती है. यानी कि अगर फैक्टस में कोई गड़बड़ी होगी तो सुप्रीम कोर्ट उस मामले को अप्रिशिएट नहीं करेगा. सुप्रीम कोर्ट यह करेगा कि अगर कोई निर्णय कानून सम्मत नहीं हुआ है तो वह उसमें बदलाव करेगा. लेकिन 142 के तहत जो सुप्रीम कोर्ट के खंडपीठ ने बात कही है वह यही कि अगर किसी शादी के फिर से पुनर्जीवित होने का कोई स्कोप नहीं बचा है तो वह उस मामले को बिना लोअर कोर्ट या हाई कोर्ट को रेफर किए ही उसमें मिलने वाले कूलिंग पीरियड को खत्म करने का अधिकार रखता है. उसी अधिकार को सुप्रीम कोर्ट ने फिर से दोहराया है.

इससे पहले पहली बार सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 142 का इस्तेमाल करते हुए  1962 में प्रेमचंद केस में निर्णय दिया था. उस वक्त भी सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा था मैं किसी कानून से बंधा हुआ नहीं हूं. अगर किसी व्यक्ति को न्याय. की जरूरत है तो वो मैं दूंगा. इसके बाद भोपाल गैस ट्रेजेडी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इसी अनुच्छेद का इस्तेमाल करते हुए पीड़ितों को मुआवजे देने का निर्णय सुनाया था. जिस पर बाद में केंद्र सरकार ने कोर्ट में एक क्यूरेटिव याचिका लगाई थी, जिसमें कहा था कि माननीय सुप्रीम कोर्ट इस फैसले पर पुनर्विचार करे. लेकिन कोर्ट ने इसे पुनः खारिज करते हुए कहा कि मैंने अपना निर्णय दे दिया है और मैं किसी सरकार से बंधा हुआ नहीं हूं.

[ये आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है.]

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