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संसद सत्र: अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा में देरी मोदी सरकार की रणनीति का हिस्सा, विपक्ष के मंसूबों को धक्का

संसद का मानसून सत्र जारी है. 20 जुलाई से शुरू हुआ ये सत्र 11 अगस्त चक चलना है. मौजूदा सत्र के दौरान संसद की कार्यवाही हंगामा और नारेबाजी की वजह से लगातार बाधित होती रही है. इस सत्र के दौरान एक ख़ास बात ये हुई है कि कांग्रेस नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव लाई है.  

इस अविश्वास प्रस्ताव को कांग्रेस सांसद गौरव गोगोई ने 26 जुलाई को पेश किया था. I.N.D.I.A नाम के तले बने विपक्षी गठबंधन की ओर से इस अविश्वास प्रस्ताव को समर्थन हासिल है.औपचारिकता पूरी करने के बाद लोकसभा स्पीकर ने इस नोटिस को स्वीकार कर लिया. सदन में अविश्वास प्रस्ताव से जुड़े नोटिस को 26 जुलाई को ही स्वीकार कर लिया गया था.

ऊहापोह के बाद चर्चा की तारीख हुई तय

हालांकि अविश्वास प्रस्ताव पर सदन में चर्चा कब होगी, इसको लेकर 5 दिनों तक ऊहापोह की स्थिति बनी रही. 26 जुलाई को स्पीकर ओम बिरला ने कहा था कि तमाम दलों से चर्चा के बाद चर्चा की तारीख पर फैसला किया जाएगा. हालांकि विपक्ष जल्द से जल्द अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा चाहता था. लेकिन 31 जुलाई तक इस पर कोई फैसला नहीं हो पाया था.

आखिरकार लोकसभा के बिजनेस एडवाइजरी कमेटी की एक अगस्त को हुई बैठक में अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के लिए तारीखों पर फैसला लिया गया. इसके मुताबिक 8 अगस्त को अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा की शुरुआत होगी. चर्चा 9 और 10 अगस्त को भी जारी रहेगी और 10 अगस्त को ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अविश्वास प्रस्ताव पर हुई बहस का जवाब देंगे. उसके बाद मतदान की प्रक्रिया पूरी की जाएगी. 

अविश्वास प्रस्ताव को प्राथमिकता नहीं देने का आरोप

बिजनेस एडवाइजरी कमेटी की एक अगस्त की बैठक से I.N.D.I.A ब्लॉक वाले विपक्षी दलों के शीर्ष नेताओं ने वॉकआउट भी किया. इन नेताओं का कहना था कि मोदी सरकार अविश्वास प्रस्ताव के ऊपर विधायी कार्यों को प्राथमिकता दे रही है. जिस तरह से अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के लिए मानसून सत्र के एकदम आखिरी दिनों में चर्चा के लिए वक्त मुकर्रर किया गया, उसको लेकर विपक्षी दलों में नाराजगी है.

नरेंद्र मोदी सरकार की रणनीति का हिस्सा

हालांकि अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के लिए जो तारीखें तय की गई हैं, कहा जा सकता है कि वो पूरी तरह से नरेंद्र मोदी सरकार की रणनीति का ही हिस्सा है, जिससे विपक्ष के मंसूबों को पूरा होने से रोका जा सके.

दरअसल लोकसभा में नियम 198 के तहत अविश्वास प्रस्ताव लाया जाता है. उस नियम में ये साफ है कि अगर स्पीकर ने अविश्वास प्रस्ताव से जुड़ा नोटिस स्वीकार कर लिया है तो उस पर सदन में 10 दिनों के भीतर बहस कराना अनिवार्य है. इस लिहाज से देखें तो अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के लिए जो तारीख तय की गई है, उसमें कोई समस्या नहीं है क्योंकि अगर बीच के अवकाश को हटा दें तो अविश्वास प्रस्ताव पर  8 अगस्त को किसी भी हालत में चर्चा शुरू हो जानी चाहिए. सरकार ने इस बात का तो ख्याल रखा है.

