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क्या छत्तीसगढ़ बन जायेगा कांग्रेस का मज़बूत क़िला या भूपेश बघेल से सत्ता छीन लेगी बीजेपी, बारीकियों को समझें

इस साल जिन पाँच राज्यों में विधान सभा चुनाव होना है,उनमें से एक राज्य छत्तीसगढ़ है. मध्य प्रदेश, राजस्थान, मिजोरम और तेलंगाना में नवंबर महीने में एक चरण में ही मतदान होना है. वहीं नक्सल प्रभावित इलाकों की वज्ह से कम सीट होने के बावजूद छत्तीसगढ़ में दो चरण में मतदान की प्रक्रिया पूरी की जायेगी.

छत्तीसगढ़ में कुल 90 विधान सभा सीट है. सरकार बनाने के लिए बहुमत का आँकड़ा 46 है. प्रदेश में पहले चरण में 7 नवंबर को कबीरधाम जिला, नक्सल प्रभावित बस्तर क्षेत्र और राजनांदगांव जिले की 20 सीटों पर वोट डाले जायेंगे. वहीं दूसरे चरण में बाक़ी इलाकों की 70 सीटों पर 17 नवंबर को वोटिंग होगी. मतों की गिनती बाक़ी 4 राज्यों के साथ तीन दिसंबर को ही की जायेगी.

छत्तीसगढ़ में किसका चलेगा जादू?

इस बार छत्तीसगढ़ विधान सभा चुनाव बेहद ही रोमांचक रहने की उम्मीद है. सत्ताधारी कांग्रेस और बीजेपी के लिए यह चुनाव कई कारणों से प्रतिष्ठा का सवाल बन गया है. उसके साथ ही इस बार यहाँ आम आदमी पार्टी, गोंडवाना गणतंत्र पार्टी, सर्व आदिवासी समाज के साथ बीएसपी और पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी द्वारा स्थापित जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ (जे)  भी अपनी राजनीतिक ज़मीन बनाने की कोशिश में है. लेकिन सीधा मुक़ाबला कांग्रेस और बीजेपी में ही है.

छत्तीसगढ़ से कांग्रेस को फिर से प्यार मिलता है या बीजेपी को अपना पुराना प्यार वापस मिल जाता है, इसी के इर्द-गिर्द पूरा चुनाव घूमने वाला है. छत्तीसगढ़ के राजनीतिक हालात और समीकरणों को समझने के लिए प्रदेश की सियासत के अलग-अलग पड़ाव पर नज़र डालने की ज़रूरत है. एक लंबे आंदोलन के बाद मध्य प्रदेश से अलग होकर एक नवंबर 2000 को छत्तीसगढ़ नया राज्य बनता है.

प्रदेश में 15 साल बीजेपी की रही थी सरकार

तत्कालीन कांग्रेस नेता अजीत जोगी प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री बनते हैं. वे तीन साल तक बौतर कांग्रेस नेता प्रदेश के मुख्यमंत्री रहते हैं. अलग राज्य बनने के बाद दिसंबर 2003 में यहां पहला विधान सभा चुनाव होता है. इसके साथ ही छत्तीसगढ़ की राजनीति में बीजेपी के वर्चस्व का सिलसिला शुरू हो जाता है. अगले 15 साल या'नी तीन कार्यकाल तक प्रदेश की सत्ता पर बीजेपी अकेले बहुमत के साथ क़ाबिज़ रहती है. उसके बाद पिछले विधान सभा चुनाव या'नी 2018 में प्रचंड जीत के साथ बीजेपी नेता रमन सिंह के युग का अंत कर कांग्रेस सत्ता पर क़ाबिज़ हो जाती है. यहाँ से कांग्रेस नेता भूपेश बघेल के युग की शुरूआत होती है.

