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Tryst With Destiny Review: किस्मत की बिसात पर यहां है शह-मात का खेल

चार कड़ियों वाली इस एंथोलॉजी फिल्म में दर्शकों को किस्मत के खेल देखने मिलेंगे. जो दर्शक कंटेंट सिनेमा देखना पसंद करते हैं ट्राइस्ट विद डेस्टिनी उनके लिए है. ऐक्टरों का काम यहां शानदार है.

किसी के भाग्य में क्या लिखा है, यूं तो कोई जानता नहीं लेकिन दिवाली के मौके पर कई लोग अक्सर किस्मत आजमाते हैं. सोनी लिव भी दिवाली पर ट्रीस्ट विद डेस्टिनी के रूप में चार ऐसी कहानियां लाया है, जिसमें आपको किस्मत की कलाबाजी नजर आएगी. यह वेब सीरीज मूल रूप से एंथोलॉजी फिल्म है, जिसकी कहानियां अपने कलेवर में स्वयं का वर्तमान बदलने की जिद्दो-जहद करते किरदारों की तस्वीर पेश करती है. हर किसी की जिंदगी में अपने आज को बदलने का संघर्ष है. किस्मत के खेल में इंसान जिन चीजों से बेदखल है, उसका मन उन्हीं की तरफ भागता है. वह उन्हें पाना चाहता है. ट्रीस्ट विद डेस्टिनी के किरदारों की भी यही जंग है.

क्या आप सोच सकते हैं कि कोई ऐसा इंसान जिसके पास दुनिया की हर चीज को खरीदने की कूवत है, वह भी कुछ ऐसा चाह सकता है, जो उसके नसीब में न हो. आप दिमाग पर जोर दें और फिर इस एंथोलॉजी की पहली फिल्म फेयर एंड फाइन देखें. जिसमें आशीष विद्यार्थी ऐसे खरबपति की भूमिका में हैं, जो सब कुछ होने के बावजूद अपनी त्वचा के रंग से हार रहा है. इस व्यक्ति का भरा-पूरा-सुखी परिवार है लेकिन रंग की कमतरी से खोया चैन उसे हैरतअंगेज कदम उठाने पर मजबूर करता है. दूसरी कहानी समाज का ऐसा चेहरा दिखाती है, जिस पर आप शर्मिंदा हो सकते हैं. वक्त की निरंतर बहती नदी भी कई बार बहुत कुछ नहीं बदल पाती. यहां द रिवर के नायक-नायिका विनीत कुमार सिंह और कनी कस्तूरी के संवाद सुनने को आप तरस जाते हैं. आपको लगता है कि वह अपनी तकलीफ को अब बयान करेंगे, तब करेंगे. लेकिन ऐसा नहीं होता. आप संवेदनशील हैं तो सिर्फ देख कर महसूस कर सकते हैं, जो ये दोनों भुगत रहे हैं. विनीत-सुहासिनी ऐसे वर्ग की त्रासदी सामने लाते हैं जिसकी आवाज ही इस समाज में नहीं है. वक्त भी शायद उनकी सिसकियों को नहीं सुन पाता. ऐसे दीन-हीन लोगों का भाग्य कैसे करवट बदल सकता है?


Tryst With Destiny Review: किस्मत की बिसात पर यहां है शह-मात का खेल

एंथोलॉजी की पहली दो कहानियां जबर्दस्त हैं और बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती हैं. एक व्यक्त शिखर पर है तो दूसरा इतना नीचे दबा कि शायद पाताल में भी उसका पता न मिले. आशीष विद्यार्थी बेहतरीन अभिनेता हैं और उनके बारे में कुछ कहने को बचा नहीं है. वहीं विनीत कुमार सिंह ने जिस अंदाज में मरे हुए जानवरों को ढोने और उनका चमड़ा उतारने वाले वर्ग का प्रतिनिधित्व किया है, वह अपने आप स्मृति में दर्ज हो जाता है. विनीत और कनी कस्तूरी को देखते हुए पार (1984, निर्देशकः गौतम घोष) के नसीरुद्दीन शाह-शबाना आजमी याद आते हैं. आकाश-पाताल की इन दोनों कहानियों पर प्रशांत नायर की पकड़ बहुत मजबूत है.

शेष दो कहानियां इनसे अलग संवेदना वाली हैं. वन बीएचके मुंबई में एक ट्रेफिक पुलिस हवलदार के संघर्ष को बताती है कि कैसे वह अपनी फिजूलखर्च, तेज-तर्रार प्रेयसी के लिए किराये पर वन बीएचके की व्यवस्था करने में नाकाम है. बीच-बीच में लगता है कि शायद वह पुलिसिया अंदाज में किस्मत बदल ले मगर यह आसान नहीं है. जयदीप अहलावत और पलोमी घोष अपनी भूमिकाओं में खरे हैं. यह कहानी बीच में कुछ थ्रिलर किस्म का एहसास दिलाती हुई, किस्मत की खिड़की खोलती है. जिसमें आप देखते हैं कि प्यार की कीमत आज कितनी है. अंतिम कहानी द बीस्ट विदिन, प्रकृति-मनुष्य-व्यवस्था का संघर्ष है. क्या मनुष्य अपने स्वार्थ के लिए सब कुछ खत्म करके मानेगा या फिर इस स्वार्थ से लड़ने के लिए कुछ मनुष्य जरूर खड़े होंगे?


Tryst With Destiny Review: किस्मत की बिसात पर यहां है शह-मात का खेल

ट्रीस्ट विद डेस्टिनी छोटी-छोटी कहानियों को लेकर बड़ी-बातें कहने की कोशिश है. जिसमें किस्मत के खेल के साथ इंसानी कोशिशों को पिरोया गया है. कहा जाता है कि इंसान खुद अपनी किस्मत लिखता है, वह लिखे हुए को बदलता भी है लेकिन क्या सब लोग ऐसा कर पाते हैं? किस्मत की बिसात पर शह और मात के खेल लगातार चलते हैं और जीवन संभवतः इसी का नाम है. प्रशांत का कहानियों का चयन और निर्देशन अच्छा है. ऐक्टरों का चुनाव भी उन्होंने सजगता से किया है. सभी अपने किरदारों में फिट हैं. कैमरा वर्क कहानियों के अनुकूल ढलता जाता है और रोचक तरीके से तस्वीरें आपके सामने रखता है. आधे-आधे घंटे से कुछ कम की यह कहानियां प्रभाव छोड़ती हैं. इनमें पारंपरिक मसाला नहीं है. ऐसे में वे दर्शक जो लीक से हट कर कंटेंट देखना पसंद करते हैं, उन्हें किस्मत के इस खेल को आजमाना चाहिए.

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