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सारे जहां से अच्छा... लिखने वाले मोहम्मद इकबाल को DU सिलेबस से हटाने का फैसला नहीं साम्प्रदायिक

बीते 26 मई को दिल्ली विश्वविद्यालय के एकेडमिक काउंसिल ने अपने पाठ्यक्रम में कई बदलाव किए हैं. इन बदलावों में सबसे अधिक चर्चा शायर मुहम्मद इकबाल को पॉलिटिकल साइंस के सिलेबस से हटाने पर हो रहा है. कई लोग शायर को कट्टर मजहबी बताते हुए इस फैसले का स्वागत कर रहे हैं, तो कई इसको गलत और सांप्रदायिक फैसला भी बता रहे हैं. इकबाल वैसे तो काफी लोकप्रिय शायर हैं, लेकिन उनकी एक पहचान पाकिस्तान का विचार रोपनेवाले शायर के तौर पर भी है.  

इकबाल को हटाना बेहद जरूरी 

मुहम्मद इकबाल को पाठ्यक्रम से हटाने के पीछे कोई सांप्रदायिक मंशा नहीं है. इसको समझने के लिए हर किसी इच्छुक व्यक्ति को इकबाल की रचनाएं पढ़नी चाहिए. उनके विचार क्या थे, उनकी राइटिंग क्या थी और उन्हें क्यों हटाया जाना जरूरी था, तभी समझ आएगा. पिछले कई दशकों से भारतीय एकेडमिक्स पर वामपंथी छाया है. यह छाया भारत को एक रखनेवाली सोच के खिलाफ है, इनका लेखन भारत को तोड़नेवाला होता है और झूठे साक्ष्यों के आधार पर ये सही बातों को छिपाते आए हैं. ये हमेशा से हिंदू समाज को नीचा गिराने में लगे रहते हैं. हाल ही में आपने पीयूष मिश्र का इंटरव्यू देखा होगा. उन्होंने काफी समय इन कम्युनिस्टों के साथ काम किया है और उन्होंने भी बताया है कि ये न जाने क्यों, पर प्रो-मुस्लिम होते हैं. इनको हमेशा से मजा आता है अगर कोई एंटी-हिंदू या एंटी-भारत बात हो, उसे ये प्रोपोगेट करें और मजा लें.

पाठ्यक्रम बदलता कैसे, यह जान लें

पिछले कुछ वर्षों से पाठ्यक्रम बदलने को लेकर लगातार विवाद रहा है. इसका कारण भी यही है कि अधिकांश पाठ्यक्रम इनके ही माध्यम से बनाए जाते हैं. सबसे पहले विभाग (डिपार्टमेंट) एक कमिटी बनाता है, जिसमें सीनियर प्रोफेसर होते हैं और उसमें भी इसी तरह की विचारधारा दबदबा रहता है और वे ऐसे ही लेखकों को चुनते हैं, जो उनको सूट करें. इकबाल भी वैसे ही लेखक हैं. पहले तो कमिटी बनती है, फिर वह अनुशंसा करती है. फिर वह जाता है स्टैंडिग कमिटी के पास. वहां भी कई तरह की चर्चा होती है, बहस होती है. जब स्टैंडिंग कमिटी भी पास करती है, तो वह अकेडमिक काउंसिल में जाती है. तीसरे स्तर पर जब पाठ्यक्रम गया तो यह पाया गया कि कई कारणों से इकबाल को नहीं पढ़ाया जाना चाहिए और वॉयस मेजॉरिटी के आधार पर अकेडमिक काउंसिल ने विभाग को यह अनुशंसा भेजी है कि पॉलिटिकल साइंस ऑनर्स के छठे सत्र में जो इकबाल को पढ़ाना था, उसे हटा दिया जाए.  ऐसा कोई पहली बार भी नहीं हुआ है कि दिल्ली यूनिवर्सिटी से किसी पाठ्यक्रम को हटाया गया हो. 2011 में जब मनमोहन सिंह की सरकार थी, तो इतिहास के पाठ्यक्रम से ए के रामानुजन की '100 रामायण' को पाठ्यक्रम से हटाया गया, क्योंकि वह जान-बूझकर हिंदू भावनाओं को आहत करता था. तब भी बहुमत से अकेडमिक-काउंसिल ने उस कोर्स को हटा दिया था. 

