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जर्मनी की बेबी आरिहा हो या नॉर्वे की मिसेज चटर्जी का मामला, यह पश्चिमी दुनिया की औपनिवेशिक मानसिकता का देता है खुला परिचय

सभ्यतागत अंतर कोई नयी और अनूठी बात नहीं है. दुनिया में बहुतेरे देश हैं और बहुतेरी सभ्यताएं भी. किसी एक देश की परंपरा दूसरे देश, दूसरी सभ्यता में अजीब निगाहों से भी देखी जा सकती है और कई बार तो एक देश का 'नॉर्म' दूसरी जगह का 'क्राइम' भी बन सकता है. इन विविधताओं का सम्मान करते हुए एक-दूसरे के साथ जीवन निर्वाह करना ही मनुष्यता की मांग है. समस्या तब पैदा होती है, जब कोई देश, समुदाय या सभ्यता यह तय कर बैठता है कि उसका रास्ता ही 'एकमात्र और सच्चा-सही रास्ता है', बाकी सारी रास्ते झूठे हैं. फिलहाल, यही बेबी आरिहा के मामले में हो रहा है. उसके माता-पिता भारतीय हैं लेकिन वह जर्मनी की एक 'जेल' में बंद है. जी हां, नाम उसका भले ही 'फोस्टर केयर' हो, लेकिन 27 महीने की बच्ची, जिसे मां-बाप से जुदा कर दिया है, के लिए तो वह जेल से भी कठिन दुनिया होगी. जर्मन अधिकारियों से होते हुए बात अब संसद और विदेश मंत्रालय के स्तर तक आ गयी है. भारत के 56 सांसदों ने बेबी आरिहा की रिहाई के लिए जर्मन एंबैसडर को पत्र लिखा है और विदेश मंत्री एस जयशंकर ने भी इस मामले का संज्ञान लिया है. बेबी आरिहा के मसले से फिलहाल भारत और जर्मनी के बीच 5.2 अरब डॉलर की सबमरीन डील पर भी खतरे की परछाईं पड़ सकती है, जिसके लिए जर्मनी के विदेश मंत्री बोरिस पॉस्टोरियस फिलहाल मंगलवार यानी 6 जून को दिल्ली पहुंच चुके हैं. 

यह मामला नॉर्वे की मिसेज बनर्जी जैसा 

हाल ही में रानी मुखर्जी की एक फिल्म आई थी, 'मिसेज चटर्जी वर्सेज नॉर्वे'. बेबी आरिहा की कहानी भी उस फिल्म की मूल नायिका सागरिका चक्रवर्ती की तरह ही दिखती है. 2011 में नॉर्वे के अधिकारियों ने सागरिका के दो बच्चों को उनसे छीनकर फोस्टर केयर में रख दिया था. उन पर भी 'अनुचित पैरेंटिंग' का आरोप था, जैसे अभी आरिहा की मां धारा शाह और पिता भावेश शाह पर जर्मनी के अधिकारियों ने लगाया है. भावेश लगभग तीन साल पहले जर्मनी वर्क वीजा पर गए थे. उनके साथ पत्नी और छोटी बच्ची आरिहा भी थी. जब आरिहा सात महीने की थी तो जर्मनी के बाल कल्याण विभाग 'यूगेनडाम्ट' ने बच्चों को उसके माता-पिता से अलग कर फोस्टर-केयर में रख दिया. जर्मन अधिकारियों ने माता-पिता पर 'सेक्सुअल हरैसमेंट' का आरोप लगाया, क्योंकि बेबी आरिहा के डायपर पर खून लगा मिला था. हालांकि, उसकी मां का कहना था कि वह एक छोटी सी दुर्घटना की वजह से हुआ था. सागरिका चक्रवर्ती ने आखिरकार कई साल की कानूनी लड़ाई के बाद अपने बच्चों को वापस पाया था, लेकिन बेबी आरिहा की लड़ाई अभी जारी है.

उपनिवेशवादी मानसिकता का ज्वलंत उदाहरण 

दरअसल, 'ह्वाइट मेन्स बर्डन' सिंड्रोम से पीड़ित अधिकारी नॉर्वे हों या जर्मनी, यूरोप हो या अमेरिका, हरेक जगह बहुतायत में पाए जाते हैं. उनकी औपनिवेशिक मानसिकता के हिसाब से जो कुछ भी गोरा नहीं है, वह गलत है. या तो 'माइ वे' या फिर हाईवे की यह प्रवृत्ति मेंढकों की एक कहानी की याद दिलाती है. इसके मुताबिक एक बार समंदर का मेंढक गलती से किसी कुंए में गिर गया. वहां जो मेंढक पहले से रह रहे थे, उन्होंने उससे हालचाल पूछा, फिर वह कहां से आया है, इसकी जानकारी मांगी. समंदर वाले मेंढक ने कहा कि वह समंदर से आया है, तो कुएं के मेंढक ने पूछा कि समंदर कितना बड़ा है, क्या वह कुएं से भी बड़ा है? समंदर के मेंढक ने जब हंसते हुए कहा कि वह समंदर की लंबाई को बता नहीं सकता, तो पूरी जिंदगी कुएं में गुजारनेवाले मेंढकों ने गुस्से में उसकी काफी पिटाई कर दी, क्योंकि उनके हिसाब से कुएं से बड़ा तो कुछ भी हो ही नहीं सकता है. 

