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नीतीश प्रकरण: नयी सरकार, नया गठबंधन, लेकिन बदहाल बिहार में बेबस है जनता, पलटते सब हैं, सिर्फ़ प्रदेश के लोग नहीं

बिहार में नयी सरकार आ गयी. पिछले एक हफ्ते से जारी राजनीतिक नाटक का अंत 28 जनवरी को हो गया. जेडीयू और बीजेपी ने एक-दूसरे से हाथ मिलाया और इसके साथ ही प्रदेश की जनता को नयी सरकार मिल गयी. प्रदेश को सम्राट चौधरी और विजय सिन्हा के रूप में दो उप मुख्यमंत्री भी मिल गए. प्रदेश का सियासी समीकरण पूरी तरह से बदल गया.

अगर आगामी दो महीने में कोई और राजनीतिक उथल-पुथल नहीं हुआ तो आम चुनाव, 2024 में बिहार का राजनीतिक समीकरण गठबंधन के लिहाज़ से कुछ इस प्रकार रहेगा. बिहार में एनडीए के तहत अब बीजेपी के साथ नीतीश की जेडीयू, पशुपति पारस की राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी, चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (राम विलास), जीतन राम माँझी की हिन्दुस्तान आवाम मोर्चा और उपेन्द्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक जनता दल एक पाले में रहेंगे. वहीं इस गठबंधन से मुक़ाबला के लिए जो दूसरा धड़ा है, उसमें तेजस्वी यादव की राष्ट्रीय जनता दल, कांग्रेस और वाम दल शामिल हैं.

इन राजनीतिक समीकरणों से बिहार में आगामी लोक सभा चुनाव में किस धड़े को लाभ होगा या किस दल को नुक़सान होगा, यह तो चुनाव नतीजा के बाद ही पता चलेगा, लेकिन इतना ज़रूर तय है कि प्रदेश के आम लोगों को इन सब राजनीतिक गुणा-गणित और सरकार बदलने के पूरे प्रकरण या कहें सियासी नाटक से कोई ख़ास फ़ाइदा नहीं होने वाला. बिहार में अतीत में तमाम राजनीतिक दलों और सरकारों का जो रवैया रहा है, उसके आधार पर इसकी सबसे अधिक संभावना है.

बार-बार नयी सरकार, लेकिन फिर भी बेबस जनता

जेडीयू और बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व की ओर से अपनी-अपनी बातों से पलटने के बाद बिहार में नयी सरकार अस्तित्व में आ गयी है. सब कुछ बदला, लेकिन बिहार में दो चीज़े पिछले कई सालों से स्थायी है. प्रदेश का मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही रहते हैं और बिहार के लोगों की बेबसी भी यथावत वैसी ही रहती है. न तो मुख्यमंत्री पद से नीतीश हट पाते हैं और न ही वर्षों से बिहार की जनता की बदहाली दूर हो पाती है.

मूकदर्शक बने रहना बिहार के लोगों की क़िस्मत

पिछले एक हफ्ते से जारी राजनीतिक रस्साकशी में एक पहलू पर जितनी चर्चा होनी चाहिए थी, उतनी नहीं हुई. यह पहलू बिहार के आम लोगों, यहाँ के मतदाताओं से जुड़ा है. प्रदेश के लोगों के महत्व से जुड़ा है. जनमत से जुड़ा है. प्रदेश के लोगों का इस पूरे प्रकरण पर क्या नज़रिया रहा, मीडिया के तमाम मुख्य मंचों पर से यह विमर्श पूरी तरह से नेपथ्य में ही रहा. नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री रहते फिर से मुख्यमंत्री बनने से जुड़े इस राजनीतिक घटनाक्रम से कई सवाल उठते हैं, जो प्रदेश की जनता के लिहाज़ से बेहद महत्वपूर्ण हैं.

आम लोगों का पैसा, नई सरकार का रास्ता

बिहार में नीतीश कुमार ने आरजेडी से नाता तोड़कर बीजेपी से हाथ मिलाकर नयी सरकार तो बना ली और ख़ुद मुख्यमंत्री बने रहने में भी एक बार और सफल हो गए. ऐसे तो 28 जनवरी को नीतीश कुमार ने नौंवी बार मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ लिया. हालाँकि नवंबर 2005 से देखें, तो यह आठवाँ मौक़ा था, जब नीतीश कुमार 28 जनवरी को मुख्यमंत्री पद की शपथ ले रहे थे.

