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क्या सरकारी स्कूलों में धार्मिक शिक्षा और सिर्फ एक धर्म की पुस्तक की पढ़ाई लागू करना है मुमकिन?

भारत में इन दिनों धार्मिक किताबों पर राजनीतिक बहस सुर्खियों में है. आरजेडी नेता और बिहार के शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर के श्रीरामचरितमानस पर विवादित टिप्पणी से इस विवाद की शुरुआत हुई. बहस को समाजवादी पार्टी के नेता स्वामी प्रसाद मौर्या ने हवा दे दी.  अब ये बहस बीजेपी के वरिष्ठ नेता और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के सरकारी स्कूलों में हिन्दू धार्मिक ग्रंथों रामायण, महाभारत, वेद, उपनिषद, श्रीमद्भगवद् गीता के पढ़ाए जाने के बयान पर जा पहुंची है.

धार्मिक किताबों पर चर्चा के बीच शिवराज सिंह चौहान के बयान से एक नया सवाल भी खड़ा हो गया है. क्या सरकारी स्कूलों में सिर्फ एक ही धर्म की किताबों की पढ़ाई करने का फैसला सही है या नहीं. क्या सरकारी स्कूलों में जो पूरी तरह से सरकारी खर्चे पर चलते हैं, उनमें धार्मिक शिक्षा दी जा सकती है या नहीं. 

संवैधानिक पहलू को जानना जरूरी

इस मुद्दे से कई पहलू जुड़े हुए हैं. इनमें सामाजिक और राजनीतिक पहलू तो हैं ही, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण संवैधानिक पहलू है. गड़बड़ इस वजह से हो जा रही है कि हम-आप संवैधानिक पहलू से या तो अनजान हैं या फिर राजनीतिक ताना-बाना में उस ओर किसी का ध्यान ही नहीं जाने दिया जा रहा है.

क्या मायने है SECULAR शब्द का?

संवैधानिक पहलू पर चर्चा करें तो भारत एक पंथनिरपेक्ष (SECULAR) देश है. मूल संविधान में पंथनिरपेक्ष शब्द शामिल नहीं था. 42वें संविधान संशोधन अधिनियम के जरिए 1976 में इसे संविधान के प्रस्तावना (PREAMBLE) में शामिल गया है. इस शब्द के मुताबिक भारत एक ऐसा गणराज्य है, जिसमें सरकार की नीतियां धर्म या पंथ से परे होंगी. इस मायने में सरकारी स्कूलों के पाठ्यक्रम में धार्मिक ग्रंथों को शामिल करना संविधान की प्रस्तावना के अनुरूप नहीं है. हालांकि धार्मिक ग्रंथों में निहित नैतिक मूल्यों, संदेशों और शिक्षा के बारे में स्कूली शिक्षा में जानकारी देना संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन नहीं माना जाएगा.

संविधान से जुड़े कई पहलू हैं, जिस पर गौर किया जाना चाहिए. ऐसे तो भारतीय संविधान के भाग 3 में शामिल धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार को मूल अधिकार का हिस्सा बनाया गया है. इसके लिए बकायदा अनुच्छेद 25 से अनुच्छेद 28 तक अलग-अलग प्रावधानों का जिक्र भी है. इसके तहत देश के हर नागरिक को निजी तौर से अपने-अपने धर्मों को मानने, आचरण करने और प्रचार करने की आजादी है. हालांकि इस बात का ख्याल रखा जाना चाहिए कि इससे समाज में पब्लिकऑर्डर से जुड़ी कोई समस्या पैदा न हो जाए.