अविश्वास प्रस्ताव संसदीय व्यवस्था में एक अधिकार

हम सब जानते हैं कि अविश्वास प्रस्ताव संसदीय व्यवस्था में विपक्ष का एक अधिकार है. हालांकि फिलहाल संख्या बल के लिहाज से लोकसभा में ऐसी कोई स्थिति पैदा नहीं हुई है, जिसकी वजह से विपक्ष को ये लगे कि सरकार खतरे में है. ये हम सब जानते हैं कि इस वक्त प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में एनडीए सरकार संख्या बल के लिहाज से बेहद मजबूत है. ये भी तय है कि चर्चा के बाद अविश्वास प्रस्ताव का क्या हश्र होने वाला है.

मणिपुर को लेकर विपक्ष सरकार को चाहता है घेरना

कांग्रेस समेत 26 दलों का जो विपक्षी गठबंधन बना है, वो विवश होकर पूरी रणनीति के तहत इस अविश्वास प्रस्ताव को लाने के लिए तैयार हुई. विवश होकर इसलिए कहना पड़ रहा है कि  20 जुलाई को संसद के मानसून सत्र की शुरुआत हुई. उससे पहले 19 जुलाई को मणिपुर की एक घटना का वीडियो वायरल होता है, जिसमें दो महिलाओं के साथ बर्बरतापूर्ण हरकत करते हुए वहां की भीड़ नजर आती है. मणिपुर मई की शुरुआत से हिंसा की आग में झुलस रहा है. मानसून सत्र शुरू होने के ठीक एक दिन पहले जो वीडियो वायरल हुआ, उससे संबंधित घटना भी  4 मई की थी.  हालांकि मणिपुर हिंसा को लेकर देशभर में नाराजगी थी, लेकिन इस वीडियो के वायरल होने के बाद लोगों की नाराजगी गुस्से और आक्रोश में तब्दील हो गई. लोगों का गुस्सा और भड़ास मीडिया के अलग-अलग मंचों ख़ासकर सोशल मीडिया पर निकलने लगा. 

मणिपुर हिंसा है मोदी सरकार की कमजोर कड़ी

ये वीडियो वायरल नहीं होता तब भी संसद के मानसून सत्र के लिए मणिपुर हिंसा का मुद्दा बहुत ही गंभीर और प्राथमिकता वाला था. ढाई महीने से ज्यादा का वक्त होने के बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मणिपुर हिंसा पर सार्वजनिक तौर से कोई बयान नहीं दिया था. संसद के हर सत्र की शुरुआत से पहले आम तौर पर प्रधानमंत्री मीडिया के सामने अपनी बात रखते हैं. उसी दौरान उन्होंने संसद परिसर में 20 जुलाई को मीडिया के सामने अपनी बात रखने के दौरान मणिपुर से जुड़े वायरल वीडियो से जुड़ी घटना पर भी बोले. उन्होंने इस घटना को पूरे देश के लिए शर्मनाक बताते हुए दोषियों के खिलाफ सख्त से सख्त कार्रवाई की बात कही.

विपक्ष को पता था कि संसद के मानसून सत्र में मणिपुर के मुद्दे पर सरकार को अच्छे से घेरा जा सकता है. इसलिए सत्र की शुरुआत से ही कांग्रेस की अगुवाई में विपक्षी पार्टियों ने मणिपुर हिंसा के मसले पर राज्यसभा और लोकसभा दोनों ही सदनों में चर्चा की मांग रखी. साथ ही इस मसले पर प्रधानमंत्री से जवाब की भी मांग रखी. सरकार की ओर से भी कहा गया कि चर्चा के लिए वे तैयार है. हालांकि प्रधानमंत्री से जवाब वाली मांग पर सरकार नहीं मानी. सरकार चर्चा के लिए तो तैयार दिखी लेकिन जिन नियमों के तहत विपक्ष चाहता था कि मणिपुर के मुद्दे पर चर्चा हो, सरकार उसके लिए राजी नहीं हुई.