अक्टूबर-नवंबर 2005 से अब तक बिहार में चार बार विधान सभा चुनाव हुआ है. या'नी चार विधान सभा के कार्यकाल में नीतीश कुमार आठ बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ले लेते हैं. बीच में एक बार तक़रीबन नौ महीने के लिए जीतन राम माँझी भी मुख्यमंत्री रहते हैं. उस वक़्त जीतन राम माँझी जेडीयू सदस्य के तौर पर ही मुख्यमंत्री बनते हैं और नीतीश कुमार की इच्छा से ही उन्हें यह ज़िम्मेदारी दी गयी थी.

इस तरह से पिछले चार विधान सभा के कार्यकाल में बिहार में नौ बार नई सरकार का गठन होता. नौ बार मुख्यमंत्री का शपथ ग्रहण समारोह होता है. इन चार विधान सभा में से आख़िरी का कार्यकाल अभी भी डेढ़ साल से ज़ियादा बचा है. मौजूदा विधान सभा के कार्यकाल में नीतीश कुमार ने 28 जनवरी, 2024 को तीसरी बार बतौर मुख्यमंत्री शपथ लिया.

राजनीतिक शुचिता और जवाबदेही ताक़ पर

ऐसे तो संविधान में इसकी कोई मनाही नहीं है कि एक ही विधान सभा के कार्यकाल में कितनी बार नई सरकार के लिए शपथ ग्रहण समारोह हो सकता है और एक ही व्यक्ति कितनी बार मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ले सकता है. लेकिन सबसे बड़ा सवाल है कि क्या जनता के पैसे से होने वाले इस तरह के समारोह को लेकर नेताओं और राजनीतिक दलों की ख़ुद से कोई जवाबदेही नहीं बनती है. उसमें भी बिहार जैसे ग़रीब और पिछड़े राज्य में तो यह मसला और भी महत्वपूर्ण हो जाता है.

राजनीतिक स्वार्थ ही एकमात्र वास्तविकता है

बिहार में पिछले एक दशक से हर डेढ़-दो साल पर इस तरह का राजनीतिक नाटक होता आया है. उसमें भी विडंबना यह है कि एक ही व्यक्ति जो पहले से ही मुख्यमंत्री है, फिर से मुख्यमंत्री बनने के लिए इस्तीफा देता है और फिर से उसे ही मुख्यमंत्री बनाने के लिए शपथ ग्रहण समारोह का आयोजन किया जाता है.

फ़िलहाल संवैधानिक तौर से इसमें कुछ भी ग़लत नहीं है, लेकिन जिस तरह से जनता के पैसे का दुरुपयोग सिर्फ़ और सिर्फ़ ख़ुद के राजनीतिक स्वार्थ को पूरा करने के लिए किया जा रहा है, वो बेहद ही चिंतनीय है. एक तरह से बिहार के आम लोगों और जनमत के साथ यह पूरी तरह से राजनीतिक धोखा है. बिहार में वर्षों से जिस तरह की राजनीतिक परिपाटी पर तमाम राजनीतिक दल और नेता चल रहे हैं, उसमें सिर्फ़ और सिर्फ़ प्रदेश के लोग अलग-थलग हैं. वास्तविकता यह है कि बिहार के आम लोग ठगा महसूस कर रहे हैं.

नीतीश और अनोखी राजनीतिक परिपाटी का चलन

जिस तरह की राजनीतिक परिपाटी का चलन नीतीश कुमार ने बिहार में कर दिया है, इससे संवैधानिक तौर से भी एक नए विमर्श का जन्म होना चाहिए. एक ही विधान सभा के कार्यकाल में कितनी बार नई सरकार बन सकती है, एक ही शख्स एक विधान सभा के कार्यकाल में कितनी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ले सकता है और अगर ऐसा वो करता है तो जनता के पैसे का दुरुपयोग कैसे रुक सकता है..इन तमाम बिंदुओं के आलोक में क्या संविधान में संशोधन किए जाने की ज़रूरत है. इस विमर्श को भी मीडिया के अलग-अलग मंचों पर बढ़ावा दिया जाना चाहिए. शायद इससे ही राजनीतिक दलों और नेताओं पर राजनीतिक शुचिता को व्यवहार में अपनाने को लेकर दबाव बनाने में मदद मिल सकती है.

