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मायावती के लिए उत्तर प्रदेश में जिताऊ उम्मीदवार खोजना है बड़ी चुनौती, बसपा के सामने है अस्तित्व का संकट

आगामी आम चुनाव में सबकी नज़र उत्तर प्रदेश के सियासी समीकरणों पर है. सीटों के लिहाज़ से उत्तर प्रदेश सबसे बड़ा राज्य है. यहाँ कुल 80 लोक सभा सीट है. बीजेपी, समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के अलावा मायावती की बहुजन समाज पार्टी उत्तर प्रदेश की राजनीति में जनाधार के मामले में महत्वपूर्ण दख़्ल रखती है.

लोक सभा चुनाव को लेकर अब डेढ़ से दो महीने का वक़्त रह गया है. उत्तर प्रदेश में बीजेपी, समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के साथ ही अन्य छोटे-छोटे दलों की सक्रियता दिख रही है. बड़ा जनाधार रखने के बावजूद चुनाव प्रचार से लेकर उम्मीदवारों के एलान तक में मायावती की पार्टी में उस तरह की सक्रियता अभी तक नहीं दिख रही है.

समाजवादी पार्टी 30 से अधिक उम्मीदवारों का एलान तक कर चुकी है. कांग्रेस में भी प्रत्याशियों को लेकर हलचल दिख रही है. प्रदेश में सबसे मज़बूत स्थिति में नज़र आ रही बीजेपी में भी प्रत्याशियों को लेकर मंथन तेज़ हो गयी है. इन तमाम दलों के नेता अपने-अपने तरीक़ों से चुनाव प्रचार में भी जुटे दिख रहे हैं.

बसपा में उम्मीदवारों को लेकर माथापच्ची

इन सबके बीच उम्मीदवारों को लेकर बहुजन समाज पार्टी में अन्य दलों की तरह सुगबुगाहट नहीं दिख रही है. आश्चर्य की बात है कि चुनाव इतना क़रीब है, फिर भी पार्टी अध्यक्ष मायावती की राजनीतिक सक्रियता उस रूप में नहीं दिख रही है, जिसकी बहुजन समाज पार्टी को ज़रूरत है. उम्मीदवारों के एलान को लेकर मायावती की ओर से कोई बयान नहीं आया है. साथ ही प्रदेश में पार्टी के पक्ष में माहौल तैयार करने के लिए मायावती जनता के बीच जाती हुई भी नहीं दिख रही हैं.

जिताऊ उम्मीदवार खोजना है बड़ी चुनौती

दरअसल इसके पीछे कई कारण हैं. मायावती पहले ही एलान कर चुकी हैं कि आगामी लोक सभा चुनाव में उनकी पार्टी न तो एनडीए का हिस्सा बनेगी और न ही विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' का. इसका मतलब है कि प्रदेश की सभी 80 सीट पर बसपा चुनाव लड़ेगी. इसके लिए पार्टी को योग्य उम्मीदवार चाहिए. फ़िलहाल मायावती के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही है. पिछले एक दशक में मायावती की राजनीति तेजी से अवसान की ओर है. इसमें किसी तरह के शक-ओ-शुब्हा की कोई गुंजाइश नहीं है.

वर्तमान में बसपा की जिस तरह की राजनीतिक स्थिति है, उसमें 80 सीट के लिए उम्मीदवार खोजना ही मायावती के लिए मुश्किल काम है. यहाँ उम्मीदवार खोजने से मतलब है..ऐसे नेताओं की पहचान करना, जिनमें पार्टी के लिए जीत दिलाने की थोड़ी-बहुत भी संभावना हो. मायावती के लिए यह असाध्य को साधने सरीखा है.

पुराने सांसदों को बचा पाएंगी मायावती!

उम्मीदवारों के एलान से पहले मायावती के लिए अपने सांसदों को बचाकर रखना भी बहुत बड़ी चुनौती है. लोक सभा चुनाव, 2019 में समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन की वज्ह से बसपा उत्तर प्रदेश में 10 सीट जीतने में सफल रही थी. अब मायावती के लिए इन सांसदों को बचाकर रखना भी मुश्किल होता जा रहा है.

आम चुनाव, 2019 में बसपा के टिकट पर गाज़ीपुर से सांसद बने अफज़ाल अंसारी अब समाजवादी पार्टी का हिस्सा हैं. सपा ने गाज़ीपुर से उनकी उम्मीदवारी की घोषणा भी कर दी है. पिछली बार दानिश अली अमरोहा से बसपा उम्मीदवार के तौर पर सांसद बने थे. पार्टी विरोधी गतिविधियों का हवाला देते हुए मायावती ने दिसंबर, 2023 में ही दानिश अली को निलंबित कर दिया था. दानिश अली की नज़र इस बार अमरोहा से कांग्रेस उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ने पर टिकी है.