2003 से बीजेपी के वर्चस्व की शुरूआत

छत्तीसगढ़ में शुरू से बीजेपी और कांग्रेस में काँटे की टक्कर देखने को मिलते रहा है. पहले विधान सभा चुनाव 2003 में बीजेपी 50 सीट जीत कर कांग्रेस के शासन का अंत कर देती है. कांग्रेस को 37 सीटों पर जीत मिलती है. बीजेपी का वोट शेयर 39.26% रहता है, तो कांग्रेस के लिए यह आँकड़ा 36.71% रहता है. बीएसपी 4.45% वोट शेयर के  साथ 2 सीट पर जीत जाती है. एनसीपी 7 फ़ीसदी वोट पाने में सफल रहने के बावजूद महज़ एक सीट पर जीत पाती है.

बीजेपी का दबदबा 2008 में भी बरक़रार

छत्तीसगढ़ में पाँच साल बाद भी राजनीतिक हालात में कोई बदलाव देखने को नहीं मिलता है. 2008 के चुनाव में बीजेपी को 50, कांग्रेस को 38 और बीएसपी को दो सीटों पर जीत मिलती है. बीजेपी नेता रमन सिंह लगातार दूसरी बार प्रदेश के मुख्यमंत्री बनते हैं. बीजेपी और कांग्रेस के बीच वोट शेयर का फ़ासला क़रीब पौने दो फ़ीसदी रहता है.

2013 में लगातार तीसरी बार बीजेपी की जीत

दस साल सरकार में रहने के बावजूद 2013 में भी बीजेपी को प्रदेश के लोगों का प्यार मिलता है. नतीजों में कोई बड़ा बदलाव नहीं होता है. बीजेपी को 49, कांग्रेस को 39 और बीएसपी को एक सीट पर जीत मिलती है. रमन सिंह लगातार तीसरी बार मुख्यमंत्री बनते हैं. बीजेपी और कांग्रेस के बीच वोट शेयर का फ़ासला एक फ़ीसदी (0.7%) से भी कम का रह जाता है. रमन सिंह तीसरी बार मुख्यमंत्री बनते हैं.

नक्सली हमले में कांग्रेस को भारी नुक़सान

इस चुनाव से पहले मई 2013 में कांग्रेस को एक नक्सली हमले की वज्ह से प्रदेश के कई दिग्गज नेताओं को खोना पड़ जाता है. सुकमा के झीरम घाटी में 25 मई 2013 को नक्सली हमला होता है. उस हमले में प्रदेश के कांग्रेस के कई बड़े नेताओं की जान चली जाती है. इनमें तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार पटेल, महेंद्र कर्मा और पूर्व केंद्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल समेत 30 से ज्यादा लोग शामिल थे. उस वक्त ऐसा लगा, जैसे छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के नेताओं की पूरी पीढ़ी ही खत्म हो गई. इस बीच कांग्रेस के कद्दावर नेता रहे अजीत जोगी ने पार्टी से निकाले जाने के बाद जून 2016 में जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ के नाम से नई पार्टी का गठन कर लिया था.

भूपेश बघेल और टीएस सिंह देव की मेहनत

लेकिन भूपेश बघेल और टीएस सिंह देव की जोड़ी की जी-तोड़ मेहनत से अगले पाँच साल में ही छत्तीसगढ़ की सियासत का रुख़ बदल जाता है. विधान सभा चुनाव, 2018 में इन दोनों के राजनीतिक कौशल से प्रदेश की राजनीति में बहुत बड़ा कद बना चुके बीजेपी नेता और तत्कालीन मुख्यमंत्री रमन सिंह का हर दाव बेअसर साबित हो जाता है.  छत्तीसगढ़ में 2018 के चुनाव में कांग्रेस की जीत में भूपेश बघेल की तरह ही टीएस सिंह देव का भी महत्वपू्र्ण योगदान था. वे सरगुजा रियासत के राजा होने के साथ ही अंबिकापुर सीट से लगातार 3 बार से विधायक हैं. 2013 के चुनाव के बाद वे विधानसभा में नेता विपक्ष की भी जिम्मेदारी निभा चुके हैं. पिछली बार उन्होंने ही पार्टी का घोषणा पत्र तैयार किया था, जिसको आधार बनाकर कांग्रेस को ऐतिहासिक जीत मिली थी.

