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Nuh Violence: सांप्रदायिक राजनीति का अखाड़ा कैसे बना मेवात? पढ़ें नूंह बनने तक की पूरी कहानी

Nuh Violence: नूंह में हुई हिंसा में 6 लोगों की जान चली गई. अब इसे लेकर राजनीति चरम पर है. चलिए आपको बताते हैं इस हिंसा के पीछे का इतिहास.

Haryana Violence: हरियाणा के नूंह में 31 जुलाई को एक शोभायात्रा निकाली गई. यात्रा के कुछ ही दूर पहुंचने पर पथराव और फायरिंग की खबरें सामने आने लगीं. देखते ही देखते मामले ने सांप्रदायिक रंग ले लिया. इस हिंसा में दो होम गार्ड सहित 6 लोगों की जान चली गई. 

इतना ही नहीं हिंसा के बीच आगजनी और तोड़-फोड़ भी हुई. जब कुछ घंटों बाद स्थिति थोड़ी शांत हुई तो सिर्फ बर्बादी की निशानी देखने को मिली. हालांकि, ये कोई नई बात नहीं है. ये कहानी सदियों पुरानी है और सदियों पुरानी इस कहानी ने ही मेवात को सांप्रदायिक राजनीति की ऐसी प्रयोगशाला में तब्दील कर दिया है कि उसपर हर राजनीतिक दल अपनी सियासी रोटियां सेंकते आए हैं. 

बाबर से शुरू हुई इस कहानी का भारत-पाकिस्तान बंटवारे और महात्मा गांधी से क्या कनेक्शन है. आखिर क्यों महात्मा गांधी की हत्या ने हमेशा के लिए मेवात को सांप्रदायिक राजनीति के अखाड़े में तब्दील कर दिया और अब आखिर मेवात में ऐसा क्या है, जिसपर सबकी नजर है. आपको विस्तार से इसके बारे में बताते हैं. 

भारत-पाकिस्तान के बंटवारे से है कनेक्शन 

19 दिसंबर 1947 में जब भारत-पाकिस्तान का बंटवारा हो चुका था और नोआखली के दंगे शांत करवाने के बाद महात्मा गांधी मेवात के घसेरा गांव में पहुंचे थे. उन्होंने मेवात में रहने वाले मुस्लिम समुदाय के मेव लोगों से अपील की कि वो पाकिस्तान न जाएं, क्योंकि उनकी सरजमीं भारत है और यही उनका अपना मुल्क है. मेव मुस्लिमों ने महात्मा गांधी की बात मान ली. वो पाकिस्तान नहीं गए. हिंदुस्तान में ही रह गए. क्योंकि वो यहां पर 12वीं सदी से ही रह रहे थे.

क्या है मेवात की कहानी 

तब से जब बाबर ने महराणा सांगा के साथ खानवा का युद्ध किया था तब मेवात के नवाब थे हसन खान. मेवात का मतलब है मेव. मेव, जो हैं तो मुस्लिम लेकिन मु्स्लिमों से अलग हैं. जो हैं तो हिंदू, लेकिन हिंदुओं से भी अलग हैं. जिनका मजहब तो मुस्लिम है, लेकिन तौर-तरीके हिंदू. जो निकाह भी करते हैं और शादी भी. जो ईद भी मनाते हैं और होली-दिवाली भी. 

मेवात में किन-किन राज्यों के हिस्से आते हैं

1988 में दिल्ली के संगीत नाटक अकादमी की ओर से शैल मायाराम के पब्लिश पेपर 'द ओरल ट्रेडिशन ऑफ मेवात' के मुताबिक मेवात करीब 7910 वर्ग किलोमीटर का एक इलाका है, जिसमें राजस्थान के कुछ हिस्से, हरियाणा के कुछ हिस्से और उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्से आते हैं. 

राजस्थान के अलवर की तिजारा तहसील, अलवर तहसील, लक्ष्मणगण तहसील और किशनगढ़ तहसील के अलावा भरतपुर की डीग, नागर और कामन तहसील मेवात का हिस्सा है. हरियाणा में गुड़गांव का नूंह, फिरोजपुर का झिरका मेवात का इलाका है. वहीं, उत्तर प्रदेश में आगरा की छाता तहसील भी मेवात का ही इलाका है. ये सब मिलाकर मेवात बनता है, जहां मेव रहते हैं. जो हैं मुस्लिम, लेकिन खुद को राम, कृष्ण और अर्जुन का वंशज मानते हैं.

