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Sharad Yadav: राजीव गांधी के खिलाफ चुनाव से लेकर दिल्ली वाले बंगले तक, शरद यादव की राजनीति के वो किस्से जो हमेशा रहेंगे जिंदा

Sharad Yadav Life: सिर्फ 27 साल की उम्र में ही शरद यादव ने राष्ट्रीय राजनीति में कदम रख दिया था. 4 दशक तक वे केंद्रीय राजनीति के हर छोटे-बड़े फैसलों के गवाह रहे.

Sharad Yadav Political Life: भारतीय राजनीति के माहिर खिलाड़ी और समाजवादी आंदोलन के मज़बूत स्तंभ  शरद यादव अब हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनके जीवन और राजनीति से जुड़ी कहानियां हमेशा ही जिंदा रहेंगी. मध्य प्रदेश का मूल बाशिंदा होने के बावजूद उनकी राजनीति का केंद्र बिन्दु बिहार और उत्तर प्रदेश रहा. शरद यादव दशकों तक राष्ट्रीय राजनीति की दशा-दिशा तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे. विश्वनाथ प्रताप सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी सरकारों में मंत्री रहे शरद यादव खराब सेहत के कारण पिछले कुछ वक्त से राजनीति में बहुत सक्रिय नहीं थे. 
  
देश के प्रमुख समाजवादी नेताओं में शुमार रहे शरद यादव का जन्म एक जुलाई 1947 को मध्य प्रदेश में होशंगाबाद जिले के बाबई गांव में हुआ था. जबलपुर इंजीनियरिंग कॉलेज से गोल्ड मेडलिस्ट शरद यादव राम मनोहर लोहिया से प्रेरित होकर कॉलेज जीवन से ही छात्र राजनीति में बढ़-चढ़कर भाग ले रहे थे. 

कांग्रेस के खिलाफ मोर्चे के साथ सियासी सफर शुरू

शरद यादव का राजनीतिक सफर कांग्रेस के खिलाफ मोर्चा खोलने के साथ हुई थी. 1970 के दशक में शुरू हुई उनकी राजनीति ने बाद में राष्ट्रीय पटल पर अमिट छाप छोड़ी. शरद यादव सात बार लोकसभा सदस्य रहे और तीन बार राज्यसभा सांसद बने. 

'लल्लू को न जगदर को, मुहर लगेगी हलधर को'

राष्ट्रीय पटल पर जब शरद यादव ने पहला चुनाव लड़ा, तो उस वक्त उनकी उम्र महज़ 27 साल थी. ये वो वक्त था, जब जेपी आंदोलन अपने चरम पर था.  शरद यादव 1974 में लोकसभा उपचुनाव में जबलपुर सीट से भारतीय लोक दल के उम्मीदवार बने. वे जयप्रकाश नारायण के पसंदीदा उम्मीदवार थे. हलधर किसान चुनाव चिन्ह के साथ पहली बार सियासत की पिच पर उतरे शरद यादव ने कांग्रेस उम्मीदवार जगदीश नारायण अवस्थी को मात दी. ये चुनाव उन्होंने जेल से लड़ा था. इसमें एक नारे 'लल्लू को न जगदर को, मुहर लगेगी हलधर को' ने उनके पक्ष में माहौल बनाने में बड़ी भूमिका निभाई. उपचुनाव में मिली इस जीत के साथ ही शरद यादव तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के खिलाफ विपक्ष की लड़ाई के प्रतीक बन गए. 1975 में आपातकाल लगा दिया गया. 1977 में वे जबलपुर लोकसभा सीट से ही दोबारा सांसद बने. इसके साथ ही जेपी आंदोलन और आपातकाल विरोधी आंदोलन से उभरे नेता के तौर पर उनकी साख और मजबूत हो गई. अगले 4 दशक तक उनकी ये छवि बरकरार रही. 

