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राम मंदिर और धार्मिक गतिविधियों के इर्द-गिर्द घूमते राजनीतिक दल, चुनाव में गौण होते बाक़ी मुद्दे, किसका है नुक़सान?

पिछले कई दिनों से भगवान श्रीराम, राम मंदिर और अयोध्या चर्चा में हैं. तमाम राजनीतिक दलों, उनसे जुड़े नेता, कार्यकर्ताओं के साथ ही आम लोगों के बीच राम मंदिर में 22 जनवरी को होने वाले प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम को लेकर गहमागहमी है. केंद्र सरकार से लेकर अलग-अलग राज्यों की सरकारों में भी हलचल देखी जा सकती है.

मीडिया के हर मंच पर, चाहे न्यूज़ चैनल हो, अख़बार हो या फिर सोशल मीडिया हो, इससे महत्वपूर्ण विषय कुछ और वर्तमान में नहीं दिख रहा है. बाक़ी खबरों या मुद्दों को अगर इन मंचों पर जगह मिल भी रही है, तो उसका स्वरूप बहुत ही सीमित है.

धार्मिक भावना और राजनीतिक रंग से जुड़ा पहलू

राम, राम मंदिर पूरी तरह से धार्मिक मसला है. यह लोगों की धार्मिक भावनाओं से जुड़ा बेहद ही संवेदनशील मुद्दा है. इसमें किसी को कोई शक-ओ-शुब्हा नहीं है. समस्या धार्मिक भावनाओं को राजनीतिक रंग देने से पैदा हो गया है. 2024 का साल हर भारतीय के लिए राजनीतिक तौर से बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि दो-तीन महीने बाद ही आम चुनाव होने वाला है. सरल शब्दों में कहें तो लोक सभा चुनाव होना है, जिससे तय होना है कि अगले पाँच साल तक केंद्र की सत्ता पर किस दल या गठबंधन की सरकार बनेगी.

आम चुनाव, 2024 और अयोध्या में राम मंदिर में प्राण-प्रतिष्ठा से जुड़े कार्यक्रम में सीधे तौर से कोई संबंध नहीं है. हालाँकि इस कार्यक्रम को लेकर मोदी सरकार के साथ ही बीजेपी का जो रवैया है, उससे यह सवाल ज़रूर उठता है कि क्या धार्मिक मुद्दों और लोगों की धार्मिक भावनाओं का राजनीतिकरण किया जा रहा है, जिससे आगामी लोक सभा चुनाव में पार्टी विशेष को लाभ हो. सिर्फ़ मोदी सरकार या बीजेपी की बात नहीं है, अलग-अलग राज्यों में दूसरे दलों की सरकारें और अन्य विपक्षी पार्टियाँ भी धार्मिक गतिविधियों को राजनीतिक रंग देने में जुटी हैं, वो भी कई सवाल खड़े करते हैं.

राजनीति में धार्मिक मुद्दों की मिलावट और चुनाव

जब धर्म और धर्म से जुड़े मु्द्दों को राजनीति और चुनाव में बाक़ी मसलों की अपेक्षा ज़ियादा महत्व मिलने लगे, तो दो बातें तय है. पहला, इसका फ़ाइदा सिर्फ़ और सिर्फ़ राजनीतिक दलों और उससे संबंधित नेताओं को होता. दूसरा, इसका एकमात्र नुक़सान देश के आम लोगों, नागरिकों को होता है. हालाँकि यह बात आम लोगों को देर से समझ में आती है, तब तक राजनीतिक दलों का हित पूरा हो चुका रहता है. जब सरकारी और राजनीतिक स्तर पर धार्मिक भावनाओं को मु्द्दा बनाकर हमेशा ही उसे ही मीडिया की सुर्खियाँ बनाने रखने की कोशिश होती है, तो कुछ समय के लिए तो आम लोगों को धार्मिक संतुष्टि मिलती है, लेकिन बाद में यही आम लोग ठगे महसूस किए जाते हैं और उनके पास कोई विकल्प भी नहीं बचता है. वास्तविकता यही है.

भगवान राम आराध्य हैं, साध्य हैं....