कांग्रेस का 2018 में ऐतिहासिक प्रदर्शन

जब 2018 में नतीजे सामने आते हैं, तो हर कोई चौंक जाता है. ऐतिहासिक प्रदर्शन करते हुए कांग्रेस ने बीजेपी के डेढ़ दशक की बादशाहत को खत्म कर दिया था. कांग्रेस तीन चौथाई से भी अधिक सीटों पर जीतने में सफल रही थी. वहीं बीजेपी महज़ 15 सीटों पर सिमट गयी थी.  कांग्रेस का वोट शेयर 43% और बीजेपी का 33% रहा था. दोनों के बीच वोट शेयर का फ़ासला 10% रहा था. प्रदेश विधान सभा चुनाव में दोनों पार्टियों के बीच वोट शेयर में यह अब तक का सबसे अधिक फ़ासला था. जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ को 5 और बीएसपी को 2 सीटों पर जीत मिली. रिकॉर्ड जीत दिलाने वाले दिग्गज नेता भूपेश बघेल की अगुवाई में छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार बनती है. यहीं से भूपेश बघेल के युग की शुरूआत भी होती है.

भूपेश बघेल के लिए आसान नहीं था सफ़र

भले ही प्रचंड जीत के बाद पाटन से विधायक बने भूपेश बघेल 17 दिसंबर को मुख्यमंत्री बनने में सफल हो जाते हैं. लेकिन पार्टी के भीतर उनकी असली लड़ाई और संघर्ष नतीजों के बाद ही शुरू हो गया था, जो आगामी चुनाव के चंद महीने पहले तक जारी रहा. भूपेश बघेल के लिए मुख्यमंत्री बनने के बाद से पार्टी के ही नेता टीएस सिंह देव ही सबसे बड़ी चुनौती बन गए.  दरअसल इतनी बड़ी जीत के बाद भूपेश बघेल और टीएस सिंह देव दोनों ही मुख्यमंत्री पद पर दावेदारी जता रहे थे. कुछ दिन की रस्साकशी के बाद कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व की ओर से भूपेश बघेल के नाम पर मुहर लगता है. हालांकि उस वक़्त टीएस सिंह देव के समर्थकों की ओर से दावा किया जाता है कि ढाई-ढाई साल के फॉर्मूले पर सहमति बनी है.

वक़्त रहते अंदरूनी कलह का समाधान

ढाई साल की इस अवधि को पूरी होने के बाद टीएस सिंह देव और उनके समर्थकों ने इस फॉर्मूले के तहत आगे बढ़ने के लिए पार्टी के शीर्ष नेतृत्व पर दबाव भी बनाया. टीएस सिंहदेव 2021 में खुद कई बार दिल्ली भी आए. उनके तमाम प्रयासों के बाद भी कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व भूपेश बघेल को बदलने के लिए राज़ी नहीं दिखा.

कांग्रेस शीर्ष नेतृत्व की इस रवैये के बाद से टीएस सिंह देव और भूपेश बघेल के बीच तनातनी धीरे-धीरे बढ़ती गई. खींचतान इतनी बढ़ गई थी कि राजनीतिक बहस में कहा जाने लगा कि इस अंदरूनी कलह की वज्ह से कांग्रेस के लिए 2023 के आख़िर में होने वाले विधान सभा चुनाव में सत्ता बचाना आसान नहीं होगा. एक वक़्त ऐसा भी आया था, जब टीएस सिंह देव की बे-रुख़ी को देखते उनके चुनाव से पहले पार्टी छोड़ने जैसी अटकलें भी लगाई जाने लगी थी.

हालांकि इस साल जून के ख़त्म होने से पहले ही कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के साथ भूपेश बघेल, टीएस सिंहदेव की नाराज़गी दूर करने में में कामयाब हो जाते हैं. टीएस सिंह देव को उपमुख्यमंत्री बना दिया जाता है. इसके साथ ही कांग्रेस के अंदरूनी कलह से विधान सभा चुनाव में बीजेपी को फ़ाइदा मिलने की संभावनाओं पर भी पूर्ण विराम लग जाता है.

