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मध्य प्रदेश चुनाव: क्या शिवराज सिंह चौहान युग का अंत है नज़दीक, कांग्रेस के लिए कमलनाथ बड़ी ताक़त

मध्य प्रदेश में विधान सभा चुनाव दहलीज़ पर है. ऐसे तो इस साल मध्य प्रदेश के साथ ही छत्तीसगढ़, राजस्थान, तेलंगाना और मिज़ोरम में भी विधान सभा चुनाव होने हैं. लेकिन मध्य प्रदेश की सियासी जंग पर सबसे ज़ियादा नजर टिकी है. इन पॉंच राज्यों में से मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान की सत्ता पर क़ाबिज़ होने के लिए कांग्रेस और बीजेपी के बीच आर-पार की लड़ाई है. फ़िलहाल मध्य प्रदेश में बीजेपी सत्ता में है, तो कांग्रेस मध्य प्रदेश के पड़ोसी राज्यों छत्तीसगढ़ और राजस्थान में सत्तासीन है.

मध्य प्रदेश विधान सभा चुनाव में बीजेपी के सामने सरकार विरोधी भावनाओं या'नी एंटी इनकम्बेंसी की चुनौती से जूझते हुए फिर से सत्ता हासिल करने का लक्ष्य है. वहीं कांग्रेस एक बार फिर से अपने पुराने गढ़ को वापस पाने की मुसलसल-जद्द-ओ-जहद में है.

दो दशक से मध्य प्रदेश पर बीजेपी का क़ब्ज़ा

नवंबर 2005 से मध्य प्रदेश की राजनीति में एक नये अध्याय की शरूआत हुई थी. यह अध्याय बीजेपी नेता शिवराज सिंह चौहान से जुड़ा है. ओबीसी समुदाय में किरार जाति से आने वाले शिवराज सिंह चौहान 29 नवंबर 2005 को पहली बार मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री बनते हैं. उसके बाद उन्होंने फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा. बीच के 15 महीने छोड़ दें तो शिवराज सिंह चौहान 29 नवंबर 2005 से लगातार प्रदेश के मुख्यमंत्री बने हुए हैं. उनके ही राजनीतिक कौशल का कमाल है कि मध्य प्रदेश में बड़ा जनाधार होने के बावजूद कांग्रेस 2003 से मध्य प्रदेश में पूर्ण कार्यकाल के हिसाब से सत्ता के लिए तरस रही है.

शिवराज सिंह चौहान का नवंबर 2005 से प्रभुत्व

वर्तमान में प्रदेश में सरकार की कमान संभाल रहे शिवराज सिंह चौहान को साढ़े 16 साल से अधिक समय तक मुख्यमंत्री रहने का तज्रिबा या तजुर्बा हासिल है. इतनी लंबी अवधि तक बीजेपी नेताओं में कोई भी मुख्यमंत्री नहीं रहा है. बीजेपी में मुख्यमंत्री के तौर पर सबसे ज़ियादा अनुभव रखने के मामले में शिवराज सिंह चौहान के बाद रमन सिंह का नंबर आता है. रमन सिंह 15 साल छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रह चुके हैं.

क्या शिवराज पाँचवीं बार बन पायेंगे मुख्यमंत्री?

शिवराज सिंह चौहान चार बार मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बने हैं. पिछले कुछ महीनों से वे प्रदेश में जी-तोड़ मेहनत कर रहे हैं. चुनावी साल में प्रदेश के सरकारी ख़ज़ाने पर क़र्ज़ के बढ़ते दबाव के बावजूद एक के बाद एक सरकारी घोषणाओं का ए'लान करते गए हैं. नयी-नयी जिलों का गठन कर रहे हैं. चुनाव से ठीक पहले मध्य प्रदेश सरकार ने मैहर और पांढुर्णा को नया जिला बनाने से जुड़ा आदेश जारी कर दिया है. इससे पहले मऊगंज को 53वां जिला बनाया गया था. इससे राज्य में जिलों की संख्या 55 तक पहुंच गयी है. शिवराज सिंह चौहान सरकार की ओर से नागादा और पिछोर को भी जिला बनाने की घोषणा की जा चुकी है.

