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Delhi LG VS CM Kejriwal: दिल्ली में हंगामा है क्यों बरपा, LG और केजरीवाल सरकार के बीच टकराव की क्या है मूल वजह, समझें कानूनी और सियासी पहलू

LG Kejriwal Power Tussle: उपराज्यपाल और दिल्ली सरकार के बीच अधिकारों की लड़ाई का संबंध संवैधानिक और कानूनी पहलू से है. बीते कुछ सालों से ये बीजेपी और AAP के बीच का राजनीतिक मुद्दा भी बन गया है.

LG Delhi Government Power Conflict: दिसंबर 2022 में एमसीडी चुनाव के नतीजों के बाद से दिल्ली के उपराज्याल विनय कुमार सक्सेना और दिल्ली सरकार के बीच अधिकारों को लेकर टकराव लगातार बढ़ते ही जा रहा है. दरअसल दिल्ली के उपराज्यपाल (LG) और अरविंद केजरीवाल सरकार के बीच शक्तियों को लेकर बार-बार टकराव के पीछे लंबी कहानी है. 

दिल्ली विधानसभा के साथ एक केंद्र शासित प्रदेश (union territory)है. भारत में 28 राज्य और 8 केंद्र शासित प्रदेश हैं. इनमें से दिल्ली, पुडुचेरी और जम्मू-कश्मीर के लिए केंद्र शासित प्रदेश होने के बावजूद विधानसभा और  राज्य सरकार की व्यवस्था की गई है. 

दिल्ली पूर्ण राज्य नहीं है, LG हैं प्रशासक
दिल्ली पूर्ण राज्य नहीं है, इसके बावजूद यहां विधानसभा और राज्य सरकार है. इसके साथ ही केंद्र शासित प्रदेश के प्रशासक (administrator) के तौर पर दिल्ली में  Lieutenant Governor भी होते हैं, जिनकी नियुक्ति राष्ट्रपति करते हैं.  एलजी केंद्र सरकार के प्रतिनिधि हो गए. 

दिल्ली में सत्ता के तीन केंद्र- एलजी, सीएम, एमसीडी

दिल्ली की सत्ता में तीन केंद्र हो जाते हैं. पहला एलजी, दूसरा दिल्ली सरकार और तीसरा दिल्ली नगर निगम यानी MCD. एलजी और दिल्ली सरकार के बीच टकराव के पीछे मूल कारण सत्ता के तीन केंद्रों के बीच अधिकारों के बंटवारे से जुड़ा है. अगर दिल्ली में सत्ता के इन तीन केंद्रों पर एक ही पार्टी की सत्ता हो, यानी भारत सरकार, दिल्ली सरकार और दिल्ली एमसीडी में एक ही पार्टी सत्ता में हो, तो टकराव की संभावना कम हो जाती है, लेकिन अगर अलग-अलग पार्टियां केंद्र सरकार,  दिल्ली सरकार और एमसीडी में हों, तो टकराव तेज़ हो जाता है. उसमें भी बीते 8 साल में एलजी ऑफिस और दिल्ली सरकार के बीच अधिकारों के बंटवारे को लेकर तनातनी ज्यादा होने लगी है. फरवरी 2015 से लगातार दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार है. अरविंद केजरीवाल यहां के मुख्यमंत्री है. केजरीवाल के मुख्यमंत्री बनने के बाद उपराज्यपाल ऑफिस से दिल्ली सरकार के संबंध कभी भी अच्छे नहीं रहे हैं. अधिकारों से जुड़े मसले को समझने के लिए दिल्ली में  विधानसभा की व्यवस्था और शासन व्यवस्था के पड़ाव को समझना पड़ेगा. 

