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अंतरिम बजट और मोदी सरकार का राजनीतिक प्रयोग, नयी परंपरा को चुनावी पहलू से समझने की ज़रूरत

केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने एक फरवरी को लोक सभा में वित्तीय वर्ष 2024-25 से जुड़े अंतरिम बजट को पेश किया. चुनावी साल होने के कारण पूर्ण बजट नहीं पेश किया गया है. अंतरिम बजट को मोदी सरकार ने बहुत ही कुशलता से लोक सभा चुनाव, 2024 के लिए एक उपकरण के तौर पर इस्तेमाल किया है.

यह अंतरिम बजट था, इसलिए मोदी सरकार आर्थिक तौर से बड़ी-बड़ी घोषणा नहीं कर सकती थी. हालाँकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण दोनों ने अंतरिम बजट के मौक़े को ज़रूर राजनीतिक लाभ के नज़रिये से बीजेपी के पक्ष में भुनाने की भरपूर कोशिश की है.

अंतरिम बजट का राजनीतिक पहलू है महत्वपूर्ण

हम सब जानते हैं कि यह अंतरिम बजट नरेंद्र मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल का अंतिम बजट था. आने वाले कुछ महीनों में मोदी सरकार के दस साल पूरे होने वाले हैं.  इस साल अप्रैल-मई में आम चुनाव भी निर्धारित है. मोदी सरकार और बीजेपी की लगातार तीसरे कार्यकाल पर भी नज़र है. संसद का मौजूदा बजट सत्र 17वीं लोक सभा का आख़िरी सत्र भी है. ऐसे में इस बार के अंतरिम बजट का महत्व सिर्फ़ आर्थिक तौर से ही नहीं रह जाता है, बल्कि इसकी प्रासंगिकता राजनीतिक तौर से ज़ियादा हो जाती है.

अंतरिम बजट और मोदी सरकार की चुनावी रणनीति

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण दोनों इस बात से ब-ख़ूबी वाक़िफ़ थे कि अंतरिम बजट में आर्थिक तौर से ऐसी घोषणा के लिए अधिक स्कोप नहीं है, जिससे देश के आम लोगों को आकर्षित या खींचा जा सके. फिर भी इस बजट के ज़रिये सरकार चाहती थी कि देश के लोगों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति भरोसे को लेकर, बीजेपी के प्रति समर्थन को लेकर एक स्पष्ट संदेश जाए.  अगर राजनीतिक पहलू से देखें, तो मोदी सरकार इसमें कामयाब हुई है.

अंतरिम बजट में क्या है, क्या नहीं, किसको क्या मिला..किस क्षेत्र पर फोकस रहा..अगर इनसे संबंधित विमर्श को थोड़ी देर के लिए साइडलाइन कर दें, तो मोदी सरकार ने पूरी कोशिश की है कि देश के मतदाताओं में ये भरोसा जाए कि अगली सरकार भी वही बना रहे हैं.

मोदी सरकार की नज़र उन मतदाताओं पर रहती है, जो चाहे कुछ भी हो जाए, चुनाव के दिन वोट डालने के लिए मतदान केंद्र ज़रूर जाते हैं. यहाँ पर एक बात समझने की ज़रूरत है कि अभी भी आम चुनाव में 30 से 35 फ़ीसदी के आस-पास मतदाता वोट डालने नहीं जाते हैं. इस लिहाज़ से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी की नज़र....वोट डालने वाले 65 फ़ीसदी के आस-पास जो मतदाता है, उनमें से बहुसंख्यक लोगों पर रहती है.

अंतरिम बजट में मोदी सरकार का राजनीतिक प्रयोग

अंतरिम बजट को लेकर मोदी सरकार ने इस बार एक राजनीतिक प्रयोग किया है, जो बेहद महत्वपूर्ण है. अंतरिम बजट के बहाने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण आम लोगों के बीच एक राजनीतिक माहौल या पर्सेप्शन बनाने का प्रयास किया है. इसे लिए दोनों ने ही दावा किया है कि जुलाई में पूर्ण बजट मोदी सरकार की पेश करेगी. यह दावा किसी राजनीतिक सभा, रैली या मीडिया से मुख़ातिब होने के दौरान किया जाता, तो उसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं थी. यह दावा बतौर प्रधानमंत्री और बतौर वित्त मंत्री किया गया है. अंतरिम बजट के तहत वित्त मंत्री के बजट भाषण में ऐसा लिखा और कहा गया है. इससे पहले इस तरह की कवायद या कोशिश शायद ही किसी सरकार ने अंतरिम बजट में की होगी.

