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कानून के ऊपर नयी संहिता के जरिए सरकार ने पूरी की बहुप्रतीक्षित मांग, औपनिवेशिक जमाने के बोझ से मिली है मुक्ति

आईपीसी, सीआरपीसी और एविडेंस एक्ट में आमूलचूल बदलाव को लागू करनेवाला एक्ट संसद से होकर स्टैंडिंग कमिटी के पास जा चुका है. इसके साथ ही लगभग डेढ़ सौ साल पुराने कानूनों का कुछ महीनों में अंत या परिवर्तन हो जाएगा. इस कानून से परिवर्तन कब तक आएगा और क्या-क्या लेकर आएगा, इसका जवाब तो कुछ दिनों में इस बिल के विस्तृत अध्ययन के बाद कानूनविद व्याख्या करेंगे, फिलहाल तो यह दावा किया जा रहा है, सरकार की तरफ से, कि यह युगांतकारी है और औपनिवेशिक यादों से छुटकारा दिलाएगा. 

परिवर्तन लंबे समय से था जरूरी

दरअसल, कानून में परिवर्तन की आवश्यकता तो काफी समय से महसूस की जा रही थी. जब मोदी सरकार ने दूसरी बार कार्यभार संभाला, उसके बाद ही यह घोषणा हुई थी कि उन कानूनों में परिवर्तन होगा, जो समय-सापेक्ष नहीं हैं, या जिनमें परिवर्तन की आवश्यकता है या जिनकी अब जरूरत नहीं है. फिर, उस पर एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया गया. इसमें समाज के, विधिक्षेत्र के, राजनीतिक क्षेत्र के विशेषज्ञों को रखा गया था. उनकी राय के आधार पर भारतीय दंड संहिता, जो 1960 में बनी थी, सीआरपीसी जो 1998 में बनी थी और फिर 1973 में उनमें कुछ परिवर्तन किया गया था, और साक्ष्य अधिनियम को दुरुस्त करना था. तो, इन्हीं के तहत पूरी प्रक्रिया के बाद इन कानूनों में परिवर्तन होना है, जो एविडेंस एक्ट, क्रिमिनल प्रोसिजर एक्ट और पीनल कोड को बदलकर मौलिक रूप से, आवश्यकताओं के अनुरूप और वर्तमान में जिस तरह के अपराध हैं, उनकी आवश्यकताओं को देखते हुए भी, प्रक्रिया की जो आवश्यकता है, तकनीकी जो आवश्यकता है, यह बिल उन सबको भी पूरा करेगा. 

राजद्रोह को मिटाया है, भारतद्रोह को नहीं

राजद्रोह को भी निश्चय ही उसकी परिधि से अलग किया गया है, लेकिन भारत की संप्रभुता को जो भी व्यक्ति, किसी भी रूप में अगर बाधित करने की कोशिश करेगा, उसके विपरीत काम करने की कोशिश करेगा, तो उसके लिए कानून की व्यवस्था इसमें है. पहले जो सेक्शन 124 हुआ करता था, मुख्य रूप से उसके निमित्त, तो उस कानून को और प्रभावी बनाया गया है, उसको और दुरुस्त किया गया है. मूल रूप से जो उसमें कमियां थीं, उन शब्दावलियों के साथ उनको खत्म किया गया. राजद्रोह न होकर अगर राष्ट्र की संप्रभुता को कोई चैलेंज करेगा, तो वह उसके दायरे में रहेगा. अभी तो खैर इस बिल का पूरा अध्ययन होना भी बाकी है. फिर, संसद की जो प्रक्रिया है, वह होनी है. उस कमिटी में पक्ष-विपक्ष के सांसद होते हैं. फिर उस स्टैंडिंग कमिटी के पास से संशोधन वगैरह की राय के साथ यह फिर संसद में आएगी और तब जाकर यह कानून बनेगी, राष्ट्रपति महोदया के हस्ताक्षर के बाद. फिलहाल, जो परिवर्तन है, वह ये है कि आईपीसी में जो भी बातें ऐसी थीं जो हमारी क्षेत्रीय-तात्कालिक आवश्यकता को पूरा नहीं करते थे, उसको सामयिक और प्रासंंगिक बनाया गया है. आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों पर शिकंजा कसा जाए, इसके अनुरूप भी यह कानून को बनाने की कोशिश की गयी है. 