बीजेपी, सपा-कांग्रेस पर बीएसपी नेताओं की नज़र

इस तरह से बसपा के पास फ़िलहाल 8 लोक सभा सांसद बचे हैं. उत्तर प्रदेश में बसपा के गिरते ग्राफ़ और मायावती के रुख़ को देखते हुए इन सासंदों की नज़र भी दूसरे दलों की तरफ़ जा रही है, इस तरह की ख़बरें लगातार आ रही हैं. यह भी कहा जा रहा है कि मायावती ने अपनी ओर से इन सांसदों को टिकट दिए जाने को लेकर भी अभी तक आश्वस्त नहीं किया है. बसपा के बचे सांसद बीजेपी के साथ ही कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और आरएलडी में भी संभावनाएं तलाश रहे हैं.

बिजनौर से बसपा सांसद मलूक नागर की नज़र भी जयंत चौधरी की पार्टी आरएलडी पर है. पहले समाजवादी पार्टी के साथ रहे जयंत चौधरी अब एनडीए का हिस्सा हैं. इससे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में राजनीतिक समीकरण पूरा बदल गया है. ऐसे में कहा जा रहा है कि मलूक नागर भी अब आरएलडी से टिकट की उम्मीद लगाए बैठे हैं. मलूक नागर ने 12 फरवरी को जयंत चौधरी से मुलाक़ात भी की थी, जिसके बाद से अटकलें लगाई जाने लगी कि जल्द ही वे मायावती को झटका दे सकते हैं. आरएलडी से बात नहीं बनने पर मलूक नागर के बीजेपी में भी जाने को लेकर सुगबुगाहट है.

अंबेडकरनगर से बसपा सांसद रितेश पांडेय भी बीजेपी से संपर्क बनाने की कोशिश में जुटे हैं. अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित लालगंज से बसपा सांसद संगीता आज़ाद के बीजेपी से नज़दीकी को लेकर भी अटकलें लगायी जा रही हैं. पिछले साल उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाक़ात की थी, जिसके बाद से ही इस तरह की सुगबुगाहट को हवा मिली.

घोसी से बसपा सांसद अतुल राय के भी समाजवादी पार्टी से संपर्क में रहने से जुड़ी ख़बर लगातार आ रही हैं. जौनपुर से बसपा नेता श्याम सिंह यादव सांसद हैं. इसके बावजूद उन्होंने दिसंबर, 2022 में राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा में शिरकत की थी.

चुनाव में जीतने की संभावना से है सीधा संबंध

दरअसल समस्या यह नहीं है कि मायावती इन सांसदों को भाव दे रही हैं या नहीं. राजनीति में जो भी नेता सक्रिय रहता है, उसकी सबसे बड़ी चाहत जीत होती है. ऐसे में बसपा के मौजूदा आठ सांसद भी अपने भविष्य को सुनिश्चित करना चाहते हैं. मौजूदा बसपा सांसदों को पिछली बार समाजवादी पार्टी से गठबंधन का लाभ ख़ूब मिला था. इस बार वैसी परिस्थिति नहीं है.

मायावती की राजनीतिक हैसियत और ताक़त उस तरह की नहीं रह गयी है कि बसपा अकेले दम पर अब उत्तर प्रदेश में कोई ख़ास करिश्मा कर पाए. ऐसे में मौजूदा सांसदों की नज़र अन्य विकल्पों पर भी है. ऐसा नहीं है कि चुनाव नज़दीक आने की वज्ह से बसपा के सासंदों की नज़र दूसरे दलों पर है. इन सांसदों में से कई ने 2022 से ही बसपा से दूरी बनाना या अन्य दलों में संभावना की तलाश शुरू कर दिया था.

उम्मीदवारों पर चुप्पी, रणनीति या मजबूरी

उम्मीदवारों को लेकर चुप्पी को कुछ राजनीतिक विश्लेषक मायावती की रणनीति का हिस्सा भी बता रहे हैं. ऐसा कहा जा रहा है कि इस बार मायावती बाक़ी दलों के उम्मीदवारों का इंतिज़ार कर रही हैं. उसके आधार पर ही हर सीट के लिए नाम का चयन किया जायेगा. हो सकता है कि यह मायावती की रणनीति हो. समाजवादी पार्टी और बीजेपी के उम्मीदवारों के एलान के बाद वो स्थानीय स्तर पर हर सीट पर मौजूद मज़बूत विकल्प को मौक़ा दें.

