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तेलंगाना चुनाव में केसीआर के वर्चस्व और कांग्रेस के विस्तार से बीजेपी के 'मिशन साउथ' को लग सकता है एक और झटका

इस साल अब 5 राज्य मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, तेलंगाना और मिजोरम में विधान सभा चुनाव होना है. चुनाव आयोग ने मतदान की तारीख़ों का एलान कर दिया है. मध्य प्रदेश में 17 नवंबर, राजस्थान में 23 नवंबर, मिजोरम में 7 नवंबर और  तेलंगाना में 30 नवंबर को मतदान होगा. वहीं छत्तीसगढ़ में 7 और 17 नवंबर को दो चरणों में वोट डाले जाएंगे. इन पांचों राज्यों में मतों की गिनती तीन दिसंबर को होगी.

इन राज्यों की सत्ता पर क़ाबिज़ होने के लिए तमाम राजनीतिक दल चुनावी रणनीतियों को अंतिम रूप देने में जुटे हैं. इन पाँच राज्य में से तेलंगाना का चुनाव इस बार कई कारणों से ख़ास है. जिन 5 राज्यों में नवंबर में मतदान होना है, उनमें तेलंगाना ही एकमात्र दक्षिण भारतीय राज्य है. आंध्र प्रदेश से अलग होकर तेलंगाना 2 जून 2014 के नया राज्य बना था. तेलंगाना विधान सभा में  कुल 119 सीट है और यहां कम से कम 60 सीट हासिल कर ही सत्ता की कुर्सी पर बैठा जा सकता है.

तेलंगाना की राजनीति में तीन धुरी

तेलंगाना की राजनीति में फ़िलहाल तीन धुरी है. पहली और सबसे मजबूत धुरी भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) है. पूर्व में इस दल को ही तेलंगाना राष्ट्र समिति के नाम से जाना जाता था. बीआरएस के संस्थापक और मुख्यमंत्री के.चंद्रशेखर राव के सामने आगामी चुनाव में प्रदेश में अपनी बादशाहत क़ायम रखने की चुनौती है.

प्रदेश की राजनीति में मजबूती से दख़्ल बढ़ा रही बीजेपी दूसरी धुरी है. मिशन साउथ के नज़रिये से बीजेपी के लिए तेलंगाना का महत्व और भी बढ़ गया है. इस साल मई में कर्नाटक में कांग्रेस से बुरी तरह से मात खाने के बाद बीजेपी वहां की सत्ता खो चुकी है. अब पुडुचेरी को छोड़ दें, तो दक्षिण भारत के किसी भी राज्य की सत्ता बीजेपी के पास नहीं रह गयी है. दक्षिण भारतीय राज्यों में बीजेपी की उम्मीदें अब तेलंगाना में प्रदर्शन पर ही टिकी है.

तेलंगाना की राजनीति में तीसरी धुरी कांग्रेस है.जब से आंध प्रदेश से अलग होकर तेलंगाना नया राज्य बना है, यहां की स्थिति दयनीय होती गयी है. केसीआर का वर्चस्व स्थापित होने से पहले संयुक्त आंध्र प्रदेश में एक वक़्त था, जब तेलंगाना का इलाका राजनीतिक पकड़ के लिहाज़ से कांग्रेस का मजबूत गढ़ माना जाता था. आगामी विधान सभा चुनाव में कांग्रेस के सामने पुरानी राजनीतिक हैसियत को  दोबारा हासिल करने की चुनौती है.

इन तीनों दलों के अलावा तेलंगाना की राजनीति में एक और महत्वपूर्ण कड़ी असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन या'नी एआईएमआईएम भी है. हालांकि एआईएमआईएम का प्रभाव हैदराबाद और उससे लगे इलाकों तक ही सीमित है.

तेलंगाना के इलाकों में संयुक्त आंध्र प्रदेश के समय में तेलुगू देशम पार्टी का भी राजनीतिक प्रभाव हुआ करता था. हालांकि अलग राज्य बनने के बाद अब टीडीपी का यहां की राजनीति में कोई ख़ास प्रभाव नहीं रह गया है.

चुनाव में किसके सामने क्या है चुनौती?

