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'हमें अपनों ने लूटा...', जंतर-मंतर पर बवाल के बीच भारतीय महिला फुटबॉलट टीम की पूर्व कप्तान ने बताया- क्यों एक्शन से हिचक रही सरकार

यौन शोषण के आरोपों के तहत भारतीय कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह की गिरफ्तारी की मांग कर रहे पहलवानों के साथ बुधवार (3 मई) रात दिल्ली के जंतर-मंतर पर हुई पुलिस की कथित झड़प हुई. इसमें वहां पर प्रदर्शन कर रहे खिलाड़ियों को चोटें आयी हैं. दिल्ली पुलिस के जवान भी जख्मी हुए. ऐसे में सवाल है कि इतने दिनों से राष्ट्रीय राजधानी में खिलाड़ी प्रोटेस्ट कर रहे हैं तो उनकी शिकायत पर सुनवाई क्यों नहीं हो रही है? इसमें देखने वाली तो कोई बात ही नहीं है. यह तो चिंतन की बात है, मंथन की बात है और चिंता की बात है. क्योंकि देखने में तो यह कोई खूबसूरत नजारा नहीं है. ये तो शर्मनाक बात है. देश के लिए भी और हम सबके लिए भी क्योंकि जब खिलाड़ियों के साथ और उसमें भी बेटियों के साथ कुछ भी गलत होता है तो अंदर से आत्मा रोती है.

सच्चाई यही है, क्योंकि हम भी एक खिलाड़ी रहे हैं और जब ये सब देखते हैं तो हमें काफी दुख होता है. ये सोचने वाली बात है कि कोई भी खिलाड़ी या बेटी अपने घर से बाहर आकर फुटपाथ पर क्यों सोएगी? इसका मतलब यही है न कि कहीं ना कहीं कुछ तो गड़बड़ हुई है. हम किसी पर पर्सनल अटैक नहीं करना चाहते हैं और ना ही हम किसी का नाम ले रहे हैं. लेकिन हम सिस्टम को बार-बार वही बात बोल रहे हैं. पहले भी हमने अपनी वाणी से और लेखनी से बोला है. हमने अपने किसी भी एक्शन से बोला है और हम तो यही कह रहे हैं कि भाई आप अपने सिस्टम को दुरुस्त कीजिए. क्योंकि कोई भी चीज खराब होने के बाद आप उसे रिपेयर करें तो हमें लगता है कि उससे पहले ही सिस्टम इतना दुरुस्त कर दिया जाना चाहिए. हर चीज में आपको सेन्सीटाइजेशन रखना होगा. जेंडर सेंसिटिविटी आपके अंदर होनी चाहिए कि आप अभद्रता का व्यवहार ना करें. चाहे स्पोर्ट्स हो या पुलिस हो या समाज का कोई भी वर्ग है. मेरे हिसाब से यह जो कुछ भी हो रहा है वह बिल्कुल भी सही नहीं हो रहा है. ये बहुत ही दुखद है. ऐसा होना नहीं चाहिए. इसके लिए बहुत ही पुख्ता कदम उठाए उठाया जाना चाहिए.

ये एक संवेदनशील मामला

हमारी सरकार इतनी सक्षम है लेकिन हमें यह समझ नहीं आ रहा है कि ये मुद्दा इतने दिनों से चल रहा है इसके बावजूद मसला अभी तक क्यों नहीं सुलझ पाया है. मैं एक खिलाड़ी हूं तो मेरी हर तरह से सहानुभूति और समर्थन या हर चीज उन खिलाड़ियों के साथ है जो जंतर मंतर पर बैठे हैं. मैं यह कह रही हूं कि गलती किसी की तरफ से हो लेकिन जो सही चीज है, उसे ही दिखाया जाना चाहिए. उसी पर निर्णय लिया जाना चाहिए और उसी की जांच की जाए. चाहे दोषी कोई भी हो और किसी भी तरफ का हो उसे सजा जरूर मिलनी चाहिए. क्योंकि खिलाड़ी वहां पर कई दिनों से शांति से अपना प्रोटेस्ट कर रहे थे. अपनी प्रतिक्रिया को जाहिर कर रहे थे. अगर इनको दंगे करने होते झगड़े ही करने होते तो वे वहां पर 20-25 दिन से क्यों बैठे होते. मुझे लगता है कि यहां पर बीच में किसी जिम्मेदार व्यक्ति को आने की जरूरत है. हस्तक्षेप करने की जरूरत है. चाहे वह संघ हो या सरकार हो. हमारे यहां कहावत है ना कि सांप निकल जाता है और लकीर पीटते रह जाते हैं तो पहली बात तो यह कि जब गलत हो रहा होता है तो बोलने की हिम्मत नहीं कोई जुटा पाता है और सिर्फ बृजभूषण ही नहीं जो लोग भी गलत करते हैं वे यह समझ बैठते हैं कि हम इस दुनिया में परमानेंट आए हैं, हम खुदा हैं और जो चाहे वह कर सकते हैं. हम पर कोई एक्शन नहीं होगा और इस मामले में भी यही हो रहा है और यह एक बहुत बड़ी कमजोरी भी है.