विवाद की शुरुआत संविधान के 69वें संशोधन से 

संविधान के 69वें संशोधन अधिनियम, 1991  से दिल्ली की सियासत बदल गई.  इस संशोधन से केंद्र शासित प्रदेश दिल्ली की राजनीति को एक नया आयाम मिला.   इसके जरिए संघ राज्यक्षेत्र दिल्ली को विशेष हैसियत दी गई.  इसे दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी राज्य क्षेत्र ( National Capital Territory of Delhi) नाम दिया गया.  संविधान में दो नए अनुच्छेद 239 AA और 239 AB जोड़े गए.  अनुच्छेद 239 AA के जरिए दिल्ली के लिए राष्ट्रपति से नियुक्त प्रशासक की व्यवस्था की गई और इसे उपराज्यपाल (Lieutenant Governor) कहा गया.  साथ ही एनसीटी दिल्ली के लिए एक विधानसभा और मंत्रिपरिषद की व्यवस्था की गई. यानी संविधान के अनुच्छेद 239 AA के जरिए ही दिल्ली सरकार बनने का प्रावधान किया गया. इससे पहले दिल्ली में महानगरीय परिषद और कार्यकारी परिषद थी. 

पब्लिक ऑर्डर, पुलिस और भूमि पर अधिकार नहीं 

दिल्ली  विधानसभा को संविधान की सातवीं अनुसूची के राज्य सूची और समवर्ती सूची में शामिल विषयों पर काननू  बनाने का अधिकार दिया गया.  लेकिन इनमें से तीन विषयों को दिल्ली विधानसभा के अधिकार से बाहर रखा गया. लोक व्यवस्था(Public Order), पुलिस और भूमि (land) पर दिल्ली विधानसभा कानून नहीं बना सकती. ये मामले दिल्ली सरकार की बजाय केंद्र सरकार के अधीन रखे गए. अनुच्छेद 239 AA में ये व्यवस्था कर दिया गया कि उपराज्यपाल और दिल्ली सरकार के बीच किसी मुद्दे पर मतभेद होने पर एलजी उस मामले पर कोई फैसला लेने के लिए राष्ट्रपति के पास भेज देगा और राष्ट्रपति जो भी आदेश देंगे, उसके मुताबिक ही काम होगा. अगर हालात ऐसे हैं कि किसी मुद्दे पर तुरंत कार्रवाई जरूरी है, तो उपराज्यपाल अपने हिसाब से जो फैसला करेगा, वहीं लागू होगा. संविधान के इन प्रावधानों से ही दिल्ली सरकार के अधिकार सीमित हो गए और उपराज्यपाल दिल्ली मंत्रिपरिषद की सलाह को मानने के लिए बाध्य नहीं रह गए. चूंकि दिल्ली पूर्ण राज्य नहीं है तो, यहां राज्य सरकार के अधिकार उस तरह के नहीं रखे गए और प्रशासक के तौर पर उपराज्यपाल (LG) के फैसले को सर्वोपरि  माना गया.
 
दिल्ली सीएम की नियुक्ति राष्ट्रपति करते हैं

यहां पर एक बात और गौर करने वाली है. संविधान के अनुच्छेद 239 AA में ही ये व्यवस्था है कि बाकी पूर्ण राज्यों से अलग यहां के मुख्यमंत्री की नियुक्ति उपराज्यपाल नहीं करते हैं, बल्कि सैद्धांतिक तौर से राष्ट्रपति मुख्यमंत्री को नियुक्त करते हैं और अन्य मंत्रियों की नियुक्ति राष्ट्रपति, मुख्यमंत्री की सलाह पर करते हैं.  69वें संविधान संशोधन से दिल्ली में उपराज्यपाल (LG), मुख्यमंत्री और मंत्रिपरिषद की व्यवस्था हो गई.  लेकिन बाकी राज्यों के विपरीत दिल्ली सरकार के अधिकार उपराज्यपाल के कार्यकारी प्रमुख होने की वजह से सीमित हो गए.  