अलग राज्य बनने के बाद तेलंगाना में दूसरी बार विधान सभा चुनाव होने वाला है. इस चुनाव को लेकर तीन महत्वपूर्ण सवाल या कहें पहलू हैं. पहला सवाल है कि क्या के. चंद्रशेखर राव की फिर से सत्ता में वापसी होगी और वे लगातार तीसरी बार प्रदेश में मुख्यमंत्री बनने में कामयाब होंगे. दूसरा सवाल इसी के उलट है. क्या तेलंगाना में केसीआर के वर्चस्व को ध्वस्त कर प्रदेश की सत्ता में आने की बीजेपी की ख़्वाहिश पूरी हो पायेगी या फिर जो उम्मीदें 2019 के लोक सभा चुनाव के बाद बीजेपी को लेकर बँधी हैं, उस पर पानी फिर जायेगा. तीसरा सवाल कांग्रेस के विस्तार से जुड़ा है. क्या कांग्रेस फिर से वहीं राजनीतिक हैसियत हासिल कर पाएगी, जो तीन दशक पहले थी. इन्हीं तीन सवालों के इर्द-गिर्द तेलंगाना का पूरा चुनाव घूमता है. इन सवालों का जवाब तलाशने के लिए तेलंगाना की राजनीति को समझना होगा.

तेलंगाना में रहा है केसीआर का एकछत्र वर्चस्व

सबसे पहले बात करते हैं कि अलग राज्य बनने के बाद से ही  तेलंगाना में केसीआर और उनकी पार्टी को लेकर कैसा माहौल रहा है. जून 2014 में अलग राज्य बनने के बाद से ही तेलंगाना की राजनीति और सत्ता पर केसीआर का एकछत्र क़ब्ज़ा है. तमाम प्रयासों के बावजूद अब तक न तो कांग्रेस और न ही बीजेपी केसीआर के सामने मज़बूत चुनौती पेश कर पाई है, जिससे प्रदेश में बीआरएस को लेकर ख़तरा पैदा हो सके. अभी भी कमोबेश हालात में कुछ ख़ास बदलाव नहीं दिख रहा है.

तेलंगाना को अलग राज्य बनवाने में उनकी भूमिका सबसे प्रभावी और ज़्यादा रही है. यह हम सब जानते हैं. के. चंद्रशेखर राव दो जून 2014 से ही तेलंगाना के मुख्यमंत्री हैं. अपनी पार्टी से तेलंगाना राज्य की अस्मिता को जोड़ते हुए उन्होंने अब तक विरोधी दलों का पैर प्रदेश में जमने नहीं दिया है.

केसीआर का जादू 2018 में रहा था बरक़रार

जैसे ही नया राज्य बना, तेलंगाना में सबसे बड़ी पार्टी होने के कारण केसीआर मुख्यमंत्री बनते हैं. इसके बाद अपना कार्यकाल पूरा होने से 9 महीने पहले ही 6 सितंबर 2018 में मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देने का फ़ैसला कर सबको चौंका देते हैं. इसके बाद तेलंगाना में पहला विधान सभा चुनाव दिसंबर 2018 में होता है. जब चुनाव नतीजे सामने आते हैं, तब समय से पहले चुनाव में जाने का केसीआर का फै़सला उनकी पार्टी के लिए ऐतिहासिक साबित होता है.

विधान सभा चुनाव, 2018 में केसीआर की पार्टी 119 में से 88 जीत जाती है. टीआरएस क़रीब-क़रीब तीन चौथाई बहुमत हासिल कर लेती है. साझा आंध्र प्रदेश के रहते अप्रैल-मई 2014 में हुए विधान सभा चुनाव के मुक़ाबले टीआरएस को 25 सीटों का फ़ाइदा होता है. टीआरएस का वोट शेयर क़रीब 47 फ़ीसदी रहता है. दूसरे नंबर पर कांग्रेस रहती है, जिसे महज़ 19 सीटों पर ही जीत मिल पाती है. असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी AIMIM 07 सीटों पर जीतने में सफल रहती है. टीडीपी 2 और बीजेपी को मात्र एक सीट ही मिल पाता है. इन आँकड़ो से ज़ाहिर है कि केसीआर की पार्टी के सामने विरोधी दलों की स्थिति बेहद नाज़ुक बन जाती है.