बिहार में सभी राजनीतिक दल पलटते आए हैं

नीतीश कुमार के रुख़ को देखते हुए पिछले एक हफ्ते से हर तरह उन्हें पलटने वाले नेता के तौर पर भी प्रचारित-प्रसारित किया गया. हालाँकि इसका जो दूसरा पहलू है, उसके तहत बिहार में नीतीश या जेडीयू अकेले पलटने वाले नेता या पार्टी नहीं हैं. बिहार में तमाम राजनीतिक दल इसमें हमेशा ही आगे रही हैं.

नीतीश कुमार के साथ ही बीजेपी शीर्ष नेतृत्व में आने वाले तमाम नेताओं को भी पटलने वाला मानना होगा. इसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से लेकर बिहार में पार्टी प्रदेश अध्यक्ष सम्राट चौधरी तक शामिल हैं. नीतीश अकेले नहीं पलटते हैं. ये तमाम नेता भी अपने-अपने रुख़ से पलटे हैं. तभी नीतीश के पलटने से बिहार में नयी सरकार बन पायी है.

इनके अलावा आरजेडी और कांग्रेस के तमाम बड़े नेता भी बिहार के मामले में पलटते आए हैं. अतीत में ऐसे तमाम उदाहरण और इन दलों के नेताओं के बयान भरे पड़े हैं, जिनमें इन नेताओं की ओर से दावा किया गया था कि वे अब कभी भी नीतीश कुमार के साथ नहीं जुड़ेंगे. चाहे लालू प्रसाद यादव हों या फिर तेजस्वी यादव..सभी के नीतीश को लेकर वैसे बयान अतीत में आते रहे हैं. कांग्रेस के नेताओं के बयान भी मौजूद हैं. इसके बावजूद 2015 में और अगस्त, 2022 में जेडीयू, आरजेडी और कांग्रेस तीनों ही दल एक साथ गलबहियाँ करते हुए बिहार में सरकार बना चुके हैं.

सत्ता के आगे किसी विचारधारा का कोई मतलब नहीं

बिहार में ऐसा कोई राजनीतिक दल नहीं है और न ही किसी दल के बड़े स्तर पर नेता हैं, जो यह दावा कर सकें कि वो पलटे नहीं हैं. राजनीतिक स्वार्थ को पूरा करने के लिए हर दल पलटते आया है. बिहार में अगर कोई नहीं पटलता है, तो, वो यहाँ की जनता है. आजाद़ी के बाद से ही यहाँ की जनता जाति और धर्म के जिस राजनीतिक चंगुल में उलझकर वोट डालती आयी है, उससे अब तक नहीं पलटी है. शायद यही कारण है कि तमाम राजनीतिक दल सत्ता पर क़ब्ज़ा के लिए पलटते आए हैं और जनता विवश होकर, मौन होकर और कठपुतली बनकर बस ताकती रही है. तमाम दल और उनके नेता जिस विचारधारा की बात करते हैं, वो सिर्फ़ और सिर्फ़ सत्ता की विचारधारा है. बाक़ी विचारधारा सत्ता के आगे बेमानी है.

बिहार के लोगों की नियति और बदहाली का तमग़ा

हालाँकि चाहे नीतीश हों, चाहे बीजेपी या आरजेडी हो..जब-जब इन लोगों ने सत्ता के लिए राजनीतिक समीकरणों के तहत अपने-अपने पाले बदले हैं..हर बार इन दलों के नेताओं की ओर से यही दावा किया जाता है कि प्रदेश की भलाई के लिए, यहाँ की जनता के हितों के लिए वे पलट गए हैं. इतने पलटने के बावजूद, इन नेताओं के दावों के बावजूद बिहार के लोगों की क़िस्मत नीं पलटी है. यहाँ के लोगों की तक़दीर में पहले भी बदहाली का ही तमग़ा जड़ा था. आज़ादी के 75-76 साल बाद भी बदस्तूर बदहाली ही बिहार का मुक़द्दर यथावत है. तमाम राजनीतिक दल और उनसे जुड़े तमाम नेता जो भी दावा करें, बिहार और यहाँ के लोगों की वास्तविकता यही है. इससे इंकार नहीं किया जा सकता है.