ठीक वही हालत जर्मनी के अधिकारियों की भी है. उनके हिसाब से अगर बच्ची के डायपर में खून मिला है, तो वह सेक्सुअल असॉल्ट की ही वजह से होगा, उसकी कोई और वजह नहीं हो सकती है. यही काम नॉर्वे के अधिकारियों ने सागरिका चक्रवर्ती के बच्चों के मामले में किया था, जब उन पर हाथ से खाना खिलाने की वजह से 'जबर्दस्ती खिलाने' का आरोप लगा दिया था. भारत में बच्चे अक्सर मां-बाप के साथ सोते हैं, वही काम जब सागरिका और स्वरूप भट्टाचार्य ने किया, तो नॉर्वे में ये भी अपराध था. भारत में बच्चों को प्यार-दुलार में हल्की चपत लगा देना कोई बड़ी बात नहीं है, लेकिन नॉर्वे में वही 'असॉल्ट' हो गया. वही काम अब जर्मनी कर रहा है, जब दो साल की बच्ची को जबरन फोस्टर केयर में रखा जा रहा है. उसमें भी बेबी आरिहा को 'स्पेशल नीड्स चाइल्ड' वाले होमकेयर में रखा जा रहा है, क्योंकि जर्मन अधिकारियों के मुताबिक बच्ची को 'अटैचमेंट' की समस्या है. अब पश्चिमी मानसिकता के इन अधिकारियों को कौन और कैसे समझाए कि 'अटैचमेंट' भारत में योग्यता या अयोग्यता नहीं, स्वाभाविक है, सहज है. हां, अटैचमेंट का नहीं होना भारत में जरूर कुछ समस्या प्रद माना जा सका है. 

मामला केवल इतना ही नहीं है. बच्ची जैन परिवार की है जो विशुद्ध शाकाहारी होते हैं, लेकिन उसे नॉन-वेज खाना दिया जा रहा है, क्योंकि जर्मनी में वह बेहद सामान्य और आम बात है. अधिकारी मानते हैं कि पोषण उसी से मिलेगा. यहां भी सांस्कृतिक अंतर को समझाना मुश्किल पड़ रहा है, क्योंकि जर्मन अधिकारियों का अहंकार आड़े आ रहा है. आरिहा के लिए भारत में बड़ा समर्थन जुट रहा है और ट्विटर पर #BoycottGermany  और #Germanyreturnariha का ट्रेंड भी चल चुका है.

'यूगेनडाम्ट' के ऊपर गंभीर सवाल

जर्मनी की चाइल्ड केयर संस्था 'यूगेनडाम्ट' के ऊपर बेबी आरिहा से भी कई मामले हैं, जिससे गंभीर सवाल उठते हैं.  2018 में इस एजेंसी ने 52 हजार से अधिक बच्चों को उनके अभिभावकों से छीनकर फोस्टर केयर में रखा है. यहां तक कि जर्मन लेखिका बीटे केली ने भी 2014 में इस संस्था पर आरोप लगाया था कि उनकी बड़ी बेटी से उसकी बच्ची को अकारण ही छीन लिया गया था. उसके बाद उन्होंने जितना भी इंटरनेट खंगाला यूगेनडाम्ट उतना ही संदेहास्पद मिला. उन्होंने तो जर्मनी की इस हालत  की तुलना नाजी जर्मनी से भी कर दी. विशेषज्ञ बताते हैं कि बच्चों के इस तरह 'छीनने' की घटनाओं में बढ़ोतरी इस वजह से भी होती है कि यूगेनडाम्ट को मिलने वाले पैसे, देखभाल करने वाले बच्चों के आनुपातिक होते हैं. अच्छे नजरिए से बनाए गए संस्थान के ऊपर इस तरह के आरोप गहरा संदेह प्रकट करते हैं. 

धारा और भावेश शाह के ऊपर क्रिमिनल चार्जेज सिद्ध नहीं हो सके, यानी वे बाइज्जत बरी हुए. मसले की बात है कि इसके बावजूद बेबी आरिहा को दूसरे फोस्टर होम भेज दिया गया, जहां कि स्पेशल नीड्स वाले बच्चे रखे जाते हैं. जर्मनी का एक और अजीब सा कानून है कि अगर कोई बच्चा दो साल तक फोस्टर केयर में रह गया, तो फिर उसे 18 की अवस्था पूरी होने तक वहीं रहना होगा. बेबी आरिहा पिछले 18 महीने से फोस्टर केयर में रह रही है, यानी उसके पास गिने-चुने महीनों का मौका है. जर्मन अधिकारी पूरी दुनिया को एकरंगा देखने की अपनी नीयत साफ करेंगे और यह मानेंगे कि दुनिया में जर्मन रहन-सहन के अलावा भी कोई ढंग हो सकता है, जो जायज है, तब तो बेबी आरिहा की वतन वापसी हो सकेगी वरना उसकी राह फिलहाल मुश्किल ही दिखती है. 

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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