बीजेपी का आम चुनाव, 2019 में दिखा था दमख़म

इसके चार महीने बाद ही फिर से लोक सभा चुनाव 2019 में केसीआर का दमख़म दिखता है. हालांकि इस बार विधान सभा चुनाव की तरह टीआरएस प्रदर्शन नहीं कर पाती है. फिर भी तेलंगाना की कुल 17 लोक सभा सीटों में से 9 पर टीआरएस की जीत होती है. बीजेपी को 4, कांग्रेस को 3 और AIMIM को एक सीट से संतोष करना पड़ता है. विधान सभा चुनाव की तुलना में 2019 के आम चुनाव में तेलंगाना में टीआरएस के वोट शेयर में 5% से अधिक की कमी हो जाती है.

क्या तीसरी बार मुख्यमंत्री बन पायेंगे केसीआर?

लोक सभा चुनाव 2019 में बेहतर प्रदर्शन से उत्साहित हो बीजेपी तेलंगाना में केसीआर का विकल्प बनने की कोशिशों में जुट जाती है. वहीं दूसरी ओर केसीआर लगातार दूसरी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद केंद्र की राजनीति में अपनी भूमिका बढ़ाने के प्रयासों को बल देने में जुट जाते हैं. इस दिशा में केसीआर गैर-कांग्रेस और गैर-बीजेपी फ्रंट बनाने के लिए 2022 में अलग-अलग प्रदेशों के क्षत्रपों से मिलते भी हैं. गैर-बीजेपी और गैर-कांग्रेस फ्रंट बनाने की मुहिम के तहत ही वे इस साल 18 जनवरी को खम्मम में बड़ी रैली भी करते हैं. इसमें आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल और भगवंत मान, सीपीएम नेता और केरल के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन, समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव और सीपीआई के डी राजा शामिल भी हुए थे.

केसीआर केंद्रीय राजनीति में टटोल रहे थे भूमिका

हालांकि के.चंद्रशेखर राव को जल्द ही इसका भान हो जाता है कि राष्ट्रीय स्तर पर उनकी मुहिम का कोई ख़ास असर नहीं होने वाला है. केंद्रीय राजनीति के लिहाज़ से बेहद ताक़तवर बीजेपी के ख़िलाफ बगैर कांग्रेस पैन इंडिया आधार पर कोई गठबंधन ज़्यादा असरकारक नहीं हो सकता है. बाद में कांग्रेस समेत तमाम बड़े विपक्षी दलों की पहल को देखते हुए केसीआर अपने पैर पीछे कर लेते हैं.

शुरूआत में केसीआर को लगा था कि कांग्रेस को लेकर देश में नकारात्मक छवि है और इसको आधार बनाकर वे 2024 के लिए गैर-कांग्रेसी मोर्चे की संभावना को टटोल रहे थे. इसके ज़रिये केसीआर की मंशा थी कि अगर 2024 में बीजेपी को बहुमत नहीं मिला और विपक्ष उस भूमिका में पहुंच जाता है कि केंद्र में सरकार बनाने का प्रयास करे, तो प्रधानमंत्री पद के लिए उनके नाम पर ग़ौर करने की स्थिति बन सके.

केसीआर की मंशा का नहीं था कोई आधार

भारत की केंद्रीय राजनीति के लिहाज़ देखें, तो केसीआर की मंशा का कोई आधार नहीं था. ऐसे भी तेलंगाना में महज़ 17 लोक सभा सीट है. थोड़ी देर के लिए मान भी लिया जाये कि केसीआर की पार्टी इन सभी सीटों पर 2024 में जीत जाती है और विपक्ष उस स्थिति में हो कि एकजुट होकर सरकार बना ले, तब भी केसीआर के नाम पर सहमति बनने की संभावना नहीं के बराबर होती. एक तो तेलंगाना में लोक सभा सीटों की संख्या इतनी कम है, दूसरी ओर सिर्फ़ उतनी सीट के हाथ में होने के बावजूद दक्षिण भारत के किसी नेता को प्रधानमंत्री पद के लिए चुनना हास्यास्पद ही कहा जा सकता है.