1991 में बना जीएनसीटी दिल्ली कानून

69वें संविधान संशोधन के प्रावधानों को लागू करने के लिए संसद से दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी राज्य क्षेत्र शासन अधिनियम 1991 (GNCT Delhi Act 1991) बनाया गया. इसमें दिल्ली विधानसभा की संरचना, विधानसभा से विधेयक पारित करने औरकानून बनाने की प्रक्रिया के साथ ही मंत्रिपरिषद से जुड़े सारे प्रावधान किए गए. इसी कानून में ये भी तय कर दिया गया कि दिल्ली सरकार और एलजी के बीच किसी मुद्दे पर टकराव होने की स्थिति में एलजी का फैसला अंतिम होगा.  इससे साफ है कि 69वें संविधान संशोधन और जीएनसीटी दिल्ली कानून 1991 के जरिए दिल्ली सरकार की बजाय उपराज्यपाल को ज्यादा अधिकार दिए गए. एलजी के ही फैसले को आखिरी माना गया. 

टकराव की मूल वजह है अनुच्छेद 239 AA

उपराज्यपाल और दिल्ली सरकार के बीच टकराव  का मूल कारण संविधान का अनुच्छेद- 239 AA ही रहा है. इसमें कहा गया है कि मतभेद की स्थिति में उपराज्यपाल का फैसला अंतिम होगा. दिल्ली सरकार पब्लिक ऑर्डर, पुलिस और भूमि को थोड़कर दूसरे विषयों पर कोई फैसला ले सकती है, लेकिन ये निर्णय भी दिल्ली  सरकार संसद से पारित कानूनों के तहत ही ले सकती है. इस अनुच्छेद के मुताबिक केन्द्र शासित प्रदेश दिल्ली के कार्यकारी प्रमुख (executive head) मुख्यमंत्री नहीं हैं, बल्कि ये हक़ उपराज्यपाल के पास है.  

1993 में विधानसभा के लिए पहली बार चुनाव

69वें संविधान संशोधन और GNCT Delhi Act 1991 के बाद दिल्ली विधानसभा के लिए पहली बार चुनाव 1993 में हुए. 70 सदस्यीय विधानसभा में बीजेपी ने 49 सीट जीतकर बहुमत हासिल कर लिया. वहीं कांग्रेस 14 सीट मुख्य विपक्षी पार्टी बनी. बीजेपी नेता मदन लाल खुराना दिसंबर 1993 में दिल्ली के मुख्यमंत्री बनें. पांच साल तक यहां बीजेपी की सरकार रही. इसके बाद लगातार तीन बार कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव में  बहुमत के साथ जीत दर्ज की. कांग्रेस नेता शीला दीक्षित लगातार तीन कार्यकाल तक दिसंबर 1998 से दिसंबर 2013 तक दिल्ली की मुख्यमंत्री रहीं.  इन 20 सालों में दिल्ली के उपराज्यपाल और दिल्ली सरकार के बीच छोटे-मोटे मुद्दों पर टकराव दिखा, लेकिन  गतिरोध हमेशा सुर्खियों में नहीं रही.  


2013 से दिल्ली की सियासत में बदलाव

2013 में दिल्ली की राजनीति में आम आदमी पार्टी का आगाज हुआ. पहली बार में आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल सिर्फ 48 दिन ही मुख्यमंत्री रह पाए. लेकिन 2015 के विधानसभा चुनाव में रिकॉर्ड जीत के बाद फरवरी में अरविंद केजरीवाल की अगुवाई में आम आदमी पार्टी की सरकार फिर से बनी.  2020 में भी केजरीवाल ने जीत का सिलसिला जारी रखा और फिर से सीएम बनें. वे पिछले 8 साल से भारी बहुमत के साथ दिल्ली के मुख्यमंत्री हैं और इसी दौरान एलजी के साथ दिल्ली सरकार के टकराव की कई घटनाएं सामने आईं.

