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तीस्ता में अचानक से आयी बाढ़, बह गए पुल, सड़क और जलविद्युत परियोजनाएं, प्रकृति समझा रही है जलवायु परिवर्तन का पाठ

बंगाल और बिहार के मैदानी इलाकों में कास के खिलने के साथ ही बारिश का मौसम जाने को है कि अचानक पिछले कुछ दशकों से शांत पड़ी तीस्ता नदी पिछले बुधवार यानी 4 अक्टूबर की शाम से दहाड़ उठी. तेज बहाव और गाद के लिए प्रसिद्ध तीस्ता नदी के ऊपरी भाग से लेकर उत्तर बंगाल के मैदान तक आयी तबाही सतर के दशक में तीस्ता में आयी भयंकर बाढ़ की याद दिला रही है. गाद से भरे नदी के तेज बहाव की टीवी चैनल्स के फुटेज में स्पष्ट है कि नदी का जलस्तर ना सिर्फ खतरे के निशान बल्कि अचानक से 15-20 फीट तक ऊपर जा पहुंचा. बता दें कि तीस्ता नदी के ऊपरी हिस्से में बादल फटने और दक्षिण ल्होनक हिमनदीय झील के टूटने के बाद हिमनद जनित पानी, गाद, और चट्टानों के मलवे से उत्तरी सिक्किम के लाचन घाटी में नदी के राह में आया सब कुछ बह चुका है.

सिक्किम की बाढ़ है बड़ा सबक

आम जानमाल के नुकसान के अलावा कम से कम छ:पुल, एक जलविद्युत् परियोजना का पूरा प्रकल्प, सुरक्षा दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण राष्ट्रीय राज्यमार्ग-10 का कुछ हिस्सा, सेना के कैंप, जवान और गाड़ियां 50 किलोमीटर प्रति घंटे तक के तेज बहाव में बह गए. तीस्ता नदी पर बनाये गए चुंगथांग बांध और 14 हज़ार करोड़ के लागत वाले 1200 मेगावाट के तीस्ता-3 पनबिजली संयंत्र वैसे ही तबाह हो गए, जैसा कि दो साल पहले उतराखंड में गंगा नदी तंत्र के ऋषिगंगा पनबिजली संयंत्र (13.5 मेगावाट) और निर्माणाधीन तपोवन-विष्णुगढ़ पनबिजली संयंत्र (550 मेगावाट) के साथ हुआ था. यहां तक कि तीस्ता-4 और तीस्ता-5 भी अचानक आयी बाढ़ से प्रभावित हुए हैं. बादल फटने के बाद मलबे वाली बाढ़ की तीव्रता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि ना सिर्फ नदी का जलस्तर 15-20 फीट तक बढ़ गया बल्कि पानी बहाव की गति सामान्य बहाव 20 किलीमीटर/घंटा के तीन गुना तक जा पहुंची. तीस्ता 5400 मीटर की ऊँचाई से सिक्किम के उत्तरी छोर के तीस्ता खंग्सी हिमनद समूह से निकल कर अनेक नदियों को खुद में मिलाते हुए राज्य की पूरी लम्बाई और तीखी ढलान के साथ बहकर उत्तरी बंग से होकर बांग्लादेश में ब्रह्मपुत्र नदी में मिल जाती है. तीस्ता नदी के उद्गम के पास लगभग 5000 मीटर की ऊंचाई पर दक्षिण ल्होनक हिमनदीय झील स्थित है. कुछ दिनों से लगातार बारिश और बादल फटने से क्षमता से ज्यादा पानी भरने से झील का दक्षिणी बांध टूट गया और झटके से सारा पानी तीस्ता नदी के तीखे ढलान से 50 किलोमीटर/घंटा तक के गति से बह निकली. तेज बहाव और रास्ते के मलवे, चट्टान के टुकड़ों के कारण चुंगथांग बांध और तीस्ता-3 जल विद्युत संयंत्र को भयंकर क्षति हुई.