जिन स्थानीय नेताओं को बीजेपी, समाजवादी पार्टी या कांग्रेस से टिकट नहीं मिलगी, उनमें से कुछ पर मायावती दाँव लगा सकती हैं. ऐसा भी कहा जा रहा है कि मायावती की नजर जातीय समीकरणों पर भी है. बाक़ी दलों के उम्मीदवारों का नाम सामने आने के बाद मायावती जातीय गुणा-गणित के हिसाब से बसपा प्रत्याशियों का एलान कर सकती हैं.

पार्टी का गिरता ग्राफ़ और उम्मीदवारों का संकट

अगर इसमें सच्चाई है भी, तो सबसे बड़ा सवाल यही है कि आख़िर बसपा उत्तर प्रदेश में इस स्थिति में कैसे पहुँच गयी कि मायावती को दूसरे दलों के उम्मीदवारों की प्रतीक्षा करनी पड़ रही है. एक दौर था, जब उम्मीदवारों के नाम की घोषणा में मायावती सबसे आगे रहती थीं. तब बसपा के उम्मीदवारों की सूची चुनाव से 6 महीने या साल भर पहले आ जाया करती थी.

अब स्थिति बदल गयी है. उम्मीदवारों को लेकर चुप्पी और एलान में देरी का सीधा संबंध पिछले एक दशक में बसपा की हुई दयनीय स्थिति से है. बसपा के नेता या कार्यकर्ता इस बात को नहीं मानेंगे, लेकिन यह कड़वी राजनीतिक सच्चाई है कि मौजूदा दौर में मायावती के पास जीत दिलाने वाले या जीत की थोड़ी-सी उम्मीद बँधवाने वाले नेताओं की भारी कमी है.

अकेले चुनाव लड़ने की रणनीति के मायने

इस स्थिति के बावजूद मायावती का अकेले दम पर चुनाव लड़ने का फ़ैसला लेना भी समझ से परे हैं. कांशीराम की राजनीतिक विरासत की उत्तराधिकारी बनीं मायावती का एक समय उत्तर प्रदेश की राजनीति में दबदबा था. 1990 के दशक और इस सदी के पहले दशक में मायावती वो नाम हुआ करती थीं, जिनके इर्द-गिर्द उत्तर प्रदेश की राजनीति घूमा करती थी. यह वो दौर था, जब बाक़ी तमाम पार्टियाँ मायावती को ध्यान में रखकर अपनी रणनीति बनाया करती थी. मायावती चार बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रही हैं.

बसपा का ग्राफ 2012 के विधान सभा चुनाव से ही गिरने लगा था. मायावती ने 2007 के विधान सभा चुनाव में कमाल कर दिखाया था. इस चुनाव में बसपा ने 403 में 206 सीट जीतकर अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया था. पहली बार विधान सभा चुनाव में 30 फ़ीसदी से अधिक वोट बसपा को हासिल हुआ था. इस जीत के बाद ही मायावती चौथी और आख़िरी बार मुख्यमंत्री बनी और पहली बार पूर्ण कार्यकाल तक प्रदेश की सत्ता पर क़ाबिज़ रहीं. 

बसपा का ग्राफ़ 2012 से तेज़ी से गिरा

हालाँकि इसके बाद उत्तर प्रदेश की राजनीति में बसपा का ग्राफ़ तेज़ी से गिरा. 2012 के विधान सभा चुनाव में बसपा 126 सीट के नुक़सान के साथ महज़ 80 सीट ही जीत पायी.  बसपा का वोट शेयर 25.91% पर पहुंच जाता है. इसके बाद से ही मायावती उत्तर प्रदेश की सत्ता से दूर हैं. प्रदेश की सत्ता के लिहाज़ से धीरे-धीरे बसपा की स्थिति और भी ख़राब होती गयी. बसपा 2017 में मात्र 19 विधान सभा सीट जीतकर बीजेपी और समाजवादी पार्टी के बाद तीसरे पायदान पर पहुँच गयी. बसपा का वोट शेयर सिर्फ़ 22.23% रह जाता है.