2015 से एलजी और दिल्ली सरकार में बढ़ा टकराव

दरअसल 2015 से आम आदमी पार्टी लगातार दिल्ली को पूर्ण राज्य बनाने की मांग कर रही है. इसके साथ ही दिल्ली सरकार को ज्यादा अधिकार देने की भी मांग कर रही है. अरविंद केजरीवाल का कहना है कि निर्वाचित सरकार होने के बावजूद दिल्ली सरकार को अधिकारों के मामले में सीमित कर दिया गया है.  केजरीवाल ये भी बयान दे चुके हैं कि दिल्ली की निर्वाचित सरकार के पास एक चपरासी के ट्रांसफर का भी अधिकार नहीं छोड़ा गया है. पहले उपराज्यपाल नजीब जंग, फिर उसके बाद अनिल बैजल और अब वर्तमान उपराज्यपाल (LG) विनय कुमार सक्सेना के साथ दिल्ली सरकार का अधिकारों को लेकर टकराव बढ़ते ही जा रहा है. एक तरह से एलजी और दिल्ली सरकार के बीच का ये टकराव बीजेपी और आम आदमी पार्टी के बीच का गतिरोध बन गया है. 

अदालत में पहुंची अधिकारों की लड़ाई 

दिल्ली के लेफ्टिनेंट गवर्नर और दिल्ली के मुख्यमंत्री के बीच के टकराव ने कानूनी विवाद को जन्म दे दिया. कानूनी सवाल के तहत पूरा विवाद एलजी की प्रशासमिक शक्तियों और दिल्ली सरकार के इर्द-गिर्द घूमते रहा है. निर्वाचित विधायिका होने के बावजूद दिल्ली पूर्ण राज्य नहीं है. उसकी एक खास स्थिति है और इसी वजह से दिल्ली सरकार और एलजी में अधिकारों को लेकर भ्रम का मामला हाईकोर्ट पहुंचा. उस वक्त मुख्य सचिव की नियुक्ति और भ्रष्टाचार की जांच की अनुमति पर एलजी की सहमति नहीं लेने पर मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और तत्कालीन उपराज्यपाल नजीब जंग के बीच अनबन जोरों पर था.  इन मामले में उठाए गए मुद्दों पर 2015 में दिल्ली हाईकोर्ट में सुनवाई हुई. 

अगस्त 2016 में दिल्ली हाईकोर्ट का फैसला

दिल्ली हाईकोर्ट ने 4 अगस्त 2016 को दिए फैसले में इस भ्रम को दूर करने का प्रयास किया. हाईकोर्ट ने कहा कि अनुच्छेद 239AA के तहत विधानसभा बनने के बावजूद  दिल्ली एक केंद्र शासित प्रदेश बना हुआ है.  हाईकोर्ट ने आगे कहा कि दिल्ली के लिए संविधान में जोड़े गए विशेष प्रावधान अनुच्छेद 239 के प्रभाव को खत्म नहीं करते हैं. केंद्र शासित प्रदेशों के लिए बने अनुच्छेद 239 उपराज्यपाल (LG) को अपनी मंत्रिपरिषद से स्वतंत्र रूप से काम करने का अधिकार देता है.  इसके परिणामस्वरूप एलजी की सहमति के बिना दिल्ली सरकार की ओर से शुरु किए गए सभी जांच (enquiries) को हाईकोर्ट ने अवैध करार दिया. इनमें वाहनों को सीएनजी परमिट जारी करने की जुड़ी जांच, दिल्ली और जिला क्रिकेट संघ (DDCA) की वित्तीय जांच जैसे मामले भी शामिल थे. दिल्ली हाईकोर्ट के इस आदेश से दिल्ली सरकार के सभी प्रशासनिक फैसलों के लिए उपराज्यपाल की सहमति अनिवार्य हो गई. दिल्ली हाईकोर्ट के इस आदेश के मुताबिक उपराज्यपाल ही दिल्ली के प्रशासनिक प्रमुख हैं और  उपराज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह मानने के लिए बाध्य नहीं हैं.