हिमालय कुछ बता रहा है 

ऐसी घटनाएं हिमालय जैसे नए और अस्थिर क्षेत्र के लिए प्राकृतिक रूप असंभव भी नहीं है. हाल के कुछ सालों में हिमालय में बदलते मानसून के स्वरूप, बढ़ते तापमान, जलवायु परिवर्तन के कारण हिमनद और भूगर्भीय आपदाओं में बेतहाशा बढ़ोतरी देखी गयी है, जिसके मूल में बारिश के बदलते मिजाज, बादल फटने की आवृति में बढ़ोतरी, भूस्खलन में इजाफा और हिमनदीय झील के फटने आदि की घटनाएं शामिल हैं. हिमनद जाड़े में बर्फ जमने से  घाटी में नीचे तक आ जाता है और गर्मी में बर्फ के पिघलने से ऊपर चला जाता है.  हिमनद में बर्फ के जमने और पिघलने का वार्षिक संतुलन कुछ वर्षो में वैश्विक गर्मी के कारण बुरी तरह बिगड़ने लगा है. पिघलते और सिकुड़ते हिमनद अपने कमजोर मुहाने पर पानी के निकास का रास्ता अवरुद्ध कर भुरभुरी बांध (भूस्खलन, अवलांच के मलवे से भी) वाली झील बनाती है. हाल के दशकों में पूरे हिमालय में ऐसे हिमनदीय झीलों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है. ऐसी झीलें काफी कमजोर होती हैं और पानी की मात्रा बढ़ने के साथ अचानक से फट जाती हैं, जिससे झटके में सारा पानी बह निकलता है और व्यापक स्तर पर तबाही का सबब बनता रहा है. पानी के निकास के पास जहां जितना ज्यादा मलवा होता है वो झील बाँध के टूटने पर उतनी ही बड़ी तबाही लाती है. केदारनाथ की तबाही भी ऊँचाई पर तोराबोरा झील के फटने से आयी थी और वर्तमान तीस्ता नदी की आपदा भी ल्होनक झील के फटने से ही आयी है. 

सेटेलाइट तस्वीर के मुताबित दक्षिणी ल्होनक झील कोई नयी बनी संरचना नहीं है, बल्कि इसका वजूद दशकों या सैकड़ो साल पुराना है. अतः इसके जल संग्रहण क्षमता भी अन्य अस्थायी झीलों के मुकाबले बहुत ज्यादा रही होगी और झील को घेरने वाले बांध की मजबूती भी. इस परिस्थिति में झील, जो पहले से ही भरा हुआ था, बादल फटने से अपनी क्षमता से कई गुणा ज्यादा पानी को सह नहीं पाया और फट गया. पिछले कुछ महीनों से अब तक दक्षिणी ल्होनक झील का क्षेत्रफल 162 से 167 हेक्टेयर के बीच पाया गया यानी कि झील लगभग भरा हुआ था. तीस्ता त्रासदी के अगले दिन के सेटेलाइट तस्वीर के मुताबिक झील का क्षेत्रफल मात्र 60 हेक्टेयर पाया गया, यानी झील फटने के कुछ ही घंटों के भीतर झील का दायरा सिमट कर एक-तिहाई रह गया. दक्षिणी ल्जोनक झील से लेकर नीचे उत्तरी बंगाल के मैदान तक तबाही का मंजर झील की विशाल जलराशि का कुछ घंटो में बह जाने की गवाही दे रहा है जिसकी जद में 1200 मेगावाट की तीस्ता-3 जल विद्युत परियोजना जमींदोज हो चुकी है. 

