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Blog: आखिर वरुण गांधी की इस बगावत का राज क्या है?

दुनिया के मशहूर मनोविज्ञानी सिग्मंड फ्रायड ने अपनी तमाम रिसर्च करने के बाद ये निचोड़ निकाला था कि अगर आप किसी इंसान को अपने परिवार, समाज या वहां की व्यवस्था के खिलाफ बगावत करते हुए देखते हैं, तो उसे कसूरवार मत समझिए. बेहतर होगा कि आप उसकी परवरिश के इतिहास के पन्ने खोलकर पढ़िए, तो आपको हर सवाल का जवाब मिल जाएगा."

देश की राजनीति में फिलहाल नेहरु-गांधी परिवार के दो चिराग हैं और दोनों के रास्ते अभी तक तो अलग-अलग ही हैं लेकिन छोटे चिराग ने जिस तरह से अपनी ही पार्टी में बगावती तेवर अपना रखे हैं, उसे देखकर राजनीति के पंडित भी ये कयास लगा रहे हैं कि दोराहा जहां खत्म होता है, वहीं से नए सफर की शुरुआत होती है. तो सवाल उठ रहा है कि उत्तर प्रदेश के पीलीभीत से बीजेपी के फायर ब्रांड सांसद वरुण गांधी क्या अपने पुरखों की पार्टी यानी कांग्रेस का हाथ थामने का मन बना चुके हैं? और, अगर ऐसा नहीं है तो फिर वे यूपी से लेकर केंद्र में काबिज़ अपनी ही सरकार के ख़िलाफ इतने जहरीले बोल क्यों बोल रहे हैं? यूपी के विधानसभा चुनाव से पहले वे दबाव की सियासत खेल रहे हैं या फिर वे चाहते हैं कि पार्टी नेतृत्व को इतना मजबूर कर दिया जाए कि वो खुद ही उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दे? इस तरह के सवालों ने लखनऊ से लेकर दिल्ली के सियासी गलियारों को गरमा तो रखा है लेकिन इसका माकूल जवाब सिवा वरुण गांधी के बीजेपी के किसी भी नेता के पास नहीं है. लेकिन हैरानी की बात ये है कि बगावत के तमाम सुरों को सुनने के बाद भी पार्टी आलाकमान ने कुछ वैसी ही खामोशी ओढ़ रखी है, जो समंदर में तूफान आने से पहले होती है.

देश में किसान आंदोलन को शुरू हुए तकरीबन 10 महीने हो चुके हैं और इस दौरान अनेकों बार वरुण गांधी ने अपनी पार्टी लाइन से अलग हटकर किसानों का साथ दिया है. उनके हक में अपनी आवाज उठाई है और आज भी वे इससे पीछे हटने को तैयार नहीं हैं. हालांकि इसके लिए उन्होंने मुख्य मीडिया की बजाय सोशल मीडिया को ही अपना प्लेटफार्म बना रखा है. शायद इसलिए कि वहां कम वक़्त में ही बेहद आसानी से अपनी बात को बहुत दूर तक पहुंचाया जा सकता है. जाहिर है कि जितना मुखर होकर वे अपनी बात कह रहे हैं, उससे पार्टी का शायद ही कोई नेता सहमत हो और वे भी इस सच्चाई को बखूबी जानते ही होंगे. फिर भी बेख़ौफ होकर इतना जिगरा दिखाने के आखिर क्या सियासी मायने हैं. ये उन सियासी हकीमों की समझ से भी बाहर है, जो सियासत की नब्ज देखकर ही मर्ज का इलाज बताने में माहिर समझे जाते हैं. इसकी वजह भी है क्योंकि उनकी सांसदी में अभी ढाई साल से ज्यादा वक्त बचा है. लिहाजा, यदि वो बीजेपी से इस्तीफा देकर कांग्रेस का दामन थामें और विधायक बनने के लिए यूपी में चुनाव लड़ें, तो यह तो खुद ही अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा ही होगा. उनकी बगावत का पानी नाक तक आते-आते अगर पार्टी ही उन्हें बर्खास्त कर देती है, तब भी वरुण अभी तक तो इतने ताकतवर नेता नहीं बन सके हैं कि वे अपने बूते पर यूपी में बीजेपी की नैया डुबो सकें.तो आखिर क्या चाहते हैं वरुण गांधी?

आखिर क्यों उठ रहे हैं ये सवाल?
ये सवाल इसलिए है कि लखीमपुर खीरी की घटना के बाद उन्होंने सोशल मीडिया पर अपने कई ट्वीट के जरिये जिस अंदाज में अपनी ही पार्टी की सरकार को कठघरे में खड़ा करने की जो हिम्मत दिखाई है, वो तो सिर्फ विपक्ष का ही कोई नेता कर सकता है. रविवार को भी उन्होंने एक ट्वीट करके फिर से योगी सरकार को मुसीबत में डालने की कोई कसर बाकी नहीं रखी. वरुण गांधी ने ट्वीट किया, "लखीमपुर खीरी में हुई हिंसा के मामले को हिंदू बनाम सिख युद्ध के तौर पर प्रोजेक्ट करने के प्रयास चल रहे हैं. यह अनैतिक रूप से गलत है और भ्रमित करने वाला नैरेटिव है. इस तरह की चीजों से खेलना खतरनाक है. इससे एक बार फिर से जख्म उभर सकते हैं, जिन्हें भरने में लंबा वक्त लगा है. हमें क्षुद्र राजनीतिक हितों के लिए राष्ट्रीय एकता को दांव पर नहीं लगाना चाहिए."

