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'किसका इंतजार कर रहे हैं, खुद दें पीड़ितों को मुआवजा', भोपाल गैस त्रासदी पर सुप्रीम कोर्ट की सरकार को फटकार

सरकार ने अपनी 2010 की याचिका के माध्यम से मई 1989 के फैसले और सुप्रीम कोर्ट के 1991 के आदेश पर पुनर्विचार की मांग करते हुए तर्क दिया कि 1989 का समझौता पूरी तरह से अपर्याप्त था.

Supreme Court On Bhopal Gas Tragedy: सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को भोपाल गैस आपदा से जुड़ी एक याचिका पर सुनवाई की. कोर्ट ने केंद्र सरकार से कहा कि क्यूरेटिव पिटीशन को मुकदमे या "समीक्षा की समीक्षा" याचिका के रूप में नहीं लिया जा सकता है. कोर्ट ने केंद्र सरकार से ये भी पूछा कि सरकार 1984 के गैस आपदा पीड़ितों को भुगतान के लिए यूनियन कार्बाइड का इंतजार क्यों कर रहा है? कोर्ट ने कहा कि सरकार को खुद मुआवजा देने के लिए आगे आना चाहिए था.

जस्टिस संजय किशन कौल की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी से कहा, "किसी और की जेब में झांकना और पैसे निकालना बहुत आसान है. अपनी खुद की जेब में झांको और पैसा दो और फिर देखो कि क्या आप उनकी (यूनियन कार्बाइड की) जेब में देख सकते हो या नहीं... अगर एक कल्याणकारी समाज के रूप में आप (सरकार) इतने चिंतित हैं तो आपको अधिक भुगतान करना चाहिए था."

क्यों दायर की गई क्यूरेटिव पिटीशन?

संविधान पीठ की बेंच में जस्टिस संजीव खन्ना, एएस ओका, विक्रम नाथ और जेके माहेश्वरी भी शामिल थे. उन्होंने 2010 में केंद्र की क्यूरेटिव पिटीशन पर सुनवाई जारी रखी, जिसमें पीड़ितों के लिए 7,400 करोड़ रुपये से अधिक के अतिरिक्त मुआवजे की मांग की गई थी. विधि अधिकारी ने कहा कि क्यूरेटिव पिटीशन में अधिकार क्षेत्र का दायरा बेहद सीमित है और सरकार अदालत से पूरे मामले को फिर से खोलने की उम्मीद नहीं कर सकती है.

'सरकार ने वही किया जो सही था'

विधि अधिकारी ने वेंकटरमणी से पूछा, "हम काल्पिनक दुनिया में नहीं रहते...सरकार ने वही किया जो उसने सोचा कि उस समय लोगों के लिए सबसे अच्छा था जिन्हें सहायता की आवश्यकता थी. यह बदनामी नहीं बल्कि श्रेय है कि उन्होंने लोगों को तुरंत राहत पहुंचाने के लिए कुछ किया... हर विवाद या त्रासदी को कभी न कभी बंद करना ही पड़ता है. उस समय (1989) एक पुनर्विचार याचिका भी लाई गई जो 1991 में समाप्त हो गई. अब क्या हम बार-बार वही घाव खोल सकते हैं?"

एजी ने अपनी ओर से पीठ को त्रासदी की भयावहता पर ध्यान केंद्रित करने के लिए राजी करने की कोशिश की. एजी ने कोर्ट से कहा कि क्या सरकार 7,400 करोड़ रुपये से अधिक की समझौता राशि पर सहमत होने के बाद रासायनिक कंपनी से अतिरिक्त मुआवजे के उपाय की मांग कर सकती है. 

सरकार ने कहा- समझौता पूरी तरह से अपर्याप्त था

बता दें कि अपनी 2010 की याचिका के माध्यम से सरकार ने मई 1989 के फैसले और सुप्रीम कोर्ट के 1991 के आदेश पर पुनर्विचार की मांग करते हुए तर्क दिया कि 1989 का समझौता पूरी तरह से अपर्याप्त था. कंपनी को 2-3 दिसंबर, 1984 की दरमियानी रात 5,000 से अधिक लोगों की जान जाने के लिए जवाबदेह ठहराया गया था. अदालत में सरकार ने बताया कि 5,295 लोगों की मौत हुई थी और पीड़ितों की संख्या 40 हजार से ज्यादा थी.

एजी की दलीलों पर पीठ ने जवाब दिया, "कोई भी मामले की विशालता पर सवाल नहीं उठाता. लोगों को तकलीफ हुई यह एक सच्चाई है और हमें उनके प्रति पूरी सहानुभूति है, लेकिन हमें कानून के मुताबिक फैसला करना होगा... इसलिए हमें यह देखना चाहिए कि हम किस अधिकार क्षेत्र के तहत इसकी सुनवाई कर रहे हैं."

पीठ ने आगे कहा, "हम चमकते कवच में शूरवीर नहीं हो सकते ... संभव नहीं है. हम कानून से विवश हैं. बेशक, हमारे पास अनुच्छेद  142 के तहत कुछ छूट हैं, लेकिन हम यह नहीं कह सकते कि हम एक मूल मुकदमे के क्षेत्राधिकार के आधार पर एक क्यूरेटिव पिटीशन तय करेंगे... निश्चित रूप से नहीं."

सुनवाई जारी, फैसला सुरक्षित

गौरतलब है कि संविधान पीठ गुरुवार को मामले की सुनवाई जारी रखेगी. यूनियन कार्बाइड का प्रतिनिधित्व वरिष्ठ वकील हरीश साल्वे और सिद्धार्थ लूथरा ने किया. इस मामले में दुआ एसोसिएट्स के वकील शिराज पटोदिया भी गुरुवार को बहस करेंगे. पीठ ने अपना फैसला अभी सुरक्षित रख लिया है.

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