मोदी सरकार का जुलाई में पूर्ण बजट पेश करने का दावा

चाहे नयी सरकार के बाद जुलाई में पूर्ण बजट पेश करने का दावा हो या फिर वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के बजट भाषण में इस्तेमाल शब्दावली हो, हर जगह पूरी तरह से आगामी लोक सभा चुनाव में राजनीतिक लाभ लेने और आम लोगों में मोदी सरकार के प्रति भरोसा रखने की पूरी संभावना को मूर्त रूप दिया गया है. इसके ज़रिये माहौल बनाने, चुनाव में जीत को लेकर पर्सेप्शन तैयार की हर संभव कोशिश की गयी है.

प्रधानमंत्री मोदी ने बजट सत्र के पहले दिन दिया था बयान

संसद के बजट सत्र की शुरूआत 31 जनवरी को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु के अभिभाषण के साथ हुई. उस दिन संसद परिसर में मीडिया के सामने हर सत्र की शुरूआत से पहले वक्तव्य देने की परंपरा का निर्वाह करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दावा कर दिया कि जुलाई में पूर्ण बजट लेकर भी हम ही आएंगे.

इससे पहले शायद ही किसी प्रधानमंत्री ने अंतरिम बजट के बाद पूर्ण बजट को लेकर इस जगह से ऐसा दावा किया होगा या बयान दिया होगा. यहाँ पर महत्वपूर्ण यह जगह है, यह अवसर है. इस नज़रिये से प्रधानमंत्री के बयान पर ग़ौर करने की ज़रूरत है. यह पूरी तरह से लोकतंत्र के तहत संसदीय व्यवस्था में हर पाँच साल पर होने वाले चुनाव की निष्पक्षता और शुचिता के साथ ही राजनीतिक नैतिकता से जुड़ा मसला भी है. साथ ही यह प्रधानमंत्री पद की गरिमा से जुड़ा बेहद संजीदा मसला है.

पूर्ण बजट से जुड़ा दावा बजट भाषण में भी शामिल

इसके अगले दिन या'नी एक फरवरी को केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण अपने बजट भाषण में एक क़दम और आगे बढ़ गयीं. केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने लोक सभा में बजट भाषण के दौरान कहा कि जुलाई में, पूर्ण बजट में हमारी सरकार ‘विकसित भारत’ के लक्ष्‍य का विस्‍तृत रोडमैप प्रस्‍तुत करेगी. यह वाक्य बाकायदा बजट भाषण का हिस्सा है और इसे बजट भाषण के सब हेडिंग ''कर्तव्य काल के रूप में अमृत काल'' के तहत शामिल किया गया है.

बजट भाषण नहीं है कोई राजनीतिक दस्तावेज़

बजट या बजट भाषण कोई राजनीतिक दस्तावेज़ नहीं है. यह सरकारी दस्तावेज़ है. इससे पहले शायद ही कभी अंतरिम बजट के तहत बजट भाषण या बजट डाक्यूमेंट में इस तरह के राजनीतिक दावे को जगह मिली हो. मोदी सरकार ने इस तरह से एक नयी परंपरा शुरू कर दी है. सरकारी दस्तावेज़ और राजनीतिक दावे को एक साथ मिला दिया है.

संसदीय व्यवस्था में चुनाव की निष्पक्षता के लिए ज़रूरी होता है कि जनमत तैयार करने में सरकारी डाक्यूमेंट का इस्तेमाल राजनीतिक उपकरण के तौर पर नहीं होना चाहिए. हालाँकि इस बार के अंतरिम बजट का इस्तेमाल इस रूप में होता दिख रहा है. बजट डाक्यूमेंट के हिस्से के तौर पर सरकार की ओर से यह लिख या बोल देना कि चुनाव के बाद हम ही पूर्ण बजट पेश करेंगे..कहीं से भी न तो संवैधानिक तौर से और न ही राजनीतिक नैतिकता के लिहाज़ से उचित है.