धार्मिक शिक्षा को लेकर संवैधानिक स्थिति

सरकारी स्कूलों में किसी भी तरह की धार्मिक शिक्षा देने को लेकर संविधान का अनुच्छेद 28 बिल्कुल स्पष्ट है. अनुच्छेद 28 (1) में स्पष्ट तौर से कहा गया है कि ऐसे किसी भी शैक्षिक संस्था, जो पूरी तरह से सरकारी खर्चे पर चलती है, उसमें कोई भी धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी. हां, अगर कोई शैक्षिक संस्था किसी ट्रस्ट के अधीन स्थापित है, भले ही उसका प्रशासन राज्य के अधीन हो, तो जरूरी होने पर ऐसी संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा देने पर संवैधानिक अड़चन नहीं है. इस तथ्य का जिक्र अनुच्छेद 28 (2) में साफ-साफ किया गया है. अनुच्छेद 28 (3) एक और पहलू को साफ करता है. अगर कोई शैक्षिक संस्था राज्य से मान्यता प्राप्त है या उसे स्टेट फंड से मदद मिलती है, तो ऐसी संस्थाओं में दी जाने वाली धार्मिक शिक्षा या उपासना में भाग लेने के लिए किसी भी नागरिक को उसकी सहमति के बिना मजबूर नहीं किया जा सकता. नाबालिग होने की स्थिति में अभिभावक की मंजूरी जरूरी है.

सरकारी स्कूलों में धार्मिक शिक्षा पर रोक

ऊपर की बातों को गौर करने पर एक बात स्पष्ट है कि सरकारी स्कूलों में, जो पूरी तरह से सरकारी खर्चे से चलते हैं, उनमें किसी भी तरह की धार्मिक शिक्षा नहीं दी जा सकती. चाहे वो हिन्दुओं के धार्मिक ग्रंथ हो या फिर मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन या बौद्ध धर्म से ही क्यों न जुड़े हों. अगर कोई भी सरकार सरकारी स्कूलों में धार्मिक शिक्षा देने के बारे में कोई भी फैसला करती है, तो उससे पहले संविधान में संशोधन कर अनुच्छेद 28 में बदलाव की आवश्यकता पड़ेगी और अगर इसके बगैर ऐसा किया जाता है, तो वो फैसला असंवैधानिक श्रेणी में आ जाएगा.

अल्पसंख्यकों के शैक्षिक संस्थाओं पर बहस

धार्मिक शिक्षा से जुड़ी बहस में एक और संवैधानिक पहलू है, जिसको लेकर लंबी बहस होते रही है. ये पहलू अल्पसंख्यकों के शैक्षिक संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन से जुड़ा है. हमारे देश में धर्म या भाषा पर आधारित सभी अल्पसंख्यक वर्गों को अपनी रुचि की शैक्षिक संस्थाओं के गठन और प्रशासन का अधिकार है. इसके लिए बकायदा अनुच्छेद 30 (1)  में प्रावधान भी किया गया है. कोई भी सरकार या राज्य अल्पसंख्यकों से प्रबंधित शैक्षिक संस्थाओं को सहायता देने में धर्म या भाषा के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा. अनुच्छेद 30 (2) के इस प्रावधान के जरिए संवैधानिक प्रावधानों के तहत बने किसी भी अल्पसंख्यकों के शैक्षिक संस्थाओं को लेकर सरकारी भेदभाव की गुंजाइश कानूनी तौर पर खत्म कर दी गई है.