इसके पाँच साल बाद जब विधान सभा चुनाव हुआ, तो एक तरह से बसपा का सफाया ही हो गया. बसपा 2022 में 403 सीट पर लड़ने के बावजूद सिर्फ़ एक विधान सभा सीट रसड़ा जीत पायी. उसका वोट शेयर भी 13 फ़सदी से नीचे पहुँच गया. इस चुनाव में बसपा के 287 प्रत्याशी अपनी ज़मानत तक नहीं बचा पाते हैं. इन आँकड़ों से ही समझा जा सकता है कि बसपा के साथ ही मायावती का राजनीतिक कद कितना कम गया है.

आख़िरी विधान सभा चुनाव में बसपा से अधिक सीट अपना दल (सोनेलाल),  निषाद पार्टी, राष्ट्रीय लोक दल, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी, जनसत्ता दल (लोकतांत्रिक) जैसे दल जीतने में सफल हो जाते हैं. उत्तर प्रदेश में इन दलों का वोट शेयर के हिसाब से बहुत ही मामूली सा और क्षेत्र विशेष तक सीमित जनाधार है.

जानकर हैरानी होगी कि 2022 के विधान सभा चुनाव में बसपा का प्रदर्शन जिस तरह का रहा, उससे कई गुणा बेहतर प्रदर्शन पार्टी ने अपने पहले चुनाव 1989 में किया था. उस समय की नई पार्टी बसपा 13 विधान सभा सीट पर जीत हासिल करने में सफल रही थी.

अगले महीने 21 मार्च को होने वाले उत्तर प्रदेश विधान परिषद के चुनाव के बाद यहाँ से भी बसपा का सफाया तय है. पिछले तीन दशक में पहली बार ऐसा होगा कि उत्तर प्रदेश विधान परिषद में बसपा का कोई सदस्य नहीं होगा. फ़िलहाल विधान परिषद में बसपा के पास एक सीट है.

बिना सहारा बसपा की क्या है स्थिति?

लोक सभा के नज़रिये से भी बसपा का ग्राफ 2009 के बाद गिरने लगा. बसपा को 2009 लोक सभा चुनाव में 20 सीट पर जीत मिली थी. उसका वोटर शेयर 27.42% रहा था. आम चुनाव, 2014 में बसपा का उत्तर प्रदेश से सफाया हो गया. सभी 80 सीट पर चुनाव लड़ने के बावजूद मायावती की पार्टी का खाता तक नहीं खुल सका. बसपा का वोट शेयर 20 फ़ीसदी से नीचे जा पहुँचा. इस चुनाव में बसपा से अच्छा प्रदर्शन अपना दल (सोनेलाल) का रहता है. अनुप्रिया पटेल की पार्टी एनडीए में रहते हुए सिर्फ़ एक प्रतिशत वोट पाने के बावजूद दो सीट जीतने में सफल रहती है.

आम चुनाव, 2019 में समाजवादी पार्टी के साथ तालमेल के कारण बसपा की थोड़ी बहुत इज़्ज़त बच गयी. समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ने का ही असर था कि वोट शेयर में मामूली गिरावट के बावजूद बसपा 10 सीट जीतने में सफल रही. सीटों की संख्या और वोट शेयर दोनों लिहाज़ से बसपा के लिए 2009 का लोक सभा चुनाव  सबसे बेहतर रहा था.

बसपा 12 साल से उत्तर प्रदेश की सत्ता से गायब है. केंद्र की राजनीति में कोई ख़ास प्रासंगिकता बची नहीं है. पार्टी का वोट शेयर विधान सभा में सिकुड़कर 13 फ़ीसदी से नीचे चला गया है. लोक सभा में वोट शेयर 20 फ़ीसदी से नीचे चला गया है.

उत्तर प्रदेश में  मायावती की पार्टी  2017 के पहले तक मुख्य सत्ता पक्ष या मुख्य विपक्ष की भूमिका में होती थी. अब उत्तर प्रदेश की सत्ता से जुड़ी राजनीति में बसपा पिछले कुछ सालों से हाशिये पर है. तमाम विपरीत परिस्थितियों  और अकेले दम पर कुछ ख़ास नहीं करने की स्थिति में होने के बावजूद मायावती का 'एकला चलो' की रणनीति चौंकाने वाली हीं कही जा सकती है.

मायावती का रुख़ और बीजेपी को लाभ

इस बात को समझना बेहद सरल है कि बसपा के अकेले लड़ने से उत्तर प्रदेश में सीधा फ़ाइदा बीजेपी को है और बीजेपी विरोधी वोट के बिखराव से सीधा नुक़सान समाजवादी पार्टी-कांग्रेस गठबंधन को होने वाला है. बसपा अकेले दम पर एक भी सीट जीतने की क्षमता नहीं रखती हो, इसके बावजूद अभी भी मायावती के पास प्रदेश में अच्छा-ख़ासा वोट बैंक है. अनुसूचित जाति का एक बड़ा तबक़ा अभी भी बसपा से जुड़ा है.