मोदी सरकार की नयी परंपरा को लेकर सवाल

इस नज़रिये से अगर ग़ौर फ़रमाएं, तो, यह बेहद ही महत्वपूर्ण मसला है. चुनाव की निष्पक्षता और स्वतंत्रता से जुड़ा मसला है. पार्टी विशेष को लेकर बजट डाक्यूमेन्ट के माध्यम से जनमत तैयार करने से जुड़ा विषय है. सरकारी नेतृत्व को राजनीतिक नेतृ्त्व  के अहंकार से जोड़ने का मसला है.

यह मुद्दा इतना महत्वपूर्ण है कि इसे राजनीतिक से लेकर मीडिया विमर्श का हिस्सा होना चाहिए था. मीडिया के तमाम मंचों पर मोदी सरकार की इस नयी परंपरा को लेकर चर्चा होनी चाहिए थी. संविधान के जानकारों से लेकर राजनीतिक विश्लेषकों के लिए यह विचारणीय मुद्दा होना चाहिए था. हालाँकि ऐसा होता नही दिखा हैं. त'अज्जुब या अचंभा वाली बात है कि इस मसले को लेकर तमाम विपक्षी दलों में भी कोई ख़ास सुगबुगाहट नहीं दिखी. जो विपक्ष मोदी सरकार को घेरने के लिए हर तरह का आरोप लगा रहा है, वो भी इस मसले पर ख़ामोश है. दरअसल यह राजनीतिक लाभ से जुड़ा मसला है, इसलिए तमाम राजनीतिक दल इसको लेकर चुप्पी साधने में ही  भलाई समझ रहे हैं.

लोक सभा चुनाव से जुड़ी बीजेपी की रणनीति का हिस्सा

अंतरिम बजट से जुड़ा यह पहलू मोदी सरकार और बीजेपी की आगामी लोक सभा चुनाव से जुड़ी रणनीति का हिस्सा है. काफ़ी सोच-विचार कर चुनावी लाभ के लिए ऐसा किया गया है. चुनाव पर्सेप्शन का खेल है और इसी को ध्यान में रखते हुए मोदी सरकार ने बजट भाषण में यह कहा कि पूर्ण बजट जुलाई में वहीं पेश करेगी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के साथ बीजेपी जनता को इससे संदेश देना चाहती है कि तमाम विपक्ष चाहे कुछ भी कर ले, सरकार उन्हीं की बनेगी.

ख़ास पर्सेप्शन बनाने के लिए अंतरिम बजट का इस्तेमाल

अगर जनता के बीच में इस तरह की अवधारणा बन जाए कि चुनाव में अमुक पार्टी ही जीतने वाली है, तो यह पार्टी विशेष के लिए काफ़ी लाभदायक साबित होता है. मतदाताओं में से एक बड़ा तबक़ा अपने वोट का इस्तेमाल पर्सेप्शन को आधार बनाकर भी करता है, ताकि उसका वोट व्यर्थ न जाए. इस मौजूदा केंद्र सरकार ने इस पर्सेप्शन को ध्यान में रखकर ही अंतरिम बजट में इस बात को शामिल कर लिया कि जुलाई में फिर से मोदी सरकार ही पूर्ण बजट लेकर आएगी. यह बिल्कुल ही नयी परंपरा है.

लगातार दो कार्यकाल, लेकिन जवाबदेही पर सवाल नहीं

अब तक मोदी सरकार की जो कार्यशैली रही है, उसको देखते हुए वर्तमान में किसी सवाल पर या किसी मसले सरकार को घेरना अब मीडिया की मुख्यधारा के लिए अजूबा जैसी बात हो गयी है. लगातार दो कार्यकाल से सरकार में बीजेपी है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं. इसके बावजूद भी मीडिया में सवाल विपक्षी दलों से ज़ियादा पूछा जा रहा है. व्यवहार में यही व्यवस्था बन गयी है या कहें बना दी गयी है. यह वास्तविकता है. लोकतांत्रिक व्यवस्था में सैद्धांतिक तौर से सवाल हमेशा ही सत्ता या पावर में रहने वाली सरकार और पार्टी से पूछा जाना चाहिए. यह देश हित और नागरिक हित में आदर्शवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए ज़रूरी है.