बेशक वरुण की मां मेनका गांधी एक सिख परिवार से हैं और खुद वरुण के पीलीभीत लोकसभा क्षेत्र में सिख किसानों की खासी तादाद भी है ,लिहाजा उनकी इस भावना को गलत भी नहीं ठहराया जा सकता. लेकिन जो सवाल बीजेपी के नेता दबी जुबान से पूछते हैं, वहीं सवाल अब विपक्ष ने भी खुलकर पूछना शुरू कर दिया है कि अगर वरुण किसानों के इतने ही बड़े हमदर्द हैं, तो वे उनकी लड़ाई सिर्फ सोशल मीडिया के जरिये ही क्यों लड़ रहे है? पार्टी से इस्तीफा देकर किसानों के साथ खुलकर मैदान में आने से उन्हें आखिर क्या परहेज़ है?

हालांकि इसका बेहतर जवाब तो वही दे सकते हैं लेकिन वरुण गांधी को और उनकी राजनीति को नजदीक से जानने वाले दावा करते हैं कि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि उन्होंने पार्टी की विचारधारा से अलग हटकर अपनी आवाज़ उठाई है. पिछले करीब आठ सालों में वे कई बार पार्टी के व अन्य सार्वजनिक मंचों से अपनी अंतरात्मा की आवाज़ उठाते रहे हैं, भले ही वो पार्टी नेताओं को नागवार गुजरी हो. वे तो ये भी कहते हैं कि मीडिया जिसे बगावत का नाम दे रहा है, वह सही मायने में सच और इंसाफ की लड़ाई लड़ रहे हैं और वक़्त आने पर वे इसके लिए बड़ी से बड़ी कुर्बानी देने से भी पीछे नहीं हटेंगे. खैर, ये तो भविष्य के गर्भ में है कि आने वाले दिनों में क्या होता है क्योंकि राजनीति वो शै है, जिसके बारे में आला दर्जे का नजूमी भी नहीं बता सकता कि अगले पल क्या होने वाला है.

बात करते हैं, सिग्मंड फ्रायड के उस कथन की. दरअसल, साढ़े 41 बरस के वरुण गांधी की जिंदगी पर अगर गौर डालें, तो हमें उनके बचपन से लेकर जवानी तक के कई सियाह पेज पढ़ने को मिलते हैं. दरअसल, वरुण के पिता संजय गांधी की 23 जून 1980 को दिल्ली में एक विमान दुर्घटना में जब दर्दनाक मौत हुई थी, तब वरुण की उम्र मात्र तीन महीने व 10 दिन की थी. पति की मौत के बाद जो कुछ आम भारतीय घरों में देखने को मिलता आया है. ठीक वही नज़ारा उस वक़्त वरुण की दादी और देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के घर पर भी था. विधवा बहू की उपेक्षा और सास-बहू के बीच होने वाली रोजमर्रा की खटपट ने आखिर वो दिन ला ही दिया, जो अक्सर ऐसे रिश्तों का अंजाम होता है.

वजह और भी बहुत रही होंगी लेकिन उस रिश्ते को लेकर जितनी पुस्तकें लिखी गईं है, उनमें एक समान वजह यही बताई गई कि इंदिरा गांधी इस बात से नाराज रहती थीं कि उनके राजनीतिक विरोधियों से भी मेनका ने अच्छे संबंध बना रखे थे. खैर, 28 मार्च 1982 वह दिन था, जब 1 सफ़दरजंग रॉड स्थित प्रधानमंत्री के बंगले से मेनका गांधी को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. तब उनकी गोद में यही वरुण थे, जिनकी उम्र महज दो साल और 15 दिन की थी.

लिहाजा, सिर्फ मां के साये में ही बचपन से लेकर जवानी तक जिसकी परवरिश हुई हो और बड़े होने पर जिसने जिंदगी की हक़ीक़त को किसी फिल्म की कहानी के फ़्लैश बैक की तरह देखा-जिया हो, तो उसकी रगों में दौड़ रहे विद्रोह के खून की धारा को भला कैसे रोका जा सकता है? हालांकि, जो बगावत उन्हें अपने पुरखों की पार्टी में रहकर करनी चाहिए थी, वे इसे बीजेपी में रहकर अंजाम दे रहे हैं. बस, यही स्वभाव उन्हें भीड़ से अलग करता है.

नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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