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चुनावी लड़ाई तो मोदी vs राहुल की हो चुकी, अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान बीजेपी ने भी किया इंडोर्स, मणिपुर पर नहीं मिले जवाब

संसद में अविश्वास प्रस्ताव पर तीन दिनों तक चर्चा चली. जैसा पहले से साफ था, प्रस्ताव गिरना ही था, क्योंकि भाजपा के पास पर्याप्त संख्याबल था. हालांकि, पक्ष-विपक्ष दोनों ही तरफ से सारे तीर चले. गृहमंत्री अमित शाह और खुद प्रधानमंत्री ने काफी देर तक बोला औऱ अपनी सरकार की उपलब्धियां गिनाईं और विपक्ष पर हमला भी किया. राहुल गांधी बोले और सत्तापक्ष पर हमलावर रहे, हालांकि जाते-जाते एक ऐसी हरकत भी कर गए कि विवादों में भी फंसे. इसके बावजूद लगता है कि देश को अभी भी कई बातों औऱ कई जवाबों का इंतजार है. 

अविश्वास प्रस्ताव का उद्देश्य विपक्ष के मुताबिक साफ था कि चूंकि प्रधानमंत्री मणिपुर पर बोल नहीं रहे हैं, तो वह संसद में आकर उस पर बोलें. यही मोटिव था. हालांकि, अविश्वास प्रस्ताव चूंकि खुद में एक बड़ी छतरी होती है और इस छतरी के नीचे वे तमाम कारण होते हैं, जिनकी वजह से सरकार के खिलाफ अविश्वास होता है. इसमें उन तमाम कारणों पर बात होती है, जिस कारण सरकार में अविश्वास है. सरकार इसमें बाध्य भी नहीं होती है कि किस विषय पर बात करे और किस पर नहीं करे. इस अविश्वास प्रस्ताव में विपक्ष ने जो मुद्दे उठाए, खासकर मणिपुर के संदर्भ में यह था कि मणिपुर प्रधानमंत्री क्यों नहीं गए, वहां हिंसा क्यों जारी है, वहां के मुख्यमंत्री से इस्तीफा क्यों नहीं लिया गया और मणिपुर के लोगों के लिए शांति की अपील क्यों नहीं की गयी? ये तमाम मसले थे. इनका उत्तर देने के लिए सरकार ने एक तरह से अपनी जिद पर अड़ते हुए एक तरह से गृहमंत्री को ही सामने रखा, जिन्होंने विस्तार से मणिपुर पर अपनी बातें रखीं. 

प्रधानमंत्री देर भी आए और दुरुस्त भी नहीं

गृहमंत्री ने बताया कि सीएम चूंकि सहयोग कर रहे थे, तो उन्हें नहीं हटाया गया. उन्होंने यह भी कहा कि मणिपुर में जो भी हो रहा है, वह तीन तारीख को घटी. चार तारीख से ही सरकार ने वहां हालात अपने हाथ में ले लिए थे. वहां राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार पहुंच गए, अर्द्धसैनिक बल पहुंचे और हालात को काबू किया जाने लगा. इस तरह की बातें गृहमंत्री ने कहीं. हालांकि, जो एक वीडियो आया उसने पूरे देश और दुनिया को झकझोर दिया. उसके बाद प्रधानमंत्री ने खुद उस घटना पर बयान दिया. सवाल तो ये है कि ये घटनाएं घटी कैसे? फिर तो, इसकी जिम्मेदारी गृह मंत्रालय पर आ गयी. इसका जवाब गृहमंत्री ने नहीं दिया. उन्होंने एक शब्द दिया- परिस्थितिजन्य घटनाएं. जातीय हिंसा को परिस्थितिजन्य बता कर अपनी अकर्णण्यता छुपाना ठीक नहीं है. फिर, प्रधानमंत्री जी आए. पौने दो घंटे तक बोले लगभग, लेकिन मणिपुर के बारे में कुछ नहीं कहा.