इसी वजह से किसी को गलत करने को लेकर के कोई डर नहीं रह जाता है. वह गलत करने से पहले सौ बार सोचता नहीं है. लेकिन जब दो-चार बार एक्शन हो जाएगा चाहे वह किसी की भी तरफ से हो तो सामने वाला फिर ऐसा सोचेगा और कहीं ना कहीं मुझे लगता है कि यह लैक ऑफ सेंसटिविटी है. हां, शुरू ये मुद्दा खिलाड़ियों का था लेकिन अब मुझे लग रहा है कि इसमें राजनीति भी शामिल हो गई है. लेकिन अब इसमें काफी सारी चीजें मिक्स हो गई हैं. लेकिन खिलाड़ी तो वहीं के वहीं रह जाएंगे जहां पर थे. मैंने किताब जो अपनी किताब लिखी थी ''गेम-इन-गेम'' और उसमें यही सारे मुद्दे को मैंने उठाए थे. मैंने खाने को लेकर, रहने को लेकर, सिस्टम के ऊपर, एक्शन को लेकर, वहां पर रहन-सहन और खिलाड़ियों को जो पैसे दिए जाते हैं उसे लेकर काफी कुछ लिखा है.

खत्म हो कुश्ती संघ

रेलवे में हमारा 75% कोटा होता था और बहुत बार ऐसा होता था कि हम लोगों को अपनी जेब से पैसे खर्च करके जाना पड़ता था और सारा का सारा पैसा सिस्टम के अंदर बैठे लोग गटक जाते थे. मेरी पर्सनल ओपिनियन तो यही है कि कुश्ती संघ को ही खत्म कर दिया जाना चाहिए. मुझे यह नहीं पता कि यह कदम कितना सही होगा लेकिन हमे यह एसोसिएशन फेडरेशन रखने की जरूरत ही क्यों हैं. इसे नहीं रख कर के सरकार सीधा इसे अपने हाथ में रखें. अगर ऐसा हो जाता है तो इसमें फिर कोई झंझट ही नहीं होगा क्योंकि सरकारी अधिकारी जब कुछ भी गलत करेंगे तो उनके ऊपर यह जिम्मेवारी भी रहेगी कि अगर वे कुछ गलत कर रहे हैं तो उन्हें इसके लिए जवाब देना पड़ेगा. उनके ऊपर उनकी नौकरी जाने का भी प्रेशर रहेगा और वे यह भी सोचेंगे की उनके ऊपर कल को कोई एक्शन भी हो सकता है.

लेकिन अभी क्या व्यवस्था है कि संघ में जो भी लोग आते हैं उनके ऊपर किसी का कोई दबाव नहीं होता है. वे ऑलरेडी बहुत पावरफुल होते हैं और फिर ऐसे में जब कोई आवाज उठाता है तो उसकी आवाज को कहीं न कहीं दबा दी जाती है और फिर अंडर द कारपेट कुछ रह जाता है. नहीं तो फिर यह भी हो कि हम हर चीज को पब्लिक में शेयर करें. रिपोर्ट आई है तो उसको पब्लिश कीजिए. एक्शन हुआ है तो उसको पब्लिश कीजिए. हमें पता तो हो कि हमारे जो भी हो रहा है वह कहां तक हो रहा है. यह तो सबको पता है कि दाल में कहां काला है. हम किसी एक नाम से ही नहीं कह सकते हैं. यह तो ऐसा सिस्टम है कि जिन्होंने नहीं लिखा वह भी गुनहगार है, जो नहीं एक्शन ले रहे हैं वह भी जिम्मेदार और जो टाल रहे हैं वह भी जिम्मेवार है. वो कहते हैं ना कि पूरी की पूरी एक कड़ी बन जाती है और ऐसे में आप किस-किस के ऊपर कार्रवाई करेंगे. सच तो यही है कि सिस्टम को सुधरना चाहिए. हम तो बार-बार यही गुहार लगा रहे हैं. आज से नहीं बचपन से बोल रहे हैं. इस तरह की घटना से खिलाड़ियों का सिर्फ मनोबल ही नहीं टूटता है बल्कि जिस इलाके में रहते हैं, हमें एक कहावत याद आ रही है कि ''हमें तो अपनों ने लूटा, गैरों में कहां दम था, मेरी कश्ती थी डूबी वहां जहां पानी ही कम था''.  कहने का मतलब है कि जिनके भरोसे हम पूरा जीवन दे देते हैं. पेरेंट्स के बाद जिनके भरोसे हम कैंप में होते हैं, जिनके भरोसे या और कहीं पर भी जाते हैं तो भी किसके भरोसे जाते हैं.

