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Blog: औरतें चुप इसलिए रहती हैं क्योंकि उन्हें बचपन से बोलना सिखाया ही नहीं जाता

औरतें चुप क्यों रहती हैं? क्योंकि बोलना उन्हें बचपन से सिखाया ही नहीं जाता. अगर वे आवाज ऊंची करके बोलती हैं तो उन्हें धीमा बोलना सिखाया जाता है. इस साल फीफा वर्ल्ड कप के दौरान महिला कमेंटेटर विकी स्पार्क्स को बहुत सी आलोचनाओं का सिर्फ इसीलिए सामना करना पड़ा था क्योंकि उनकी आवाज की पिच ऊंची थी.

#metoo की इस आंधी में कई दरख्त उखड़ रहे हैं. औरतें खुश हैं, मर्द परेशान. अगला नंबर किसका? आप हर चार घंटे में ‘हैरेसमेंट इंडिया’ गूगल कीजिए- नए नाम दिखाई देते हैं. पढ़-पढ़कर दिमाग खराब. ‘गड़े मुर्दे उखड़ रहे हैं’, किसी ने कहा नाराजगी सामने आई कि औरतें तब क्यों नहीं बोलतीं जब उस अनुभव से गुजरती हैं. सत्ताधारी पार्टी के नेता गुस्सा गए कि औरतें लाखों-लाख रुपए लेकर यह सब कर रही हैं. पहले बोलतीं तो ठीक भी था. दसों साल पहले के मामलों का अब क्या किया जाए! फिर यह सुझाव भी दिया गया कि शिकायत दर्ज कराने की समय सीमा तय हो क्योंकि दसों साल पहले हुए मामले को साबित करना बहुत मुश्किल है. सो औरतों को तब न बोलने का खामियाजा तो भुगतना ही चाहिए.

औरतें चुप क्यों रहती हैं? क्योंकि बोलना उन्हें बचपन से सिखाया ही नहीं जाता. अगर वे आवाज ऊंची करके बोलती हैं तो उन्हें धीमा बोलना सिखाया जाता है. इस साल फीफा वर्ल्ड कप के दौरान महिला कमेंटेटर विकी स्पार्क्स को बहुत सी आलोचनाओं का सिर्फ इसीलिए सामना करना पड़ा था क्योंकि उनकी आवाज की पिच ऊंची थी. लोगों ने कहा था कि 90 मिनट तक किसी औरत की इतनी ऊंची पिच कानों को अखरती है. आदमियों की आवाज सुनने के लोग आदी हैं, औरत की नहीं. तो जब औरत की हाई पिच आदमियों को बर्दाश्त नहीं तो उनका ऊंची आवाज में अपनी तकलीफ बयान करना कैसे होगा?औरतें तभी चुप रह जाती हैं.

औरतें तो फिर भी बोल लेती हैं लेकिन लड़कियां नहीं. औरत न होने के कारण आप इसे समझ ही नहीं सकते. नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे 2015-16 की एक रिपोर्ट देखी थी. उसमें अपना टेकअवे यह था कि 15 साल से 19 साल के बीच की हर 5 से 2 लड़कियां सेक्सुअल हैरेसमेंट के बारे में किसी को नहीं बतातीं. एक खास बात यह थी कि औरतों के मुकाबले लड़कियां इस अनुभव को कम साझा करती हैं. जाहिर सी बात है, उस उम्र में हिम्मत कम होती है. उम्र बढ़ने के साथ यह हिम्मत भी बढ़ती जाती है. आत्मविश्वास भी. इसी आत्मविश्वास के चलते वे अपनी बात सभी को बता पाती हैं. वैसे #metoo को शुरू करने वाले तनुश्री दत्ता ने अपने खिलाफ हैरेसमेंट की बात तब भी बोली थी, जब उनके साथ ऐसा हुआ था पर तब भी उन्हें परेशानियों का सामना करना पड़ा था. प्रोड्यूसर विकास बहल के खिलाफ आरोप लगाने वाली क्रू मेंबर ने भी अपने बॉस डायरेक्टर-प्रोड्यूसर अनुराग कश्यप को सब कुछ बताया था. लेकिन उनकी तरफ से कोई ऐक्शन नहीं लिया गया था. तो औरतों के बोलने पर भी आप कान कहां धरते हैं?