अभी राम मंदिर को लेकर जिस तरह का माहौल पूरे देश में है, उससे ऐसा लग रहा है कि भगवान राम आराध्य और साध्य की जगह राजनीतिक साधन बन गए हैं. उसके साथ ही राजनीतिक और मीडिया विमर्श को कुछ इस कदर बना दिया गया है कि जो राममय माहौल में ख़ुद को बहाता हुआ नज़र नहीं आयेगा, वो देशविरोधी या सनातन विरोधी या हिन्दू विरोधी है. अब यह धार्मिक भावना ये जुड़ा संवेदनशील पहलू  कम नज़र आ रहा है, राजनीतिक मसला ज़ियादा बन गया है. कम से कम मीडिया के अलग-अलग मंचों पर जिस तरह से कोहराम मचा है, उसको देखते भी यह कहा जा सकता है.

राम मंदिर को लेकर राजनीतिक रुख़ और आडंबर

अयोध्या में राम मंदिर में 22 जनवरी को प्राण प्रतिष्ठा का कार्यक्रम होना है. इसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जा रहे हैं. इस कार्यक्रम की तैयारियों का जाइज़ा लेने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ बार-बार अयोध्या का दौरा कर रहे हैं. बीजेपी के बड़े से लेकर छोटे नेताओं के साथ ही तमाम कार्यकर्ता इस कार्यक्रम के प्रचार-प्रसार में जुटे हैं. आरएसएस से लेकर बीजेपी से त'अल्लुक़ रखने वाली हर संस्था और संगठन का अभी पूरी तरह से फोकस राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम पर है.

राजनीतिक विमर्श भी इसी के इर्द-गिर्द रहा है. क्या सत्ता पक्ष..क्या विपक्ष ..तमाम पार्टियाँ और उनके बड़े नेताओं की ओर से भी लगातार बयान आ रहे हैं. कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी पार्टी इसे बीजेपी का कार्यक्रम बताकर 22 जनवरी के राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा से जुड़े समारोह में जाने से इंकार कर चुकी है. हालाँकि इसके बावजूद अलग-अलग राज्यों में इन दलों के नेताओं की ओर से भी धार्मिक मसलों पर ही आरोप-प्रत्यारोप जारी है.

धार्मिक गतिविधियों में सरकार की भूमिका और रुख़!

चाहे प्रधानमंत्री हो, या मुख्यमंत्री या मंत्री-सांसद-विधायक हों, भारत में हर किसी को अपने-अपने धर्म का पालन करने की पूरी तरह से आज़ादी है. इसके बावजूद हर सरकार को संविधान के मुताबिक़ एक ज़िम्मेदारी मिली हुई है. ऐसे में सवाल उठता है कि अगर सरकारें धार्मिक गतिविधियों में इतनी अधिक व्यस्त नज़र आने लगेगी, तो फिर क्या यह देश के आम नागरिकों के हित के लिए, उनके वर्तमान और भविष्य के लिए सही है. पिछले कुछ दिनों में कई ऐसी ख़बरें सामने आई हैं, जिन पर पहले ग़ौर किया जाना चाहिए.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 12 जनवरी को सोशल मीडिया के माध्यम से जानकारी देते हैं कि वे प्राण प्रतिष्ठा से पहले 11 दिन का विशेष अनुष्ठान करेंगे. फिर बाद में प्रधानमंत्री के सिर्फ़ कंबल पर सोने की ख़बर आती है. इन ख़बरों को मीडिया में दिन-रात चलाया जाता है. इन पर ख़ूब चर्चाएं होती हैं.

जब से प्रधानमंत्री ने 11 दिन के अनुष्ठान की बात जगजाहिर की है, उसके बाद से वे हर दिन किसी न किसी मंदिर में जाते हैं और प्रधानमंत्री के मंदिर गमन के कार्यक्रम को भी मीडिया में ज़ोर-शोर से दिखाया जाता है. प्रधानमंत्री महाराष्ट्र, केरल और आंध्र प्रदेश में अलग-अलग मंदिरों में जाते हैं. इन सबके ख़बर बनने या बनाने से कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन सवाल ज़रूर खड़े होते हैं कि क्या इनके अलावा देश के आम लोगों के लिए या उनके नज़रिये से कोई और ज़रूरी मुद्दा या ख़बर है ही नहीं.