सरकार की जगह विपक्ष से सवाल की नयी परंपरा

हालाँकि पिछले कुछ साल से इसके विपरीत हो रहा है. सरकार की ओर से सवाल पूछने की हर गुंजाइश को एक तरह से ख़त्म कर दी गयी है. आम लोगों से जुड़ा कोई भी मुद्दा हो, आम लोगों से जुड़ी कोई समस्या हो..एक ऐसा राजनीतिक आवरण बन चुका है या बना दिया गया है कि सवाल मोदी सरकार से नहीं बनता, बल्कि विपक्ष से बनता है. स्थिति ऐसी बना दी गयी है कि विपक्षी दल के इतर भी कोई आम नागरिक समस्याओं को लेकर सवाल उठाना चाहे, तो उसे या तो देशद्रोही बता दिया जाता है या विरोधी दल का समर्थक क़रार दे दिया जाता है. ऐसी स्थित बनने का ही नतीजा है कि बजट दस्तावेज़ में मौजूदा सरकार इस तरह का वक्तव्य शामिल कर ले रही है और उसको लेकर कहीं न तो सवाल है और न ही विरोध का स्वर दिख रहा है.

इस बार अंतरिम बजट को मोदी सरकार ने एक राजनीतिक प्रयोग की तरह लिया है. इसके तहत खुले-'आम सरकारी दस्तावेज़ में लिखकर एक तरह से दावा किया गया है कि लोक सभा चुनाव के बाद मोदी सरकार ही फिर से केंद्र की सत्ता संभालेगी. मतदान और नतीजों से पहले चुनाव में जीतने का दावा राजनीतिक हो सकता है, सरकारी नहीं. इस बार के अंतरिम बजट में इस फ़र्क़ को मोदी सरकार ने मिटा दिया है.

अंतरिम बजट में शब्दों की बाज़ीगरी पर ख़ास ध्यान

अंतरिम बजट में बहुत ही बारीकी से सोच-समझकर कुछ ऐसे शब्दों को भी उभारा गया है, जिससे आम लोगों में पार्टी विशेष को लेकर सकारात्मक माहौल बनाने में मदद मिले. पहले से ही मोदी सरकार 'अमृतकाल' शब्द का इस्तेमाल कर रही है. इसे ज़रिये लोगों में एक पर्सेप्शन बनाने की कोशिश की जा रही है कि अगला 25 साल देश के महत्वपूर्ण है और इसकी प्रासंगिकता तभी रहेगी, जब देश के लोग केंद्र की सत्ता पर 2047 तक बीजेपी को बनाए रखेंगे. इस तरह का एक राजनीतिक माहौल बनाने की कोशिश की जा रही है कि भारत 2047 तक विकसित राष्ट्र तभी बन सकता है, जब केंद्र की सत्ता बीजेपी के हाथों में रहेगी. अंतरिम बजट में भी इस तरह का पर्सेप्शन बनाने का पर्याप्त प्रयास मोदी सरकार की ओर से किया गया है.

अमृतकाल के साथ ही अंतरिम बजट में पाँच प्रण, पंचामृत, अन्नदाता, जय अनुसंधान, 'लखपति दीदी', स्वर्णिम काल, कर्तव्य काल और 'राष्ट्र प्रथम' जैसे शब्दों का ब-ख़ूबी इस्तेमाल किया गया है. इन शब्दों का इस्तेमाल किया गया है और इसमें कोई ग़लती या रोक भी नहीं है. लेकिन देश में जो माहौल है, मोदी सरकार को भलीभाँति एहसास है कि इन शब्दों  को सुनकर देश का एक बड़ा तबक़ा राजनीतिक तौर से सम्मोहित हो जाता है. ऐसा होने से बजट की बुनियादी बातों से ध्यान भटकाना किसी भी सरकार या दल के लिए आसान हो जाता है.

जिनको भरपूर उम्मीद थी, बजट से निराशा हाथ लगी 

अंतरिम बजट को लेकर किसान से लेकर युवाओं और सरकारी कर्मचारियों में कुछ उम्मीदें ज़रूर थी. हालाँकि सरकार ने सीधे-सीधे इन तीनों वर्गों की उम्मीदों को सहारा देने के लिए किसी तरह की कोई घोषणा नहीं की. पीएम-किसान सम्मान योजना के तहत धनराशि में इज़ाफ़ा का स्कोप था, लेकिन इस दिशा में आगे बढ़ने को लेकर सरकार अंतरिम बजट में पूरी तरह से मौन साधे रही. सरकारी कर्मचारी को उम्मीद था कि मोदी सरकार आठवें वेतन आयोग को लेकर कुछ सकारात्मक एलान या वादा कर सकती है. इस मोर्चे पर भी अंतरिम बजट में मोदी सरकार ख़ामोश रही.