अभी भी देश का सबसे पिछड़ा राज्य क्यों है बिहार?

आज बिहार की गिनती देश में सबसे पिछड़े राज्यों में होती है. वर्षों से या कहें दशकों से यह टैग बदस्तूर जारी है. मानव विकास इंडेक्स से जुड़े हर मानक पर बिहार की स्थिति दयनीय है. चाहे शिक्षा हो या फिर चिकित्सा सुविधा..सरकारी स्तर पर इसकी गुणवत्ता देश में सबसे ख़राब है. यहाँ के लोगों के लिए उच्च शिक्षा से लेकर नौकरी की तलाश में देश-विदेश में पलायन का दंश वर्षों से नियति का रूप ले चुका है.

बुनियादी सुविधाओं का स्तर देश के बाक़ी राज्यों के मुक़ाबले काफ़ी नीचे हैं. प्रदेश के आम लोगों का जीवन स्तर भी बाक़ी राज्यों की अपेक्षा बेहद ख़राब है. चाहे उद्योग हो या फिर पर्यटन का क्षेत्र..बिहार की गिनती निचले पायदान पर जाकर ठहरती है. प्रदेश में एक भी ऐसा शहर नहीं है, जिसे उदाहरण के तौर पेश किया जा सके. यहाँ तक कि राजधानी पटना के अधिकांश इलाकों में सड़क से लेकर नाली तक की व्यवस्था हमेशा ही जर्जर अवस्था में होती है.

वर्षों से नहीं बदल रही है बिहार की वास्तविक तस्वीर

बिहार की असली तस्वीर वर्षों से यही है. तमाम राजनीतिक दल और उनके शीर्ष नेता चाहे जो भी दावा करें, विकास के पैरामीटर पर बिहार के लोगों का दर्द जस का तस है. आम लोगों के जीवन की तस्वीर में बाक़ी राज्यों की तुलना में कोई बड़ा बदलाव देखने को नहीं मिलता है. बिहार के अधिकांश इलाकों में घूम-घूमकर जो नज़ारा दिखता है, उसे मुख्यधारा की मीडिया में जगह नहीं मिल पाती है, लेकिन बिहार का राजनीतिक नाटक हमेशा ही मीडिया की सुर्ख़ियों में होता है. इसके बावजूद बिहार के तमाम दल और नेता अपने बयानों में विकास के दावों को बढ़-चढ़कर पेश करते रहते हैं. अब तो प्रदेश के लोगों की स्थिति यह हो गयी है कि हल्का-फुल्का भी विकास का उदाहरण सामने आता है या चंद नौकरियों का शिगूफ़ा ही राजनीतिक दल छेड़ देते हैं, तो लोग गदगद हो इसे ही विकास का वास्तविक रूप मानने लगे हैं.

प्रदेश में हमेशा ही आम लोगों को किया गया है गुमराह

आज़ादी के बाद से ही बिहार के लोगों को कभी धर्म के नाम पर, कभी जाति के नाम पर, कभी सामाजिक न्याय के नाम पर ठगा जा रहा है. इसमें कोई दल ही शामिल रहा, ऐसा नहीं कहा जा सकता है. इसमें तमाम दलों की भागीदारी रही है. चाहे कांग्रेस हो या फिर आरजेडी..चाहे जेडीयू हो या फिर बीजेपी..सभी बिहार में लंबे समय तक सरकार का हिस्सा रही हैं. इन दलों के नेताओं की क़िस्मत ज़रूर बदलती रही है, लेकिन बिहार की बदहाली और दयनीय स्थिति में पर कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ा है. यही बिहार के लोगों की वास्तविक पहचान है.

बिहार की बदहाली के लिए सभी दल हैं ज़िम्मेदार

आज़ादी के बाद से ही लंबे वक़्त तक बिहार की सत्ता पर कांग्रेस क़ाबिज़ रही है. 80 के दशक तक कांग्रेस का ही दबदबा था. बीच-बीच में जन क्रांति दल, शोषित दल, सोशलिस्ट पार्टी और जनता पार्टी की सरकार भी चंद दिनों या चंद महीनों के लिए रही है. कांग्रेस ने तथाकथित अगड़ी जातियों  को महत्व देकर लंबी अवधि तक बिहार में सत्ता का सुख भोगा.