फिर वहां पर इस तरह की जब खामियां सामने आती हैं तो ना सिर्फ खिलाड़ी का और जो पूरा सिस्टम है उसका बल्कि उसके पेरेंट्स और पूरी की पूरी व्यवस्था हिल जाती है. और वह इंसान तो जिंदगी में दोबारा उठने के लायक नहीं रह जाता है जिसके साथ यह सब हो रहा होता है. वह बुरी तरीके से टूट जाता है और साथ में पूरा परिवार भी टूट जाता है. फिर यह भी तो सोचिये कि वह इस तरह की घटना के बाद आगे कैसे तरक्की कर पाएगा? इस मामले में बिल्कुल सरकार की तरफ से एक्शन लिया जाना चाहिए और अगर हम यहां सुरक्षित नहीं है तो फिर कहां सुरक्षित रहेंगे. यह तो हम सब जान रहे हैं कि कौन कसूरवार है और कौन कसूरवार नहीं है. लेकिन हम यह कहते हैं कि आप अपनी जिम्मेदारी लीजिए और अगर किसी से कोई गलती होती है तो वह उसकी जिम्मेदारी ले. यह एक इंसानियत भी है और गरिमा भी है. लेकिन यह कहां का न्याय है कि जो लोग शांति से अपना प्रदर्शन कर रहे हैं, शिकायत दर्ज करा रहे हैं, उनके ऊपर आप रात को आकर लाठियां बरसा दो. यह तो इंसानियत के लिए भी शर्मसार करने वाली बात है. मैं इसके समर्थन में नहीं हूं और आज के समय में हमारा संविधान तो यह कहता है कि जानवर पर भी किसी तरह का अत्याचार मान्य नहीं है. ये लोग तो इंसान हैं और यह सब वैसे ही इंसान हैं जो ना तो पैसा दे कर, ना तो टिकट खरीद करके और ना ही किसी के कंधे पर हाथ रखकर के आगे बढ़े हैं. बल्कि अपनी मेहनत से आगे बढ़े हैं. खिलाड़ी बनना आसान नहीं है. 

सच का साथ देना हमारा फर्ज

करोड़ों में कोई एक लोग होते हैं जो इस लेवल का खिलाड़ी बनते हैं जिस लेवल के हमारे खिलाड़ी हैं और बहुत त्याग के बाद और बहुत तब के बाद यह यहां तक पहुंचे हैं. मेरा तो रोम रोम और कण-कण हमेशा इन खिलाड़ियों के लिए ही बोलता है और बोलता रहेगा. क्योंकि सच और सही का साथ देना हमारा फर्ज बनता है और सच अगर खिलाड़ियों के साथ है तो यह बहुत अच्छी बात है और अगर नहीं भी है और अगर भी झूठ बोल रहे हैं तो आप उसकी जांच कीजिए ना. आप न्याय दीजिए आप बोलकर बताइए तो सही आप कहिए तो सही कि आपने यहां गलत किया है. यहां पर आपकी गलती है और इससे इस पर आप सही नहीं हैं. देखिए जब यह गुहार लगाएंगे तो अपनी बात किसी से तो कहेंगे ना. अब उसमें यह तो नहीं कहा जा सकता ना कि मुद्दा भटक गया. अब कोई भी संघ का व्यक्ति ही अगर वहां पहुंचेगा अगर वह जेनविन ही होगा तो हमें तो यही लगेगा ना कि भाई मुद्दा भटक गया.

मैं किसी चीज को गलत नहीं मानती क्योंकि जो हो रहा है उसका कोई ना कोई तो कारण होता ही है और बिना कोई कारण का कोई काम होता नहीं है. दुनिया में एक पत्ता भी नहीं हिलता है. वहां पर खिलाड़ियों के समर्थन में कोई राजनीतिक दलों के लोग जा रहे हैं चाहे वह किसी भी राजनीतिक दल के हों और चाहे उनका अपना ही स्वार्थ क्यों ना हो, लेकिन वह अपनी हाजिरी दर्ज करवा रहे हैं. वहां पर कम से कम यह तो दिखा रहे है ना कि भाई मैं तुम्हारे साथ हूं. उसका जमीर कम से कम उसको इसके लिए जगा कर तो रखा है. चाहे वह अपने पर्सनल मोटिव से ही गया लेकिन वह गया तो सही. वहां दिखा तो सही. लेकिन उन लोगों का क्या करें जो जिंदा रहकर भी मर गए हैं. हमारे देश में ऐसे लोगों की संख्या बहुत है. हमारे देश में जब न्याय की बात होती है तो न्याय नहीं मिलता है और लोगों के कार्यालयों और घरों पर ताले लटके मिलते हैं. यह बात सही बोली गई है कि न्याय नहीं मिलता है और फिर चाहे कोई भी जेंडर हो. जहां पर भी किसी चीज को सुधारने की जब कुछ लोग मुहिम चलाते हैं अंततः वे लोग थक हार करके बैठ जाते हैं या फिर जब तक न्याय मिलता है तब तक वे इस दुनिया से जा चुके होते हैं.

 
[ये आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है.]
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