औपनिवेशिक संदर्भ हटे

कई स्थानों पर कोलोनियल रेफरेंसेज रहे हैं, जैसे द क्राउन कहकर भी कुछ वाक्य हैं. तो, ऐसे दर्जनों रेफरेंस और शब्दों को बदला या हटाया गया है. इन पर प्रश्न आजादी के बाद से ही उठता रहा है. इसके साथ ही जो सामाजिक परिवर्तन हैं, या जो वैज्ञानिक दृष्टिकोण है, उसको ध्यान में रखते हुए, यह परिवर्तन अवश्यंभावी था और इनका तो स्वागत करना चाहिए. इसमें दंड के कई विधान को भी जोड़ा गया है. दंड के विधान में कम्युनिटी-सर्विस को भी जोड़ा गया है, जो पहले नहीं था. कई मामलों में दंड को कठोर भी किया गया है. मतलब, एक सुधारवादी रवैया भी कानून के रवैए में डाला गया है. अब देखना होगा कि यह और विस्तृत रूप में कैसे आती है. साथ ही, इसमें अभी समय भी लगेगा. यह फिलहाल स्टैंडिंग कमिटी के पास है, फिर यह अपने मंतव्य के साथ, दृष्टिकोण के साथ वापस संसद को भेजेदी. फिर, नोटिफिकेशन का गजट होगा. जिस तारीख से यह लागू होगा, उस तारीख से पहले सारे काम पुराने कानून से ही होगा. मेरा मानना है कि छह महीने का समय तो लगेगा. 

कुछ दिनों के अभ्यास के बाद सब सामान्य

एडवोकेट पर या न्याय-प्रणाली पर बहुत फर्क नहीं पड़ेगा. जैसे, 302 मर्डर से जुड़ी धारा थी. 299 और 300 से जुड़ी जो धाराएं थीं, उनकी सजा फिर 302 और 304 तक जा सकती थी. ये अब 99 हो गया है. जैसे, 420 पढ़ते थे पहले, वह 116 हो गयी है. नोटिफिकेशन के बाद ही हालांकि ये सब लागू होगा, उसके पहले तो सारी प्रॉसीडिंग पुराने कानून के हिसाब से ही आएगी. हालांकि, यह थोड़ी प्रैक्टिस का मामला है, इसमें बहुत अधिक दिक्कत नहीं होनी है.

इस बिल को मोदी सरकार अपने दूसरे कार्यकाल की शुरुआत में ही लाना चाहती थी, इसलिए ये बहुत देर भी नहीं है. 2020 में ही विशेषज्ञ समिति बना दी गयी थी. फिर, कोरोना की वजह से भी कुछ ठहरना पड़ा देश को. तो, बहुत देर नहीं की है सरकार ने यह कानून बदलने में. एक्सपर्ट कमिटी का गठन फरवरी 2020 में ही हो गया था और प्रयास तब से ही चल रहा था. जब इतना बड़ा परिविर्तन मौलिक रूप से हो रहा हो, तो उसमें समय तो लगेगा.

जब कानून व्याख्या के स्तर पर आता है, तो उसमें कई तरह के परिवर्द्धन-संशोधन होते हैं. इसलिए, कानून के एक-एक बिंदु पर प्रश्न उठते हैं, उस पर बात होती है. तो, समय लगना तो अवश्यंभावी है. इसलिए, यह नहीं कहा जा सकता कि सरकार ने अपने अंतिम दौर में ये किया. यह एक समय लेने वाला काम ही था. इसमें समय लगना ही था. भारत की संप्रभुता के संदर्भ में जो कानून है, वह परिवर्तन तो होना ही है. आलोचना मात्र के लिए उस पर सवाल नहीं उठाने चाहिए. मूर्त रूप में तो जब पूरे बिल का अध्ययन हो जाएगा, तभी विस्तार से बात करनी चाहिए. 

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.] 

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