अनुच्छेद 30 को लेकर होता रहा है विवाद

संविधान के अनुच्छेद 30 को लेकर कुछ लोग सवाल उठाते रहे हैं. ऐसे लोगों की दलील रहती है कि देश में हर नागरिक एक समान हैं और सबको संविधान के मुताबिक समानता का अधिकार मिला हुआ है. फिर भी अल्पसंख्यक समुदायों को अपनी पसंद की शैक्षिक संस्थाओं को बनाकर मज़हबी शिक्षा हासिल करने का अधिकार क्यों मिला हुआ है. अनुच्छेद 30 पर सवाल खड़े करने वाले लोगों का ये भी तर्क रहता है कि इस अनुच्छेद की वजह से ही अल्पसंख्यकों के लिए शैक्षणिक संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा हासिल करना मुमकिन हो पा रहा है और इस प्रावधान से ऐसी शिक्षा पर सरकारी खर्च भी जायज हो जा रही है. वहीं हिन्दुओं के लिए सरकारी स्कूल वगैरह में धार्मिक शिक्षा पर रोक लगी हुई है. बीजेपी के नेता कैलाश विजयवर्गीय ने मई 2020 में इसको लेकर ट्वीट भी किया था कि देश में संवैधानिक समानता के अधिकार को अनुच्छेद 30 सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचा रहा है. उन्होंने लिखा था कि ये अल्पसंख्यकों को धार्मिक शिक्षा की इजाजत देता है, जो दूसरे धर्मों को नहीं मिलती और जहां हमारा देश धर्मनिरपेक्षता का पक्षधर है तो आर्टिकल 30 की क्या जरूरत है.

धार्मिक शिक्षा के लिए संविधान में करना होगा बदलाव

कैलाश विजयवर्गीय के इस ट्वीट से भी जाहिर है कि उन्हें भी पता है कि सरकारी स्कूलों में धार्मिक शिक्षा फिलहाल देना असंवैधानिक होगा. मुख्यमंत्री जैसे संवैधानिक पदों पर विराजमान लोगों को भी संविधान के इस पहलू के बारे में भलीभांति जानकारी होती है. लेकिन फिर भी सरकारी स्कूलों में हिन्दू धार्मिक ग्रंथों को पढ़ाए जाने का बयान ऐसे पदों पर आसीन लोगों से आते रहते हैं और इसका बड़ा कारण राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश है. इस तरह के बयान से राजनीति में ध्रुवीकरण को बढ़ावा भले मिल सकता है, लेकिन सरकारी स्कूलों में किसी भी तरह की धार्मिक शिक्षा के लिए संविधान में बदलाव करना ही पड़ेगा.

सुप्रीम कोर्ट में भी पहुंचा था मामला

सुप्रीम कोर्ट भी अनुच्छेद 30 से जुड़े विवाद पर स्पष्ट कर चुकी है कि इस आर्टिकल के तहत अल्पसंख्यकों को मिले अधिकार, सिर्फ बहुसंख्यकों के साथ समानता स्थापित करने के लिए है, न कि अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों के मुकाबले अधिक लाभ की स्थिति में रखने के लिए.   सेक्रेटरी ऑफ मलनकारा सीरियन कैथोलिक कॉलेज केस में सुप्रीम कोर्ट ने 2007 में अपने आदेश में ये बातें कही थी कि राष्ट्रीय हित और सुरक्षा से जुड़े सामान्य कानून अल्पसंख्यक संस्थानों पर भी लागू होते हैं.

अनुच्छेद 30 के तहत बने अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों के विपरीत सरकारी स्कूल में हर धर्म के बच्चे पढ़ने आते हैं और संविधान में इसी पहलू को ध्यान में रखते हुए सरकारी खर्च से चलने वाले सरकारी स्कूलों में किसी भी तरह की धार्मिक शिक्षा पर पाबंदी लगाई गई है. अब अगर सरकारी स्कूलों में धार्मिक शिक्षा देनी ही है, तो संवैधानिक बदलाव ही एकमात्र जरिया है और उसमें भी ये सवाल उतना ही मौजूं है कि सरकारी स्कूलों में सिर्फ एक ही धर्म के धार्मिक ग्रंथों को क्यों पढ़ाया जाना चाहिए. सामाजिक और राजनीतिक नजरिए के साथ ही इस मसले को संवैधानिक नजरिए से भी देखा जाना चाहिए. सिर्फ राजनीतिक फायदे के लिए, चुनावी जीत के लिए धार्मिक शिक्षा को लेकर कोई भी बयान देना, भारत जैसे लोकतांत्रिक देश के संवैधानिक मूल्यों को ताक पर रखने के समान है.   

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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