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कहानी भारत के उन नेताओं की जो बने रहे 'पीएम इन वेटिंग', जानिए कैसे चलता है सत्ता का खेल

भारतीय राजनीति में उन नेताओं का भी अहम स्थान जिनके पास प्रधानमंत्री की कुर्सी आते-आते रह गई. इसमें कुछ नेता ऐसे भी हैं जो चाहते तो प्रधानमंत्री बन सकते थे लेकिन उन्होंने खुद ही इनकार कर दिया.

लोकसभा चुनाव 2024 को लेकर सभी राजनीतिक दलों की कवायद शुरू हो गई है. बीजेपी जहां अपने मजबूत संगठन, आरएसएस और पीएम मोदी के चेहरे के साथ चुनाव की तैयारियों में जुटी है तो दूसरी ओर विपक्षी अभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने एक मजबूत चेहरा उतराने की कोशिश में है. 

बिहार के घटनाक्रम के बाद सीएम नीतीश कुमार का नाम इस लिस्ट में सबसे आगे चल रहा है. नीतीश कुमार यूपी-बिहार की 120 सीटों में उलझे जातीय समीकरणों के बीच सबसे एक अहम ओबीसी चेहरा हैं. बिहार में वो कुर्मी चेहरे के तौर देखे जाते हैं और यूपी में कुर्मी एक प्रभावशाली ओबीसी जाति है जो अभी तक बीजेपी के साथ हैं. इसी तरह टीएमसी नेता ममता बनर्जी भी खुद को कांग्रेस से अलग केंद्र में स्थापित करने की कोशिश में हैं.

साल 2019 के लोकसभा चुनाव में तो उन्होंने बीजेपी विरोध का जिम्मा कांग्रेस कहीं अधिक मुखर तरीके से उठा रखा था.  इसी तरह चंद्रबाबू नायडू भी खुद को पीएम पद का उम्मीदवार मानते हुए इस चुनाव में सक्रियता दिखाई थी. 

भारतीय राजनीति के इतिहास में अगर नजर डालें तो पहले भी कई नेता थे जो पीएम मटेरियल यानी प्रधानमंत्री पद के दावेदार के तौर पर देखे गए लेकिन कुछ खुद ही रेस से अलग हो गए या कुछ सत्ता के खेल में हार गए. 

लेकिन कुछ नेता ऐसे भी रहे हैं जिनका नाम अचानक ही सामने आया और प्रधानमंत्री भी बने. हमको बताएंगे कहानी उन नेताओं की जो प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गए और इनके नाम के साथ 'पीएम इन वेटिंग' हमेशा के लिए जुड़ गया. 

गुलजारी नंदा, प्रधानमंत्री नहीं, कार्यवाहक प्रधानमंत्री
कांग्रेस के नेता गुलजारी नंदा ने देश का पहला चुनाव लड़ा था. मुंबई सीट से जीतकर आए गुलजारी नंदा भारत की पहली सरकार में मंत्री बने और इसके बाद 1957 में हुए चुनाव में दोबार जीते और फिर मंत्री बनाए गए. उनको एक बार योजना आयोग का उपाध्यक्ष भी बनाया गया.

गुलजारी नंदा भारत के दो बार कार्यवाहक प्रधानमंत्री बनाए गए. पहली बार जब देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू का निधन हुआ. गुलजारी नंदा 13 दिन तक कार्यवाहक प्रधानमंत्री रहे. उसके बाद दूसरी बार लाल बहादुर शास्त्री के आकस्मात मौत के बाद. इस बार भी वो देश के 13 दिन तक कार्यवाहक प्रधानमंत्री रहें.

के कामराज, पीएम नहीं 'किंगमेकर' बने
के कामराज कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे. वो तमिलनाडु के 9 सालों तक सीएम भी रहे. के कामराज एक जमीनी नेता थे. मिड डे मील जैसी योजना की शुरुआत उन्होंने 1954 में सीएम बनने के बाद शुरू की थी.

उनको भारतीय राजनीति का पहला किंग मेकर' भी कहा जाता है. पंडित नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री के निधन के बाद दो बार मौका आया कि के कामराज प्रधानमंत्री बन सकते थे. लेकिन उन्होंने इस ये जिम्मेदारी संभालने की जिम्मेदारी खुद ही मना कर दिया.

