अमीर और गरीब के बीच बढ़ती हुई इस खाई को आखिर कैसे पाटेगी सरकार?
पिछले कई बरसों से ये एक सियासी नारा बना हुआ है कि इस देश में गरीब और गरीब होता जा रहा है जबकि अमीर तो दिन दूनी व रात चौगुनी रफ्तार से और अमीर बनता जा रहा है.हालांकि देश में सरकार कोई भी हो,वो अक्सर इस सच को जानने के बावजूद अक्सर अनजान ही बनती आ रही हैं क्योंकि वे कभी नहीं चाहतीं कि उन पर अमीरों की सरकार होने-बनने का कोई तमगा लगे. लेकिन पुरानी कहावत है कि आप किसी सच को अनदेखा तो कर सकते हैं लेकिन उसे बहुत देर तक झुठला नहीं सकते.
दुनिया की एक एजेंसी है जो हर साल तथ्यों के आधार पर अपनी रिसर्च करके ये बताती है कि किस देश में गरीबी बढ़ने के साथ ही असमानता यानी अमीर और गरीब के बीच की खाई और कितनी चौड़ी हुई है और आखिर इसकी वजह क्या है. हो सकता है कि देश की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण इस रिपोर्ट में किये गए दावों को सिरे से नकार दें लेकिन कोई भी विवेकशील और दूरदृष्टि रखने वाली सरकार तथ्यों पर आधारित रिसर्च के नतीजों के आधार पर आई किसी रिपोर्ट से सबक लेते हुए भविष्य की आर्थिक रणनीति बनाती है, ताकि विषमता के इस फर्क को पाटा जा सके.
उस एजेंसी ने भारत के बारे में World Inequality Report 2022 यानी विश्व असमानता रिपोर्ट जारी की है, जो हम सबके लिए तो चौंकाने वाली है ही लेकिन सरकार के लिए भी आंखें खोलने वाली है.वह इसलिये कि इस रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत दुनिया के सबसे असमान देशों की लिस्ट में शुमार है,जहां एक ओर गरीबी बढ़ रही है लेकिन दूसरी तरफ एक समृद्ध अभिजात वर्ग लगातार और ज्यादा अमीर बनता जा रहा है.दुनिया के कुछ देशों का इतिहास ये बताता है कि लोगों के बीच बढ़ती आर्थिक असमानता के कारण उस देश को गृह युद्ध भी झेलना पड़ा है. लिहाज़ा,तमाम तरह के मतभेदों व पूर्वग्रह को दरकिनार करते हुए सरकार की सबसे बड़ी चिंता इन दो वर्गों की खाई को पाटने या उसे कम करने की होनी चाहिये.अन्यथा कहीं ऐसा न हो कि दो वर्गों के बीच लगातार बढ़ती हुई असमानता की ये खाई सामाजिक असंतोष को जन्म दे दे और आने वाले सालों में महानगरों को व्यापक हिंसा की ओर धकेल दे,जिसका अंजाम अंततः एक गृह युद्ध के रुप में ही सामने आता है.
हालांकि एक सच ये भी है कि कोरोना महामारी के भारत में दस्तक देते ही करोड़ों लोगों ने ग़रीबी व बेरोजगारी की मार झेली है और महानगरों से लोगों ने पैदल ही अपने गांव-कस्बों की तरफ पलायन भी किया है लेकिन फिर भी उन्होंने अपना संयम नहीं खोया और न ही वे लोग किन्हीं हिंसक,शरारती तत्वों के बहकावे में ही आये. उस वक्त न्यूज़ चैनलों पर पलायन करने वालों की वे तस्वीर देखकर अन्तराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान रखने वाले कुछेक अर्थशास्त्रियों ने अफसोस जाहिर करने के बावजूद ये तारीफ की थी कि अगर कोई और देश होता, तो शायद इस हालत में लोग वहां की सरकार के ख़िलाफ़ विद्रोह भी छेड़ सकते थे लेकिन इससे साबित होता है कि आम भारतीय अनुशासित होने के साथ ही हर तरह के बदतर हालात का मुकाबला करना जानता है.पर, वो महामारी का दौर था और प्रवासी मजदूरों के सामने इस मजबूरी के सिवा कोई दूसरा विकल्प नहीं था. लेकिन आर्थिक असमानता के ऐसे हालात सालोंसाल बने रहना किसी भी मुल्क के लिए शुभ संकेत नहीं समझा जा सकता.