बजट को लेकर इनकम टैक्स देने वाला तबक़ा बेहद उत्साहित रहता है. इस तबक़े को हर बजट से उम्मीद रहती है कि सरकार कुछ राहत का एलान कर दे. हालाँकि अंतरिम बजट था, तो इस पहलू पर सरकार कोई बड़ा फ़ैसला लेगी, पहले से ही इसकी संभावना नगण्य थी. इसके बावजूद नरेंद्र मोदी परंपरा को तोड़ने वाले प्रधानमंत्री के तौर पर अब देखे जाते हैं, तो आयकर देने वाले लोगों की उम्मीद बनी हुई थी.

आयकर के मोर्चे पर पिछले दस साल के आँकड़ों में हुए बदलाव को देखते हुए आर्थिक मामलों के जानकार भी ऐसी उम्मीद कर रहे थे कि अंतरिम बजट होने के बावजूद शायद सरकार लोगों को कुछ राहत फ़ैसला करेगी. पिछले 10 साल में प्रत्यक्ष कर संग्रहण तीन गुणा से ज़ियादा हो गया है. यहाँ तक कि इनकम टैक्स रिटर्न दाख़िल करने वालों की संख्या भी इस अवधि में बढ़कर 2.4 गुणा हो गयी है. इतने अच्छे आँकड़े को देखते हुए उम्मीद बंधी थी, लेकिन इस मोर्चे पर मोदी सरकार ने परंपरा का निर्वाह किया. अंतरिम बजट में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कर में कोई बदलाव नहीं किया गया है.

बेरोज़गारी का अंतरिम बजट में ज़िक्र तक नहीं

देश में बढ़ती बेरोज़गारी सबसे प्रमुख चुनौतियों में से एक है. अंतरिम बजट में इस शब्द का इस्तेमाल नहीं होना ही यह बताता है कि मोदी सरकार का रवैया कैसा है. वित्त मंत्री ने बजट भाषण में युवाओं को रोज़गारदाता बनाने के लिए तमाम सरकारी योजनाओं का ज़िक्र किया है.

हालाँकि मोदी सरकार इसका उल्लेख करना भूल गयी कि इन तमाम सरकारी कोशिशों के बावजूद आख़िर क्यों वर्तमान में देश के 80 करोड़ लोगों को मुफ़्त राशन उपलब्ध कराना पड़ रहा है. इसके विपरीत वित्त मंत्री ने 80 करोड़ लोगों को मुफ़्त राशन उपलब्ध कराने को सरकारी उपलब्धि के तौर पर पेश किया है. अगर रोज़गार के मोर्चे पर सरकार की ओर से पिछले दस साल में पर्याप्त क़दम उठाए गए होते, तो शायद इतनी बड़ी संख्या में लोगों को खाने के लिए सरकारी स्तर पर फ्री में अनाज देने की ज़रूरत नहीं पड़ती. यह उपलब्धि नहीं है, बल्कि शर्म की बात है.

महंगाई को सरकार समस्या मानती ही नहीं है!

उसी तरह से अंतरिम बजट में बढ़ती महंगाई और उससे लोगों को होने वाली परेशानियों को कोई समस्या मानी ही नहीं गयी है. इसके विपरीत बजट भाषण में मोदी सरकार की ओर से कहा गया है कि मुद्रास्फीति सामान्य बनी हुई है. सरकारी आँकड़ों में तो महंगाई दर को काबू में दिखा दिया जा रहा है, लेकिन वास्तविकता कुछ और है. महंगाई दर भले ही सरकारी आँकड़ों के लिहाज़ से काबू में हो, लेकिन हक़ीक़त में देश के आम लोग रोज़ बढ़ती महंगाई की मार झेलने को मजबूर है. यह अलग बात है कि पिछले कुछ वर्ष से महंगाई मीडिया विमर्श से भी पूरी तरह से गायब है. तमाम वास्तविकता के बावजूद सरकार इसे समस्या मानने और इससे जुड़े सवालों का जवाब देने को तैयार नहीं है. महंगाई को लेकर सरकार या सत्ता पक्ष के नेताओं से सवाल किया भी जाता है, तो सवाल का रुख़ तुरंत ही देशहित की ओर मोड़ दिया जाता है.