नरेंद्र मोदी सरकार 18 जनवरी को घोषणा करती है कि प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम को देखते हुए 22 जनवरी को पूरे देश में केंद्र सरकार के सभी दफ़्तर में दोपहर ढाई बजे तक अवकाश रहेगा. उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में अवकाश की घोषणा पहले ही की जा चुकी है. उत्तर प्रदेश में स्कूल-कॉलेज बंद रहेंगे. मध्य प्रदेश में भी स्कूलों में छुट्टी रहेगी.

गोवा की बीजेपी सरकार ने भी कुछ ऐसा ही ऐलान किया है. छत्तीसगढ़ में भी स्कूल-कॉलेज 22 जनवरी को बंद रखने का आदेश जारी हो चुका है. हरियाणा में भी स्कूल बंद रहेंगे. उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश समेत बीजेपी शासित कई राज्यों में उस दिन ड्राई डे घोषित करने का फ़रमान जारी कर दिया गया है.

कतार में बाक़ी विपक्षी दल भी नहीं हैं पीछे

ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ बीजेपी और उससे संबंधित सरकार ही धार्मिक मसलों को राजनीतिक उपकरण के तौर पर इस्तेमाल करती हुई नज़र आ रही है. केंद्रीय राजनीति में विपक्षी दलों की भूमिका में रहने वाले कई दलों के शीर्ष नेतृत्व की ओर से भी ऐसी कोशिश देखी जा सकती है.

दिल्ली के रोहिणी में 'सुंदरकांड पाठ' में शामिल होते हुए आम आदमी पार्टी के संयोजक और मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की तस्वीर हम लोग देख चुके हैं. राममय माहौल के बीच हम सबने यह भी देखा है कि वो ऐलान कर रहे कि उनकी पार्टी दिल्ली में महीने के पहले मंगलवार को 'सुंदरकांड पाठ' का आयोजन करेगी.

ऐसे तो तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अयोध्या के कार्यक्रम में जाने से इंकार कर दिया है, लेकिन 22 जनवरी को वे कोलकाता में कालीघाट मंदिर जायेंगी. उसके बाद सभी धर्म के लोगों के साथ सद्भाव रैली निकालेंगी. शिवसेना (यूबीटी) के अध्यक्ष उद्धव ठाकरे 22 जनवरी को नासिक में कालाराम मंदिर में महाआरती करते हुए नज़र आयेंगे.

हम सबने एक तस्वीर ओडिशा की भी देखी है. बीजू जनता दल के सर्वेसर्वा और ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने 17 जनवरी को पुरी के जगन्नाथ मंदिर के हेरिटेज कॉरिडोर का उद्घाटन किया. यह बात महत्वपूर्ण है कि आगामी लोक सभा चुनाव के साथ ही ओडिशा का विधान सभा चुनाव भी होना है. इस लिहाज़ से ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के जगन्नाथ मंदिर के हेरिटेज कॉरिडोर के उद्घाटन कार्यक्रम की तस्वीरें भी राजनीतिक मायने रखती हैं.

धार्मिक भावनाओं का राजनीतिकरण कितना सही?

कुल मिलाकर देखा जाए, तो अभी देश में माहौल राममय है. धार्मिक भावनाएं पूरे वेग से हवाओं में फैली हुई हैं. इसमें कुछ भी ग़लत नहीं है. हालाँकि चिंता इस बात को लेकर है कि धार्मिक भावनाओं को राजनीतिक उपकरण बनाने की कोशिश जिस तरह से बीजेपी समेत ही कई पार्टियाँ अलग-अलग तरीक़े से कर रही हैं, वो भारतीय संसदीय व्यवस्था के साथ ही संवैधानिक सिद्धांतों आदर्शों और प्रावधानों के लिहाज़ से सही नहीं कहा जा सकता है. आज या कल, आख़िरकार देश के आम लोगों को ही इसका ख़म्याज़ा भुगतना पड़ेगा, वास्तविकता यही है.

वास्तविक मुद्दों को पर्दे के पीछे करने की कोशिश

न तो किसी को भगवान राम से किसी तरह की परेशानी है और न ही अयोध्या में बने राम मंदिर से. परेशानी इस बात की है कि राम के नाम पर देश के आम लोगों को एक तरह से मानसिक गुलाम बनाने की कोशिश की जा रही है. धार्मिक भावनाओं की आड़ में आम लोगों के वर्तमान और भविष्य से जुड़े वास्तविक मुद्दों को पर्दे के पीछे करने की कोशिश राजनीतिक दलों की ओर से की जा रही है. यह प्रवृत्ति बेहद ख़तरनाक है.

