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कश्मीर से लेकर लद्दाख तक, कोरोना से मरने वालों का सम्मान से अंतिम संस्कार कराने में जुटे हैं ये 'फरिश्ते'

श्रीनगर के बरजुल्ला इलाके में बने गुरुद्वारे की प्रबंधक कमेटी ने पिछले साल कोरोना की महामारी की पहली लहर शुरू होने के साथ ही आम लोगों की मदद करने का फैसला कर लिया था. जिसके बाद करीब सात सिख संगठनों के साथ मिलकर एक वालंटियर सेना तैयार की गई और नाम रखा गया सिख वालंटियर्स कश्मीर.

श्रीनगर: कोरोना महामारी के बीच जहां स्वास्थ्य कर्मी और फ्रंटलाइन वॉरियर अपना काम कर रहे हैं वही कुछ समाज सेवी संगठन भी इस काम में अपना योगदान देने में जुटे हुए हैं. यह लोग ना सिर्फ अस्पतालों में कोरोना से ग्रस्त मरीज़ों और उनके परिजनों की मदद कर रहे हैं, बल्कि कोरोना से जंग हारने वालों को भी आस्था अनुसार, सम्मान के साथ आखिरी विदाई भी दे रहे हैं.

श्रीनगर के बरजुल्ला इलाके में बने गुरुद्वारे की प्रबंधक कमेटी ने पिछले साल कोरोना की महामारी की पहली लहर शुरू होने के साथ ही आम लोगों की मदद करने का फैसला कर लिया था. जिसके बाद करीब सात सिख संगठनों के साथ मिलकर एक वालंटियर सेना तैयार की गई और नाम रखा गया सिख वालंटियर्स कश्मीर. आज इसी वालंटियर सेना ने श्रीनगर में कोरोना के मरीज़ो के लिए मोर्चा संभाला हुआ है. 

संगठन से जुड़े अमृतपाल सिंह बाली के अनुसार उनके वालंटियर ना सिर्फ श्रीनगर के विभिन अस्पतालों में भर्ती कोरोना मरीज़ों और उनके परिजनों को खाना पहुंचाते हैं, बल्कि साथ साथ कोरोना के उपचार में प्रयोग आने वाले ऑक्सीजन कंसंट्रेटर, ऑक्सीजन सिलिंडर और यहां तक की दवाई भी बांटते हैं. 

पर सबसे दुखद काम कोरोना से मरने वालों का अंतिम संस्कार का होता है, जहां कोरोना के डर से अपने भी शवों को हाथ लगाने से कतराते हैं. अमृतपाल ने कहा कि सिख संगठन से जुड़े लोग सभी धार्मिक क्रियाओं के साथ सम्मानपूर्वक शवों का दाह संस्कार करते हैं.

कोरोना की दूसरी लहर में सिख वालंटियर्स कश्मीर ने 75 से ज़ायदा लोगों का अंतिम संस्कार किया है, जिनमें चार सुरक्षाकर्मी और चार प्रवासी हिन्दू भी शामिल हैं, जिनके शवों को जलाने वाला कोई नहीं था.

आज भी संगठन से जुड़े लोग घरों और अस्पतालों में भर्ती मरीज़ों को खाना पहुंचाने के लिए सुबह 7 बजे किचन पहुंच जाते हैं. चावल, दाल, सब्ज़ी, मीट और चिकन तक तैयार करते हैं और ऑर्डर अनुसार 50-75 लोगों का खाना, दिन में दो बार अस्पतालों में पहुंचाते हैं. इस काम में दान-दक्षिणा से सामान को एकत्र किया जाता है और वालंटियर खाना तैयार करते हैं.

वालंटियर शेर सिंह ने कहा, "हम हर वह खाना बनाते हैं, जो डॉक्टर हमको बोलते हैं, इसीलिए कोरोना मरीज़ों के खाने में टमाटर और कद्दू की सब्ज़ी कभी नहीं बनती. 