अंतरिम बजट में बढ़ती आय के दावे और उठते सवाल

महंगाई को समस्या मानने के विपरीत मोदी सरकार अंतरिम बजट में दावा कर रही है कि लोगों की औसत आमदनी 50 फ़ीसदी बढ़ गयी है. लोग बेहतर कमा रहे हैं और जी रहे हैं. अगर सच्चाई यही है तो फिर सवाल उठता है कि 142 करोड़ की आबादी वाले देश में 80 करोड़ लोगों को आख़िर वर्तमान में खाने के लिए सरकार की ओर से मुफ़्त राशन क्यों देना पड़ रहा है. यह बेहद चिंतनीय स्थिति है, जिसका जवाब सरकार को ज़रूर देना चाहिए. सरकार विपक्षी दलों के आरोपों को जवाब देने के लिए नहीं है, लेकिन सरकार की जवाबदेही देश की जनता, देश के आम लोगों के प्रति ज़रूर है.

'लखपति दीदी' योजना और आँकड़ों का खेल

अंतरिम बजट में लखपति दीदी योजना का ख़ास तौर से ज़िक्र किया गया है. ग्रामीण इलाकों में महिलाओं के सशक्तीकरण से जुड़ी इस योजना के तहत केंद्र सरकार ने लखपति दीदी का लक्ष्य 2 करोड़ से बढ़ाकर 3 करोड़ करने का फै़सला किया है. सरकार का दावा है कि अब तक एक करोड़ महिलाएं लखपति दीदी बन चुकी हैं. यहाँ पर लखपति दीदी का मतलब सालाना लाख या लाख रुपये से अधिक कमाई करने वाली महिला है. मोदी सरकार 'लखपति दीदी' शब्द का तो ख़ूब इस्तेमाल कर रही है. आम लोगों को सुनकर अच्छा भी लग रहा है.

लेकिन वास्तविकता आँकड़ों पर नज़र डालें, महीना के हिसाब से जो भी महिला 8 हज़ार 33 रुपये कमा रही है, वो इसके दायरे में आ जाएगी. प्रति दिन के हिसाब से यह राशि महज़ 277 रुपये हैं, जो कि वर्तमान में दिहाड़ी मज़दूरी से भी कम है. योजना अच्छी है, अगर वास्तविक तौर से ग्रामीण सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य में रहने वाली महिलाएं इस योजना से हर साल कई लाख कमाएं. अगर महिलाएं सिर्फ़ लाख का आँकड़ा छू रही हैं, तो सरकार को व्यवहार में इसके अमल और नतीजों पर व्यापक सोच के साथ ध्यान देने की ज़रूरत है. यह कोई चुनावी लाभ से जुड़ा मुद्दा नहीं है कि लखपति शब्द का इस्तेमाल कर राजनीतिक माहौल अपने पक्ष में बना लिया जाए.

प्राथमिक शिक्षा और प्राथमिक चिकित्सा पर चुप्पी

सामाजिक और आर्थिक ताना-बाना को देखते हुए प्राथमिक शिक्षा और प्राथमिक चिकित्सा सुविधा को लेकर देश में ठोस और व्यापक रणनीति की ज़रूरत है. इस दिशा में भी सरकार अंतरिम बजट में स्पष्ट तौर से भविष्य की लकीर बनाने को लेकर ख़ामोश रही. यह इतना ज़रूरी मुद्दा है कि इसके बिना बड़ी आबदी की वज्ह से देश में आर्थिक वृद्धि तो हो सकती है, लेकिन आर्थिक विकास से हमेशा ही देश के आम लोग दूर रहेंगे.

कोई भी देश अपने हर नागरिक के लिए इन दो सेवा को बेहतर गुणवत्ता के साथ उपलब्ध कराने के बाद ही विकसित राष्ट्र बन सकता है. इतना ही नहीं, इन दोनों पहलू के हर नागरिक के लिए सुनिश्चित होने से अपने आप ही किसी भी राष्ट्र के लिए विकसित होने की रफ़्तार अपने आप तेज़ हो जाती है, भले ही अर्थव्यवस्था का आकार कुछ भी हो. अंतरिम बजट के तहत आर्थिक पहलू को छुने और देश के आम लोगों की रोज़-मर्रा की समस्याओं पर फोकस करने के बर-'अक्स वित्त मंत्री का बजट भाषण यूपीए सरकार से मोदी सरकार की तुलना करने वाला दस्तावेज़ अधिक नज़र आया.