जुलाई 2018 में सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला

दिल्ली सरकार ने हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी. फरवरी 2017 में सुप्रीम कोर्ट के दो सदस्यीय बेंच ने इस मामले को 5 सदस्यीय संविधान पीठ के पास भेज (refer) दिया. उपराज्यपाल और दिल्ली सरकार के बीच अधिकारों को लेकर टकराव पर 4 जुलाई 2018 को सुप्रीम कोर्ट के 5 सदस्यीय बेंच का फैसला आया. सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले को पलट दिया.  ये फैसला दिल्ली सरकार के दावों के लिहाज से मील का पत्थर साबित हुआ. तत्कालीन चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया दीपक मिश्रा की अगुवाई वाले बेंच ने सर्वसम्मति से ये माना कि मुख्यमंत्री ही दिल्ली के के कार्यकारी प्रमुख (executive head)हैं. संविधान पीठ ने फैसला सुनाया कि उपराज्यपाल (LG) मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह से बंधे हैं. सुप्रीम कोर्ट ने साफ कह दिया कि उपराज्यपाल को कैबिनेट की सलाह के हिसाब से काम करना होगा. संविधान पीठ ने कहा कि उपराज्यपाल सिर्फ वहीं स्वतंत्र तौर से काम कर सकते हैं, जहां उन्हें संविधान ये अधिकार देता है. एलजी हर फैसले को राष्ट्रपति के पास नहीं भेज सकते हैं. सुप्रीम कोर्ट ने बेहतरी के लिए उपराज्यपाल और दिल्ली सरकार को मिलजुलकर काम करने को भी कहा. सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश से दिल्ली सरकार को बड़ी राहत मिली. इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने निर्वाचित सरकार की सर्वोच्चता के सिद्धांत पर ज़ोर दिया था.

2021 में  संसद से हुआ दिल्ली कानून में बड़ा बदलाव

2018 के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद केंद्र सरकार ने दिल्ली को लेकर 2021 में बड़ा फैसला लिया. केंद्र सरकार GNCT Delhi Act 1991 में संशोधन के लिए संसद में विधेयक लाई.  राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार (संशोधन)  विधेयक, 2021 लोकसभा से 22 मार्च और राज्यसभा से 24 मार्च 2021 को पारित हुआ. GNCT Delhi (संशोधन) कानून 2021 के जरिए उपराज्यपाल (LG) और दिल्ली विधानसभा की शक्तियों और जिम्मेदारियों को स्पष्ट किया गया. नया कानून 27 अप्रैल 2021 से लागू हो गया. नए कानून के जरिए 1991 के कानून में कुछ इस तरह के बदलाव किए गए:

1. इसके जरिए सरकार शब्द का अर्थ लेफ्टिनेंट गवर्नर (LG) कर दिया गया. दिल्ली विधानसभा से पारित हर कानून में सरकार का मतलब अब 'दिल्ली का उपराज्यपाल' होगा. इसके लिए 1991 के कानून के सेक्शन 21 में clause (3) को जोड़ा गया. 
2. इसके साथ ही ये व्यवस्था बना दी गई कि दिल्ली विधानसभा सदन की प्रक्रिया और कार्य संचालन के लिए जो भी नियम बनाएगी, वो लोकसभा की कार्य प्रक्रिया और कार्य संचालन के नियमों के अनुरूप होने चाहिए. 
3. नए कानून में कहा गया कि दिल्ली विधानसभा दिल्ली एनसीटी के रोजमर्रा के प्रशासन से जुड़े मामलों पर विचार करने के लिए और प्रशासनिक फैसलों के सिलसिले में जांच के लिए न तो खुद को अधिकार देने का नियम बना सकती है और न ही किसी समिति को नियम बनाने का अधिकार दे सकती है. इस बाबत बने पहले के सारे नियमों को भी अमान्य कर दिया गया.
4. एलजी को ये अधिकार दे दिया गया कि वो विधानसभा की शक्तियों के दायरे से बाहर आने वाले मामलों से जुड़े विधेयकों को राष्ट्रपति के लिए रिजर्व करेगा.
5. पुराने कानून में व्यवस्था थी कि दिल्ली सरकार के सभी कार्यकारी कार्य एलजी के नाम के ही किए जाएंगे. ऐसे कार्य में चाहे मंत्रिपरिषद की सलाह हो या नहीं हो. नए कानून में ये जोड़ दिया गया कि एलजी की ओर से तय कुछ मामलों में दिल्ली सरकार के फैसलों पर कोई भी कार्यकारी कार्रवाई (executive action) करने से पहले उपराज्यपाल की राय ली जाएगी.