शिवराज सिंह चौहान पिछले कुछ महीनों से प्रदेश के अलग-अलग इलाकों में जाकर लोगों से सीधे संवाद भी करने में जुटे हैं. जिस तरह से शिवराज सिंह चौहान पिछले डेढ़ साल से प्रदेश में तूफानी दौरा करने में जुटे थे, उससे माना जा रहा था कि वे पाँचवीं बार मुख्यमंत्री बनने की ख़्वाहिश को धरातल पर उतारना चाहते हैं.

बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व से क्या मिल रहा है संकेत?

इस बीच बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व की ओर से जिस तरह का संकेत मिल रहा है, उससे लगता है कि मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान युग पर पूर्ण विराम लगने वाला है. पार्टी शीर्ष नेतृत्व प्रदेश में सत्ता बरक़रार रखने के लिए जिस चुनावी रणनीति को आगे बढ़ा रहा है, उससे स्पष्ट है कि बीजेपी मध्य प्रदेश में नेतृत्व की नयी पौध को मौक़ा देने की मंशा रखती है. यह रणनीति बीजेपी सिर्फ़ मध्य प्रदेश में ही नहीं राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी अपनाती हुई नज़र आ रही है. तभी मध्य प्रदेश के साथ ही राजस्थान और छत्तीसगढ़ में चुनाव से पहले बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व ने किसी चेहरे का ऐलान करने से ख़ुद को किनारा कर लिया है. ऐसा तब है, जब मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान, छत्तीसगढ़ में रमन सिंह और राजस्थान में वसुंधरा राजे जैसे मंझे हुए और चुनावी जीत में माहिर कद्दावर नेता अभी भी बेहद सक्रिय हैं.

बीजेपी का नेतृत्व की नई पौध तैयार करने पर ज़ोर

इससे पहले हमने पिछले साल गुजरात और हिमाचल प्रदेश के साथ ही इस साल कर्नाटक और त्रिपुरा के चुनाव में भी देखा था कि बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व किसी एक स्थानीय चेहरे को मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित किये बिना चुनाव मैदान में उतरी थी. इन राज्यों में पार्टी के वरिष्ठ नेता और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता को ही भुनाने की कोशिश की गई थी. हालांकि इस रणनीति की वज्ह से बीजेपी को हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक में सत्ता से हाथ धोना पड़ा था. इसके बावजूद बीजेपी मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में उसी रणनीति पर सियासी फतह की उम्मीद लगाये हुए हैं.

बीजेपी और कांग्रेस के बीच काँटे की टक्कर

मध्य प्रदेश में बीजेपी और कांग्रेस के बीच मुक़ाबला बेहद दिलचस्प और रोमांचक रहने की संभावना है. या यूँ कहें कि काँटे की टक्कर देखने को मिलेगी. यहाँ कमलनाथ कांग्रेस की सबसे बड़ी ताक़त और उम्मीद हैं. ग्वालियर संभाग में राजनीतिक प्रभुत्व वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीजेपी का दामन थामने के बावजूद इस बार मध्य प्रदेश में कांग्रेस को बीजेपी पर थोड़ी बढ़त दिख रही है. इसके पीछे की वज्ह कमलनाथ हैं. मध्य प्रदेश के अलग-अलग इलाकों में घूमने से पता चलता है कि कमलनाथ को लेकर प्रदेश के लोग बेहद सकारात्मक नज़र आ रहे हैं. 15 महीने को छोड़ दें, तो क़रीब दो दशक से मध्य प्रदेश  की सत्ता पर बीजेपी का क़ब्ज़ा है. यह पहलू ही इस बार कांग्रेस के लिए सबसे ज़ियादा लाभदायक साबित होने वाला है.

शिवराज सिंह चौहान युग का अंत है क़रीब!

मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान युग का अंत होने वाला है. इसका अंदाज़ा बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व की ओर से  चुनाव को लेकर लिए गए फ़ैसले से लगता है. इस बार बीजेपी प्रदेश में अब तक 3 कैबिनेट मंत्री समेत 7 सांसदों को चुनावी मैदान में उतारने का निर्णय कर चुकी है. शिवराज सिंह चौहान जी-तोड़ मेहनत कर रहे हैं. इस बीच उनके विकल्प के तौर पर शीर्ष नेतृत्व की ओर से नरेंद्र सिंह तोमर, कैलाश विजयवर्गीय, ज्योतिरादित्य सिंधिया, प्रह्लाद पटेल, फग्गन सिंह कुलस्ते, नरोत्तम मिश्रा, विष्‍णु दत्‍त शर्मा  जैसे नेताओं को महत्व देना बताता है कि पार्टी भविष्य के लिहाज़ से नये नेतृत्व की दिशा में बढ़ना चाहती है. ख़ुद शिवराज सिंह चौहान के हालिया बयान भी यही इशारा करते हैं कि उनको भी अब भलीभांति एहसास हो गया है कि शीर्ष नेतृत्व मुख्यमंत्री पद के लिए पाँचवीं बार मौक़ा देने के मूड में नहीं है.

शिवराज सिंह चौहान के बयान के मायने

शिवराज सिंह चौहान ने एक अक्टूबर को ही सीहोर में कहा था कि मेरे जैसे भैया नहीं मिलेगा..जब मैं चला जाऊंगा तब बहुत याद आऊंगा. सीहोर जिले में बुधनी उनकी परंपरागत विधान सभा सीट है. शिवराज सिंह चौहान ने 3 अक्टूबर को गृह जिले सीहोर के पातालेश्वर मंदिर के जीर्णोद्धार के लिए भूमिपूजन करने पहुंचे थे. यहां जनसभा में मौजूद लोगों से उन्होंने पूछा कि चुनाव लडूं कि नहीं लड़ूं..यहां से चुनाव लडूं या ना लड़ूं. 64 साल के शिवराज सिंह चौहान के मध्य प्रदेश की राजनीति से फ़िलहाल सियासी विदाई से जोड़ते हुए इन बयानों का मतलब निकाला जा रहा है. सियासी मायने निकाले जा रहे हैं कि शीर्ष नेतृत्व से उन्हें संकेत मिल चुका है.

सत्ता विरोधी लहर से बचने की रणनीति

दरअसल बीजेपी नये नेतृत्व को उभारने का संकेत देने की जिस रणनीति पर आगे बढ़ रही है, उसके ज़रिये पार्टी पिछले दो दशक के सत्ता विरोधी लहर से बचना चाह रही है. इसके साथ ही इतने लंबे वक़्त तक मुख्यमंत्री रहने के कारण प्रदेश पार्टी इकाई में सांगठनिक तौर से शिवराज सिंह चौहान को लेकर नाराज़गी स्वाभाविक पहलू है. चुनाव में पार्टी को इससे नुक़्सान न पहुंचे, इसके मद्द-ए-नज़र ही बीजेपी शीर्ष नेतृत्व मध्य प्रदेश में बतौर चेहरा चुनाव की कमान नहीं शिवराज सिंह चौहान के हाथ में नहीं देना चाहता है. हो सकता है कि अगर पार्टी चुनाव में बहुमत हासिल करने में कामयाब हो जाती है, तो बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व फिर से शिवराज सिंह चौहान को ही कमान सौंप दे. उम्र, अनुभव के साथ ही कद के हिसाब से शिवराज सिंह चौहान की सक्रिय राजनीति में महत्वपूर्ण भागीदारी अभी कई साल तक रहने की उम्मीद है.