छत्तीसगढ़ में कांग्रेस मज़बूत स्थिति में

छत्तीसगढ़ अभी देश के उन चुनिंदा राज्यों में से एक है, जहाँ कांग्रेस की स्थिति बेहद मज़बूत मानी जा सकती है. कांग्रेस के लिए सबसे बड़ा एडवांटेज ख़ुद मुख्यमंत्री भूपेश बघेल हैं, जिनकी लोकप्रियता पिछले 5 साल में प्रदेश के हर वर्ग में बढ़ी है. भूपेश बघेल की छवि जनता के बीच से पैदा हुआ नेता के तौर पर है. अब टीएस सिंह देव भी खुलकर भूपेश बघेल की तारीफ़ करते नज़र आ रहे हैं. इससे कांग्रेस की स्थिति और भी मज़बूत दिख रही है.

छत्तीसगढ़ में आसान नहीं है बीजेपी की राह

दूसरी ओर पहले से ही प्रदेश में आपसी खींचतान से जूझ रही बीजेपी की मुश्किलें भूपेश बघेल और टीएस सिंहदेव के बीच सुलह से बढ़ गयी है. ऐसे तो छत्तीसगढ़ बीजेपी का गढ़ रहा है. नया राज्य क़रीब 23 साल हुए हैं और इनमें से 15 साल बीजेपी की सरकार रही है. लोक सभा चुनाव के नज़रिये से तो अस्तित्व के बाद से ही छतीसगढ़ उन राज्यों में शामिल रहा है, जहाँ बीजेपी शत-प्रतिशत सीटें जीतने का लक्ष्य लेकर उतरती है. नतीजों में बीजेपी अपने इस लक्ष्य के आस-पास पहुंच भी जाती है.

लोक सभा चुनाव में हमेशा बीजेपी का दबदबा

लोकसभा चुनाव में प्रदेश की जनता ने तो 2019 में बीजेपी पर जमकर प्यार लुटाया था, जबकि 4 महीने पहले ही विधान सभा चुनाव में प्रदेश के लोगों में बीजेपी को पूरी तरह से नकार दिया था.

आम चुनाव 2019 में बीजेपी प्रदेश की कुल 11 में से 9 सीटों पर जीतने में सफल रही थी. कांग्रेस को महज़ दो सीटें मिली थी. इस चुनाव में बीजेपी को 50.70% वोट मिले. वहीं कांग्रेस को 40.91% वोट मिले. दोनों के बीच वोट शेयर में लगभग 10% का फ़ासला था. विधान सभा चुनाव, 2018 में भी कांग्रेस और बीजेपी के बीच वोट शेयर में 10 फ़ीसदी का ही फ़र्क़ था,लेकिन उस समय कांग्रेस को 10% अधिक वोट मिले थे.

आम चुनाव, 2014 में बीजेपी को 11 में से 10 सीटों पर जीत मिली थी और कांग्रेस को एक सीट ही मिल पाया था. आम चुनाव 2009 और 2004 में भी नतीजे 2014 जैसे ही रहे थे.

प्रदेश में नया चेहरा ढूँढने के क़वा'इद में बीजेपी

छत्तीसगढ़ में बीजेपी के लिए सांगठनिक स्तर पर पिछला पाँच साल चुनौतीपूर्ण रहा है. बीजेपी को 2018 के बाद छत्तीसगढ़ में पांच विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव में भी हार का सामना करना पड़ा था.

2018 में हार के बाद छत्तीसगढ़ में बीजेपी अभी तक 4 प्रदेश अध्यक्ष, एक नेता प्रतिपक्ष और तीन प्रदेश प्रभारी बदल चुकी है. बीजेपी के लिए चिंता की बात ये है कि विधानसभा उपचुनाव, नगरीय निकाय चुनाव, पंचायत चुनाव सभी में छत्तीसगढ़ के लोगों ने बीजेपी को नकारते हुए कांग्रेस पर ही भरोसा जताया था. आगामी चुनाव को देखते हुए ही अरुण साव को बीजेपी ने पिछले साल प्रदेश अध्यक्ष बनाया.

आगामी चुनाव में भूपेश बघेल की छवि का तोड़ निकालना ही बीजेपी के लिए सबसे बड़ी चुनौती है. पिछले 5 साल में भूपेश बघेल ने दिखाया है कि वे पार्टी के भीतर की लड़ाई को अपने पक्ष में साधने में माहिर हैं. साथ ही वे प्रदेश की जनता से भी सीधे जुड़ाव का कोई मौक़ा नहीं छोड़ते हैं.

