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बिहार का एजुकेशन बदहाल, शिक्षा विभाग के अपर प्रमुख सचिव कैमरा प्रिय और फुटेज जीवी, जमीनी काम की सख्त जरूरत

इस वक्त पिछले एक-डेढ़ महीने से बिहार में शिक्षा विभाग के जो अपर मुख्य सचिव हैं, वे तूफानी दौरे पर हैं. प्रकट तौर पर उनका उद्देश्य बिहार में उसकी पुरानी गौरवशाली शैक्षिक परंपरा- जो नालंदा, विक्रमशिला और ओदंतपुरी जैसे विश्वविद्यालयों में थी-को वापस लौटा ले आएं. हालांकि, उनकी अदा में हनक है, करतबों में डांट-फटकार और लोकप्रिय होने की खुमारी दिखती है, लेकिन बिहार की शिक्षा लगातार नीचे से नीचे ही जा रही है. जरूरत है, जमीन पर सख्ती से काम करने की, न कि प्रदर्शनप्रियता की. 

बिहार की शिक्षा माने अराजकता

सवाल ये है कि जब स्कूलों के पास अपना इनफ्रास्ट्रक्चर न हो, पर्याप्त शिक्षक न हों, बच्चों का नामांकन न हो, -ये प्राथमिक शिक्षा का नजारा है, अगर उच्च शिक्षा में जाएं तो जो राज्य सरकार जो यूनिवर्सिटी चला रही हैं, हाल ही में यानी 2018 में तीन नए विश्वविद्यालय खुले-पूर्णिया, मुंगेर और पाटलिपुत्र- और ये तीनों यूनिवर्सिटी किराए के मकान में चल रहे हैं. आज से सात-आठ साल पहले पूर्वी चंपारण के मोतिहारी में 'केंद्रीय विश्वविद्यालय' खुला. आज तक इसको जमीन नहीं मिली है. एक छोटा सा कैंपस भले बन गया है. इसके कुलपति जिला स्कूल में बनाए दफ्तर से यहां का निजाम चलाते हैं. इसकी एक पूर्णकालिक इमारत सात वर्षों में बिहार में नहीं बन पायी. इसके कई कारण हैं, कोई एक कारण पिनपॉइंट नहीं कर सकते हैं. बेरोजगारी का ये आलम है कि 24-25 अगस्त को जो बिहार लोकसेवा आयोग ने टीचर्स की परीक्षा ली है, उसमें 10 से 12 लाख परीक्षार्थी बैठे हैं. 

स्कूलों के पास नहीं है जरूरी चीजें 

हाल ही में ज्यां द्रेज के नेतृत्व में एक संस्था ने बिहार के दो जिलों में स्कूल और छात्रों की स्थिति पर सर्वे किया. ये दो जिले कटिहार और किशनगंज है. इसमें पता चला है कि 90 फीसदी स्कूलों के पास बाउंड्री नहीं है, प्लेग्राउंड नहीं है, लाइब्रेरी नहीं है. 9 फीसदी स्कूलों के पास अपनी इमारत तक नहीं है. इन जिलों के स्कूलों ने यह भी बताया कि मिड डे मील का बजट अपर्याप्त है. प्रति विद्यार्थी अगर दैनिक 5 रुपए का बजट औसतन है, तो आप समझ सकते हैं कि बजट कितना और कैसा है? एमडीएम बनानेवाले रसोइयों का कई साल से धरना-प्रदर्शन चल रहा है. कई स्कूलों में टॉयलेट नहीं है. है तो चालू हालत में नहीं है. इन स्कूलों में छात्र और शिक्षक का अनुपात 30ः1 आदर्श माना जाता है, जो 65 फीसदी स्कूलों में नहीं माना जा रहा है. ये सब प्राथमिक स्कूलों की दशा है. कॉलेज में पढ़ानेवाले शिक्षक नहीं हैं. मोतिहारी में जो सबसे बड़ा कॉलेज है, उसमें जो इक्जामिनेशन कंट्रोलर हैं, वह वहां के पीटीआई (खेल-कूद करानेवाले शिक्षक) के भरोसे है. इतनी अराजकता का माहौल मुझे नहीं लगता है कि पूरे देश में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में है. कॉलेज केवल इसलिए हैं कि छात्र-छात्रा नाम लिखाएं, इक्जाम दें और डिग्री ले जाएं. कुल मिलाकर डिग्री लेने-देने की खदान बन गयी है. तकनीकी दिक्कतों की वजह से स्टूडेंट्स जब अपना सर्टिफिकेट लेने आ रहे हैं, तो उसमें भी उन्हें कई जगह ठोकरें खानी पड़ती हैं. 