नए कानून से उपराज्पाल की सर्वोच्चता स्थापित

नए कानून के इस आखिरी व्यवस्था से उपराज्यपाल को अधिकार मिल गया कि वे अब दिल्ली सरकार के किसी भी फैसले में दखलंदाजी कर सकते हैं. अब दिल्ली सरकार को अपने किसी भी फैसले पर अमल के लिए भी एलजी की राय की जरुरत पड़ती है. 2021 के कानून के जरिए दिल्ली के LG की भूमिकाओं और अधिकारों को स्पष्ट तौर से परिभाषित कर दिया गया. केंद्र सरकार ने तर्क दिया कि दिल्ली सरकार और उपराज्यपाल के बीच अधिकारों को लेकर भ्रम की स्थिति को खत्म करने के लिए नया कानून बनाया गया और प्रशासनिक अस्पष्टताओं को दूर करने के लिए कुछ प्रावधान जोड़े गए. निर्वाचित सरकार और उपराज्यपाल के उत्तरदायित्वों को स्पष्ट करना इसका मकसद बताया गया.  2018 के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद बने हालात से निपटने के लिए ही केंद्र सरकार की ओर से 2021 में नया कानून बनाया गया.   नए कानून के जरिए एक बार फिर से दिल्ली के मामले में उपराज्पाल की सर्वोच्चता को स्थापित कर दिया गया. 

नए कानून के विरोध में केजरीवाल सरकार

हालांकि आम आदमी पार्टी की सरकार इससे सहमत नहीं हुई. केजरीवाल सरकार का कहना है कि नए कानून के जरिए केंद्र सरकार ने पीछे के दरवाजे से उपराज्यपाल को ज्यादा अधिकार देने की कोशिश की है और 1991 के कानून में बनाए गए संतुलन को बिगाड़ने का काम किया है.  दिल्ली के प्रशासनिक सेवाओं को लेकर भी स्थिति स्पष्ट नहीं हो पाई है और नए कानून के जरिए निर्वाचित सरकार के अधिकारों में कटौती कर दी गई है.  आम आदमी पार्टी के साथ ही दिल्ली सरकार ने नए कानून को असंवैधानिक करार देने के लिए कोर्ट का रुख किया.  दिल्ली सरकार ने  सितंबर 2021 में सुप्रीम कोर्ट में नए कानून को चुनौती देते हुए इसे निर्वाचित सरकार के खिलाफ बताया.  फिलहाल मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है. 

प्रशासनिक सेवाओं पर किसका नियंत्रण?

दिल्ली के प्रशासनिक सेवाओं पर अधिकार का मसला भी बेहद जटिल है.  दिल्ली के लिए अलग से कोई प्रशासनिक सेवाओं का कैडर नहीं है. इन सेवाओं से जुड़े विधायी और कार्यकारी शक्तियों पर दिल्ली सरकार या केंद्र सरकार का नियंत्रण है, इससे जुड़ी याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है. चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डी वाई चंद्रचूड़ की अगुवाई में 5 सदस्यीय संविधान पीठ इसकी सुनवाई कर रही है.  दिसंबर 2022 के पहले हफ्ते में सुप्रीम कोर्ट में हुई सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार ने इस मुद्दे को 9 या उससे ज्यादा जजों की संविधान पीठ के पास भेजने की मांग की है. केंद्र सरकार का कहना है कि 2018 का सुप्रीम कोर्ट का आदेश एनडीएमसी बनाम पंजाब सरकार (1996) के मामले में 9 जजों की संविधान पीठ के फैसले से असंगत है. इसलिए इस मामले को और बड़ी पीठ के पास भेजा जाना चाहिए. हालांकि दिल्ली सरकार ने 9 जजों या उससे भी बड़े बेंच के पास इस मुद्दे को भेजने का विरोध किया है. दिल्ली सरकार का कहना है कि इससे मामले के निपटारे में और देरी होगी. अब सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की अगली सुनवाई 10 जनवरी 2023 को है. 