भूपेश बघेल का तोड़ निकालना आसान नहीं

हालांकि सीधे तौर से कांग्रेस ने चेहरे की घोषणा नहीं की है, लेकिन प्रदेश की जनता में यह संदेश ज़रूर है कि फिर से बहुमत आने पर भूपेश बघेल की दावेदारी ही सबसे ज़्यादा रहेगी. अनौपचारिक तौर से कांग्रेस का चेहरा भूपेश बघेल ही रहेंगे और उनके बर-'अक्स चेहरे की कमी बीजेपी की सबसे बड़ी कमज़ोरी इस चुनाव में साबित हो सकती है. ऐसे तो बीजेपी के पास रमन सिंह जैसा कद्दावर नेता हैं, जो 15 साल  तक प्रदेश सरकार की कमान भी संभाल चुके हैं. हालांकि बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व का जो रवैया पिछले कुछ महीनों से रहा है, उसको देखते हुए कहा जा सकता है कि 70 साल के रमन सिंह की जगह पर पार्टी का ज़ोर नेतृत्व की नई पौध को तैयार करने पर है.

बिना चेहरा बीजेपी की नैया होगी पार!

नए नेतृत्व की पहचान के लिए बीजेपी ने प्रदेश अध्यक्ष और बिलासपुर से सांसद अरुण साव, सरगुजा से सांसद और केंद्रीय मंत्री रेणुका सिंह, रायगढ़ की सांसद गोमती साय को विधान सभा चुनाव लड़ाने का फै़सला किया है. बीजेपी ने जो उम्मीदवारों की सूची जारी की है, उसमें पंचायत निकायों के प्रतिनिधियों का ख़ूब मौक़ा दिया गया है. पार्टी शीर्ष नेतृत्व की यह रणनीति एक प्रकार संकेत है कि भविष्य में पुराने चेहरों की जगह नये चेहरे को ही ज़रूरत पड़ने पर सरकार की कमान सौंपी जायेगी.

बीजेपी ने पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह को राजनांदगांव सीट से फिर से उम्मीदवार बनाया तो ज़रूर है, लेकिन मुख्यमंत्री पद के चेहरे के रूप में किसी को सामने लाए बिना चुनाव लड़ने का फ़ैसला किया है.  बीजेपी चाहती है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता को ही चेहरे के तौर पर पेश किया जाए. हालांकि भूपेश बघेल के सामने बिना किसी स्थानीय चेहरे को आगे कर चुनाव लड़ने के फ़ैसले से बीजेपी को नुक़सान भी उठाना पड़ सकता है. रमन सिंह को छोड़ दिया जाए तो प्रदेश में बीजेपी के पास फ़िलहाल भूपेश बघेल के कद का कोई नेता नहीं दिख रहा है. हालांकि अब रमन सिंह का भी वो प्रभाव नहीं रहा है

प्रदेश में महिला मतदाताओं की संख्या अधिक

छत्तीसगढ़ एक ऐसा राज्य है, जहाँ महिला मतदाताओं की संख्या पुरुष मतदाताओं से ज़्यादा है. यहाँ सेवा मतदाताओं को छोड़कर कुल मतदाता दो करोड़ तीन लाख साठ हज़ार दो सौ चालीस हैं. इनमें पुरुष मतदाताओं की संख्या एक करोड़ एक लाख बीस हज़ार आठ सौ तीस है, जबकि महिला मतदाताओं की संख्या एक करोड़ दो लाख 39 हजार चार सौ दस है. इन आँकड़ो से समझा जा सकता है कि प्रदेश की सत्ता पर कौन सी पार्टी विराजमान होगी, यह बहुत हद तक महिला मतदाताओं के रुख़ पर निर्भर करता है. सेवा मतदाताओं की संख्या 19 हजार 839 है, जिससे कुल मतदाताओं की संख्या दो करोड़ तीन लाख 80 हजार 79 हो जाती है.