घोर सांप्रदायिक और प्रतिगामी विचार के थे इकबाल

इकबाल के पक्ष में बात करनेवाले यह नहीं बता पाते कि उन्हें पढ़ाना ही क्यों चाहिए? वे बहुत झूम कर यह तो बताते हैं कि इकबाल ने 'सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा...'लिखा. वह यह बताना भूल जाते हैं कि इकबाल ने यह 1904 में लिखी थी. यह तराना-ए-हिंद था. हालांकि, वही इकबाल केवल 6 साल बाद ही तराना-ए-मिल्ली लिखते हैं, इस्लामिक खिलाफत की बात करते हैं, इस्लामिक उम्मा की सिफारिश और वकालत करते हैं और 'सारे जहां से अच्छा हिंदोस्ता हमारा' बदलकर 'मुस्लिन हैं हम, वतन है सारा जहां हमारा' लिख डालते हैं. इस परिवर्तन की वजह क्या है? वह 1905 में यूरोप जाते हैं और 1908 में भारत लौटते हैं. पश्चिम की प्रगतिकामी विचारधारा से, उसके विकास से इकबाल को नफरत है और वह लिखते हैं- 

"मग़रिब की वादियों में गूँजी अज़ाँ हमारी, थमता था किसी से सैल-ए-रवाँ हमारा"

इकबाल की इस पूरी कविता में इस्लामिक सुप्रीमैसी की गूंज है और वही विचारधारा पूरी तरह उनके चिंतन पर हावी होती है. वह धीरे-धीरे पूरी तरह कट्टरपंथी हो जाते हैं और 1930 और 1932 में मुस्लिम लीग के अध्यक्ष बनते हैं. उनका नजरिया नेहरूवादी लोकतंत्र और भारतीय धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ भी था. उन्होंने गोलमेज कांफ्रेंस में मुसलमानों के लिए अलग जमीन का पक्ष रखा.1930 में उन्होंने आखिरकार द्विराष्ट्र का सिद्धांत भी उछाल ही दिया और वह मानने लगे कि जब तक मुसलमानों को अलग मुल्क नहीं मिलेगा, उनका कल्याण नहीं हो सकता. अपने सपने को पूरा करने के लिए उन्होंने जिन्ना को चुना और वह भारत के कवि बनने की जगह 'समुदाय विशेष के कवि' बनकर रह गए. वह बारहां इस बात को दोहराते थे कि ऐसा मुल्क बनाना है, जिसमें इस्लामिक सुप्रीमैसी हो. पाकिस्तान के निर्माण में इनका ऐसा योगदान था कि आज भी वहां के लोग इनको राष्ट्रपिता के समान मानते हैं. इकबाल ने खुद इस बात को कबूल किया है कि वह एक मैसेंजर हैं और इस्लामिक सुप्रीमेसी ही उनका संदेश है. इकबाल मॉडर्निटी के भी खिलाफ थे. वह मानते थे कि आधुनिक शिक्षा पाकर महिलाएं बिगड़ जाती हैं और ये आधुनिकता के बिल्कुल खिलाफ हैं. पश्चिमी सोच-विचार और सभ्यता को यह सख्त नापसंद करते थे और इसीलिए तराना-ए-मिल्ली में वह स्पेन पर इस्लामी आक्रमण को भी याद करते हैं. वह भारतीय राष्ट्रवाद में मुसलमानों के वर्चस्व पर भी लिखते हैं और वह साफ तौर पर कहते हैं कि जब तक मुस्लिमों का अलग देश नहीं बनेगा, शांति नहीं होगी. वह साइंस और तकनीक के भी खिलाफ बोलते और लिखते हैं. वह नहीं चाहते थे कि मुसलमान इन चीजों के चक्कर में पड़ें और केवल धर्म पर ध्यान दें, इस्लामिक वर्चस्व को स्थापित करें. खासकर बंगभंग के बाद अगर आप इकबाल की रचनाएं पढ़ें, तो साफ तौर पर यह दिखता है कि इकबाल एक कट्टर, रूढ़िवादी मुस्लिम विघटनवादी हैं. 

ये जो अनछुए पहलू हैं, जिसे सिलेबस का हिस्सा बनाया ही नहीं गया. इकबाल को जबरन एक सेकुलर कैरेक्टर बनाकर पेश किया गया, उन्हें भारतीय राष्ट्रवाद का मसीहा बनाया गया, जबकि सच्चाई इससे कोसों दूर है. अकेडमिक काउंसिल ने कहा कि जिन लोगों के लेखन में कट्टरता है, जिन्होंने भारत की एकता और अखंडता के खिलाफ बोला और लिखा है, उन्हें आगे नहीं पढ़ाया जाएगा. अभी यह तो एक उदाहरण है, अभी भी ऐसे बहुत से स्कॉलर्स हैं, न केवल पॉलिटिकल साइंस में, बल्कि हिस्ट्री, फिलॉसफी, इंग्लिश, हिंदी, मनोविज्ञान आदि में, जिनका रिव्यू किया जाना बाकी है. एनईपी यानी नयी शिक्षानीति तो 2020 में ही आ गयी थी, लेकिन पाठ्यक्रम को उसके मुताबिक करने में बहुत काम अभी भी बचा हुआ है. 

(यह आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है) 

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