2018 में सुप्रीम कोर्ट ने नहीं किया था विचार

6 मई 2022 को तत्कालीन चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया एनवी रमना की अगुवाई वाली तीन सदस्यीय पीठ ने प्रशासनिक सेवाओं से संबंधित मुद्दे को 5 सदस्यीय संविधान पीठ के पास रेफर कर दिया था. इस बेंच का मानना था कि 2018 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले में संविधान के अनुच्छेद 239AA के दायरे की  व्याख्या के दौरान दिल्ली के प्रशासनिक सेवाओं पर अधिकार से जुड़े पहलू पर विचार नहीं किया गया था. इससे पहले फरवरी 2019 में सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की बेंच ने इस मामले पर फैसला सुनाया था. इस बेंच के दोनों जजों ने  दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार के अधिकारों के सवाल पर अलग-अलग फैसला सुनाते हुए मामले को बड़ी पीठ के पास भेज दिया था. केंद्र सरकार का कहना है कि उपराज्यपाल के पास दिल्ली में सेवाओं को नियंत्रित करने की शक्ति है.  ये शक्तियां दिल्ली के प्रशासक (Administrator) को सौंपी गई हैं और दिल्ली का प्रशासक उपराज्यपाल होता है. 

हाईकोर्ट से दिल्ली सरकार को झटका

इस बीच 27 दिसंबर 2022 को दिल्ली हाईकोर्ट ने दिल्ली विधानसभा में एक पद के सृजन से जुड़े मामले में आदेश देते हुए कहा कि विधानसभा स्पीकर इस तरह के किसी पद का गठन नहीं कर सकते. हाईकोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि दिल्ली में सेवाओं पर केंद्र सरकार का नियंत्रण है. चूंकि दिल्ली केंद्रशासित प्रदेश है, इस वजह से दिल्ली की सेवाएं (servics) केंद्र सरकार के अधीन हैं. ये मामला दिल्ली विधानसभा में 2002 में एक पद के सृजन से जुड़ा था. इस पद को बनाकर, उसपर एक केंद्रीय सेवा अधिकारी को डेप्युटेशन (on deputaion) पर लाया गया था, जिसे बाद में विधानसभा सचिवालय में स्थायी कर दिया गया था. 2013 में उसे पद से हटा दिया गया था. ऐसे तो सेवाओं पर नियंत्रण का मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है, लेकिन हाईकोर्ट का ताजा आदेश केजरीवाल के उस दावे को कमजोर करता है कि सेवाओं पर दिल्ली सरकार का नियंत्रण होना चाहिए.

कानूनी के साथ ही सियासी मसला बना

दिल्ली और केंद्र में अलग- अलग पार्टियों की सरकारें रहने के बावजूद उपराज्यपाल और दिल्ली सरकार के बीच अधिकारों की लड़ाई 2014 तक उस हद तक नहीं बढ़ी थी, जितनी 2015 से दिख रही है. उससे पहले प्रशासनिक सेवाओं पर नियंत्रण का मामला कोर्ट में नहीं पहुंचा था. लेकिन 2015 में आम आदमी पार्टी की सरकार बनने के बाद हालात बिगड़ने लगे और कोर्ट में मुद्दा पहुंचने लगा. केंद्र सरकार की दलील रही है कि दिल्ली देश की राजधानी है और इस वजह से इसकी असाधारण स्थिति है और यहीं वो कारण है कि दिल्ली के प्रशासन को अकेले दिल्ली सरकार पर नहीं छोड़ा जा सकता. असल में अब ये मुद्दा संवैधानिक और कानूनी के साथ ही राजनीतिक रंग भी ले चुका है. ये मसला सिर्फ उपराज्यपाल या फिर कहें, केंद्र सरकार और दिल्ली सरकार के बीच का नहीं रहा गया है. ये अब बीजेपी और आम आदमी पार्टी के बीच तनातनी का भी मसला बन चुका है. 

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