छत्तीसगढ़ की राजनीति में महिलाओं की हिस्सेदारी और प्रभाव बाक़ी राज्यों की तुलना में अधिक देखने को मिलता है. विधान सभा चुनाव, 2018 में 90 में 16 सीटों पर महिला उम्मीदवारों की जीत हुई थी. 2013 में यह आँकड़ा 10 और 2008 में 11 रहा था.

हालांकि पिछली बार शराबबंदी के वादे से कांग्रेस को महिला मतदाताओं का भरपूर समर्थन मिला था. लेकिन भूपेश बघेल सरकार इस वादे को अब तक पूरा नहीं कर पायी. अब देखना होगा कि इस बार के चुनाव में महिला मतदाताओं का इस मसले पर क्या रुख़ रहता है. बीजेपी इसे ज़ोर-शोर से मुद्दा भी बना रही है.

नये मतदाताओं पर पार्टियों की नज़र

इस बार छत्तीसगढ़ में क़रीब 18 लाख नये मतदाता हैं. विधानसभा चुनाव, 2018 में कुल मतदाताओं की संख्या एक करोड़ 85 लाख 88 हजार 520 थी. इस तरह से प्रदेश में मतदाताओं की संख्या में 9.5% का इजाफा हुआ है.प्रदेश में 18 से 19 वर्ष आयु वर्ग के मतदाताओं की संख्या सात लाख 23 हजार 771 है. इन आँकड़ों से ज़ाहिर है कि जीत-हार को तय करने में इन नये और युवा मतदाताओं की भूमिका भी महत्वपूर्ण रहने वाली है.

एसटी-एससी समुदाय के समर्थन पर नज़र

छत्तीसगढ़ की 90 में से 51 अनारक्षित है.वहीं  अनुसूचित जनजाति के लिए 29 सीट और अनुसूचित जाति के लिए 10 सीट आरक्षित है. या'नी कुल 39 सीटें एससी-एसटी के लिए आरक्षित है. छतीसगढ़ की आबादी में जनजातीय समुदाय की हिस्सेदारी क़रीब 32% है. इस आधार पर यह भी एक बड़ा फैक्टर है कि छत्तीसगढ़ की सियासत का सिरमौर बनने के लिए एसटी-एससी समुदाय का समर्थन बेहद महत्वपूर्ण और ज़रूरी हो जाता है. पिछली बार कांग्रेस को इन दोनों ही समुदाय से भरपूर समर्थन मिला था.

ओबीसी की आबादी 50 प्रतिशत से ज्यादा

ओबीसी की आबादी 50 प्रतिशत से ज्यादा है. इस वर्ग के वोट को साधने के लिए ही बीजेपी ने जनजाति नेता विष्णु देव साय की जगह अरुण साव को प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी दी. बनाया. कांग्रेस को 2018 के चुनाव में जो प्रचंड जीत मिली थी, उसमें एक कारण ओबीसी पर पार्टी की मज़बूत पकड़ को माना गया था. अरुण साव साहू या तेली समुदाय से आते हैं. छ्तीसगढ़ में यह समुदाय क़रीब 15 फ़ीसदी है. भूपेश बघेल ओबीसी के कुर्मी समुदाय से आते हैं. यहां की आबादी में कुर्मी समुदाय 7 से 8% है. साहू समुदाय के लोग पूरे छत्तीसगढ़ में फैले हुए हैं, जबकि कुर्मी समुदाय के लोगों का प्रभाव ज्यादातर मध्य छत्तीसगढ़ और रायपुर के आस-पास के गांवों में है.

बीजेपी ने पिछले विधान सभा चुनाव में साहू समुदाय से आने वाले 14 उम्मीदवारों को मैदान में उतारा था, लेकिन उनमें से जीत सिर्फ़ को ही मिली थी. माना जाता है कि ओबीसी और ग्रामीण मतदाताओं पर भूपेश बघेल की पकड़ सबसे ज़्यादा है.