खाने का सामान एकत्र करने, पकाने और वितरण का काम अलग लाग टीम करती है. टीम के साथी डॉ बलविंदर सिंह के अनुसार कोरोना के इलाज में दवाई से ज़्यादा खाने पीने का महत्व है और अस्पताल में ऐसे भी मरीज़ होते हैं, जिनके परिवार के सभी सदस्य कोरोना पॉजिटिव होते हैं और मदद के लिए कोई नहीं होता. ऐसे लोगों के लिए ही हमारी सेवाएं हैं. 

संगठन के पास मौजूद 60 ऑक्सीजन सिलिंडर और 30 ऑक्सीजन कंसंट्रेटर में से आधे से ज़्यादा अभी भी लोगों के पास हैं, लेकिन कुछ दिन पहले जब कोरोना की दूसरी लहर चरम पर थी, तो इनके पास हर दिन 60-70 लोग आते थे, लेकिन वह सब की मांग पूरा नहीं कर पाते थे.

तभी सभी लोगों तक मदद पहुंचाने के लिए एक एप का निर्माण किया गया. KRIPA नाम के इस एप पर कोई भी अपनी ज़रूरत दर्ज करवा देता है, जिसके बाद कॉल सेंटर से लोग उन मरीज़ों से संपर्क करते हैं. 

संगठन के मेडिकल यूनिट को चलाने वाले गुरजीत सिंह कहना है, "हम दिन रात किसी भी समय लोगों की मदद के लिए तैयार होते हैं और सेवा भी वही सच्ची होती है जो वक़्त पर मिले."


लद्दाख में अंजुमन-ए-जमीयत उलेमा के लोग कर रहे मदद

किसी समाज सेवी संगठन का यह काम केवल कश्मीर तक ही सीमित नहीं. दुर्गम लद्दाख में भी कोरोना मरीज़ों और उनके परिजनों की मदद के लिए धार्मिक संगठनों से जुड़े NGO अब केवल कोरोना के मरीज़ों की मदद में लगे हैं. 

लद्दाख के कारगिल में ऐसा ही एक संगठन है अंजुमन-ए-जमीयत उलेमा, जो आमतौर पर धर्म से जुड़े काम करती हैं. लेकिन कोरोना की दूसरी लहर के बाद संगठन ने धार्मिक कामों को फिलहाल के लिए बंद करके केवल कोरोना मरीज़ों की मदद और कोरोना वैक्सीनेशन के लिए वालंटियर देने का काम किया. 

16 मई को कारगिल में NHPC के एक कर्मचारी की कोरोना से मृत्यु हुई, लेकिन उसकी अंतिम यात्रा के लिए कोई भी इंतेज़ाम नहीं कर सका. कारण यह था कि मरने वाला सुमित इक्का एक ईसाई था और उसको दफनाने की सही प्रक्रिया किसी को पता नहीं थी.

खबर मिलते ही अंजुमन से जुड़े लोगों ने 240 किलोमीटर दूर लेह से एक पादरी को बुलवाया और मृत व्यक्ति को ईसाई धर्म के अनुसार सुन्नी मुस्लिम कब्रिस्तान में दफनाया गया. कोविड के कारण इस अंत्येष्टि में शामिल होने वाले सभी लोगों को पीपीई किट पहन कर सब काम करना पड़ा, लेकिन इस बात की ख़ुशी थी कि मरने वाले को सम्मान मिला. 

अंजुमन के प्रमुख, शेख नज़ीर के अनुसार यह कोई पहली बार नहीं है कि संगठन ने इस तरह का कोई काम किया हो, लेकिन कोरोना काल में जहां देशभर में संक्रमण के डर से लोग अपनों के शवों को बिना अंत्येष्टि के दरिया में बहा रहे हैं, हम नहीं चाहते ऐसी कोई भी घटना हमारे यहां हो. 

शेख नज़ीर ने कहा, "इसीलिए फिलहाल कोरोना जब तक अपना ज़ोर दिखा रहा है, हमारे जवान इंसानियत के लिए मज़हब और मिल्लत की परवाह किए बिना इंसान की मदद करने और इंसानियत के लिए मदद करने का काम करते रहेंगे.

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