आर्थिक वृद्धि और आर्थिक विकास में है अंतर

आर्थिक वृद्धि या'नी इकोनॉमी ग्रोथ के तमाम दावों के साथ अंतरिम बजट की एक बात को मोदी सरकार की ओर से बहुत ही प्रमुखता से उभारा जा रहा है. वो पहलू कैपिटल एक्सपेंडिचर या'नी पूंजीगत व्यय से जुड़ा है. इसे ही सरल भाषा में 'कैपेक्स' कहते हैं. बजट में कहा गया है कि पूंजीगत व्यय में पिछले 4 साल में तीन गुणा का इज़ाफ़ा किया गया है. 2024-25 के लिए कैपेक्स को 11.1 प्रतिशत बढ़ाकर ग्यारह लाख, ग्यारह हजार एक सौ ग्यारह करोड़ रुपये (11,11,111 करोड़) करने का फ़ैसला किया गया है. यह सकल घरेलू उत्पाद  या'नी जीडीपी) का 3.4 फ़ीसदी है. सरकार के इस फ़ैसले से बुनियादी ढाँचे को बेहतर बनाने में मदद मिलेगी. आर्थिक विकास और रोजगार भी बढ़ेगा, इसमें कोई दो राय नहीं है.

आर्थिक असमानता दूर करने पर हो फोकस

आर्थिक वृद्धि के तमाम दावों के बीच सबसे बड़ी समस्या है आर्थिक असमानता, जिस पर केंद्र सरकार को सबसे अधिक फोकस करने की ज़रूरत है और इसे देश के आम लोगों को भी समझने की ज़रूरत है. आर्थिक वृद्धि अलग चीज़ है और आर्थिक विकास अलग पहलू है. हम दुनिया की पाँचवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था ज़रूर बन गए हैं. यह आर्थिक वृद्धि है. इसे आर्थिक विकास नहीं कहा जाएगा. सही मायने में आर्थिक विकास..आर्थिक असमानता को कम करके ही हासिल किया जा सकता है.

जब हम बात करते हैं कि भारत 2047 तक विकसित राष्ट्र बनेगा, तो वो सिर्फ़ अर्थव्यवस्था के आकार के हिसाब से विकसित राष्ट्र नहीं बन सकता है. आर्थिक वृद्धि ज़रूरी है, लेकिन विकसित राष्ट्र बनने के लिए आर्थिक विकास सबसे महत्वपूर्ण पहलू है. इस लक्ष्य को हासिल करने में सबसे बड़ी चुनौती या समस्या देश के लोगों में व्याप्त आर्थिक असमानता है. इस पहलू को सरकार गंभीरता से नहीं ले रही है. सरकार का मूल फोकस आर्थिक वृद्धि पर है. बढ़ती आर्थिक असमानता देश के आम लोगों के हितों के नज़रिये से बेहद ख़तरनाक प्रवृत्ति है.

बड़ी आबादी सिर्फ़ मज़दूर बनकर न रह जाए

तमाम सकारात्मक आर्थिक वृद्धि के आँकड़ों और अनुमानों के बावजूद देश में आर्थिक असमानता की खाई और चौड़ी होती जा रही है. देश की अधिकांश संपदा पर देश के चुनिंदा लोगों का अधिकार हो जाए, तो फिर आकार में विशाल अर्थव्यवस्था होने का कोई फ़ाइदा आम लोगों को नहीं है. आने वाले समय में सरकार चाहे किसी भी पार्टी की हो, अगर आर्थिक नीतियों में आर्थिक असमानता के गैप को कम करने पर फोकस नहीं किया गया, तो फिर आर्थिक वृद्धि तमाम दावे खोखले ही रहेंगे. आर्थिक वृद्धि उस दिशा में नहीं होनी चाहिए कि देश की 90 फ़ीसदी आबादी या काम करने लायक लोग हमेशा ही..दस फ़ीसदी आबादी के लिए धनराशि पैदा करने वाले और सुविधा मुहैया कराने वाले मज़दूर बनकर काम करें.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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