अकेले चुनाव लड़कर उत्तर प्रदेश में बसपा  कुछ ख़ास करने की स्थिति में नहीं है, लेकिन जो कोर वोट बैंक अभी भी मायावती के साथ है, अगर वो एनडीए में मिल जाए या विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' में मिल जाए तो उत्तर प्रदेश के नतीजों पर काफ़ी असर पड़ेगा. यह ऐसा पहलू है, जिससे यह तय है कि बीजेपी विरोधी वोट का एक बड़ा हिस्सा बसपा को जाएगा. इस बात को कांग्रेस भी भली-भाँति समझ रही है. तभी मायावती के इंकार के बावजूद कांग्रेस की ओर से बीच-बीच इस तरह का बयान आते रहा है कि बसपा के लिए विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' का दरवाजा अभी भी खुला है.

बसपा की बदहाली के लिए कौन ज़िम्मेदार?

एक सवाल उठता है कि बसपा आख़िर इस स्थिति में कैसे पहुँच गयी कि उसके लिए 80 जिताऊ नाम का चयन करना भी मुश्किल हो रहा है. एक समय में पूर्वांचल से लेकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक दबदबा रखने वाली बसपा के सामने 2024 के लिए ऐसे चेहरों की स्पष्ट तौर से कमी दिख रही है, जिनकी मदद से पार्टी के लिए सीट बढ़ने की संभावना दिखती हो.

दरअसल पार्टी को आसमान पर पहुँचाने वाली मायावती ही मौजूदा स्थिति के लिए ज़िम्मेदार हैं. बसपा के नज़रिये से इसे विडंबना ही कहा जा सकता है. पिछले तीन दशक में मायावती ने बहुजन समाज पार्टी का संचालन अजीब-ओ-ग़रीब तरीक़े से किया है. पार्टी के लिए हर बड़ा निर्णय तो उन्होंने लिया ही है, छोटे-से-छोटे फ़ैसले भी कोई दूसरा नेता नहीं कर सकता था. बहुजन समाज पार्टी का विकास मायावती ने कुछ इसी अंदाज़ में किया है. मायावती के इस रवैये का ही नतीजा है कि पिछले तीन दशक में मायावती को छोड़कर कोई दूसरा बड़ा नेता स्थायी तौर से पार्टी के साथ जुड़ा रहा हो. 

मायावती की राजनीति का अलग ढर्रा

मायावती ने शुरू से ही राजनीति का वो ढर्रा इख़्तियार करके रखा, जिसमें पारदर्शिता की गुंजाइश कभी नहीं रही है. टिकट देने का तरीक़ा, पार्टी संगठन को चलाने की रूपरेखा, पार्टी के लिए कोई भी बयान देने की प्रक्रिया से लेकर चुनावी रणनीति तैयार करने के काम में मायावती ही हमेशा ही सर्वेसर्वा रही हैं. धीरे-धीरे इसका दुष्परिणाम सामने आया.

बसपा में नेताओं का स्थायी तौर से टिकना हमेशा ही बड़ा मसला रहा है. मायावती के अलावा किसी और नेता के लिए बसपा में बड़ा कद बनाने या रखने की गुंजाइश कभी नहीं रही है. साल-दर साल और चुनाव- दर-चुनाव बसपा से जुड़े रहने वाले नेता पाला बदलते रहे हैं. इतने सालों में मायावती को छोड़कर बसपा पाँच बड़े नाम गिनाने की स्थिति में नहीं है, जो लंबे समय तक स्थायी तौर से पार्टी से जुड़े रहे हों और जिनको उत्तर प्रदेश का बच्चा-बच्चा बसपा नेता के तौर पर जानता हो.

बसपा की राजनीति और जातीय गणित पर निर्भरता

मायावती की राजनीति का प्रभाव हमेशा ही जातीय गणित पर निर्भर रहा है. इस पर ख़ास ध्यान देने के कारण पिछले कई सालों से हम देखते आए हैं कि लोगों से सीधे संवाद में उनकी कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं रही है. इस मामले में उनकी सक्रियता सिर्फ़ चुनाव के समय रैली और जनसभाओं तक ही सीमित रहती है. बाक़ी समय उनकी राजनीतिक सक्रियता प्रदेश के आम लोगों के बीच बहुत अधिक नहीं दिखती है. लोगों के लिए सड़क पर संघर्ष करने की राजनीति से मायावती धीरे-धीरे दूर होती गयीं. पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं तक के लिए उन तक पहुँचना बेहद मुश्किल भरा काम होता है. उत्तर प्रदेश की राजनीति पर बसपा की कमज़ोर होती पकड़ के पीछे यह भी एक बड़ा कारण रहा है.