चेहरा को लेकर स्पष्टता से कांग्रेस को लाभ

हालांकि इससे बीजेपी को हानि भी हो सकती है क्योंकि कांग्रेस में चेहरा को लेकर बिल्कुल स्पष्टता है. कांग्रेस के तमाम प्रदेश नेताओं, कार्यकर्ताओं के साथ ही यहाँ की जनता को यह बात भली भांति पता है कि अगर कांग्रेस को जीत मिली तो मुख्यमंत्री कमलनाथ ही बनेंगे. चेहरे की स्पष्टता से विधान सभा चुनाव में वोटिंग से पहले ही कांग्रेस को बीजेपी पर भावनात्मक तौर से बढ़त मिल गई है. इसके साथ शिवराज सिंह चौहान को सीधे तौर से चेहरा घोषित नहीं करके बीजेपी ने कांग्रेस को एक मौक़ा भी दे दिया है. चुनाव प्रचार में कांग्रेस इस मसले को ज़ोर-शोर से उठाएगी.

शिवराज सिंह चौहान अभी भी बेहद लोकप्रिय

ऐसे भी मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान ही फ़िलहाल वो नेता है जो कमलनाथ से भी ज़ियादा लोकप्रिय हैं. इतने सालों तक मुख्यमंत्री रहने के बावजूद शिवराज सिंह चौहान की लोकप्रियता में अधिक गिरावट नहीं आई है. एक और पहलू इससे जुड़ा है. बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व नयी पौध के नाम पर जिन नामों को महत्व दे रहा है, कमलनाथ के बर-'अक्स उन नेताओं की छवि वैसी दमदार नहीं है. चाहे कैलाश विजयवर्गीय हों..या फिर नरेंद्र सिंह तोमर.. ज्योतिरादित्य सिंधिया हों या फिर प्रह्लाद पटेल. इनमें से कोई ऐसा नाम नहीं है, जो पूरे मध्य प्रदेश में कमलनाथ जैसा प्रभाव रखता हो.

एमपी में हिन्दुत्व जैसे मुद्दों पर बीजेपी को बढ़त नहीं

बीजेपी में फ़िलहाल शिवराज सिंह चौहान ही ऐसे नेता हैं, जिन्हें कमलनाथ की छवि और चुनावी कौशल का तोड़ कहा जा सकता है. ऐसे भी मध्य प्रदेश के कई इलाकों का हालिया दौरा करने से पता चलता कि इस बार चुनाव में हिन्दुत्व जैसे मुद्दों पर बीजेपी को बढ़त नहीं मिलने वाली है. कमलनाथ ने पिछले दो साल से मध्य प्रदेश में जिस तरह की नीति अपनायी है, उससे हिन्दुत्व का मुद्दा बीजेपी का चुनावी हथियार अब नहीं रह गया है, यह बेशक कहा जा सकता है. कमलनाथ को अच्छे से एहसास था कि कि आगामी चुनाव में बीजेपी इसे अपने लाभ के लिए इस्तेमाल करेगी. इसलिए पिछले दो साल से कमलनाथ भी हिन्दू धर्म और हिन्दुत्व से जुड़े प्रतीकों की लड़ाई में बीजेपी को मात देने के लिए सार्वजनिक तौर से हर वो काम करते नज़र आए हैं, जिससे कांग्रेस पर प्रदेश में हिन्दू धर्म विरोधी होने का आरोप लगाने का अवसर बीजेपी को नहीं मिल सके.

सत्ता के लिए महिला मतदाताओं पर नज़र

मध्य प्रदेश में सत्ता तक पहुंचने की सीढ़ी में महत्वपूर्ण कड़ी प्रदेश की महिला मतदाता हैं.  चुनाव आयोग की ओर से 4 अक्टूबर को विधान सभा चुनाव से पहले जारी अंतिम मतदाता सूची के मुताबिक़ प्रदेश में कुल 5 करोड़ 60 लाख 60 हजार 925 मतदाता हैं . इनमें  2 करोड़ 88 लाख 25 हजार 607 पुरुष और 2 करोड़ 72 लाख 33 हजार 945 महिला मतदाता हैं. मध्य प्रदेश में थर्ड जेंडर मतदाताओं की संख्या 1373 है.