बीच-बीच में जन क्रांति दल, शोषित दल, सोशलिस्ट पार्टी और जनता पार्टी की भी सरकार आयी. महामाया प्रसाद सिन्हा, बी.पी. मंडल (बिंधेश्वरी प्रसाद मंडल), कर्पूरी ठाकुर और राम सुंदर दास जैसे सामाजिक न्याय के पैरोकार वाले नेता भी मुख्यमंत्री रहे.

कांग्रेस का जब बिहार से दबदबा कम हुआ तो उसके बाद लालू प्रसाद और नीतीश कुमार ने सामाजिक न्याय का नारा देकर अगड़ी बनाम पिछड़ी जाति का विमर्श पैदा कर बिहार के लोगों का समर्थन हासिल किया. 1990 से अब तक बिहार में लालू प्रसाद यादव परिवार या नीतीश कुमार ही सत्ता पर क़ाबिज़ रहे हैं. नवंबर 2005 से अब तक बीजेपी भी नीतीश कुमार के साथ तक़रीबन 12 साल प्रदेश की सत्ता में हिस्सेदार रही है. अब एक बार फिर से बीजेपी नीतीश कुमार के साथ सत्ता में है. या'नी बिहार में तमाम बड़े दलों की सरकार रही है. इसके बावजूद बिहार में विकास की धारा बाक़ी राज्यों की तुलना में बेहद धीमी बही है.

प्रदेश में सामाजिक न्याय के नाम पर राजनीति

बिहार के लोगों के लिए विडंबना है कि सामाजिक न्याय का नारा देकर अपनी राजनीति चमकाने वाले तमाम नेताओं का जीवन बदल गया, लेकिन आम लोगों की बदहाली में कोई क्रांतिकारी बदलाव नहीं आया. चाहे लालू प्रसाद यादव हों या फिर नीतीश कुमार ..दोनों ही नेताओं ने पिछले तीन दशक से सामाजिक न्याय के नाम पर अपनी राजनीति की है. उनके जीवन स्तर में अभूतपूर्व सुधार हुआ, यह बात किसी से छिपी नहीं है, लेकिन बिहार अभी भी देश का सबसे पिछड़ा राज्य ही बना हुआ है. यही एकमात्र सच्चाई है, बाक़ी सब राजनीतिक खेल है.

आर्थिक तौर से वास्तविक विकास किसका हुआ?

जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति के बाद जितने भी नेता बिहार की राजनीति में उभरे, उन सभी ने सामाजिक न्याय की लड़ाई की दुहाई देते-देते अपना राजनीतिक और पारिवारिक उन्नति ज़रूर सुनिश्चित कर लिया. इसके एवज़ में बिहार और बिहार के लोगों का विकास हो या नहीं, इससे उनका कोई ख़ास वास्ता नहीं रहा. सवाल यह भी उठता है कि सामाजिक न्याय की लड़ाई में सही मायने में जिनका विकास होना चाहिए था, बिहार में आर्थिक तौर से उन का विकास हुआ या नहीं. जिनको आधार बनाकर सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ी जा रही थी, उनकी स्थिति कमोबेश कुछ ख़ास नहीं बदली है, लेकिन राजनीतिक दलों और उनके नेताओं की स्थिति में ज़रूर ज़मीन-आसमान का फ़र्क़ आया है.

क्या भविष्य में सुधार की है राजनीतिक गुंजाइश?

अभी भी जो सियासी हालात है, उसमें बिहार की तस्वीर बदलने की संभावना बहुत अधिक नहीं दिखती है. बिहार की राजनीति पर जाति इस कदर हावी कर दिया गया है कि आम लोग इसके फेर से बाहर आ ही नही पा रहे हैं. ऐसा नहीं है कि प्रदेश की आम जनता चाहती नहीं है. राजनीतिक दलों और उसके शीर्ष नेता ऐसा होने नहीं देना चाहते हैं. शुरू से प्रदेश में विकास का पहिया उतना ही घुमाया गया है कि आम लोग जाति के राजनीतिक भँवर से निकल ही नहीं पाएं.