बिहार को बनाया राजनीतिक कर्मभूमि

भले ही शरद यादव का जन्म मध्य प्रदेश में हुआ था. उनकी राजनीतिक यात्रा भी मध्य प्रदेश से शुरू हुई थी, लेकिन उन्होंने सही मायने में बिहार को अपनी राजनीतिक कर्मभूमि बनाई. इस बीच 1984 में वे चौधरी चरण सिंह गुट के उम्मीदवार के तौर पर यूपी के बदायूं से चुनाव लड़े, लेकिन इंदिरा गांधी की हत्या के बाद प्रचंड कांग्रेस लहर में वे चुनाव हार गए. 1989 के आम चुनाव में उन्होंने जनता दल उम्मीदवार के तौर पर उत्तर प्रदेश के बदायूं लोकसभा सीट से जीत दर्ज की. 1991 वो साल था, जब शरद यादव ने बिहार को स्थायी रूप से अपना राजनीतिक ठिकाना बना लिया. इस साल हुए आम चुनाव में शरद यादव जनता दल उम्मीदवार के तौर पर बिहार के मधेपुरा लोकसभा सीट से चुनाव जीतकर संसद पहुंचे. वे चौथी बार लोकसभा चुनाव जीतने में कामयाब रहे थे. इसके बाद 1996, 1999 और 2009 में मधेपुरा से चुनाव जीतने में सफल रहे.  
 
लालू यादव को पहली बार सीएम बनाने में योगदान

1990 में लालू प्रसाद यादव पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने थे. उस वक्त इसमें शरद यादव के समर्थन को बेहद महत्वपूर्ण माना गया था. 1989 में वी पी सिंह की अगुवाई में केंद्र में यूनाइडेट फ्रंट की सरकार बन गई थी. 1990 में बिहार विधानसभा के लिए चुनाव हुए. कांग्रेस को सत्ता से बाहर करते हुए जनता दल की सरकार बनने वाली थी. जनता दल के विधायक दल का नेता चुनने का वक्त आया तो सबको लग रहा था कि रामसुंदर दास ही मुख्यमंत्री बनेंगे. रामसुंदर दास, प्रधानमंत्री वीपी सिंह और जॉर्ज फर्नांडिस के करीबी थे. शरद यादव विधायक दल के नेता के लिए वोटिंग प्रक्रिया पर अड़ गए और इसके जरिए लालू प्रसाद यादव का बिहार का मुख्यमंत्री बनना तय हो गया. यहीं वजह थी कि लालू यादव हमेशा ही शरद यादव का बहुत सम्मान करते रहे. 

लालू यादव के खिलाफ लड़ा चुनाव

कभी लालू यादव के कंधे से कंधे मिलाकर चलने वाले शरद यादव ने 1999 में उन्हें शिकस्त दी. उस वक्त तक दोनों की सियासी राहें जुदा हो चुकी थी. लालू यादव आरजेडी के नाम से नई पार्टी बना चुके थे और शरद यादव जेडीयू से मधेपुरा लोकसभा सीट के उम्मीदवार थे. उस वक्त बिहार में लालू यादव की लोकप्रियता शिखर पर थी. शरद यादव उस वक्त जेडीयू के अध्यक्ष थे. अपने राजनीतिक कौशल की बदौलत शरद यादव ने 1999 में मधेपुरा लोकसभा सीट पर लालू यादव को करीब 30 हजार वोटों से मात दे दी.  इससे एक साल पहले 1998 में लालू यादव ने मधेपुरा सीट पर शरद यादव को 50 हजार से भी ज्यादा वोटों से हराया था. 2004 में भी इस सीट पर लालू यादव ने शरद यादव को हराया. 

आखिरी बार 2009 में मधेपुरा से जीते

2004 में हारने के बाद शरद यादव ने 2009 के आम चुनाव में एक बार फिर से मधेपुरा से किस्मत आजमाई और जीतने में सफल रहे. वे चौथी बार मधेपुरा के सांसद बने. हालांकि मधेपुरा में जीतने का ये सिलसिला यहीं तक कायम रहा. 2014 में आरजेडी के उम्मीदवार राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव ने शरद यादव को हरा दिया. वहीं 2019 में आरजेडी ने एक बार फिर से शरद यादव को मधेपुरा से उम्मीदवार बनाया, लेकिन जेडीयू के दिनेश चंद्र यादव से उन्हें तीन लाख से भी ज्यादा वोटों से हार का सामना करना पड़ा.
  