जाहिर सी बात है, कहीं औरतें चुप रह जाती हैं- कहीं बोलती हैं. पर उनकी सुनने-न सुनने वाला कोई नहीं होता. इसलिए भी कि सारा खेल पावर और पैसा का है. हैरेस करने वाले ऊंचे, ताकतवर मर्द हैं. अपने क्षेत्रों के दिग्गज हैं. उनसे पंगा लेने का नुकसान कई तरह का होता है जैसे करियर चौपट और कैरेक्टर पर सवालिया निशान. सेक्सुअल हैरेसमेंट के मामलों में अक्सर विक्टिम को ही विक्टिमाइज किया जाता है. देर रात तक बाहर रहोगी तो ऐसा ही होगा...अच्छा, शराब पीती हो तो कैसे बचोगी... ओहो, आदमियों से हंस-हंसकर बात करती हो तो आदमी का क्या कसूर... गूंगी गुड़िया आपको पसंद आती है. फिर लड़की ट्रेजेडी का शिकार होने के बाद भी अपने मुंह पर पट्टी बांध लेती है. विनिता नंदा जैसी औरतें हैरेसमेंट का शिकार होकर हाशिए पर फेंक दी जाती हैं. आलोक नाथ सरीखे सीरियल पर सीरियल करते रहते हैं. मतलब, आदमियों के पावर डायनामिक्स की वजह से औरतों को चुप रहना पड़ता है.

चुप इसलिए भी रहना पड़ता है क्योंकि बार-बार वह त्रासदी उगली नहीं जाती. थकान होती है, आपबीतियां सुनाने में. बोझिल शब्द फूटते नहीं गले से. इसीलिए अक्सर अपने खोल में छिप जाना पड़ता है. अपनी सखी-सहेलियों से ही कह पाती हैं, लड़कियां. उन्हें लगता है कि वे ही समझेंगी. एक से अनुभवों से गुजरती हैं, तब बहनापा महसूस होता है. क्या हममें से कोई ऐसी है, जिसने अपने भीतर #metoo को नहीं दबाया है... इसीलिए अपनी सरीखी संगियों के सामने ही अपने मन की बात खोल पाती हैं. इस हैशटैग के साथ अपनी साथिनों को अपने एक्सपीरियंस साझा करते देखा तो अपने दिल का राग भी छेड़ दिया. इसीलिए प्लेटफॉर्म जो भी हो, अपनी बात कहने की आजादी सभी को है.

अगर औरतें कहती हैं कि उनके साथ गलत हुआ है तो वे इसलिए ऐसा कह रही हैं क्योंकि सचमुच उनके साथ ऐसा हुआ है. चाहे वे कभी भी इसके बारे में बोलें- उनकी बात सुनी जानी चाहिए. विशाखा गाइडलाइन्स, जो 2013 के सेक्सुअल हैरेसमेंट ऑफ विमेन एट वर्कप्लेस एक्ट का आधार रहीं हैं, में सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा था कि यौन उत्पीड़न की शिकायत कभी भी दर्ज कराई जा सकती है. चाहे मामला कितना भी पुराना क्यों न हो. देरी को मुकदमा दर्ज ना कराने का आधार नहीं बनाया जा सकता. जब कानूनी प्रक्रिया में समय सीमा तय नहीं तो आपबीती सुनाने का समय कैसे तय किया जा सकता है.

औरतें इसलिए भी नहीं बोलतीं क्योंकि उनके पास इसके लिए कोई मंच नहीं होता. कॉरपोरेट वर्कप्लेसेज़ या एकैडमिक वर्ल्ड में कितनी जगहों पर इंटरनल कंप्लेन कमिटियां होती हैं और उनमें ऑल विमेन सेल होते हैं या उन सेल्स की हेड कोई औरत होती है. शिकायत दर्ज कराने की पूरी व्यवस्था नदारद हो तो औरतों के लिए न्याय हासिल करने का एक ही तरीका बचता है, उनकी आवाज. पितृसत्ता इस हक को भी उससे छीन लेना चाहती है. मशहूर जर्मन थ्योरिस्ट और ऑथर क्रिस वीडन का कहना है, पितृसत्ता दरअसल ऐसे ताकतवर रिश्तों से मिलकर बनती है जिसमें औरतों का हित हमेशा आदमियों के हित के बाद आता है. पर अब औरतें अपना हक मांग रही हैं- अपनी बात कहने का हक. जब भी वे बोलना चाहें, जिस भी माध्यम से बोलना चाहें. आप उन्हें रोक नहीं सकते. नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आकड़ें लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.
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