ऐसे भी अब तक देश में सिर्फ़ दो ही प्रधानमंत्री दक्षिण भारतीय राज्यों से रहे हैं. पहले पी वी नरसिम्हा राव और फिर एचडी देवगौड़ा. इनमें पी.वी नरसिम्हा राव कांग्रेस से थे, तो एच डी देवगौड़ा जनता दल से थे. भारतीय राजनीति की विडंबना ही है कि प्रधानमंत्री के चेहरे के तौर पर उत्तर भारतीय राज्यों के मुक़ाबले दक्षिण भारतीय राज्यों के किसी नेता की स्वीकार्यता उस तरह से नहीं बन पायी है.

तेलंगाना में  केसीआर के लिए बीजेपी ख़तरा!

इन बातों के साथ ही केसीआर धीरे-धीरे समझ जाते हैं कि राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी के ख़िलाफ़ मोर्चा बनाने के चक्कर में कहीं उनके हाथ से तेलंगाना की सत्ता न निकल जाये. प्रदेश में बीजेपी का जनाधार जिस तरह से बढ़ने लगा, केसीआर के लिए ख़तरा भी बढ़ने लगा. इस बात को ध्यान में रखकर केसीआर पिछले कुछ महीनों से लगातार प्रदेश की जनता को अपने साथ बनाए रखने के लिए सरकारी योजनाओं से लेकर तरह-तरह के वादे करने में जुटे हैं.

हिंदुत्व को नहीं बनने देना चाहते हैं मुद्दा

जैसे ही ख़ुद की सत्ता बचाने की चिंता बढ़ी, के.चंद्रशेखर राव  ने लीक से हटकर काम करना शुरू कर दिया. केसीआर की सबसे बड़ी चिंता इस बात की थी कि कहीं उत्तर भारत के राज्यों की तरह यहां भी हिन्दू-मुस्लिम वोटों के ध्रुवीकरण को बढ़ावा नहीं मिल जाए. 2011 की जनगणना के मुताबिक तेलंगाना में 85 फ़ीसदी हिन्दू हैं और क़रीब 13 फ़ीसदी मुस्लिम हैं. यहां सवा फ़ीसदी के आसपास ईसाई भी हैं. पिछले कुछ सालों से बीजेपी के नेता हमेशा ही केसीआर पर हिंदुओं के साथ गैर-बराबरी करने का आरोप लगाते रहे हैं.

हिंदुओं से जुड़े मुद्दों को लेकर मुखर

पिछले कुछ महीनों से केसीआर खुलकर हिंदुओं से जुड़े मुद्दों को लेकर मुखर दिखे हैं. तेलंगाना सरकार ने  मई में धूप दीप नैवेद्यम कार्यक्रम के तहत अलग-अलग मंदिरों के को दी जाने वाली वित्तीय सहायता को 6,000 से बढ़ाकर 10,000 रुपये प्रति महीना करने का एलान किया था. तेलंगाना सरकार ने वैदिक पुजारियों के मानदेय को 2,500 से बढ़ाकर 5,000 रुपये प्रति महीना करने की भी घोषणा की थी.

राज्य की आबादी में 3% की हिस्सेदारी वाले ब्राह्मण समुदाय के कल्याण से जुड़ी कई योजनाओं की भी पिछले कुछ महीनों में घोषणा की गई है. मुख्यमंत्री केसीआर ने अलग-अलग पीठों के संतों के साथ मई में हैदराबाद के गोपनपल्ली में 9 एकड़ में बने ब्राह्मण सदन भवन का उद्घाटन किया था. इस सदन में हिंदू धर्मग्रंथों के लिए एक लाइब्रेरी और संतों के लिए आवास की व्यवस्था है. तेलंगाना सरकार वैदिक विद्यालयों के लिए 2 लाख रुपये की एकमुश्त अनुदान को वार्षिक अनुदान में बदलने की भी घोषणा कर चुकी है. इसके अलावा आईआईटी और आईआईएम में पढ़ने वाले गरीब ब्राह्मण छात्रों के लिए राज्य सरकार ही फीस भुगतान करेगी.