नियमों के फेर में उलझ गया मणिपुर का मुद्दा

विपक्ष राज्यसभा में नियम 267 के तहत और लोकसभा में नियम 184 के तहत चर्चा की मांग करता रहा. वहीं सरकार राज्यसभा में नियम 176 के तहत और लोकसभा में नियम 193 के तहत चर्चा पर अड़ी रही. असल में नियमों के इस हेरफेर में सरकार और विपक्ष दोनों के मंसूबे छिपे थे. विपक्ष राज्य सभा में नियम 267 और लोकसभा में नियम 184 के तहत इसलिए चर्चा पर अडिग है क्योंकि इन नियमों के तहत लंबी बहस होती है. साथ वोटिंग का भी प्रावधान है. ये एक तरह से प्रधानमंत्री पर जवाब देने के लिए संसदीय दबाव की तरह है. विपक्ष इसी मंसूबे के तहत नियम 267 और नियम 184 पर अड़ा रहा.

लंबी चर्चा से सरकार पर बढ़ता दबाव

दूसरी तरफ सरकार को अच्छे से एहसास है कि मणिपुर हिंसा का मुद्दा एक कमजोर कड़ी है. इसको लेकर संसद के भीतर विपक्ष सरकार पर हावी हो सकता है. अगर चर्चा लंबी चली तो विपक्ष को बोलने का मौका उसी हिसाब से ज्यादा मिलेगा, जो बीजेपी के नजरिए से नकारात्मक हो सकता था. जिस तरह से मई की शुरुआत से मणिपुर के लोग अजीब से माहौल में रहने को मजबूर हैं, ये किसी भी लोकतांत्रिक सरकार की नाकामियों को दिखाने के लिए काफी है. मणिपुर में प्रदेश सरकार भी बीजेपी की है और केंद्र में भी उसी की अगुवाई में सरकार है. ये एक ऐसा मुद्दा है, जिसको उठाकर संसद के भीतर विपक्ष नरेंद्र मोदी सरकार को कटघरे में लाना चाहता था और सरकार इस हालात से बचना चाहती थी.

अविश्वास प्रस्ताव की रणनीति सोच-समझकर

मानसून सत्र की शुरुआत के पांच दिन बाद ही कांग्रेस की अगुवाई में विपक्ष को एहसास हो गया कि मोदी सरकार मणिपुर हिंसा के मुद्दे पर उनके मुताबिक नियमों पर चर्चा को कतई राजी नहीं होने वाली है. विपक्ष को लगने लगा कि अब न तो वो इस मुद्दे पर संसद के भीतर सरकार पर लंबी चर्चा के जरिए हमला बोल सकता है और न ही प्रधानमंत्री से जवाब दिलवाने में कामयाब हो सकता है, तो आनन-फानन में कांग्रेस ने नई रणनीति बनाई और 26 जुलाई को अविश्वास प्रस्ताव लाने का फैसला कर लिया.  इसके जरिए कांग्रेस का मकसद सरकार को गिराना नहीं है, ये कांग्रेस के साथ ही विपक्ष के हर दल को पता है. अविश्वास प्रस्ताव के बहाने विपक्ष मणिपुर के साथ ही महंगाई, बेरोजगारी और देश में मौजूद तमाम समस्याओं के जरिए सरकार को लोकसभा में घेरना चाहती है, प्रधानमंत्री की जवाबदेही तय करना चाहता है.

जल्द चर्चा से विपक्ष को और मौका मिलता

विपक्षी पार्टियों की मंशा थी कि जैसे ही अविश्वास प्रस्ताव के नोटिस को स्वीकार कर लिया जाएगा, जल्द ही उस पर सदन में बहस भी हो जाएगी. अगर ऐसा होता है तो अविश्वास प्रस्ताव से जुड़ी औपचारिकताएं पूरी होने के बाद भी विपक्ष के पास इस सत्र में काफी वक्त होगा, जिससे वो सरकार पर मणिपुर हिंसा को लेकर अलग से चर्चा का दबाव बनाएगा. ऐसी परंपरा भी रही है कि जब लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस स्वीकार हो जाता है, तो उस प्रस्ताव पर चर्चा को प्राथमिकता मिलती है. अविश्वास प्रस्ताव से जुड़ी प्रक्रिया पूरी होने के बाद सरकार की ओर से विधायी कार्यों का निपटारा किया जाता है. लेकिन इस बार सरकार अविश्वास प्रस्ताव की प्रक्रिया पूरी होने से पहले ही एक-के बाद एक विधेयक सदन से पारित कराने में जुटी है.

