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क्या लड़ाई सिर्फ सचिन पायलट और अशोक गहलोत के बीच की है? जानें पर्दे के पीछे की पूरी कहानी

अशोक गहलोत Vs सचिन पायलट टीवी चैनलों पर राजस्थान की सियासत को लेकर  खबर चल रही है, लेकिन बहुत कम लोग ये जानते हैं कि राजस्थान के राजनीतिक रण में इससे पहले अशोक गहलोत vs राजेश पायलट का खेल भी हो चुका है जिसका एपिसोड नंबर 2 अशोक गहलोत Vs सचिन पायलट फिलहाल चल रहा है... लेकिन अभी पर्दे के पीछे एक और खेल है जिसकी जानकारी शायद ही आपको होगी और वो है इस राजनीतिक पटकथा का एपिसोड नंबर  3... जो होगा सचिन पायलट Vs वैभव गहलोत. यानी जिन राजनीतिक पंडितों का ये दावा है कि अशोक गहलोत सचिन पायलट को इसलिए सीएम नहीं बना रहे क्योंकि उनकी सीएम की कुर्सी खतरे में है वो शायद ये नहीं भांप पा रहे कि अशोक गहलोत पायलट को कुर्सी से इसलिए भी दूर रखना चाहते हैं क्योंकि उन्हें अपने परिवार के राजनीतिक भविष्य की चिंता है जिसकी कड़ी हैं उनके बेटे वैभव गहलोत. तो चलिए सुनाते हैं. आपको इस राजनीतिक पटकथा के एपिसोड नंबर 1 से एपिसोड नंबर 3 तक की पूरी कहानी. नमस्कार मैं हूं भूपेंद्र सोनी और आप देख रहे हैं अनकट

सबसे पहले बात एपिसोड नंबर एक यानी अशोक गहलोत vs राजेश पायलट की...

कहानी की शुरूआत करते हैं राजेश पायलट से. साल 1980 में राजेश पायलट ने पहली बार ये मन बनाया कि वो वायुसेना छोड़ राजनीति में उतरेंगे, गांधी परिवार से राजेश पायलट की नज़दीकी थी तो साल 1980 में उन्हें राजस्थान के भरतपुर से लोकसभा का टिकट दिया गया. राजेश पायलट की जिंदगी का ये पहला चुनाव था. उधर राजेश पायलट की तरह ही जोधपुर राजस्थान से एक और नेता कांग्रेस के टिकट पर चुनाव मैदान में था जिसका नाम था अशोक गहलोत. इन दोनों में एक समानता थी कि ये दोनों ही नेता गांधी परिवार के काफी करीबी थे लेकिन, अशोक गहलोत जहां राजस्थान की पैदाइश थे वहीं राजेश पायलट राजस्थान से बाहर के नेता थे. खैर राजेश पायलट ने भरतपुर से चुनाव तो जीता लेकिन कांग्रेस के कद्दावर नेता नटवर सिंह के विरोध के चलते उन्होंने भरतपुर में दोबारा कदम नहीं रखा और अगला चुनाव राजस्थान के दौसा से लड़ा और फिर उसी को अपनी कर्म भूमि बना लिया लेकिन, राजेश पायलट और अशोक गहलोत में तकरार शुरू कैसे हुई? जानकारों की मानें तो राजेश पायलट और अशोक गहलोत दोनों ही राजस्थान की सत्ता के शिखर पर पहुंचना चाहते थे और राजीव गांधी के दौर में दोनों ने ही इस ओर धीरे धीरे कदम बढ़ाने शुरू किए. हालांकि दोनों को ही समझ आ चुका था कि आगे बढ़ने के लिए किसी दूसरे को पीछे करना ही होगा लेकिन, राजीव गांधी की हत्या के बाद राजेश पायलट के लिए स्थितियां तब पलट गईं जब पीवी नरसिम्हा राव को देश का प्रधानमंत्री बनाया गया. क्योंकि नरसिम्हा राव के साथ पायलट का राजनीतिक मतभेद पहले से ही चला आ रहा था. जिसका फायदा मिला अशोक गहलोत को क्योंकि पीवी नरसिम्हा राव ने राजेश पायलट को पीछे करते हुए गहलोत को साल 1994 में राजस्थान की प्रदेश कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष बना दिया. जिसके बाद राजस्थान में विधानसभा चुनाव से लेकर लोकसभा चुनाव में गहलोत की टिकट वितरण में दखलअंदाजी बढ़ने से राजेश पायलट नाराज हो गए और दोनों में दूरियां और बढ़ गईं. बची कुची कसर 1996 में कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव ने पूरी कर दी. 1996 में गांधी परिवार के इतर सीताराम केसरी को कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए आगे किया गया लेकिन ऐन मौके पर राजेश पायलट ने भी सीताराम केसरी के खिलाफ उतरने का फैसला किया, जिस पर अशोक गहलोत ने राजेश पायलट का खुलकर विरोध किया जिसके चलते राजेश पायलट अध्यक्ष पद का चुनाव हार गए. इससे दो बातें हुई पहली राजेश पायलट गांधी परिवार से दूर हो गए और अशोक गहलोत गांधी परिवार के खास बन गए. जिसका फायदा मिला उन्हें साल 1998 में जब गहलोत पहली बार राजस्थान के मुख्यमंत्री बने और राजेश पायलट का राजनीतिक ग्राफ ढलान की तरफ चला गया. फिर आया साल 2000 जब सोनिया गांधी का नाम कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए आगे किया गया लेकिन कांग्रेस नेता जितेंद्र प्रसाद ने उनके खिलाफ चुनाव लड़ने का फैसला किया. सोनिया के खिलाफ जितेंद्र प्रसाद का समर्थन करने वालों में राजेश पायलट सबसे आगे थे. लेकिन अशोक गहलोत और बाकी नेताओं की मदद  से सोनिया गांधी भारी अंतर से चुनाव जीत गईं. जिससे अशोक गहलोत गांधी परिवार के और करीब आ गए. भारतीय राजनीति में अशोक गहलोत और राजेश पायलट की रायवलरी और देखने को मिलती लेकिन 11 जून 2000 को एक कार एक्सिडेंट में राजेश पायलट की मौत ने इस पटकथा के पहले एपिसोड का अंत कर दिया लेकिन, एक कहानी जहां खत्म होती है वहीं से एक नई कहानी की शुरूआत भी होती है और यहीं से बात होगी इस पटकथा के दूसरे एपिसोड यानी अशोक गहलोत Vs सचिन पायलट की.