विपक्ष जब बायकॉट करने लगा, सांसद निकलने लगे, तो पीएम ने अपनी बातें रखीं. उन्होंने अधिकांशतः गृहमंत्री की बातें ही दोहराईं. हां, उनका यह आश्वासन ठीक है कि मणिपुर की मां-बहनों को देश का साथ है, मणिपुर को देश का साथ है. इसी बयान की तो अपेक्षा की जा रही थी. ये बयान दुरुस्त है, लेकिन देर है. हिंसा के 99 दिन बाद यह बयान प्रश्न खड़े करता है. शुरुआत में ही उन्होंने दे दिया होता, तो यह दुरुस्त होता. मणिपुर के लिए उन्होंने कोई रोडमैप नहीं दिया, चुनाव-प्रचार की तरह अपने कामों का प्रचार किया. प्रधानमंत्री ने दो-तीन बातें कहीं, जिन पर सवाल खड़े होंगे. मिजोरम की 1966 की घटना का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि कांग्रेस की वायुसेना ने भारत के लोगों पर बम बरसाए. वायुसेना कांग्रेस की कैसे हुई, ये तो वही बात हुई कि मोदीजी और उनकी पार्टी खुद कई बार कहती है कि विपक्ष सेना पर सवाल उठाता है. वायुसेना तो देश की होगी. ऐसे में यही लगता है कि यह जवाब एक चुनावी भाषण की तरह लगा, इसमें रोडमैप नहीं दिखा. 

अधीर रंजन को मिली अधिक सजा

अधीर रंजन जी की स्थिति हमेशा से ठीक नहीं रही है. अभी भी अपनी सफाई में वही बातें, वही बहाना वे दे रहे हैं कि उनकी हिंदी ठीक नहीं है. गलत शब्द जब निकलेंगे तो जवाब उठेंगे. जिस तरह से उन्होंने कहा है, वह ठीक नहीं है. उस पर सवाल उठेंगे. इसी तरह यह भी ठीक नहीं कि नेता प्रतिपक्ष को ही निलंबित कर दें. बोलने के लिए ऐसा नहीं करते हैं. उसको एक्सपंज कर सकते हैं. इसको तो विपक्ष के मामले में क्रूर व्यवहार ही कहेंगे. इसको जान-बूझकर बड़ा बयान बनाया गया. सत्तापक्ष की तरफ से यह अवसर था कि वह अपने कामों की पूरी पैकेजिंग कर सकें और विपक्ष की असफलता को दिखा सकें. सरकार तो उस मामले में सफल रही कि ये दोनों काम उन्होंंने सफलता से किए. विपक्ष इस मामले में सफल रहा कि पूरे देश को उन्होंने बता दिया कि सत्तापक्ष मणिपुर पर नहीं बोलना चाह रहा है. यानी, बीजेपी की सरकार ने जो बोला, वह उनकी उपलब्धित है, जो नहीं बोला उस पर विपक्ष सफल है. 

लड़ाई मोदी बनाम राहुल की ही 

लड़ाई तो मोदी बनाम राहुल हो चुकी है. देश में अब चुनावी राजनीति को प्रभावित राहुल गांधी कर रहे हैं और जिस तरह उनको गंभीरता से लिया गया, उससे पता चलता है कि उनके कामों का असर देश पर पड़ रहा है. उनको गंभीरता से लिया गया, यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि 42 फीसदी समय राहुल गांधी को दिखाया गया. वहीं, जब पीएम बोल रहे थे तो उनको इसका दोगुना यानी 84 फीसदी समय तक स्क्रीन पर दिखाया गया. जिस समय उनको नहीं दिखाया गया, उस समय भी उनकी जय-जयकार वाला समय था. कह सकते हैं कि शत-प्रतिशत समय वह दिखे. तो, इतना डर बताता है कि राहुल गांधी को गंभीरता से लिया जा रहा है. चूंकि राहुल गांधी ने कह दिया है कि वह पीएम पद के उम्मीदवार नहीं हैं या वह विपक्षी गठबंधन इंडिया को नेतृत्व देने नहीं जा रहे हैं, तो इस लिहाज से पॉलिटिकल नैरेटिव सेट करना और क्षेत्रीय दल जो खासकर आज तक यह मान रहे थे उनका संघर्ष कांग्रेस से है, वह प्रतिमान बदले हैं. उनका झुकाव राहुल गांधी और कांग्रेस की तरफ दिखता है. इसलिए, दो खंभे तो स्पष्ट हो गए हैं, आमने-सामने की लड़ाई हो गयी है. अभी तो सत्तापक्ष मजबूत दिख रहा है, लेकिन विपक्ष धीरे-धीरे मजबूत हो रहा है. लड़ाई अब राहुल गांधी बनाम नरेंद्र मोदी की हो गयी है और बीजेपी ने इसको अविश्वास प्रस्ताव के दौरान रिकॉग्नाइज भी किया है. 

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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