उत्तर प्रदेश में शुरू से पूरी तरह से जातीय समीकरणों को साधकर बसपा की राजनीति आगे बढ़ी है. यही एकमात्र फैक्टर था, जिससे 2007 के विधान सभा और 2009 के लोक सभा चुनाव तक उत्तर प्रदेश में मायावती की पार्टी दमदार स्थिति में रहती आयी थी. जैसे ही जातीय समीकरण पार्टी के पक्ष में नहीं रहा, मायावती की राजनीति की नैया धीरे-धीरे जगमगाने लगी और अब तो डूबने के कगार पर पहुँच गयी है. पिछले तीन विधान सभा चुनाव और दो लोक सभा चुनावों के नतीजों से यह स्पष्ट है कि उत्तर प्रदेश में बसपा अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रही है.

राजनीति के बीच आर्थिक मोर्चे पर बसपा की मजबूरी!

रही-सही कसर 2016 में हुए विमुद्रीकरण (आम भाषा में नोटबंदी) ने पूरी कर दी. राजनीतिक तौर से नुक़सान के संदर्भ में नोटबंदी का सबसे अधिक असर बसपा पर ही पड़ा था. ऐसा माना जाता था कि बसपा की राजनीति का आधार नक़द या'नी कैश रहा था. नोटबंदी से बसपा के इस आधार को चोट पहुँची.

राजनीतिक दल को आगे बढ़ाने में संगठन की महत्वपूर्ण भूमिका होती है और संगठन की मज़बूती के लिए बड़ी राशि की ज़रूरत पड़ती है. इस मोर्चे पर भी बसपा धीरे-धीरे कमज़ोर होती गयी. बसपा को पिछले छह साल में इलेक्टोरल बॉन्ड से कोई ख़ास राशि हासिल नहीं हुई. इसके साथ ही पिछले 6-7 साल में पार्टी को कॉर्पोरेट चंदा से भी कुछ हासिल नहीं हो पाया है. ऐसे में पार्टी को चलाने और बढ़ाने के लिए बसपा अब पहले की तरह आर्थिक तौर से मज़बूत भी नहीं रह गयी है.

अगर बसपा के वोट शेयर में गिरावट आई तो.....

पिछले डेढ़ दशक में यह परंपरा बन गयी है कि हर चुनाव के पहले बसपा के कई नेता पार्टी की डोर छोड़ देते हैं. अब तो पार्टी की दयनीय स्थिति को देखते हुए इस बार इसकी आशंका सबसे अधिक है.

पिछले 7 लोक सभा चुनाव में उत्तर प्रदेश के आँकड़ों पर ग़ौर करें, तो एक तथ्य निकलता है. बीएसपी चाहे कितनी भी सीटें जीते या शून्य पर रहे, उसका वोट शेयर उत्तर प्रदेश में 20 फ़ीसदी के इर्द-गिर्द रहता ही है. मायावती की यही ताक़त है, जिसकी वज्ह से उत्तर प्रदेश में अभी भी उनकी राजनीतिक हैसियत बनी हुई है और बीएसपी का महत्व भी बरक़रार है. हालाँकि इस बार की स्थिति अलग दिख रही है. भले ही बसपा 2014 की तरह इस बार भी कोई सीट नहीं जीत पाए, लेकिन अगर पार्टी के वोट शेयर में बड़ी गिरावट आती है, तो फिर यह मायावती के लिए तगड़ा झटका होगा.

कुल मिलाकर इतना कहा जा सकता है कि आगामी लोक सभा चुनाव बसपा के लिए अस्तित्व को बचाने वाला चुनाव है. अगर इस चुनाव में बसपा ठीक-ठाक प्रदर्शन नहीं कर पायी, तो, यह 68 वर्ष की मायावती की राजनीति के लिए भी अंत बिंदु वाला पड़ाव साबित हो सकता है. फिर भविष्य में बसपा और मायावती दोनों के लिए उत्तर प्रदेश की राजनीति में दोबारा खड़ा होना मुश्किल हो सकता है.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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