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Independence Day 2021: सरकारी उदासीनता का दंश झेल रहा शहीद सतीश चंद्र झा का परिवार, अब तक नहीं मिली कोई मदद

महेश्वरी ने बताया कि राष्ट्रीय पर्व हो या शहादत दिवस सतीश के स्मारक पर प्रशासन की ओर से माल्यार्पण तो किया जाता है, लेकिन इसमें स्वजनों को शामिल नहीं किया जाता है.

Independence Day 2021: आज हम देश की आजादी का 75वां वर्षगांठ मना रहा हैं. मगर देश की आजादी हमें ऐसे ही नहीं मिली है. आजादी के लिए सैकड़ों स्वतंत्रता सेनानियों ने अपनी गंवाई है. तब जाकर हम आज आजाद देश में सांस ले रहे हैं. आज हम कहानी बताने जा रहे हैं आजादी के ऐसे ही एक दीवाने की, जिसने जान की परवाह किए बिना अंग्रेजों को चुनौती दी और देश के लिए शहीद हो गए. 

बात साल 1942 की है, इस साल 9 अगस्त को महात्मा गांधी की अगुवाई में अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत हुई थी. इसी आंदोलन को सफल बनाने के लिए 11 अगस्त, 1942 को पटना के सचिवालय में तिरंगा फहराने के दौरान अंग्रेजों के गोली से बारी-बारी से सात क्रांतिकारी शहीद हुए थे. इन शहीदों में एक थे सतीश चन्द्र झा.

खड़हरा गांव के रहने वाले थे शहीद सतीश

शहीद सतीश चन्द्र झा का जन्म 25 जनवरी, 1925 को बांका जिला के बाराहाट प्रखंड के खड़हरा गांव में हुआ था. उनके पिता का नाम जगदीश चन्द्र झा और माता का नाम त्रिपुरा देवी था. शहीद के पिता जगदीश चंद्र झा शिक्षा सेवा से जुड़े थे. सतीश को उच्च शिक्षा दिलाने के उद्देश्य से उनके पिता अपने साथ पटना ले गए थे. शहीद सतीश बचपन से ही मेधावी छात्र होने के साथ-साथ कुसाग्र बुद्धि के थे.

वे अपने माता-पिता के दो पुत्रों में बड़े पुत्र थे. उनके छोटे भाई गोपीकांत चन्द्र झा जो अब इस दुनिया में नहीं हैं. शहीद सतीश के भतीजे सहित अन्य परिजन खड़हरा गांव स्थित पैतृक घर में ही रहते हैं, लेकिन उनके परिजनों की हालत अच्छी नहीं है. देश आज आजादी के 75वीं वर्षगांठ के जश्न में डूबा हुआ है, मगर देश की आजादी की लड़ाई में अपने साहस व पौरूष के बल पर वीरगति पाने वाले शहीद के परिजनों की सुध लेने वाला कोई नहीं है.

सचिवालय पर तिरंगा फहराने के दौरान हुए थे शहीद

9 अगस्त 1942 को अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन के तहत अंग्रेजों को विवश कर भारत छोड़ने के लिए एक सामूहिक नागरिक अवज्ञा आंदोलन करो या मरो की अभी शुरुआत ही हुई थी. इसी दौरान पटना में एक बहुत बड़ी घटना घटी, जो देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया केेेे लिए इतिहास बन गया. 11 अगस्त को अहले सुबह सचिवालय पर झंडा फहराने के लिए क्रांतिकारियों का एक कारवां निकल पड़ा. 

बिहार के सात युवा छात्रों का दल देशभक्ति के जज्बे के साथ पटना सचिवालय में तिरंगा फहराने को अपना लक्ष्य मानकर आगे बढ़ रहा था. मिलर हाई स्कूल के नौवीं के छात्र देवीपद चौधरी तिरंगा थामे आगे बढ़ रहे थे. इसी बीच अंग्रेजी हुकूमत की पुलिस ने उनके ऊपर गोली चला दी. उसके बाद झंडा राय गोविंद सिंह ने थाम लिया. अंग्रेजों ने उन्हें भी गोली मार दी, लेकिन देशभक्ति का यह कारवां जोश और उत्साह से भरा हुआ था, जो रुकने का नाम नहीं ले रहा था. राय गोविंद सिंह को गोली लगने के बाद रामानंद सिंह, राजेंद्र सिंह, जगपति कुमार ने तिरंगा थाम लिया और बढ़ते चले गए. 

जगपति को गोली लगने के बाद पटना कॉलेजिएट के छात्र सतीश चंद्र झा ने झंडा उठा लिया और तेजी से आगे बढ़ने लगे, लेकिन जुल्मी अंग्रेजों ने इन पर भी गोली दाग दी. इस क्रम में छह लोगों के शहीद होने के बाद अंत में उमाकांत सिंह ने तिरंगा उनके हाथ से ले लिया. उमाकांत सिंह को भी गोली लगी, लेकिन तब तक देश का आन-बान और शान तिरंगा झंडा पटना सचिवालय पर शान से लहरा चुका था.

परिजनों को अब तक नहीं मिली कोई सरकारी मदद

शहीद सतीश की शहादत को 79 वर्ष हो चुके हैं और आज देश आजादी के 75वें वर्ष के जश्न में डूबा हुआ है, मगर उनके परिवार को आज तक सरकार की ओर से कोई मदद नहीं मिल पाई है. खड़हारा में रह रहे उनके भाई स्व. गोपी कांत झा की पत्नी सुभद्रा देवी और उनका छोटा पुत्र माहेश्वरी झा काफी गरीबी में जीवन गुजार रहे हैं. महेश्वरी ने बताया कि राष्ट्रीय पर्व हो या शहादत दिवस सतीश के स्मारक पर प्रशासन की ओर से माल्यार्पण तो किया जाता है, लेकिन इसमें स्वजनों को शामिल नहीं किया जाता है. अभी शहीद सतीश की निशानी के तौर पर उनके पास महज 11 अगस्त 1997 को बिहार विधानसभा के तत्कालीन अध्यक्ष देवनारायण यादव द्वारा दिए गए सात शहीद के स्मारक चिन्ह बचे हैं.

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