राजेश पायलट की मौत के वक्त सचिन पायलट विदेश में अपनी पढ़ाई कर रहे थे और उस वक्त उनकी उम्र महज़ 23 साल थी लेकिन, राजेश पायलट के बाद फैमिली की राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाने के लिए सचिन पायलट ने राजनीति में उतरने का फैसला किया. जिसके बाद 10 फरवरी 2002 को अपने पिता राजेश पायलट के जन्मदिन पर सचिन पायलट ने आधिकारिक तौर पर कांग्रेस ज्वाइन कर ली. उस वक्त जयपुर में एक किसान रैली थी और मंच पर तब के स्टेट चीफ गिरिज व्यास ने पायलट को कांग्रेस में शामिल किया.. हर तरफ तालियों की गड़गड़ाहट थी और इसी शोर में एक शख्स और स्टेज पर बैठा ताली बजा रहा था... वो शख्स थे अशोक गहलोत जो 2003 में चुनाव हार चुके थे. खैर 2004 में सचिन पयालट ने 26 साल की उम्र में दौसा लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा और देश के युवा सांसद बने. जानकारों की मानें उस वक्त सचिन पायलट अशोक गहलोत के निशान पर बिल्कुल नहीं थे क्योंकि उनका कद गहलोत के मुकाबले पार्टी में बहुत छोटा था. उधर 2008 में गहलोत ने वसुंधरा सरकार को पटखनी दे दी और दोबारा राजस्थान के मुख्यमंत्री बन गए. वहीं 2009 में सचिन पायलट ने अजमेर से लोकसभा चुनाव लड़ा और मनमोहन सरकार में उन्हें मिनिस्टर ऑफ स्टेट बनाया गया लेकिन स्थितियां बदलनी शुरू हुईं साल 2013 में अशोक गहलोत की विधानसभा चुनाव में करारी हार के बाद. उस चुनाव में BJP के खाते में 163 और कांग्रेस के खाते में महज 21 सीटें आई थीं जो कांग्रेस का राजस्थान में सबसे बुरा प्रदर्शन था. जिसके बाद पार्टी हाईकमान ने 2014 के लोकसभा चुनाव से ऐन पहले सचिन पायलट को महज़ 36 साल की उम्र में राजस्थान का PCC चीफ बना दिया. यानी सचिन - गहलोत की लाइन ऑफ स्कसेशन में आ चुके थे. गहलोत कैंप ने पायलट की नियुक्ति को गहलोत को साइड लाइन करने की चाल की तरह देखा क्योंकि पायलट राहुल गांधी के काफी करीबी थे. हालांकि सचिन पयालट भी कांग्रेस का गिरता ग्राफ नहीं बचा पाए और 2014 में राजस्थान से कांग्रेस 1 भी लोकसभा सीट नहीं जीत पाई यहां तक कि सचिन पायलट को खुद अजमेर सीट से मुंह की खानी पड़ी थी. इस हार के बाद पहली बार सचिन पायलट और अशोक गहलोत में तनातनी देखने को मिली जब दोनों ने चुनाव में हार के लिए एक दूसरे को जिम्मेदार ठहराया. पार्टी को समझ आ चुका था कि अगर राजस्थान को दोबारा जीतना है तो दोनों में से किसी भी नेता को नाराज़ नहीं किया जा सकता. इसी रणनीतिक के तहत 2017 में गहलोत को दिल्ली बुलाया गया और गुजरात चुनाव से पहले उन्हें गुजरात का general secretary in-charge बना दिया गया. उधर गहलोत के नेशनल लेवल पर शिफ्ट होने का फायदा सचिन पायलट को भी मिला क्योंकि गहलोत की गैरहाजिरी में पायलट के लिए राजस्थान में मैदान खुल गया था. दिसंबर 2017 में राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद Janardan Dwivedi को साइड लाइन कर गहलोत को पार्टी का नेशनल general secretary बनाया गया. वहीं राजस्थान में पायलट के ड्राइविंग सीट पर होते हुए पार्टी ने बाय इलेक्शन में जीत दर्ज की. 2018 में जब राजस्थान में दोबारा चुनाव हुए तब पायलट के PCC चीफ रहते हुए कांग्रेस ने सत्ता में वापसी की और हर किसी को लग रहा था कि इस बार पायलट ही राजस्थान के मुख्यमंत्री होंगे लेकिन अशोक गहलोत की राजनीति हर किसी के समझ नहीं आती. और इस तरह कांग्रेस आलाकमान ने गहलोत को चीफ मिनिस्टर के तौर पर चुना और सचिन पायलट को डिप्टी सीएम बनाया गया. गहलोत और पायलट ने पार्टी के दबाव में अपनी लड़ाई तो रोक ली थी लेकिन चिंगारी अभी भी सुलग रही थी. और इस चिंगारी को हवा दी साल 2019 के लोकसभा चुनाव ने जिसमें फिर से एक बार कांग्रेस को क्लीन स्वीप मिली. पायलट ने हेल्थ और कानून व्यवस्था को लेकर गहलोत सरकार को घेरा जिसके बाद गहलोत ने पायलट को साइडलाइन कर दिया. उधऱ 13 जुलाई 2020 को पायलट ने ऐलान कर दिया कि गहलोत सरकार के पास पर्याप्त विधायकों का समर्थन नहीं है, अशोक गहलोत की सरकार संकट में आ गई जिसके बाद कांग्रेस ने 14 जुलाई को सचिन पायलट को डिप्टी सीएम और पीसीसी चीफ के पद से बर्खास्त कर दिया. ऐसी खबरें आ रही थीं कि पायलट बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बना लेंगे लेकिन 15 जुलाई को उन्होंने कांग्रेस में ही बने रहने का ऐलान कर दिया. खैर इसके बाद भी सचिन पायलट और गहलोत में अंतरकलह चलती रही फिर चाहे वो पायलट के मीडिया एडवाइज़र की तरफ से गहलोत पर फोन टैपिंग करने का इल्जाम लगाना हो या फिर राजीव गांधी की बर्थ एनिवर्सरी पर गहलोत का मिसिंग रहना. अब कांग्रेस अध्यक्ष पद के इलेक्शन के दौरान जब सचिन पायलट के मुख्यमंत्री बनने की पूरी संभावना जताई जा रही थी ऐसे में अशोक गहलोत के करीबी 90 विधायकों ने अब पायलट के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है. यानी 2002 में जिस गहलोत ने मंच से तालियां पीटकर सचिन पायलट को पार्टी में शामिल किया था आज वही गहलोत सचिन पायलट को सत्ता से दूर ऱखने की कोशिशों में जुटे हुए हैं.. तो ये है इस पटकथा का एपिसोड नंबर 2 अशोक गहलोत Vs सचिन पायलट जिसके अंत में लिखा जा सकता है.