कैमराप्रिय बनने से नहीं बनेगा काम

अभी के जो अपर मुख्य सचिव हैं, के के पाठक, वे फिलहाल कैमरा और प्रदर्शनप्रिय अधिक दिखते हैं. उनको देखकर यूपी के उस कलक्टर की याद आती है, जो कैमरामैन लेकर जाती थीं और अधिकारियों को डांटती-फटकारती थींं. जैसा दिल्ली में पूर्व शिक्षामंत्री सिसोदिया और वर्तमान मंत्री आतिशी मार्लेना करते हैं. आतिशी तो तब भी करती थीं, जब वह शिक्षा मंत्री की सलाहकार थीं. इन सभी मामलों में सभी लोगों को कैमरे की ऐसी बीमारी है कि वे बाकायदा लाव-लश्कर लेकर जाते हैं और अधिकारियों को फटकारते हैं. पाठकजी भूल जाते हैं कि भारत "बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो बताए" वाला देश है. गुर यहां भगवान माने जाते हैं और के के पाठक एक शिक्षक को अपमानित कर रहे हैं, 'मोटा कहीं का', 'इडियट' बुलाकर! इससे वो खौफ भले पैदा कर लें, जमीनी सुधार तो होने से रहा. जिस दिन वह सचिव नहीं रहेंगे, उस दिन के बारे में वह सोचें. वह छपास और दिखास के लिए कुछ काम कर लें भले, लेकिन स्थायी उपाय यह नहीं है. यह सिस्टम ठीक करने की प्रक्रिया नहीं है. 

समाधान के लिए चाहिए ईमानदारी

इन सबका कोई एक पंक्ति का समाधान नहीं हो सकता है. बिहार बहुत बड़ा राज्य है. जनसंख्या है, गरीबी है, सामजिक संरचना बहुत अलग है. उसी रिपोर्ट की बात फिर से याद करें, जो पहले पैरे में कही गयी है. सरकारी स्कूलों में उनके मुताबिक 90 फीसदी बच्चे दलित समुदाय के आते हैं. अगर उस समुदाय का आप भला चाहते हैं, तो आपको सरकारी स्कूलों को ठीक करना होगा. यहां हजारों प्राथमिक विद्यालय हैं, तो आपको कई स्तरों पर काम करना होगा. फिलहाल, एक लाख 70 हजार शिक्षकों की भर्ती की प्रक्रिया चल रही है. इसी के साथ हम सुन रहे हैं कि इसके तुरंत बाद डेढ़ लाख शिक्षकों की वैकेंसी लोकसभा चुनाव से पहले सरकार और निकाल सकती है. ये तो फिर सरकार की स्वीकारोक्ति हुई न कि राज्य में तीन-चार लाख शिक्षकों की कमी है. जहां आपके पास इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं है, शिक्षक नहीं हैं, तो फिर आप कैसे करेंगे, सुधार? यहां तो सुधार का यही तरीका है कि सबसे पहले आप स्वीकार करें कि आपमें बेशुमार कमियां हैं. सबसे पहले तो स्कूल और शिक्षकों की कमी स्वीकारें, उसको सुधारें तब तो आगे की बात करेंगे. स्कूल होगा तो उसकी बिल्डिंग सुधारेंगे, ठीक करेंगे. शिक्षक होंगे, तो उनको बढ़िया ट्रेनिंग देकर सुधार देंगे. बिहार में बहुत अच्छे शिक्षक हैं भी. बस, उनको चुनने और सिस्टम में लाने की बात है, सरकार ईमानदार हो, आंकड़ेबाजी न करे, यही एकमात्र उपाय है. 

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.] 

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