सत्र के आखिरी दिनों में प्रस्ताव पर चर्चा

हालांकि बीजेपी और मोदी सरकार विपक्ष के इस मंसूबे को पूरा नहीं होने देने के लिए पूरी तरह से तैयार दिख रही है. इसलिए ही अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के लिए तारीखों को सत्र के बिल्कुल आखिरी दिनों में रखा गया है. प्रधानमंत्री 10 अगस्त को अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा का जवाब देंगे और उसी दिन इस प्रस्ताव से जुड़ी मतदान की औपचारिकता भी पूरी हो जाएगी. उसके अगले दिन यानी 11 अगस्त को मानसून सत्र का आखिरी दिन होगा और ये दिन शुक्रवार भी है. हम जानते हैं कि शुक्रवार का दिन निजी सदस्यों के कार्यों के लिए नियत होता है. आम तौर पर देखा गया है कि सत्र का आखिरी दिन अगर शुक्रवार है, तो उस दिन जल्द ही सदन की कार्यवाही अनिश्चितकाल के स्थगित  करने के उदाहरण मिलते रहे हैं.

सरकार को घेरने के लिए नहीं मिलेगा ज्यादा वक्त

मतलब अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के लिए 8 से 10 अगस्त की तारीख तय होने से मोदी सरकार और बीजेपी को कई लाभ है. सबसे पहले कि सरकार चाहती है कि इस अविश्वास प्रस्ताव के बाद विपक्ष को मणिपुर हिंसा के मुद्दे पर सरकार को घेरने का ज्यादा वक्त नहीं मिले. अब जिस तरह से चर्चा की तारीखें तय हुई है, बीजेपी का ये मंसूबा पूरा होता दिख रहा है.

विधेयकों को पारित कराना चाहती है सरकार

दूसरा नरेंद्र मोदी सरकार अविश्वास प्रस्ताव से पहले संसद से कुछ बहुत ही जरूरी विधेयकों को पारित कराना चाहती है. इसमें दिल्ली में सेवाओं पर अधिकारों से जुड़ा विधेयक सबसे महत्वपूर्ण है. 11 मई को सुप्रीम कोर्ट का आदेश आता है जिसमें कहा गया था कि विधायी शक्तियों के बाहर के क्षेत्रों को छोड़कर सेवाओं और प्रशासन से जुड़े सभी पदों को लेकर दिल्ली सरकार के पास अधिकार होगा. इस फैसले को शून्य बनाने के लिए केंद्र सरकार अनुच्छेद 123 के अधिकार का इस्तेमाल करते हुए 19 मई को अध्यादेश जारी करती है. अध्यादेश के जरिए दिल्ली में सेवाओं पर अधिकार को दिल्ली सरकार की बजाय उपराज्यपाल के अधीन सुनिश्चित कर दिया गया. संसद के इस सेशन में ही सरकार के लिए इससे जुड़े विधेयक को पारित करने की मजबूरी है. 

दिल्ली से जुड़े विधेयक पर अब सरकार निश्चिंत
 
इस विधेयक को पारित कराए जाने के नजरिए से लोकसभा में तो सरकार को कोई ख़ास परेशानी नहीं थी, लेकिन संख्या बल के हिसाब से राज्य सभा में एकजुट विपक्ष सरकार के लिए परेशानी का सबब बन सकता था. हालांकि अब सरकार उस डर से भी बाहर आ गई है. जैसा कि पहले से अनुमान भी लगाया जा रहा था, नवीन पटनायक की बीजेडी और जगनमोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस ने राज्यसभा में दिल्ली से जुड़े विधेयक के पक्ष में मोदी सरकार के समर्थन में रहने का ऐलान कर चुकी है. अरविंद केजरीवाल इस विधेयक के खिलाफ विपक्षी दलों को लामबंद करने में पिछले दो महीने से जुटे थे और उसी बीच 26 दलों का विपक्षी गठबंधन भी सामने आता है, तो दिल्ली से जुड़े बिल को लेकर सरकार के लिए राज्यसभा में परेशानी हो सकती है, इस तरह की संभावनाएं जताई जा रही थी.