जातिगत राजनीतिक भावना के फेर में उलझे लोग

विकास के नाम पर जातिगत भावनाओं को बार-बार उकेरना ही अब बिहार के तमाम दलों की सबसे बड़ी नीति बन गयी है. इसका जीता-जागता सबूत सर्वेक्षण के नाम पर पिछले साल हुआ जातिगत गणना है. आज़ादी के 75 साल बाद भी अब इन दलों और सरकारों को पिछड़े, अति पछड़े तबक़ों की भलाई और कल्याण के लिए जातिगत गणना जैसे उपकरण की ज़रूरत पड़ रही है, इसे हास्यास्पद ही कह सकते हैं. दरअसल इसे महज़ प्रदेश के लोगों में नए सिरे से जातिगत राजनीतिक भावनाओं को एक बार फिर से उकेरने का एक ज़रिया ही कहा जा सकता है.

अगर आम लोग जातियों के राजनीतिक भँवर से निकलना भी चाहते हैं, तो येन-केन प्रकारेण तमाम दल और उनके नेता भरपूर कोशिश कर ऐसा होने नहीं देते हैं. यही कारण है कि बिहार में कभी भी प्राथमिक शिक्षा के साथ ही उच्च शिक्षा और प्राथमिक चिकित्सा के साथ ही स्पेशलिस्ट हेल्थ फैसिलिटी के विकास पर राजनीतिक और सरकारी स्तर पर संजीदा कोशिश नहीं की गयी है. आज बिहार के सरकारी स्कूलों और सरकारी अस्पतालों का क्या हाल है..यह बिहार के लोग ही जानते हैं.

जातियों के राजनीतिक भँवर से छुटकारा कब मिलेगा?

अगर सचमुच बिहार के लोग जातियों के राजनीतिक भँवर से निकल जाएं, तो, फिर हर दल और उसके शीर्ष नेतृत्व के लिए राजनीति सरल नहीं, बल्कि दुरूह कार्य सरीखा हो जाएगी. अभी भी तमाम दल चुनाव में आम लोगों के विकास के नज़रिये से राजनीतिक समीकरण नहीं बनाते हैं, बल्कि प्रदेश की जातियों को अपने पाले में करने के लिहाज़ से समीकरणों का हिसाब-किताब बिठाने में पूरी ऊर्जा लगाते हैं. नीतीश कुमार का बार-बार बीजेपी के साथ जाना और फिर पलटकर आरजेडी के साथ जाना..उसी जातिगत राजनीतिक समीकरणों को साधने का एक कारगर क़दम है.

जातिगत समीकरणों को साधना ही चुनाव में जीत और राजनीति के फलने-फूलने की गारंटी हो जाए, तो फिर विकास की धारा ऐसे दलों के लिए नुक़सान का सबब हो सकता है, जिनकी राजनीति का आधार ही जातिगत वोट बैंक हो. बिहार में तमाम पार्टियों ने इस पहलू का आज़ादी के बाद से ही ख़ास ख़याल रखा है. तभी तो विकास की कसौटी पर बिहार अब भी सबसे निचले पायदान पर है.

आम लोग और जनमत को मिलेगा वास्तविक महत्व!

अंत में सवाल जूँ-का-तूँ रह जाता है कि आख़िर कब बिहार में लोग जातिगत राजनीतिक कुचक्र से बाहर निकलेंगे, जिससे तमाम राजनीतिक दल और उनके नेता प्रदेश में विकास की धारा बहाने को मजबूर हों. जब तक ऐसा नहीं होता, देश के बाक़ी राज्यों की तुलना में बिहार विकास के हर पैमाने पर और भी पिछड़ते जाएगा. इसके विपरीत तमाम दल और उनके नेता अपने स्वार्थ को साधने के लिए इधर-उधर पाला बदलते रहेंगे और प्रदेश की जनता मूकदर्शक बनकर हर पाँच साल में सिर्फ़ वोट डालने का एक मोहरा बनकर रह जाएगी. उसमें भी उन पर हमेशा ही तथाकथित बनाए गए जातिगत राजनीतिक भावनाओं का ऐसा दबाव रहेगा कि मतदाता या नागरिक कम कठपुतली की तरह ईवीएम का बटन दबाते रहेंगे.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]  

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