हिंदु-मुस्लिम एकता की मिसाल 

तो ऐसे ही मेव मुस्लिमों की जमीन मेवात के नवाब थे हसन खान मेवाती. 1527 में खानवा के युद्ध के दौरान बाबर चाहता था कि हसन खान महाराणा सांगा के खिलाफ बाबर का साथ दे, क्योंकि दोनों ही मुस्लिम थे. लेकिन हसन खान ने महाराणा सांगा का ही साथ दिया. इस जंग में जीत भले ही बाबर की हुई और उसने हसन खान को तड़पाकर मार डाला. 

इस जंग ने हिंदु-मुस्लिम एकता की जो मिसाल कायम की वो कुछ ऐसी बनी कि मेवात में मेव मुस्लिम मुस्लिमों के तमाम दूसरे फिरकों से बिल्कुल ही अलग नज़र आने लगे. वो अपना मजहब तो मुस्लिम बताते थे. लेकिन अपनी जाति राजपूत बताने लगे. वो ईद की खुशियां भी मनाते, मुहर्रम का मातम भी और रामनवमी-कृष्ण जन्माष्टमी भी. शादी करते तो निकाह मौलवी पढ़वाता, लेकिन हिंदुओं के दूसरे रिवाज भी अपनाए जाते.    

धर्मों के अलग-अलग आंदलनों से शुरू हुआ बिखराव

1920 के दशक तक तो ये सिलसिला यूं ही चलता रहा लेकिन इस दौरान दो अलग-अलग धर्मों के दो अलग-अलग आंदलनों ने इस ताने-बाने को बिखेर दिया. दरअसल उस वक्त क्षत्रिय सभा ने आगरा और मथुरा के आस-पास रहने वाले उन मुस्लिमों की घर वापसी के लिए आंदोलन शुरू किया जो मलकाना राजपूत थे और जिनके पूर्वजों ने 100-200 साल पहले ही इस्लाम कबूल किया था. अब क्षत्रिय सभा ने आंदोलन शुरू किया तो मुस्लिमों को फिक्र हुई. 

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बड़े जमींदार घराने के वारिस मौलाना शाह इलियास ने तो अपनी सारी संपत्ति बेचकर मेवात में सौ मदरसे कायम किए ताकि घरवापसी कर चुके लोगों को फिर से इस्लामी तालीम दी जा सके. ये सभी वही मेयो मुस्लिम थे, जिनका मजहब इस्लाम था लेकिन उनके तौर-तरीके हिंदुओं जैसे थे. लिहाजा मौलाना शाह इलियास ने तबलीगी जमात शुरू की, जो लोगों के घर-घर जाती और उन्हें नमाज पढ़ने के लिए प्रेरित करती. इसके एवज में स्वामी दयानंद सरस्वती ने शुद्धि आन्दोलन शुरू किया और कहा कि जिस धार्मिक अधिकार से मुसलमानों को तब्लीग और तंजीम का हक है, उसी अधिकार से मुझे अपने बिछुड़े भाइयों को वापिस अपने घरों में लौटाने का हक है.

कैसे शुरू हुई हिंसा की कहानी 

यहां से जो खाई पनपनी शुरू हुई तो उसे कभी पाटा नहीं जा सका. वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक विनय सुल्तान बताते हैं कि स्वामी दयानंद सरस्वती मलकाना राजपूतों की घरवापसी कर उन्हें हिंदू बना रहे थे तो मौलाना शाह इलियास मेव मुस्लिमों को इस्लामा की दीनी तालीम देकर नमाज पढ़ने के लिए प्रेरित कर रहे थे. इस बीच साल आया 1929. तब अलवर के महाराज जय सिंह की ताजपोशी की रजत जयंती थी. उन्होंने खुद को राज ऋषि और धर्म प्रभाकर घोषित कर रखा था. तो उनकी रजत जयंती मनाने में इतना बड़ा कार्यक्रम हुआ कि पूरा खजाना ही खाली हो गया. नतीजा ये हुआ कि महाराज जय सिंह ने लगान चारगुना बढ़ा दिया. मेयो मुस्लिमों ने इसका विरोध किया. और राजा के खिलाफ हुए इस विद्रोह में हिंसा हो गई.

इतनी हिंसा हुई कि सैकड़ों मेयो मु्स्लिम मारे गए. ये विरोध या विद्रोह चारगुने लगान के खिलाफ था, लेकिन तब इसे सांप्रदायिक रंग दे दिया गया और इसे हिंदु राजा के खिलाफ मुस्लिमों की बगावत के तौर पर देखा गया. फिर तो कट्टर हिंदुओं ने हिंदुओं का साथ दिया और कट्टर मुस्लिमों ने मुस्लिमों का. खाई बढ़ती चली गई. तब तक हो गया भारत का विभाजन. औऱ वो भी धर्म के नाम पर. तो हिंदू और मुस्लिम सीधे तौर पर दो पालों में बंट गए.