 

धार्मिक बनाम बाक़ी मुद्दों को महत्व की लड़ाई

जिस तरह का माहौल बन गया है, उसमें यह तय है कि आम चुनाव, 2024 में धार्मिक मसला बाक़ी मुद्दों पर हावी रहेगा. अभी वक़्त सवालों का है. सरकार और उनके नुमाइंदों ने पिछले पाँच साल में क्या कुछ नहीं किया, जिसका वादा किया था..उन प्रश्नों को राजनीतिक दल और उनके नेताओं से पूछने का एक मौक़ा है. अगर आगामी लोक सभा चुनाव में धर्म से जुड़े मुद्दों को, धार्मिक भावनाओं को ही मुख्य मुद्दा बनाने में तमाम दल के नेता कामयाब हो गए, तो फिर यह आम लोगों के लिए हार की तरह ही होगा. यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि एक बार चुनाव प्रक्रिया पूरी हो गयी, तो फिर अगले पाँच साल तक देश के आम लोग सवाल पूछने की स्थिति में नहीं होंगे.

राजनीति में धर्म के हावी होने से किसका नुक़सान?

धार्मिक भावनाओं का महत्व है. हमारे संविधान ने भी धार्मिक स्वतंत्रता को मौलिक अधिकार माना है. हालाँकि यह निजी मसला है, सरकारी मसला नहीं. देश के हर नागरिक को इस पहलू का महत्व समझना चाहिए. आपकी धार्मिक भावनाएं  कुछ पल के लिए, कुछ दिन के लिए संतुष्ट होती रहे और उसको आधार बनाकर ही हम मतदान करते रहेंगे, तो फिर राजनीतिक दलों के लिए राजनीति का रास्ता बेहद सुगम हो जायेगा. इसके विपरीत आम लोगों का जीवन उतना ही कठिन होते जायेगा. इसे नहीं भूलना चाहिए.

तमाम सरकारों के विकास मॉडल पर सवाल

ऐसे भी भारत में आज़ादी के बाद से ही कांग्रेस समेत तमाम दलों ने उस तरह की राजनीति की है, जिसमें देश के आम लोगों की स्थिति में त्वरित सुधार न हो. सुधार हो भी तो उसका असर धीरे-धीरे हो. उसी राजनीति का प्रतिफल है कि आज़ादी के 75-76 साल बाद भी देश की 80 करोड़ जनता को हर महीने पाँच किलो का फ्री राशन देना पड़ता है. यह स्थिति तब है, जब हम दुनिया की पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हैं और जल्द ही तीसरी अर्थव्यवस्था बनने वाले हैं. उसके बावजूद देश की क़रीब 60 फ़ीसदी आबादी को दो वक़्त के खाने के लिए सरकारी स्तर पर राशन मुहैया करवाना पड़ रहा है.

अब तब तमाम सरकारों की ओर से किस तरह के विकास मॉडल को पिछले सात दशक में अपनाया गया है...धार्मिक मुद्दों से इतर इस पर गंभीरता से सोचने की ज़रूरत है. उसमें भी असंवेदनशीलता की हद यह है कि सरकार की ओर से 80 करोड़ लोगों को फ्री राशन पहुंचाने की योजना को बतौर उपलब्धि प्रचारित किया जाता है.

चुनाव में नागरिक अधिकारों का घटता महत्व

राजनीति में धार्मिकता का पुट जितना अधिक होगा, उस सिस्टम के तहत नागरिक अधिकारों पर बात उतनी ही कम होगी. मीडिया में ..ख़ासकर मुख्यधारा की मीडिया में ...उन मुद्दों और समस्याओं को महत्व कम मिलेगा, जिनसे देश के आम लोग सुबह, दोपहर, शाम..हर वक़्त रू-ब-रू हो रहे होते हैं. इसका जीता जागता उदाहरण वर्तमान भारत है.

तमाम सरकार लंबे वक़्त से दावा करती रही है कि उनके कार्यकाल में ग़रीबी घटी है, ग़रीबों की संख्या में बड़ी गिरावट आई है. सरकारी आँकड़ों में अपने-अपने आकलन के आधार पर ऐसी संख्याओं को दिखा भी दिया जाता है. फिर भी समस्या यह है कि देश के 80 करोड़ लोगों को खाने के लिए सरकारी स्तर पर राशन देना पड़ रहा है. सवाल बनता है, लेकिन धार्मिक भावनाओं की आड़ में तमाम सरकारें और राजनीतिक दल ऐसे सवाल का जवाब देने से बच जाते हैं.