इस असमानता रिपोर्ट के मुताबिक, भारत के शीर्ष 10 फीसदी अमीर लोगों की आय भारत की कुल आय का 57 फीसदी है, जबकि शीर्ष 1 फीसदी अमीर घराने देश की कुल कमाई में 22 फीसदी हिस्सा रखते हैं.इसके उलट निचली पायदान यानी निम्न और मध्यम आय वर्ग की बात करें,तो 50 फीसदी लोगों की कुल आय का योगदान घटकर अब महज 13 फीसदी पर रह गया है.
आंकड़ों के हवाले के साथ इस रिपोर्ट में बताया गया है कि देश की वयस्क आबादी की औसत राष्ट्रीय आय 2 लाख 4 हजार 200 रुपए सालाना है.जबकि इनमें से नीचे के 50 फीसदी लोग महज़ 53,610 रुपए ही कमाते हैं.शीर्ष 10 फीसदी वयस्क जो अमीर की श्रेणी में आते हैं,वे औसतन 11,66,520 रुपये कमाते हैं,जो कि नीचे के 50 फीसदी वयस्कों की राष्ट्रीय आय से करीब 20 गुना अधिक है. रिपोर्ट के अनुसार, भारत में औसत घरेलू संपत्ति लगभग 9,83,010 रुपये है।
रिपोर्ट में सबसे अधिक चौंकाने वाला आंकड़ा ये है कि देश की कुल संपत्ति में से 33 फीसदी संपत्ति उन सबसे अमीर लोगों के पास है जिनकी संख्या महज़ एक प्रतिशत है. अगर देश के 10 सबसे अमीर घरानों की बात करें,तो वे 65 फीसदी संपत्ति पर काबिज हैं. रिपोर्ट ये भी कहती है कि बीते 40 सालों में देश के चंद लोग तो अमीर होते चले गये लेकिन वहां की सरकारें गरीब होती गई है.
रिपोर्ट के मुताबिक देश के वित्त मंत्री और पीएम रह चुके मनमोहन सिंह की उदारीकरण की नीति व आर्थिक सुधार के फैसले के बाद लोगों की आय में जबरदस्त इजाफा तो हुआ लेकिन इसके साथ ही असमानता भी बढती चली गई. लिहाज़ा,इन नीतियों का सबसे ज्यादा फायदा देश के एक फीसदी अमीर लोगों को ही हुआ है. जबकि लो और मिडिल इनकम ग्रुप्स की दशा में सुधार बेहद धीमा रहा है और उनमें अभी भी गरीबी मौजूद है.
इस रिपोर्ट के बहाने इतिहास के एक काले अध्याय का जिक्र करना जरुरी बन जाता है.दुनिया के नक्शे पर मध्य-पूर्व का एक छोटा-सा मुल्क है लेबनान, जिसने आर्थिक संकट व सामाजिक असंतोष के कारण 15 साल तक गृह युद्ध झेला है.साल 1975 से 1990 तक लेबनान गृहयुद्ध की चपेट में रहा. उसके बाद भी दो दशक से लंबे समय तक सीरिया की सेनाएं देश में रहीं और लेबनान में अपना प्रभुत्व बनाए रखा लेकिन उसकी अर्थव्यवस्था आज तक पटरी पर नहीं लौट पाई है.अन्तराष्ट्रीय कर्ज़ में डूबे उस मुल्क की आधी आबादी गरीबी रेखा के नीचे जीती है और करीब 35 फीसदी लोग बेरोजगार हैं.आर्थिक असामनता से उपजे असंतोष ने ही वहां के एक वर्ग को गृह युद्ध छेड़ने पर मजबूर किया था.इतिहास की उस हक़ीक़त से क्या हमें सबक लेने की जरुरत नहीं है?
नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.
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