नहीं मिली है 9 साल से कोई मज़बूत चुनौती

बीजेपी से विधान सभा चुनाव में मिलने वाली चुनौती की तोड़ के तौर पर इन योजनाओं और प्रयासों को देखा जा सकता है. केसीआर नहीं चाहते हैं कि तेलंगाना में बीजेपी को हिन्दुत्व के मुद्दे पर समर्थन बढ़ाने का कोई मौक़ा मिले. बीजेपी तेलंगाना में कितनी बड़ी ताक़त बन चुकी है,यह तो चुनाव नतीजों के बाद ही पता चलेगा. लेकिन एक बात बिल्कुल स्पष्ट है. सत्ता विरोधी लहरों से जूझते केसीआर की पार्टी को पिछले 9 साल में इतनी बड़ी चुनौती नहीं मिली थी, जितनी बड़ी चुनौती इस बार बीजेपी से मिलने की प्रबल संभावना है. चुनावी रणनीति को अमली जामा पहनाने में कोई कोर-कसर न रह जाए, इसके लिए बीआरएस मतदान की तारीख़ की घोषणा से पहले ही सभी सीटों के लिए उम्मीदवारों का एलान कर चुकी थी.

क्या तेलंगाना में बीजेपी का मंसूबा होगा पूरा?

पुडुचेरी को छोड़ दें, तो दक्षिण भारत के 5 राज्य कर्नाटक, आँध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु और केरल में कहीं भी बीजेपी सत्ता में नहीं है. कर्नाटक में बीजेपी मई में ही सत्ता खो चुकी है. तमिलनाडु, केरल और आंध्र प्रदेश की राजनीति में बीजेपी की मौज़ूदगी उस प्रकार से प्रभावी नहीं है, जिससे भविष्य में  प्रदेश की सत्ता पर क़ाबिज़ होने का सपना देखा जा सके. तमिलनाडु में तो अब एआईएडीएमके ने भी बीजेपी से पल्ला छाड़ लिया है. केरल में लोक सभा या विधान सभा चुनाव जीतने के लिहाज़ से दूर-दूर तक बीजेपी का अस्तित्व कहीं नजर नहीं आता है. आंध्र प्रदेश में भी फ़िलहाल जगनमोहन रेड्डी का जिस तरह से दबदबा है, बीजेपी की दाल वहां भी गलने की कोई संभावना नहीं दिखती है.

बीजेपी के लिए'मिशन साउथ' की उम्मीद है तेलंगाना

बीजेपी 2014 से केंद्र की राजनीति का सिरमौर बनी हुई है. 2014 से अब तक उत्तर भारत और पूर्वोत्तर के कई राज्यों में बीजेपी चुनाव जीतकर सत्ता भी हासिल कर चुकी है. लेकिन बीजेपी का प्रभाव दक्षिण भारतीय राज्यों पर उस तरह से नहीं बढ़ा है. उसके बावजूद दक्षिण भारतीय राज्यों में बीजेपी की उम्मीदों को अब तक मज़बूती नहीं मिली है. कर्नाटक और तेलंगाना को छोड़ दें, तो दक्षिण भारत के बाक़ी 3 राज्यों में चुनाव जीतने के लिहाज़ से बीजेपी की स्थिति बिल्कुल दयनीय है. केंद्र में 2014 में सत्ता पर बैठने के बाद से बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व की कोशिश दक्षिण भारत के राज्यों में पार्टी के विस्तार पर रही है.

बीजेपी दुनिया की सबसे पार्टी होने का दावा करती है. दक्षिण भारत बीजेपी की कमज़ोर कड़ी है, जिसकी वज्ह से दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी के पैन इंडिया जनाधार पर सवाल भी खड़े होते हैं. बीजेपी मिशन साउथ की रणनीति पर पिछले कई सालों से काम कर रही है, लेकिन अब तो कर्नाटक में भी उसकी राजनीतिक ज़मीन सिकुड़ने लगी है. ऐसे में बीजेपी के मिशन साउथ के लिए फ़िल-वक़्त तेलंगाना ही सबसे महत्वपूर्ण उम्मीद की किरण है.