चुनाव में किन मुद्दों को मिलनी चाहिए प्राथमिकता?

आम चुनाव, 2024 में प्रमुख मुद्दे वहीं होने चाहिए, जो आम लोगों की समस्याओं से जुड़ा है. शिक्षा की गुणवत्ता में कमी, शिक्षा पर आम लोगों का बढ़ता ख़र्च, चिकित्सा सुविधाओं का अभाव, रोज़गार की समस्या, बढ़ती महँगाई, महिलाओं के ख़िलाफ हिंसा, आर्थिक असमानता की बढ़ती खाई..जैसे तमाम मुद्दे हैं, जिनको चुनाव में प्राथमिकता से उठाया जाना चाहिए. हालांकि हम सब वर्षों से देखते आए हैं कि कभी धर्म के नाम पर, कभी जाति के नाम पर इन मुद्दों को चुनाव में उतना महत्व नहीं मिलता है, जितना मिलना चाहिए.

जाति-धर्म का राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल

राजनीतिक दल दशकों से जाति-धर्म को अपने लाभ के लिए परोक्ष-अपरोक्ष रूप से इस्तेमाल करते रहे हैं. हालाँकि सरकारी स्तर पर ऐसा होने लगे, तो इस प्रवृत्ति को किसी भी आधार पर सही ठहराने की कोशिश भी अपने-आप में बेदह ख़तरनाक है. धर्म और धार्मिक भावनाओं को अगर आम लोगों ने राजनीतिक उपकरण बनने दिया, तो फिर आम लोगों का भविष्य मानसिक गुलाम से ज़ियादा कुछ और नहीं रह जायेगा. घर बैठे हर लोग पार्टी कार्यकर्ता बन गए हैं. पत्रकार की भूमिका निरंतर बदलती जा रही है. मीडिया के स्वरूप में बड़ा बदलाव आया है. इन सबके पीछे एक बड़ा कारण राजनीति में धर्म और धार्मिक भावनाओं को प्राथमिकता से महत्व देना है.

भारत में सरकार का नहीं होता है कोई धर्म

भारत एक ऐसा देश है, जो व्यवहार में धार्मिक भावनाओं से संचालित होने वाले समाज से मिलकर बना है. अलग-अलग धर्मों के लोग मिलकर इस देश को एक राष्ट्र बनाते हैं. इसमें किसी प्रकार का कोई शक नहीं है. लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि सरकार का कोई धर्म नहीं होता है. आज़ादी के बाद से ही भारत की, भारत के नागरिकों की यही सबसे बड़ी ताक़त भी है.

अगर अतीत में किसी सरकार ने ख़ास धर्म के प्रति विशेष अनुराग दिखाया है, इसका यह मतलब नहीं है कि वर्तमान और भविष्य की सरकार को भी वैसा ही करने की छूट मिल जाती है.  यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत सिर्फ़ उन्हीं लोगों का देश नहीं है, जो धार्मिक हों, आस्तिक हों, बल्कि उन लोगों का भी उतना ही अपना देश है, जो किसी धार्मिक विचारधारा में विश्वास नहीं रखते हैं. अगर सरकार या राजनीतिक दलों की ओर से राजनीति में धर्म को हावी करने की कोशिश किसी भी तरह से की जाती है, तो यह सरासर संविधान का उल्लंघन है. देश के लोगों के संवैधानिक अधिकारों का हनन है.

राजनीति में धर्म के समावेश से लोगों को हानि

देश के नागरिकों की ही यह ज़िम्मेदारी और कर्तव्य दोनों है कि चुनाव के ज़रिये राजनीतिक दलों को संदेश दें कि राजनीति में धर्म का समावेश हमें पसंद नहीं है. अगर बतौर नागरिक देश के आम लोग ऐसा नहीं कर पाते हैं, तो इससे उनका ही वर्तमान और भविष्य धुँधला होगा. विडंबना है कि यह प्रक्रिया बेहद धीमी होती है, जो स्पष्ट तौर से दिखती नहीं है. हालाँकि इसका असर दीर्घकालिक और घातक होता है. इतना तय है. जिस राजनीतिक व्यवस्था में धर्म का बोलबाला अधिक होगा, उसमें नागरिकों की वास्तविक ज़रूरत, पसंद-नापसंद का महत्व कम होता जाएगा.