सिकुड़ रहे हैं हिमनद

हालिया के कुछ अध्ययन के अनुसार उत्तर-पश्चिमी के कुछ हिस्सों को छोड़ दिया जाये तो हिमालय के लगभग अधिकांश हिमनद बहुत तेजी से सिकुड़े हैं. एक अन्य अध्ययन के मुताबिक हिमालय क्षेत्र में अस्थायी हिमनदीय झीलों की संख्या 3000 से अधिक पाई गयी है. सेटेलाइट तस्वीर के आधार पर इकट्ठे किये गए आंकड़ों के आधार पर केवल सिक्किम के हिमालयी क्षेत्र में हिमनदीय झीलों की संख्या 320 तक पाई गयी जिसमें लगभग 21 काफी अस्थायी और टाइम बम की तरह कभी भी फट जाने की आशंका वाली है. हिमालयी क्षेत्र में रही सही कसर बारिश में आए बदलाव जो कि कम समय के लिए काफी तीव्र हो रही है (बादल फटना) ने पूरी कर दी है. दक्षिणी ल्होनक झील के फटने के चेतावनी ना सिर्फ कई शोध में बताया जाता रहा है बल्कि भारत के नियंत्रक-महालेखापरीक्षक भी तीस्ता-3 के 2017 में शुरू होने के बाद से ऐसी त्रासदी की आशंका जताई जा रही थी. इस सारी जानकारियों के बावजूद सिक्किम को हमेशा से जलविद्युत उत्पादन के लिहाज से हमेशा से ऊपर रखा गया और अनेक ऐसी परियोजनाओं को अकेले तीस्ता नदी पर ही अंजाम दिया गया. 

बचाना होगा हिमालय को

हिमालय उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव के इतर बर्फ का सबसे बड़ा केंद्र है, इस लिहाज से इसे ‘तीसरा ध्रुव’ (थर्ड पोल) और विश्व का ‘जल स्तम्भ’ (वाटर टावर) का दर्जा हासिल है. पर विशाल हिमालय शृंखला काफी हद तक कमजोर और भुरभुरी संरचना है, और भूगर्भीय हलचल के कारण तनाव में है. हिमालय क्षेत्रीय और कुछ हद तक वैश्विक जलवायु को व्यापक स्वरूप में प्रभावित और नियंत्रित करता है, चाहे स्थानीय मानसून हो, या व्यापक भू-समुद्री तालमेल के रूप में हो और इस लिहाज से जलवायु परिवर्तन का असर अन्य पारिस्थितिक तंत्रों के मुकाबले हिमालय क्षेत्र पर वृहत रूप से पड़ा है. जलवायु में तेजी से हो रहे परिवर्तन के प्रभाव में हिमालय में बर्फ का तूफान, भूस्खलन, हिमनदीय झील का टूटना या फटना, ऊंचाई पर कमजोर अस्थायी झीलों का बनाना, तीखी ढलान वाली नदी और भूगर्भीय हलचल एक सामान्य सी प्रक्रिया हो चली है. जलवायु परिवर्तन और बदलते मानसून के दौर में कमजोर और भुरभुरी हिमालयी संरचना विकासवाद की भेंट चढ़ रही है. चाहे पनबिजली हो, या जंगल का दोहन हो, या खनिज संपदा की खसोट हो, पहाड़ की चोटी तक एक्सप्रेस वे बना के कार से पहुंच जाने की सनक हो या फिर छोटे पहाड़ी शहरों को गुरुग्राम-लखनऊ बना देने की होड़, हमारे पहाड़ अब टूट रहे हैं त्रासदी-आपदा बन के. सस्ती हो रही सौर उर्जा के दौर में और पहाड़ से जुड़े आपदा की समझ और साल दर साल आपदा झेलने के बावजूद भी तीस्ता सरीखी नदियों की तीखी ढाल से बिजली बनाने की प्रवृति गैर मामूली रूप से चलन में है. अब हमें सोचना होगा कि क्या पहाड़ हमारी तथाकथित विकास का बोझ सह पायेगी?, क्या ये सतत विकास के वायदे के अनुरूप है?, उत्तर है, नहीं …! 

पहाड़ की जरुरत और उनका विकास सूखते झरनों को फिर से जीवित करने में है, समेकित सोच के साथ. जरुरत है पहाड़ को पहाड़ के रूप में ही विकसित किया जाये, स्थानीय निवासी, भूगोल और प्रकृति के तालमेल के साथ योजनाएं कार्यान्वित की जाएं, और एक सवाल हर उपक्रम से जोड़ा जाए कि ‘विकास किसके लिए और किस कीमत पर’ तो फिर हिमालय से जुडी़ वैसी घटनायें तो होंती रहेगी पर शायद ही ये आपदा का रूप ले पाएं, हम बहुत कुछ शायद बचा ले जाएं.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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