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बच्चे पैदा करने की मशीन डिफेक्टिव हो तो क्या करेंगे

हम नहीं जानते कि इस खबर पर कैसे रिएक्ट करें. इसी महीने कर्नाटक के कलबुर्गी नाम के शहर के एक मठाधीश शरनाबसप्पा अप्पा की इच्छा 82 साल की उम्र में पूरी हुई. क्या बुरा है...नौवीं संतान के रूप में उन्हें एक बेटा मिला. उनकी 48 साल की दूसरी बीवी ने उनकी यह हरसत पूरी की. पहले से उनकी आठ बेटियां हैं. टेक्निकली सात बेटियां, क्योंकि एक की मौत कुछ साल पहले हो गई है. बेटे की ख्वाहिश इसीलिए थी क्योंकि पिताजी को अपनी 100 करोड़ रुपए की संपत्ति के वारिस की दरकार थी. बेटियां या औरतें वारिस नहीं होतीं- हम जानते ही हैं. औरतों का उपयोग सिर्फ बच्चे पैदा करने, या यूं कहें, बेटे पैदा करने के लिए किया जाता है. बेटियां तो गलती से बीच-बीच में पैदा हो जाती हैं. जिन औरतों से उन्हें बेटे की इच्छा थी, वे भी गलती से ही पैदा हुई होंगी. पहली बीवी ने आखिरी सांस तक पांच बार बेटा पैदा करने की कोशिश की. नाकाम रही और दम तोड़ दिया. दूसरी तीन बार की कोशिश के बाद चौथी बार कामयाब हुई.

बेटा पैदा करना औरत का अंतिम लक्ष्य है. संतति से ही उसकी पहचान है. सोचा जा सकता है, अप्पा की बीवियों के अगर बच्चे होते ही नहीं तो उनका क्या होता. मशीन डिफेक्टिव हो तो हम उसका क्या करते हैं. वापस लौटाने का जुगाड़ हो तो ठीक, वरना किसी कोने-अतरे में फेंक दी जाती है. अगर पढ़ना चाहें तो कनाडा की मशहूर लेखिका मार्गेट एटवुड के नॉवेल ‘हैंडमेड्स टेल’ के पन्ने पलटकर देखें. कैसे समाज में औरतों को कानूनन गुलाम बनाकर बच्चा पैदा करने की मशीन बनाया दिया जाता है. वे काम नहीं कर सकतीं, संपत्ति नहीं रख सकतीं, पैसे की मालकिन नहीं कर सकतीं, पढ़-लिख नहीं सकतीं. दिलचस्प बात यह है कि फिक्शन और असलियत में कोई खास फर्क नहीं है. यह काम हमारे यहां कानूनी रूप से बैन तो नहीं है, लेकिन परिवार में इनडायरेक्टली यही सब प्रैक्टिस होता है.

किसी ने कहा, औरत तुम सिर्फ देह हो. हम इसे नहीं मानते. पर न मानने से क्या हासिल होगा. कर्नाटक का उदाहरण बार-बार इसी बात को पुख्ता करता है. आप देह से इतर सोचने की कोशिश करें, धर ली जाएंगी. एक सीनियर पत्रकार ने जब टेनिस स्टार सानिया मिर्जा से पूछा कि आप कब सेटल डाउन होंगी, तब भी उनका मतलब मदरहुड यानी मां बनने से ही था. ऐसे सवाल आदमियों से कब किए जाते हैं. मां बने बिना, औरत की जीवन यात्रा कहां पूरी होती है. एक बार इनकार करके देखिए. लांछन के समुद्र में गोते लगाने को मजबूर कर दी जाएंगी.

पर यहां औरतों की च्वाइस की बात नहीं की जा रही. उनसे तो बाय डिफॉल्ट यही उम्मीद की ही जाती है कि वे मातृत्व को वरदान समझेंगी. जिन औरतों को किसी कारण से कोई परेशानी हो, उनका हाल सोचा ही जा सकता है. स्त्री देह की तमाम समस्याओं में एक इनफर्टिलिटी यानी बांझपन ही माना जाता है. पिछले दिनों जब पॉलिसिस्टिक ओवेरियन सिंड्रोम/डिसऑर्डर (पीसीओ/डी) यानी ओवरी में सिस्ट की समस्या पर ऑनलाइन अध्ययन किया गया तो पता चला कि डॉक्टर तक इसे सीरियसली नहीं लेते. इनके लिए अलग से क्लिनिक कम ही हैं. अधिकतर क्लिनिक तो इनफर्टिलिटी का ही इलाज करते हैं. इसीलिए पीसीओ/डी का इलाज कराने गई औरतों को भी तभी सीरियसली लिया जाता है, जब वे मां बनने की इच्छा जाहिर करती हैं. जो औरतें कन्सीव नहीं करना चाहतीं, उन्हें सही देखभाल नहीं मिलती.