महिलाओं की स्थिति पर असर सबसे अधिक

जब राजनीति में धर्म हावी हो जाता है, तो धीरे-धीरे उस सिस्टम में महिलाओं की स्थिति पर सबसे ज़ियादा असर पड़ता है. इस बात को नहीं भूलना चाहिए. दुनिया के तमाम ऐसे देश उदाहरणस्वरूप अभी भी मौजूद हैं, जहाँ सरकार और राजनीति में धर्म हावी है और वहाँ महिलाओं की स्थिति बेहद या कहें सबसे ख़राब है. यह क्रमिक प्रक्रिया है. इसमें कई साल भी लग जाते हैं. इस प्रक्रिया को देखना और आसानी से समझना, देश के आम लोगों के लिए सरल नहीं है.

जब भी सरकार या राजनीतिक सिस्टम के तहत नीति और चुनावी रणनीति में धार्मिक भावनाओं या धर्म से जुड़े मुद्दों को ध्यान में रखकर कोई भी समाज आगे बढ़ता है, तब उस समाज में महिलाओं पर तमाम अंकुश लगाने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है. इसमें सोच, अभिव्यक्ति से लेकर पहनावा का पहलू भी धीरे-धीरे शामिल हो जाता है. नैतिकता और संस्कार का एक ऐसा आवरण महिलाओं के चारों ओर बनाया जाता है, जिसमें उनकी हर गतिविधि पर समाज का एक तरह से प्रभावी नियंत्रण बना दिया जाता है.

सरकार की भूमिका से जुड़े संदर्भ पर असर

राजनीति में धर्म के हावी होने का सबसे बड़ा नुक़सान यह है कि आम लोगों के लिए सरकार की भूमिका क्या होनी चाहिए, उसका पूरा संदर्भ ही बदल जाता है. लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत संसदीय प्रणाली में सरकार की भूमिका अगर एक शब्द में परिभाषित करना हो, तो वह शब्द है..लोक कल्याणकारी सरकार. संविधान में भी सारी व्यवस्थाएं इसी पहलू को देखकर की गयी है. हालाँकि जब राजनीति में धर्म को हावी करने की कोशिश होने लगती है या फिर इसमें कामयाबी मिल जाती है, तब फिर लोगों की धार्मिक भावनाओं की आड़ में सरकार के लिए भी सरकारी जवाबदेही से बचने का रास्ता सुगम हो जाता है.

सरकार और राजनीतिक दलों का काम धार्मिक या नैतिक ज्ञान देना नहीं है. हालाँकि आम लोगों की धार्मिक भावनाओं की आड़ में जब सरकार और  राजनीतिक दल ऐसा करने लगते हैं, तो फिर चुनाव में धर्म के आधार पर ध्रुवीकरण के कारण बाक़ी मुद्दों का गौण होना तय हो जाता है.

दलों को लाभ, आम लोगों का सिर्फ़ नुक़सान

आम लोगों के नज़रिये से देखें, तो राजनीति में धर्म की मिलावट का कोई फ़ाइदा नहीं है., सिर्फ़ और सिर्फ़ नुक़सान ही नुक़सान है. धर्म के आधार पर मतों का ध्रुवीकरण तो आसानी से हो जाता है, लेकिन आम लोगों के सामने मौजूद रोज़-मर्रा की परेशानियों का निदान मुश्किल हो जाता है. यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि देश के आम नागरिकों के जीवन में गुणवत्तापूर्ण बदलाव सिर्फ़ दो ही चीज़ से सुनिश्चित हो सकती है.. बेहतर शिक्षा और बेहतर चिकित्सा सुविधा. इनके अलावा जितने भी पहलू हैं, उनका महत्व इन दो चीज़ के बाद ही आता है. ये दो पहलू.. हर नागरिक के लिए बेहतर शिक्षा और बेहतर चिकित्सा सुविधा..बहुत हद तक देश के राजनीतिक सिस्टम और उसके माध्यम से बनी सरकार ही सुनिश्चित करा सकती है. हर नागरिक का..हर मतदाता का यह कर्तव्य है कि वो इस पहलू पर पहले सोचे.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.] 

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