हालांकि पार्टी के सभी बड़े नेता उनको पीएम मटेरियल मानते थे. लेकिन उन्होंने ये कहकर मना कर दिया कि न उनको अंग्रेजी आती है और न हिंदी. के कामराज को किंगमेकर इसलिए भी कहा जाता है कि क्योंकि उन्होंने ही लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी को पीएम बनाने में बड़ी भूमिका निभाई थी.

बाबू जगजीवन राम बन सकते थे देश के पहले दलित पीएम
बाबू जगजीवन राम देश के ऐसे नेता थे जो पहले चुनाव से ही जीतकर संसद पहुंचते रहे हैं. लेकिन इमरजेंसी के बाद कांग्रेस से उनका मोहभंग हो गया. 1977 में हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस बुरी तरह से हार गई और जनता पार्टी को बहुमत मिल गया.

लेकिन समस्या ये आई कि प्रधानमंत्री पद किसे दिया जाए. तीन नेता दावेदार थे जिनमें मोरार जी देसाई, चौधरी चरण सिंह और बाबू जगजीवन राम. लेकिन जनता पार्टी के अंदर के समीकरण टकरा रहे थे. 

जनता पार्टी में शामिल जनसंघ के सबसे ज्यादा 93 सांसद चुनकर आए थे. लेकिन इस पार्टी के नेताओं ने खुद को प्रधानमंत्री की दावेदारी से दूर रखा था. इसके बाद चौधरी चरण सिंह की पार्टी भारतीय क्रांति दल के 71 और बाबू जगजीवन राम की पार्टी कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी के 28 और सोशलिस्ट पार्टी के 28 सांसद थे. 

सोशलिस्ट पार्टी के नेता जॉर्ज फर्नांडीज और मधु दंडवते के साथ ही जनसंघ बाबू जगजीवन राम को प्रधानमंत्री बनाने के पक्ष में थी. बाबू जगजीवन राम के तौर पर देश को पहला दलित प्रधानमंत्री मिलने ही वाला था लेकिन जनता पार्टी में आखिरी सहमति मोरार जी देसाई के नाम पर बन गई.

बाबू जगजीवन राम को उप प्रधानमंत्री बनाया गया. कहा तो ये भी जाता है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट के इंदिरा गांधी की लोकसभा सदस्यता पर आए फैसले के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री ने जगजीवन राम से अगला प्रधानमंत्री बनने की भी बात कही थी. लेकिन बाद में इंदिरा और जगजीवन राम में मतभेदों की गहरी खाई हो गई.

देवीलाल ने जब कहा- मैं ताऊ बन रहना चाहता हूं...
1989 के आम चुनाव के बाद संयुक्त मोर्चा के संसदीय दल की बैठक चल रही थी. वीपी सिंह ने प्रधानमंत्री पद के लिए चौधरी देवीलाल के नाम का प्रस्ताव रखा. चंद्रशेखर ने उसका समर्थन किया. चौधरी देवीलाल के सामने प्रधानमंत्री की कुर्सी थी.

लेकिन उसी बैठक में देवीलाल खड़े हुए बोले, ' ‘मैं सबसे बुजुर्ग हूं, मुझे सब ताऊ बुलाते हैं. मुझे ताऊ बने रहना ही पसंद है और मैं ये पद विश्वनाथ प्रताप सिंह को सौंपता हूं.’ हालांकि उनके इस फैसले के वजह आज तक साफ नहीं हुई है.

लेकिन कुछ जानकार कहते हैं कि वीपी सिंह और देवीलाल के बीच गुप्त समझौता हुआ था जिसकी भनक चंद्रशेखर को नहीं लग पाई जो वीपी सिंह को प्रधानमंत्री बनाने के खिलाफ थे.

ज्योति बसु, एक कम्युनिस्ट नेता जो पार्टी की वजह से नहीं बन पाया प्रधानमंत्री
1996 में अटल बिहारी वाजपेयी ने सदन में बहुमत साबित करने से पहले इस्तीफा दे दिया था. इधर तीसरा मोर्चा बनाने की कवायद तेज हो गई. (हालांकि आज तक कभी तीसरा मोर्चा बन नहीं पाया).