दिलचस्प पहलू यह है कि प्रदेश में कुल 230 विधान सभा सीट है. इनमें से 29 सीटों पर महिला मतदाताओं की संख्या पुरुषों से अधिक है. ये सारी सीटें प्रदेश के पश्चिमी हिस्से या मालवा-निमाड़ क्षेत्र के इंदौर, रतलाम, बड़वानी, धार, अलीराजपुर, झाबुआ और उज्जैन के साथ ही महाकोशल क्षेत्र के बालाघाट, मंडला, डिंडोरी, छिंदवाड़ा, सिवनी और अनूपपुर जिले में आती हैं. हम जानते हैं कि प्रदेश में महिलाएं बड़े पैमाने पर वोटिंग के लिए घर से निकलती हैं.

महिला मतदाताओं को लुभाने की कोशिश

इन आँकड़ों और चुनावी समीकरणों को ध्यान में रखते हुए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान महिला मतदाताओं को लुभाने के लिए इस साल एक के बाद एक सरकारी योजनाओं का एलान करते गए हैं. चाहे लाडली बहना योजना हो या फिर लाडली बहना योजना का लाभ लेने वाली महिलाओं को पीएम आवास योजना के लाभ से जुड़ी घोषणा हो. इसके साथ ही बीजेपी की प्रदेश सरकार ने उज्ज्वला योजना और लाडली बहना योजना में महिलाओं को 450 रुपये में गैस सिलेंडर देने की भी घोषणा की है. शिवराज सिंह चौहान सरकार की ओर से अगस्त में महिलाओं के बैंक खाते में 250 रुपये का 'राखी शगुन' भी भेजा गया था.

दूसरी तरफ कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ भी महिला मतदाताओं को अपने पाले में लाने के लिए लगातार शिवराज सिंह सरकार से एक क़दम आगे बढ़ते हुए घोषणा पर घोषणा करते गए हैं. लाडली बहना योजना की तोड़ में कांग्रेस ने सरकार बनने पर नारी सम्‍मान योजना लागू करने का ऐलान किया. उसके साथ ही कांग्रेस महिलाओं को सरकार बनने पर 500 रुपये में गैस सिलेंडर देने का भी वादा कर चुकी है.

क्या आसान है महिला मतदाताओं को लुभाना?

हालांकि बीजेपी और कांग्रेस दोनों को ही अब यह सोचना चाहिए कि अगर सही मायने में प्रदेश की महिलाओं को आर्थिक तौर से समृद्ध और आत्मनिर्भर बनाना है, तो ऐसे लोक लुभावन योजनाओं की जगह पर ठोस रोडमैप पेश किए जाने की दरकार है. ऐसा रोडमैप जिससे भविष्य में महिलाओं को बेहतर शिक्षा मिले, उनके कौशल में विकास हो, रोजगार के मौक़े प्राप्त हो. सिर्फ़ लोक लुभावन योजनाओं से अब महिला मतदाताओं का वोट हासिल करना पहले जितना आसान नहीं है.

हमने देखा है कि प्रदेश में बीजेपी और कांग्रेस दोनों के बीच वादों और योजनाओं की घोषणा करने की होड़ मची हुई है. शिवराज सिंह चौहान सरकार प्रदेश में नई-नई योजनाओं की घोषणा करते गई. वहीं कांग्रेस सत्ता में नहीं रहने के बावजूद इस तरह से वादा करने में जुटी है, जैसे उसकी सरकार बनना तय है. एक तरह से दोनों दलों में 'तू डाल-डाल मैं पात-पात' की तर्ज़ पर चुनाव से पहले ही एक-दूसरे को पटकनी देने की कोशिश पिछले कुछ महीने से की जाती रही है.