2005 में नीतीश कुमार को बनाया मुख्यमंत्री

शरद यादव ही वो शख्स थे, जिन्होंने नीतीश कुमार को बिहार के मुख्यमंत्री पद पर पहुंचाने में एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाया. कभी शरद यादव, लालू यादव और नीतीश कुमार भारतीय राजनीति के एक ही खेमे के धुरंधर नेता माने जाते थे. लेकिन बाद में लालू और नीतीश की राहें अलग हो गई और शरद यादव नीतीश के साथ मिलकर बिहार में जेडीयू को आरजेडी का विकल्प बनाने में जुट गए. 2005 में शरद यादव और नीतीश ने मिलकर लालू यादव के बिहार में 15 साल के शासन पर विराम लगा दिया. 24 नवंबर 2005 को नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री बने. 

नीतीश-शरद यादव की राहें हुई जुदा

शरद यादव और नीतीश कुमार ने कई सालों तक एक-दूसरे के साथ राजनीति की. कई सालों तक जेडीयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे शरद यादव और नीतीश कुमार की राहें 2017 में अलग-अलग हो गई. 2013 से ही दोनों में अनबन की शुरुआत हो गई थी. 2013 में नरेंद्र मोदी को बीजेपी ने पीएम उम्मीदवार घोषित कर दिया था, तब नीतीश कुमार ने अपनी पार्टी  जेडीयू को एनडीए से अलग करने का फैसला किया. कहा जाता है कि उस वक्त शरद यादव, नीतीश के इस फैसले से खुश नहीं थे. शरद यादव एनडीए के संयोजक भी थे. हालांकि शरद यादव नीतीश के साथ बने रहे. 2015 में नीतीश और शरद यादव की जेडीयू ने लालू प्रसाद के आरजेडी के साथ गठबंधन कर विधानसभा चुनाव लड़ने का फैसला किया. फैसला कारगर भी साबित हुआ और महागठबंधन चुनाव जीतने में कामयाब रहा. हालांकि 2017 में नीतीश ने पाला बदलते हुए आरजेडी से गठबंधन तोड़कर फिर से बीजेपी के साथ मिलकर बिहार में सरकार बना ली. इस फैसले से शरद यादव नाराज हो गए. वे खुलकर नीतीश का विरोध करने लगे और यहीं वो वक्त था जब शरद यादव को जेडीयू से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया.  बाद में शरद यादव ने लोकतांत्रिक जनता दल के नाम से नई पार्टी बनाई. हालांकि बाद में शरद यादव ने अपनी पार्टी का आरजेडी में विलय कर दिया.  

लोकसभा का कार्यकाल बढ़ाने पर इस्तीफा

आपातकाल के वक्त तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने लोकसभा का कार्यकाल 5 साल से बढ़ाकर 6 साल करने का फैसला किया. इस फैसले के विरोध में  मार्च 1976 में दो सांसदों ने लोकसभा सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था. उनमें शरद यादव भी एक थे. उनके अलावा मधु लिमये ने इस मुद्दे पर इस्तीफा दिया था. उस वक्त ये दोनों नेता जेल में थे. 