जनता दल जिसके अध्यक्ष उस समय लालू यादव थे, और उस चुनाव में तीसरा सबसे बड़ा दल था उसके साथ कई दूसरी पार्टियां भी साथ आने लगी थीं. सीपीएम नेता हरिकिशन सुरजीत को कांग्रेस की ओर से संकेत मिल रहे थे कि अगर तीसरे मोर्चे की सरकार बनती है तो वो समर्थन देगी.

सुरजीत ने इसके साथ ही तेलगूदेसम, सपा, तमिल मनीला कांग्रेस, द्रमुक, असम गणपरिषद और 13 वामपंथियों के साथ मिलाकर राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा से मुलाकात की और सरकार बनाने का दावा पेश किया. राष्ट्रपति ने संसदीय दल का नेता चुनने और कांग्रेस के समर्थन की चिट्ठी लाने का आदेश दिया.

इसके बाद इस पद के लिए पहला नाम वीपी सिंह का आया लेकिन उन्होंने इनकार दिया. इसके बाद पश्चिम बंगाल में लोकप्रिय नेता ज्योति बसु के नाम पर सहमति बन गई. ज्योति बसु की पार्टी सीपीएम की केंद्रीय समिति की बैठक में इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया गया.

समिति का कहना था कि सरकार बनेगी तो उन्हें उसी पूंजीवादी और भूमंडलीकरण को लागू करना पड़ेगा जिसका वे लोग अब तक विरोध करते हैं. वामदलों के सिर्फ 40 सांसदों को लेकर अपने सिद्धांतों पर सरकार नहीं चला सकते हैं. और इस तरह से ज्योति बसु प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गए. 

लालू यादव ने नहीं बनने दिया मुलायम सिंह यादव को पीएम
ज्योति बसु का नाम उनकी ही पार्टी की ओर से खारिज होने के बाद दो नेताओं के नाम तेजी से सामने आए जिसमें मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव थे. लेकिन चारा घोटाले में नाम होने की वजह से लालू का नाम आगे नहीं बढ़ पाया.

लेकिन मुलायम पर इस तरह कोई आरोप नहीं था. मुलायम का नाम वामपंथी नेता हरिकिशन सुरजीत आगे बढ़ा रहे थे. लेकिन मुलायम सिंह का नाम भी आगे नहीं बढ़ पाया. मुलायम सिंह यादव को आज भी मलाल है कि लालू यादव और शरद यादव ने उनका इस पद के लिए समर्थन नहीं किया.  लेकिन लालू प्रसाद यादव ने उनके आरोप से साफ इनकार किया कि और एबीपी न्यूज के कार्यक्रम में कहा कि उनको कौन प्रधानमंत्री बना रहा था.

मुलायम सिंह यादव की जीवनी लिखने वाले पत्रकार फ्रैंक हूजूर ने अपनी किताब 'द सोशलिस्ट में मुलायम सिंह यादव के शब्दों में लिखा, ' देवेगौड़ा प्रधानमंत्री बने. मैं भी बन सकता था. सारा खेल लालू यादव ने बिगाड़ा. वीपी सिंह की शह पर लालू और शरद यादव ने साजिश की. जब मेरे नाम पर आम सहमति बन गई थी तो लालू पलट गए और कहा कि अगर मुलायम सिंह यादव प्रधानमंत्री बने तो जहर खा लूंगा. हालांकि एबीपी न्यूज के कार्यक्रम में लालू इन आरोपों से साफ इनकार कर दिया. 

1997 में एचडी देवेगौड़ा की सरकार से कांग्रेस ने समर्थन वापस ले लिया था. तीसरा मोर्चा प्रधानमंत्री के लिए नए नेता की तलाश में था. तीसरे मोर्चे मुलायम सिंह यादव के नाम पर सहमति थी. मुलायम सिंह यादव का नाम वामपंथी नेता हरिकिशन सुरजीत ने आगे बढ़ाया. 

फ्रैंक हुजूर किताब द सोशलिस्ट में दावा करते हैं कि सुरजीत ने संयुक्त मोर्चे में मुलायम के नाम पर आम राय बना ली थी. यहां तक कि राष्ट्रपति भवन को भी सूचना दे दी गई थी. लेकिन इस बीच हरिकिशन सिंह सुरजीत को रूस जाना पड़ गया.