मेव मुस्लिमों उठाना पड़ा था इस बात का खामियाजा

हिंदुओं को हिंदुस्तान में रहना था, मुस्लिमों को पाकिस्तान में. कुछ ऐसे भी हिंदू थे पाकिस्तान में ही रह गए और ऐसे भी मुस्लिम थे जो हिंदुस्तान में रह गए. और जो जहां रहा, वहां उसके खिलाफ ज्यादती हुई. पाकिस्तान में हिंदुओं पर तो हिंदुस्तान में मुस्लिमों पर. और इसका खामियाजा मेव मुस्लिमों को भी उठाना पड़ा. उनके खिलाफ भी हिंसा हुई. और इतनी हिंसा हुई कि उनमें से लाखों मेयो अलवर और भरतपुर से थोड़ा आगे आकर उस जगह पर रहने लगे, जिसे पहले गुड़गांव और अब गुरुग्राम कहा जाता है.

मेयो चाहते थे कि वो भी पाकिस्तान चले जाएं. लेकिन फिर महात्मा गांधी आ गए. भरोसा दिलाया कि हिंदुस्तान ही तुम्हारा मुल्क है. यही रहो. तो वो यहीं रह गए. इस बीच चंद दिनों के अंदर ही महात्मा गांधी की हत्या भी हो गई. अब भरोसा देने वाला भी कोई नहीं था और पाकिस्तान ले जाने वाला भी. तो वो यहीं के होकर रह गए. लेकिन न तो कभी मेयो में भरोसा जगा कि हिंदू उनके साथ हैं और न ही हिंदुओं में भरोसा जगा कि मेयो मुस्लिम उनके साथ हैं.

साल 2016 में इस तरह पड़ा मेवात का नाम नूंह

नतीजा हर रोज खाई और चौड़ी होती गई. मेयो यहां रहे तो जानवर पालने लगे. थोड़ी बहुत खेती-बाड़ी करने लगे. लेकिन न तो भरोसा जीत पाए और न ही धन-संपत्ति अर्जित कर पाए. इस बीच साल 2005 में हरियाणा के गुड़गांव से अलग होकर मेवात को एक नया जिला बना दिया गया. साल 2016 में मेवात का नाम बदलकर उसे नूंह कर दिया गया. 

इसके करीब दो साल बाद साल 2018 में नीति आयोग की एक रिपोर्ट आई, जिसमें कहा गया कि देश का सबसे पिछड़ा जिला नूंह है, जहां करीब 79 फीसदी आबादी मुस्लिमों की है. और इनमें भी बहुसंख्यक आबादी मेव मुस्लिमों की की है. मुस्लिमों की स्थिति पर आई रंगनाथ मिश्रा की रिपोर्ट भी कहती है कि मेवात के मुस्लिम पूरे देश में सबसे ज्यादा पिछड़े हुए हैं. एक रिपोर्ट कहती है कि नूंह से सटे गुड़गांव या गुरुग्राम की पर कैपिटा इनकम 3 लाख 16 हजार 512 रुपये है जबकि नूंह की पर कैपिटा इनकम महज 27 हजार सात सौ इक्यानबे रुपये ही है.

सांप्रदायिकता की प्रयोगशाला भी माना जाता है नूंह

यही वो इलाका भी है, जो सांप्रदायिकता की प्रयोगशाला भी बना है. मेव मुस्लिम गाय को जानवरों में सबसे ऊंचा दर्जा देते हैं. बेटियों की शादी करते वक्त गाय दान करते हैं. गोवध पर प्रतिबंध लगाने की भी बात करते हैं. लेकिन यही वो इलाका है, जहां गोरक्षा के नाम पर पहलू ख़ान, रकबर,वारिस से लेकर नासिर और जुनैद तक की हत्या हुई. 

गोतस्करी करने वालों ने और गोतस्करी बचाने वालों ने इसे अपराध से ज्यादा सांप्रदायिक हिंसा का रूप दिया और मेवात फिर वहीं पहुंच गया, उतना ही घायल हो गया, उसकी आबोहवा में उतना ही जहर घुल गया, जितना आजादी के ठीक बाद हुआ था. तब जख्मों पर मरहम लगाने के लिए महात्मा गांधी थे और अब कोई नहीं है. तभी तो आज भी हर 19 दिसंबर को मेवात की महिलाएं गाती हैं कि 'भरोसा उठ गया मेवन का, गोली लगी है गांधी के छाती बीच'. 

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