आदिवासी वोट बैंक पर कमलनाथ की नज़र

महिला मतदाताओं के साथ ही आदिवासी वोट बैंक पर भी कांग्रेस की नज़र है. मध्य प्रदेश एक जनजातीय राज्य है. देश में आदिवासियों की संख्या सबसे ज्यादा है. 2011 की जनगणना के मुताबिक मध्य प्रदेश में अनुसूचित जनजातियों की संख्या 1.53 करोड़ से ज्यादा थी. प्रदेश की कुल जनसंख्या में आदिवासियों की संख्या 21% से अधिक  है. कुल 230 विधान सभा सीटों में से 47 सीटें आदिवासियों (ST) के लिए और 35 सीटें अनुसूचित जातियों (SC) के लिए आरक्षित हैं. इनके अतिरिक्त यहां विधान सभा की कई सीटें ऐसी हैं, जिन पर जीत-हार में आदिवासियों का वोट निर्णायक है.

इस सियासी समीकरम के कारण आदिवासी वोट बैंक किसी भी दल के लिए रणनीतिक तौर से महत्वपूर्ण हो जाता है. सत्ता पर कौन विराजमान होगा, यह बहुत हद तक आदिवासियों से मिले समर्थन पर टिका होता है.

पिछली बार कांग्रेस को आदिवासियों का साथ

पिछले कई विधानसभा चुनाव से आदिवासियों का भरपूर समर्थन बीजेपी को मिलता रहा था. हालांकि 2018 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी का प्रदर्शन आदिवासियों के लिए आरक्षित सीटों पर उतना अच्छा नहीं रहा था. 2018 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को एसटी समुदाय के लिए आरक्षित 47 में से सिर्फ़ 16 सीटों पर ही जीत मिल पाई थी. जबकि 2008 और 2013 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी इनमें से 31-31 सीटों पर जीतने में कामयाब रही थी. बतौर प्रदेश अध्यक्ष सांगठनिक तौर से कमलनाथ ने पिछले दो साल में प्रदेश के आदिवासियों को कांग्रेस के साथ लाने के लिए ख़ूब मेहनत की है. यह पहलू कांग्रेस के लिए चुनाव में लाभदायक साबित हो सकता है.

कमलनाथ का तोड़ शिवराज सिंह चौहान ही हैं

अब बीजेपी में शिवराज सिंह चौहान की अनदेखी से कमलनाथ के लिए रास्ता ज़ियादा सरल हो सकता है. ऐसे भी मध्य प्रदेश ही वो राज्य है, जहां विधान सभा चुनाव के नज़रिये से लंबे समय से पुर-ज़ोर तरीक़े से सत्ता में नहीं रहने के बावजूद कांग्रेस का व्यापक जनाधार बना रहा है. 2018 के विधान सभा चुनाव में बीजेपी से कम वोट शेयर रहने के बावजूद 114 सीट जीतकर कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनी थी. उसी तरह से 2013 के विधान सभा चुनाव में  बीजेपी को 165 सीटों के साथ प्रचंड जीत मिली थी. वहीं कांग्रेस सिर्फ़ 58 सीटों पर सिमट कर रह गई थी. इसके बावजूद कांग्रेस का वोट शेयर 36 फ़ीसदी से अधिक था.

एक बात मध्य प्रदेश में बेहद महत्वपूर्ण है. कांग्रेस मध्य प्रदेश में 2003, 2008 और 2013 का विधान सभा चुनाव बीजेपी से बड़े अंतर से हारते गयी, लेकिन उसके वोट शेयर में चुनाव दर चुनाव इज़ाफ़ा होते गया.इस बार तो कमलनाथ के सामने बतौर चेहरा शिवराज सिंह चौहान भी खुले तरीक़े से नहीं हैं. ऐसे में कहा जा सकता है कि मध्य प्रदेश की सियासी लड़ाई में  इस बार जीत हासिल करना बीजेपी के लिए उतना आसान नहीं है.