केंद्र सरकार की मंशा है कि अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा से पहले इस महत्वपूर्ण बिल को संसद के दोनों सदनों से मंजूरी मिल जाए. अगर ऐसा हो गया तो ये एक तरह से विपक्षी एकजुटता की  उस मुहिम को झटका भी होगा, जिसकी बात पिछले कुछ दिनों से 2024 के लोकसभा चुनाव को लेकर की जा रही है. सरकार को ये भी आशंका हो सकती है कि अगर अविश्वास प्रस्ताव पर जल्द चर्चा हो जाती तो उसके बाद जो भी राजनीतिक माहौल बनता, उसमें संसद से अति महत्वपूर्ण विधेयकों को पारित कराने में मुश्किलें भी आ सकती थी. सरकार की ये आशंका निराधार भी नहीं है.  

मणिपुर पर लंबी चर्चा की संभावना खत्म

इसमें कोई दो राय नहीं कि मणिपुर हिंसा के मुद्दे से बड़ी प्राथमिकता फिलहाल सरकार और संसद दोनों के लिए कोई और नहीं हो सकता. इतने गंभीर और संवेदनशील मुद्दे पर संसद में लंबी और सार्थक बहस हो, ये मणिपुर के लोगों के साथ ही नागरिक अधिकारों और लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए भी बेहद जरूरी है. हालांकि अब ये मुद्दा राजनीतिक ज्यादा होते नजर आ रहा है और सत्ता पक्ष के साथ ही विपक्ष की रणनीति भी संसद में इस राजनीतिक पहलू को देखते हुए ही तय की जा रही है. यहीं वजह है कि विपक्ष अविश्वास प्रस्ताव के जरिए सरकार पर दबाव बनाना चाह रहा था और साथ ही उसके बाद मणिपुर के मुद्दे को फिर से संसद में उठाने की तैयारी में था, लेकिन मोदी सरकार की रणनीति से उसके इस मंसूबे को धक्का पहुंचा है, ये कहा जा सकता है.

राजनीतिक जवाबदेही से बीजेपी को राहत

अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के दौरा भले ही विपक्ष के तमाम नेता बाकी मुद्दों के साथ ही मणिपुर हिंसा के मसले को उठाएंगे. लेकिन ये उस तरह से नहीं होगा, जैसे सिर्फ़ मणिपुर हिंसा के मुद्दे पर अलग से लंबी चर्चा के दौरान हो सकता था. उसी तरह से अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा का जवाब देने के वक्त प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर भी मणिपुर को लेकर ज्यादा बोलने का दबाव नहीं रहेगा. अगर अलग से राज्य सभा में नियम 267  और लोकसभा में नियम 184 के तहत मणिपुर हिंसा पर चर्चा होती तो इस कमजोर कड़ी पर सरकार का पक्ष रखने के लिए प्रधानमंत्री को ज्यादा बोलना पड़ा. अविश्वास प्रस्ताव पर बहस को सत्र के आखिर में जाने से बीजेपी के साथ ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी संसद के भीतर इस मसले पर ज्यादा बोलने से बच गए, ऐसा कहा जा सकता है.

2024 के लोकसभा चुनाव से पहले और नरेंद्र मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल का ये आखिरी मानसून सत्र भी है. इसके बाद इस सरकार के कार्यकाल में सिर्फ एक ही पूरा सत्र होगा और वो शीतकालीन सत्र है. 2024 में आम चुनाव की वजह से बजट सत्र उस तरह से पूरा नहीं होगा जैसा हर साल होता. सिर्फ अंतरिम बजट के लिए सत्र का आयोजन किया जाएगा. ऐसे में बीजेपी नहीं चाहती है कि नरेंद्र मोदी सरकार को मुद्दों और मौजूदा समस्याओं पर घेरने के लिए विपक्ष को संसद में ज्यादा मौका मिले. अविश्वास प्रस्ताव पर बहस को बाद में रखने के पीछे ये भी एक बड़ी राजनीतिक वजह है.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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