1977 में जनता पार्टी सरकार में नहीं बन पाए मंत्री

1977 में केंद्र में जनता पार्टी की सरकार बनी. मोरारजी देसाई देश के प्रधानमंत्री बने. शरद यादव उस वक्त युवा बगावती तेवर और इंदिरा गांधी के खिलाफ खुलकर बोलने की वजह से काफी लोकप्रिय हो चुके थे. 1977 के आम चुनाम में वे जबलपुर लोकसभा से जीतकर दोबारा सांसद बनने में भी कामयाब रहे थे. उनको उम्मीद थी कि जनता पार्टी सरकार में मंत्री बनाया जाएगा, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया. वे उस वक्त युवा जनता दल के अध्यक्ष भी थे. कहा जाता है कि इसी वजह से उन्हें जनता पार्टी सरकार में मंत्री नहीं बनाया गया. बाद में 28 जुलाई 1979 को चौधरी चरण सिंह देश के प्रधानमंत्री बने, तब भी शरद यादव मंत्री नहीं बन पाए. शरद यादव को चौधरी चरण सिंह का बेहद करीबी माना जाता था. जब चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री बनने जा रहे थे तो उनकी कार में उनके बगल में शरद यादव भी थे. चरण सिंह के भरोसेमंद होने के बावजूद इस बार भी शरद यादव मंत्री पद से चूक गए. बाद में वे 1989 में पहली बार वीपी सिंह सरकार में केंद्रीय मंत्री बने. साथ ही 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में भी केंद्रीय मंत्री की जिम्मेदारी निभाई. 

1981 में राजीव गांधी के खिलाफ लड़ा चुनाव

शरद यादव ने कांग्रेस के दिग्गज नेता और पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के खिलाफ भी चुनाव लड़ा था. जनता पार्टी की सरकार के बाद 1980 में कांग्रेस की केंद्र की सत्ता में वापसी हो चुकी थी. अमेठी से सांसद संजय गांधी के अचानक निधन से ये सीट खाली हो गई. 1981 में हुए उपचुनाव में राजीव गांधी पहली बार चुनाव लड़ रहे थे. चौधरी चरण सिंह ने इस सीट पर राजीव गांधी के खिलाफ शरद यादव तो उतारने का फैसला किया. शरद यादव चुनाव भले ही बुरी तरह से हार गए, लेकिन मन नहीं होने के बावजूद चौधरी चरण सिंह की चुनाव लड़ने की बात रख ली. 

सरकारी बंगले को लेकर रहे सुर्खियों में 

2021-22 में तुगलक रोड के सरकारी बंगले को लेकर भी वे खासे चर्चा में रहे. शरद यादव यहां करीब 22 साल से रह रहे थे. ये बंगला ही दो दशक से उनकी सारी राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र रहा था. इस घर से शरद यादव का ख़ास लगाव था. वे कहते थे कि इस घर से उन्होंने कई लड़ाइयां लड़ी हैं.  बंगला खाली करने का मामला दिल्ली हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा. आखिरकार मई 2022 में उन्होंने इस बंगले को खाली किया. दिसंबर 2017 में राज्यसभा की सदस्यता खत्म होने के बाद से उनपर इस बंगले को खाली करने का दबाव था. 

राज्यसभा की सदस्यता को लेकर विवाद

जब 2017 में नीतीश से शरद यादव की राहें जुदा हो गई, तो उस वक्त वे राज्य सभा सदस्य थे.  जेडीयू ने दलबदल कानून के तहत शरद यादव की सदस्यता को खत्म करने की मांग की थी. राज्यसभा के तत्कालीन सभापति एम वेंकैया नायडु ने दिसंबर 2017 में दलबदल कानून के तहत शरद यादव और अली अनवर की सदस्यता को खत्म करने का फैसला किया. हालांकि बाद में उन्होंने अपनी सदस्यता को खत्म करने के फैसले को हाईकोर्ट में चुनौती भी दी थी.  

कभी बड़े जनाधार वाले नेता नहीं रहे

सियासी गलियारों में ये भी कहा जाता है कि शरद यादव कभी बहुत बड़े जनाधार वाले नेता नहीं रहे. 1990 के बाद संसद में जाने के लिए वे लालू और नीतीश जैसे दिग्गज नेताओं पर आश्रित रहे. इसके बावजूद राजनीति के वे माहिर खिलाड़ी थे. उनकी राजनीतिक आभामंडल का ही असर था कि वीपी सिंह से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी सरकार तक हर बड़े फैसले में उनकी राय महत्व रखती थी. बहुत लंबे वक्त तक राष्ट्रीय राजनीति में उनकी मजबूत उपस्थिति रही.

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