पूर्व सपा नेता और मुलायम सिंह यादव के कभी बेहद खास रहे अमर सिंह ने एबीपी न्यूज पर दावा किया था कि अगर चंद्रबाबू नायडू, लालू प्रसाद यादव और शरद यादव ने विरोध न किया होता तो मुलायम सिंह यादव को सिर्फ शपथ लेना बाकी रह गया था.

लालकृष्ण आडवाणी सबसे चर्चित 'पीएम इन वेटिंग'
जनसंघ से लेकर बीजेपी की स्थापना तक कांग्रेस के विरोध में जो दो नेता पोस्टर ब्वॉय बने में उनमें अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी दो प्रमुख नेता हुए. 50 सालों की राजनीति में दो नेताओं के नाम जैसे एक हो गए थे अटल-आडवाणी. अटल जहां अपनी भाषण शैली और उदार चरित्र की वजह से जाने जाते थे तो आडवाणी को संगठनकर्ता और हिंदुत्व की विचारधारा के प्रति उनका कट्टर झुकाव को लेकर.

सोमनाथ से अयोध्या की रथयात्रा आडवाणी का ही फैसला था जिसने बीजेपी को उत्तर भारत में घर-घर तक पहुंचा दिया. आडवाणी संघ और पार्टी की नजर में बड़ा चेहरा बन चुके थे और पीएम पद के दावेदार भी.

लेकिन 1996 में उनका नाम जैन हवाला डायरी में आ गया. आडवाणी ने लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया और ऐलान किया जब तक बरी नहीं हो जाएंगे संसद नहीं आएंगे. आडवाणी को पता था कि इस बार वह लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ पाएंगे और उन्होंने बीजेपी के सम्मेलन में प्रधानमंत्री पद के लिए अटल बिहारी वाजपेयी के नाम का ऐलान कर दिया.

इसके बाद उनको इस पद के लिए उनको सीधे मौका मिला साल 2009 में. जब बीजेपी ने उनको आगे कर लोकसभा चुनाव लड़ा. लेकिन उसके पहले आडवाणी एक बड़ी चूक कर चुके थे. पाकिस्तान यात्रा में उन्होंने जिन्ना की मजार पर जाकर उनको सबसे बड़ा सेक्युलर बता दिया.

उनके इस बयान पर भारत में जमकर विरोध हुआ और आरएसएस भी उनसे नाराज हो गया. बताया जाता है कि उनका यह बयान साल 2009 में बीजेपी की हार कारण बना. हालांकि बीजेपी के हारने में मनमोहन सिंह की मनरेगा जैसी योजना और कर्जमाफी भी बड़ी वजह थी.  

इसके बाद बीजेपी में साल नरेंद्र मोदी का जैसे चेहरे का उदय हुआ. आडवाणी सहित तमाम बड़े नेताओं को मार्गदर्शक मंडल में भेज दिया गया.


सोनिया गांधी भी नहीं बन पाई प्रधानमंत्री
साल 2004 में कांग्रेस ने सोनिया गांधी की अगुवाई में लोकसभा का चुनाव लड़ा. इस चुनाव में वाजपेयी की सरकार हार गई. सोनिया गांधी का नाम प्रधानमंत्री पद के लिए एकदम तय था. लेकिन सुषमा स्वराज और उमा भारती नेता सोनिया के विदेशी मूल होने का मुद्दा उठा दिया.

हालांकि सोनिया ने काफी पहले ही भारत की नागरिकता हासिल कर ली थी. उनके प्रधानमंत्री बनने में कानूनी रूप से कहीं कोई दिक्कत नहीं थी. लेकिन ऐन मौके पर उन्होंने पीएम पद के लिए मनमोहन सिंह का नाम आगे आगे कर दिया. मनमोहन सिंह देश के 10 सालों तक प्रधानमंत्री रहे. हालांकि विपक्षी आरोप लगाते है कि सोनिया गांधी 'सुपर पीएम' के तौर सरकार के कामकाज में हस्तक्षेप करती थीं.

हालांकि पीएम इन वेटिंग की लिस्ट में अभी कई और नेता हैं जिनका नाम शामिल है लेकिन वो राजनीति में अभी सक्रिय हैं और अपनी किस्मत पलटने का इंतजार कर रहे हैं.
 

 

About the author मानस मिश्र

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