एससी-एसटी समुदाय पर केसीआर की नज़र

केसीआर की नज़र प्रदेश में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के समर्थन को बनाए रखने पर भी है. तेलंगाना विधानसभा में 18 सीटें अनुसूचित जाति और 9 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं. तेलंगाना के 33 जिलों में से 9 जिले संविधान के अनुच्छेद 244(1) के तहत शेड्यूल एरिया में आते हैं. तेलंगाना की आबादी में 9.34% आदिवासियों की संख्या है.

एससी और एसटी दोनों ही समुदाय में केसीआर की पार्टी की पकड़ बेहद मजबूत है. केसीआर को इस बार 1.5 लाख आदिवासियों को चार लाख एकड़ 'पोडू' (Podu) लैंड का टाइटल बांटने के फ़ैसले से भी और समर्थन मिलने की संभावना बढ़ गयी है. केसीआर सरकार मे दूसरे फेज़ के तहत  1.50 लाख परिवारों को 'दलित बंधु' योजना पर भी काम कर रही है. इस योजना के तहत पसंद का कारोबार करने के लिए एक दलित परिवार को 10 लाख रुपये दिए जाते हैं. इन उपायों से एसटी-एससी समुदाय में केसीआर की स्थिति पहले से ज़्यादा मजबूत होती दिख रही है.

तेलंगाना में धीरे-धीरे मज़बूत हुई है बीजेपी

बीजेपी के लिए दक्षिण भारत में तेलंगाना एक दिन में उम्मीद की किरण नहीं बना है. इसके लिए बीजेपी तेलंगाना के अलग राज्य बनने के बाद से ही जी-तोड़ मेहनत कर रही है. तेलंगाना जब आंध्र प्रदेश का हिस्सा था, उस वक्त तेलंगाना के इलाकों में बीजेपी की मौजूदगी एक तरह से नगण्य थी.

विधान सभा चुनाव, 2018 तक बीजेपी तेलंगाना में किस स्थिति थी, इसका अंदाज़ा चुनाव नतीजे से लगाया जा सकता है. पिछले चुनाव में बीजेपी तेलंगाना में 118 सीटों पर चुनाव लड़ती है, लेकिन बमुश्किल एक सीट पर जीत पाती है. बीजेपी का वोट शेयर क़रीब 7 फ़ीसदी रहता है.

कांग्रेस-टीडीपी के कमज़ोर से बीजेपी को लाभ

हालांकि बीजेपी के लिए राहत की बात यह थी कि तेलंगाना में परंपरागत पार्टियां कांग्रेस और टीडीपी बेहद कमज़ोर होते जा रही थी. बीजेपी ने इसे ही अपने विस्तार का आधार बनाया. किसी भी संसदीय व्यवस्था में सत्ताधारी पार्टी चाहे कितनी भी मज़बूत हो, भविष्य में उस पार्टी के विकल्प का स्कोप बना रहता है. टीआरएस की ताक़त बढ़ने के बावजूद कांग्रेस और टीडीपी का जनाधार सिकुड़ने से प्रदेश में बीजेपी को विस्तार का मौक़ा मिला.

तेलंगाना में बीजेपी ने आम चुनाव 2019 में चौंकाया

तेलंगाना को लेकर बीजेपी की उम्मीदों को बहुत मज़बूत बल 2019 के लोक सभा चुनाव में मिला. दिसंबर 2018 में तेलंगाना में विधान सभा चुनाव हुआ था. उसके 4 महीने बाद ही 2019 में लोक सभा चुनाव होता है. बीजेपी तेलंगाना में अपने प्रदर्शन से सबको चौंका देती है. यहां बीजेपी 17 में 4 सीटों पर जीतने में कामयाब हो जाती है. उसका वोट शेयर जो विधान सभा में सात फ़ीसदी से नीचे था, वो 2019 में बढ़कर क़रीब 20 फ़ीसदी तक पहुंच जाता है.

लोकसभा चुनाव, 2019 के नतीजों में एक और पहलू दिखा. विधानसभा सीटों के हिसाब से अगर आकलन किया जाए, तो टीआरएस के लिए बीजेपी उसी समय से ख़तरा के तौर पर उभरने लगी थी. 2018 में बीजेपी 118 सीट पर लड़ने के बावजूद सिर्फ एक विधान सभा सीट जीत पाई थी, लेकिन आम चुनाव, 2019  में 21 विधानसभा सीटों में आगे थी. टीआरएस 2018 में 88 सीटें जीती थी. लेकिन 2019 के आम चुनाव में उनकी पार्टी का जनाधार घट गया था. उस वक्त टीआरएस  सिर्फ़ 71 विधान सभा सीटों पर ही आगे थी.