महिलाओं और किसानों के बीच बेहद लोकप्रिय

अपने खिलाफ पनपते बगावती तेवर और सिंधिया गुट के समर्थकों को टिकट देने का मुद्दा शिवराज सिंह चौहान के लिए भी चिंता का विषय है. हालांकि शिवराज सिंह चौहान मध्य प्रदेश के बड़े ही सधे और मंझे हुए राजनीतिक खिलाड़ी हैं. जिस तरह से उन्होंने नवंबर 2005 से प्रदेश की राजनीति और सत्ता पर क़ाबिज़ हैं, उसको देखते हुए ये कहा जा सकता है कि शिवराज सिंह चौहान हर तरह के बगावती तेवर और सामने आने वाली परेशानियों से निकलने का हुनर ब-ख़ूबी जानते हैं. शिवराज सिंह चौहान महिलाओं और किसानों के बीच बेहद लोकप्रिय हैं. शिवराज सिंह चौहान की सबसे बड़ी ताक़त भी यही है.

किसानों के बीच लोकप्रिय होने का कारण ये भी रहा है कि जब शिवराज सिंह चौहान नवंबर 2005 से लेकर दिसंबर 2018 तक लगातार 13 साल  मुख्यमंत्री रहे थे तो इस बीच उन्होंने मध्य प्रदेश की खेती में सुधार और किसानों के लिए काफी काम किया था. उनके ही प्रयासों का नतीजा था कि देश के कृषि उत्पादन में एमपी का योगदान 5% था, जो 2014 में बढ़कर 8% हो गया. पहले एमपी दलहन के लिए जाना जाता था, अब गेहूं का भी भरपूर उत्पादन होता है. 2018 से पहले शिवराज सिंह चौहान ने कृषि बाजारों के विकास पर भी अच्छा-खासा काम किया था.

महज़ एक बार चुनाव हारे हैं शिवराज सिंह चौहान

शिवराज सिंह चौहान ने अपने चुनावी जीत का सफर 1990 से शुरू किया था, जब वे सिर्फ 31 साल की उम्र में पहली बार बुधनी विधानसभा सीट से चुनाव जीत विधायक बने थे. फिर मध्य प्रदेश में बीजेपी की ओर से पहली बार मुख्यमंत्री बने सुंदरलाल पटवा के कहने पर वे 1991 में विदिशा से लोकसभा का उपचुनाव लड़ा और सांसद बने. शिवराज सिंह चौहान यहां से 1996, 1998, 1999 और 2004 में भी लोकसभा चुनाव जीता. अपने पूरे राजनीतिक करियर में शिवराज सिंह चौहान महज़ एक बार 2003 में राघोगढ़ विधान सभा सीट से दिग्विजय सिंह से चुनाव हारे हैं. मुख्यमंत्री बनने के बाद शिवराज सिंह  चौहान बुधनी विधान सभा सीट से ही 2006 के उपचुनाव, 2008, 2013 और 2018 में जीत हासिल करते आ रहे हैं.

ओबीसी में शिवराज सिंह चौहान की पकड़ मज़बूत

शिवराज सिंह चौहान की पहचान एक विनम्र छवि वाले नेता के तौर पर भी रही है. पहले वे बड़े ही शांत तरीक़े से हिन्दुत्व के एजेंडे पर काम करने वाले नेता के तौर पर जाने जाते थे. हालांकि पिछले एक-दो साल से अब वे खुलकर इस एजेंडे पर बोलते और काम करते दिखते हैं. ओबीसी कैटेगरी से आने की वज्ह से इस समुदाय में भी उनकी पकड़ और लोकप्रियता बाक़ी किसी और नेता की तुलना में अभी भी सबसे ज़ियादा है. मध्य प्रदेश की आधी आबादी ओबीसी समुदाय से आती है. यह भी शिवराज सिंह चौहान और बीजेपी के चुनावी लाभ के नज़रिये से बेहद महत्वपूर्ण फैक्टर है.

ऐसे में अगर बीजेपी को मध्य प्रदेश में सत्ता रूपी अपना क़िला बचाकर रखना है तो पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को शिवराज सिंह चौहान की अनदेखी या फिर उनकी जगह नए नेतृत्व को महत्व देने का संकेत देने से बचने की ज़रूरत है. अगर चुनाव तक यही परिस्थिति रही तो मध्य प्रदेश की सत्ता पर कमलनाथ की अगुवाई में कांग्रेस की दावेदारी मज़बूत होते जायेगी, इसकी संभावना बन सकती है.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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