छत्तीसगढ़ चुनाव में धर्म परिवर्तन का मुद्दा

छत्तीसगढ़ चुनाव में इस बार धर्म परिवर्तन का मुद्दा भी रहेगा. आदिवासी बहुल इलाकों धर्म परिवर्तन  के मसले पर ईसाई और गैर-ईसाई आदिवासियों के बीच तनाव की स्थिति हमेशा रही है.  विशेषकर बस्तर संभाग से धर्म परिवर्तन को लेकर पिछले दो साल में कई हिंसक घटनाएं सामने आई हैं. दिसंबर 2022 और इस साल की शुरूआत में नारायणपुर-कोंडागांव सीमा क्षेत्र में धर्मांतरण को लेकर हुए विवाद में हिंसा देखने को मिली थी. वहाँ के तत्कालीन एसपी तक को लोगों ने जख्मी कर दिया था.

बस्तर संभाग में आदिवासियों के दो समुदाय के बीच धर्मांतरण को लेकर तनातनी बीच-बीच में हिंसा के रूप में बदलते रही है. बस्तर के 12 सीटों पर धर्मांतरण बड़ा मुद्दा रहेगा. इन सभी सीटों पर पिछली बार कांग्रेस को जीत मिली थी. बीजेपी आरोप लगाते रही है कि आदिवासी इलाकों में बड़े पैमाने पर धर्मांतरण हो रहा है और कांग्रेस इस मामले में चुप्पी साधे हुई है. बीजेपी इस मुद्दे पर भूपेश बघेल सरकार को घेरने की कोशिश कर रही है.

भूपेश बघेल का छत्तीसगढ़िया अस्मिता पर फोकस

कांग्रेस के सामने सत्ता विरोधी लहर की चुनौती ज़रूर है, लेकिन पार्टी को भूपेश बघेल सरकार की कल्याणकारी योजनाओं से इसके नुक़सान को कम करने में मदद मिल सकती है. राजीव गांधी किसान न्याय योजना, राजीव गांधी ग्रामीण भूमिहीन कृषि मजदूर कृषि न्याय योजना, गोधन न्याय योजना जैसी योजनाओं के साथ ही बेरोज़गारी भत्ता और पुरानी पेंशन स्कीम का वादा पूरा करना कांग्रेस के लिए लाभदायक साबित हो सकता है. इसके साथ ही मुख्यमंत्री भूपेश बघेल छत्तीसगढ़ की अस्मिता और पहचान को भी प्रमुखता से मुद्दा बना रहे हैं. वो बार-बार कहते रहे हैं कि रमन सिंह की अगुवाई में बीजेपी सरकार में छत्तीसगढ़ के स्थानीय लोगों को हाशिये पर रखा गया था. पिछले 5 साल में कांग्रेस सरकार क्षेत्रीय त्योहारों, खेल, कला और संस्कृति को बढ़ावा देने की नीति पर भी काम करती दिखी है.

बीजेपी का भ्रष्टाचार और वादाख़िलाफ़ी पर मुख्य ज़ोर

वहीं बीजेपी भूपेश बघेल सरकार को शराब बिक्री, कोयला परिवहन, जिला खनिज फाउंडेशन कोष के उपयोग और लोक सेवा आयोग भर्ती में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर घेरने में जुटी है. बीजेपी धर्मांतरण, सांप्रदायिक हिंसा और झड़पों को लेकर  कांग्रेस पर हिंदू विरोधी होने का आरोप लगा रही है. इससे वोटों का अगर धर्म के आधार पर ध्रुवीकरण हुआ तो कांग्रेस को नुक़सान उठाना पड़ सकता है. बीजेपी छत्तीसगढ़ में शराबबंदी और संविदा कर्मचारियों के नियमितीकरण पर कांग्रेस सरकार के पीछे हटने को भी ज़ोर-शोर से मुद्दा बना रही है.

इसके अलावा आम आदमी पार्टी, बीएसपी और जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ (जे) के साथ ही आदिवासियों के बीच लोकप्रिय सर्व आदिवासी समाज से कांग्रेस के वोट बैंक को कितना नुक़सान पहुंचता है, यह भी एक महत्वपूर्ण फैक्टर इस बार के चुनाव में रहेगा. इन दलों को जितने भी वोट आयेंगे, वो एक तरह से कांग्रेस के वोट में ही सेंधमारी होगी, जिसका सीधा लाभ बीजेपी को मिल सकता है.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.]

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