तेलंगाना में 2019 के बाद बीजेपी की उम्मीद बढ़ी

आम चुनाव 2019 के नतीजों से तेलंगाना को लेकर बीजेपी की उम्मीदें बढ़ी. उसके बाद बीजेपी पिछले 4 साल से तेलंगाना की राजनीति में बड़ी ताक़त बनने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा रही है. तेलंगाना के लोगों के लिए बीजेपी नया विकल्प बन सकती है क्योंकि कांग्रेस और टीडीपी वहां लगातार कमज़ोर होते जा रही थी.

कर्नाटक में हार के बाद दक्षिण राज्यों में पैठ बढ़ाने की दृष्टि से तेलंगाना बीजेपी के लिए प्रतिष्ठा का सवाल बन गया है. अगर तेलंगाना में बीजेपी का प्रदर्शन उस स्तर तक पहुंच जाता है, जहां केसीआर को किसी दल से बराबरी की टक्कर मिलने लग जाए, तो यह मिशन साउथ के नज़रिये से भी बीजेपी के लिए काफ़ी लाभदायक स्थिति होगी.

तेलंगाना में बीजेपी की राह आसान नहीं

बीजेपी के तेलंगाना की राह इतनी आसान नहीं रहने वाली है. बीजेपी विधान सभा चुनाव के दहलीज़ पर होने के नाज़ुक मौक़े पर भी तेलंगाना में कुछ महीने से अंदरूनी कलह से जूझती दिख रही थी. इसी वज्ह से चुनाव से चंद महीने पहले जुलाई में बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व बंदी संजय कुमार को हटाकर उनकी जगह केंद्रीय मंत्री जी. किशन रेड्डी को प्रदेश अध्यक्ष बना देता है.

उससे पहले सियासी गलियारों में इसकी ख़ूब चर्चा होती थी कि पिछले 3-4 साल में करीमनगर से सांसद बंदी संजय कुमार की कड़ी मेहनत से ही तेलंगाना में बीजेपी के जनाधार को बढ़ाने में मदद मिली थी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी इस साल जनवरी में दिल्ली में हुई पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में बंदी संजय कुमार के सांगठनिक कौशल की जमकर तारीफ़ कर चुके थे.

अंदरूनी कलह से भी निपटने की चुनौती

दरअसल तेलंगाना में बीजेपी में अब उन नेताओं की भरमार हो गई है, जो पहले केसीआर की पार्टी का हिस्सा थे. केसीआर से नाराज़गी के बाद ये सारे नेता बीजेपी में शामिल होते गये. पिछले दो ढाई सालों में बीजेपी ने बीआरएस के नाराज नेताओं और विधायकों को अपने पाले में लाने की हर कोशिश की है. कभी तेलंगाना सरकार में मंत्री रहे ई राजेंद्र ने केसीआर से नाराज़ होकर बीजेपी का दामन थाम लिया था. बीआरएस के पूर्व सांसद कोंडा विश्वेश्वर रेड्डी  और बूरा नरसैय्या गौड़ के भी आने से बीजेपी की ताक़त हैदराबाद और उसके आस-पास के जिलों में बढ़ी है. बीआरएस से आये नेताओं से बीजेपी की ताक़त तो बढ़ी, लेकिन साथ-साथ पार्टी में अंदरूनी कलह बढ़ने का एक कारण भी यही रहा है.

कांग्रेस का विस्तार बीजेपी के लिए ख़तरा

ऐसे तो तेलंगाना में कांग्रेस की स्थिति उतनी अच्छी नहीं कही जा सकती है. विधान सभा चुनाव, 2018 में कांग्रेस 28.4% वोट शेयर के साथ 19 सीट ही जीत सकी थी. वहीं 2019 लोक सभा चुनाव में कांग्रेस को सिर्फ़ 3 सीट से संतोष करना पड़ा था.इस बीच कांग्रेस भी पिछले कुछ महीनों से प्रदेश में अपनी ताक़त बढ़ाने में जुटी है. राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा से भी तेलंगाना में कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं का उत्साह बढ़ा है.