अब सवाल ये उठता है कि 71 साल के गहलोत पायलट को आगे आने का मौका क्यों नहीं दे रहे? इसी सवाल का जवाब छुपा है इस पूरी कहानी के एपिसोड नंबर 3 में जो होगा सचिन पयालट Vs वैभव गहलोत. जानकारों की मानें तो अशोक गहलोत कहीं न कहीं अपनी पारिवारिक राजनीति को आगे बढ़ाने पर भी विचार कर रहे होंगे जो उनके बेटे वैभव के ज़रिए ही संभव हैं. वैभव इस वक्त 42 साल के हैं और 2019 का लोकसभा चुनाव हार चुके हैं. यही नहीं उनकी वजह से अकसर गहलोत पर उंगलियां भी उठती रही हैं फिर चाहे वो राजस्थान का ई टॉयलेट पेपर घोटाला  हो या फिर इसी घोटाले में महाराष्ट्र में उनके खिलाफ एफआईआर. यही नहीं हाल ही में पायलट ने भी ये बयान देकर सनसनी फैला दी थी कि 2019 के चुनाव में पार्टी हाईकमान वैभव को टिकट नहीं देना चाहती थी लेकिन पायलट के ज़ोर देने पर वैभव को टिकट दिया गया था. यानी धीरे-धीरे पायलट ने वैभव के ज़रिए भी गहलोत को घेरना शुरू कर दिया है जिससे इस पटकथा के एपिसोड नंबर 3 की शुरूआत भी हो चुकी है... तो फिलहाल Pilot Vs Gahlot कुनबे की पटकथा यहीं तक पहुंची है. अब आगे क्या होगा वो आने वाला वक्त ही बताएगा. क्या राजस्थान में फिर से अशोक गहलोत बाजी मार ले जाएंगे या फिर इस बार वक्त पायलट परिवार का होगा.

नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

 

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