चूंकि बच्चे पैदा करना औरत का ही काम है. या यूं कहें कि एक अकेला काम है. यह काम नहीं किया तो क्या किया. डब्ल्यूएचओ के आंकड़े कहते हैं कि विश्व भर में 15% कपल्स को इनफर्टिलिटी का शिकार होना पड़ता है. लेकिन 60% से अधिक मामलों में इसकी जिम्मेदारी औरतों को ही झेलनी पड़ती है. यह किसी एक देश की नहीं, दुनिया भर की कहानी है. ‘लोकल बेबीज, ग्लोबल साइंस’ नाम की एक किताब में इनफर्टिलिटी के जेंडर एंगल पर स्टडी की गई. येल यूनिवर्सिटी की मेडिकल एंथ्रोपोलॉजिस्ट मार्शिया क्लेयर इनहॉर्न ने किताब में बताया है कि इनफर्टिलिटी से भले ही पति गुजरे या औरत मानसिक यंत्रणा की शिकार औरत ही होती है. ऐसी 89% औरतें डिप्रेशन, एन्जाइटी, फ्रस्ट्रेशन जैसी मानसिक बीमारियों से दो-चार होती हैं. हमारे यहां मानसिक बीमारियों को बीमारियां माना भी नहीं जाता. इसीलिए उनका इलाज कराने के बारे में हम नहीं सोचते.

ऐसी औरतों का शादीशुदा जीवन भी दांव पर लगता है. 67% औरतों को पतियों और ससुरालियों का उत्पीड़न झेलना पड़ता है. उनके पति दोबारा शादियां करते हैं, उन्हें मारते-पीटते हैं, आत्महत्या पर भी मजबूर करते हैं. इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ गायनेकोलॉजी एंड आब्सटेट्रिक्स नाम के मशहूर एनजीओ के सर्वे कहते हैं कि इनफर्टिलिटी के सामाजिक लांछन का असर पूरी जिंदगी रहता है. इस आरोप को झेलने वाली 78% औरतों से पति अपना पिंड छुड़ा लेते हैं. उन्हें छोड़कर चले जाते हैं या उन्हें घर से निकाल देते हैं.

ये सब इसीलिए है क्योंकि हम औरत को देह से ऊपर उठकर देखते ही नहीं. बांझपन को मर्दवादी दर्प की रोशनी में देखते हैं. औरत की देह चूंकि पितृसत्ता की कुंजी है, इसीलिए इस देह से प्रतिदान की उम्मीद भी की जाती है. मां महान होती है. फिल्मी महानायक ‘मेरे पास मां है’ कहते हैं तो मां भी ग्लैमराइज हो जाती है. ममत्व की पावन चदरिया ओढ़े औरत लहालोट हो जाती है. उसे खुद लगता है, वह मां पहले है, औरत बाद में. ऐसे में मां न बनने वाली औरतों की दशा क्या होगी, सोचिए. वह दीन-हीन हो जाएगी. भीतर आदर और बराबरी का भाव ‘मिस’ होने लगेगा.

इसी साल जून में आरएसएस के विमेन विंग राष्ट्रीय सेविका समिति ने लड़कियों के लिए समर कैंप लगाया था. कोई बुराई नहीं है. उन्हें अपनी सुरक्षा करने के गुर सिखाए थे. यह भी ठीक था. जो ठीक नहीं था, वह यह कि उन्हें अच्छी मां बनने का पाठ भी पढ़ाया गया था. अच्छी मां, जो बच्चों को संत बनाए. मतलब लड़कियों का अल्टिमेट गोल मदरहुड है. हर बार के उदाहरणों से साफ पता चलता है.

इसी भाव से बाहर निकलने की जरूरत है. औरत की कहानी आंखों में आंसू और आंचल में पानी से बहुत अलग है. पहले औरतें इस सोच के तहखानों से खुद बाहर निकलें. बाकी लोगों को तो समझा ही लिया जाएगा.

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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