इस साल केसीआर की पार्टी से निलंबित खम्मम से पूर्व लोकसभा सदस्य पोंगुलेटी श्रीनिवास रेड्डी और पूर्व मंत्री जुपल्ली कृष्ण राव ने जून में कांग्रेस का हाथ थाम लिया है. उनके साथ ही बीआरएस का दामन छोड़  30 से अधिक नेता भी कांग्रेस से जुड़े हैं. इसे केसीआर की पार्टी में कांग्रेस की बड़ी सेंधमारी के तौर पर देखा जा रहा है.

कांग्रेस अगर तेलंगाना में मज़बूत होती है, तो यह केसीआर के लिए उतनी बड़ी चुनौती नहीं है, जितनी बीजेपी के लिए है. तेलंगाना में बीजेपी का विस्तार ही कांग्रेस की कमज़ोरी पर टिका है. ऐसे में अगर आगामी चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन पिछली बार की तुलना में सुधरता है, तो यह तेलंगाना और मिशन साउथ दोनों से जुड़ी बीजेपी की उम्मीदों के लिए बड़ा झटका होगा.

तेलंगाना का विकास बीआरएस का एडवांटेज

आर्थिक विकास और सामाजिक समीकरणों को साधने में केसीआर को निपुणता हासिल है. यह तथ्य है कि तेलंगाना राज्य बनाने में के. चंद्रशेखर राव की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण रही है. इसके साथ ही पिछले 9 साल में केसीआर सरकार ने तेलंगाना की आर्थिक हालात को भी पहले से काफ़ी बेहतर बना दिया है. आँकड़ों से भी इसकी पुष्टि होती है.

आय के मामले में देश में पहले पायदान पर

राज्यों में तेलंगाना प्रति व्यक्ति आय के मामले में देश में पहले पायदान पर है. तेलंगाना का पर कैपिटा इनकम सालाना 3.17 लाख रुपये तक पहुंच गया है, जो राष्ट्रीय औसत 1.70 लाख रुपये से बहुत अधिक है. तेलंगाना के लिए यह आंकड़ा 2014 के मुक़ाबले दोगुना से भी अधिक हो गया है. नया राज्य बनते समय  तेलंगाना का प्रति व्यक्ति आय 1.24 लाख रुपये थी.  ग्रॉस स्टेट डोमेस्टिक प्रोडक्ट ( GSDP) भी  5,05,849 करोड़ रुपये से बढ़कर 12,93,469 करोड़ रुपये हो चुका है. राज्य सरकार यह भी दावा करती है कि  देश में तेलंगाना एकमात्र राज्य है, जहां 100% घरों में नलों से शुद्ध ताज़ा पानी की आपूर्ति की जाती है.

तेलंगाना की अस्मिता और केसीआर की लोकप्रियता

केसीआर ने पिछले डेढ़-दो साल में फिर से प्रदेश की जनता की नब्ज़ को पकड़ते हुए अपनी स्थिति मज़बूत कर ली है. बीआरएस तेलंगाना की अस्मिता को आधार बनाकर बीजेपी को बाहरी घोषित करने से जुड़ी रणनीति पर काम कर रही है. तेलंगाना की स्थानीय पहचान और अस्मिता से केसीआर को जोड़कर बीआरएस के नेता और कार्यकर्ता बीजेपी को बाहरी दिखाने की कोशिश में ज़ोर-शोर से जुटे हैं. चुनाव प्रचार में इसे बड़ा मुद्दा भी बना रहे हैं. केसीआर की लोकप्रियता तेलंगाना में अभी भी इतनी अधिक है कि किसी भी पार्टी के लिए वहां अपनी राजनीतिक पकड़ को बढ़ाना बेहद चुनौतीपूर्ण है. एक और पहलू है, जो केसीआर के पक्ष में जाता है. मजहबी आधार पर वोटों का ध्रुवीकरण करना दक्षिण भारतीय राज्यों में बेहद मुश्किल है. कर्नाटक चुनाव में हम सब ऐसा होते देख चुके हैं.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.]

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