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BLOG: औरतों की गुल्लक टूट चुकी है!

आठ नवंबर को प्रधानमंत्री के नोट बंदी के ऐलान के बाद सबसे पहले एक ही खयाल आया- अपने छिपाए रुपयों का. कितने नोट होंगे, यह टटोलना शुरू किया. आठ-दस नोट तो होंगे ही पांच-पांच सौ के. सुबह तारा ने आकर कहा- उसके पास पांच-पांच सौ के बीस नोट हैं. तारा- एक घरेलू कामगार. दो घरों के काम के पैसे पति-सास से छिपाकर उसने दस हजार जमा कर ही लिए थे. उसकी भी एक ही चिंता थी- इन नोटों को एक बार पति ने खाते में जमा कराया तो फिर गए हाथ से. तीसरी बबीता यानी सफाई कर्मी ने आकर यही रोना रोया- छह नोट उसके पास भी हैं- एक-एक हजार के. न बैंक में खाता है और न ही कोई पक्का आईडी. चौथी, सरकारी दफ्तर में एमटीएस सरोज आंटी ने भी अपने पच्चीस नोटों की पोटली खोली जिसे बेटे-बहू से छिपाकर अब तक वह जमा करती आई हैं.

ये किस्से उन औरतों के हैं जो कामकाजी हैं. अपने-अपनी तनख्वाह से कुछ पैसे बचाकर अपने सपनों की गुल्लक भरती आई हैं. पर ये गुल्लक टूट रही है. काले धन और कालाबाजारियों पर नकेल कसने की मुहिम से भले ही सरकारी खजाना लबालब हो जाए लेकिन ऐसी औरतों का खजाना लुट रहा है.

किसी दिलजले ने व्हॉट्सएप पर जोक शेयर किया और फिर पूछा- औरतें ऐसे पैसे जमा ही क्यों करती हैं. पैसा सर्कुलेशन में रहेगा तो देश को भी फायदा होगा. स्टॉक करना कहां की समझदारी है. स्टॉक करना समझदारी न होता तो शायद इस समय बहुतों के लिए दो दिन का खाना खरीदना भी मुश्किल हो जाता. कितने ही घरों में बीवियों के पर्स की तहों और बच्चों की गुल्लक से निकली चिल्लर ही काम आई है. कभी आटे के डिब्बे के अंदर, सिलाई मशीन के नीचे, दराजों और ताक में बिछे अखबारों की तहों में, हिसाब की कापियों के भीतर सिकुड़े से नोट मिल जाया करते थे. ये नोट अब भी घरों में छिपाकर रखे जाते हैं- हां उनकी जगहें बदल गई हैं. डिब्बों और दराजों के नीचे छिपे नोट पर्स की पिछली नन्हीं जेब में छिप गए हैं. इनकी अहमियत इकोनॉमिक्स की किताबें नहीं समझा सकतीं. इन पर तो नई तरह से रिसर्च करने की जरूरत है.

हाथ में पैसा होना, महिला सशक्तीकरण का पहला चरण है. कामकाजी औरतों के पास अपनी सैलरी का सहारा होता है. कई बार उनके खाते बैंक में होते हैं, कई बार नहीं भी होते. कई बार उन खातों को कंट्रोल करने का काम भी घर के मर्द करते हैं. फिर भी एक आंख बचाकर वे किसी ने किसी तरह अपने लिए अलग से पैसे जुटाने के लिए आजाद हो सकती हैं. इस पैसे के साथ उनकी आजादी जुड़ी होती है. अपनी मर्जी से बाजार की सैर को जाना और अपने-आप अपने लिए अपनी पसंद का सामान छूकर देखना... खरीद सके तो कुछ मोल-तोल करने के बाद नोट निकालकर दुकानदार को देना. सखियों सहेलियों के साथ हंसी-ठट्ठा करना. गोलगप्पे की दावतें उड़ाना. ऐसी आजादियां बिना आर्थिक आजादी के पंख टटोलने की हिम्मत कैसे कर सकती है!

पैसे से भरोसा भी आता है- भरोसा इस बात का कि वे गाढ़े वक्त से उबर सकती हैं. देश के इनफॉर्मल सेक्टर में कुल महिला श्रमिकों का लगभग 90% हिस्सा काम करता है जिसमें से बहुत सी अंगूठा छाप हैं. देश में महिलाओं की साक्षरता दर भी 65.46% है. दिलचस्प यह है कि साक्षर महिलाओं में शोध-अनुसंधान करने वाली अच्छी-खासी पढ़ी लिखी महिला भी आती है और सिर्फ अपना नाम लिख लेने वाली भी. कागज पर टेढ़े मेढ़े अक्षरों में अपने नाम लिख भर सकने वाली महिला को बैंकिंग तंत्र से ज्यादा भरोसा अपनी उस गठरी पर होता है जिसे वह जब चाहे खोल सकती है, अपनी जमा को गिन सकती है और चैन की नींद सो सकती है.

2015 के विश्व बैंक के अध्ययन में यह कहा गया था कि झारखंड की सिर्फ 38% युवा औरतों के बैंक में खाते हैं, जबकि मर्दों के 62% के करीब. इसकी एक वजह यह भी है कि उनके पास पक्के कागजात नहीं. इसीलिए ऐसी औरतें अपने लिए पैसा जमा करती हैं. ये जमा उसके तब काम आती है जब वह काम करने की जगह पर मेटरनिटी लीव की हकदार नहीं होती. बीमार पड़ने पर ईएसआई या किसी दूसरी मेडिकल सुविधा हासिल नहीं कर पाती. दिहाड़ी की वजह से बुढ़ापे में पेंशन नहीं पा सकती. इसी जमा की मदद से वह अपने बच्चों की ललचाई ख्वाहिशों को पूरा कर पाती है. कभी अपने चटोरेपन को तृप्त करती है तो कभी लाली-पाउडर से खुद में सिनेमाई सुंदरता ढूंढने की कोशिश करती है. ब्लैक मनी के इस अभियान से उसके उजले सपने स्याह हो रहे हैं.

यह भी कोई औरत ही समझ सकती है कि पैसा उसे कैसी ताकत देता है. हमारे यहां हाउस वाइव्स को होम मेकर कह तो दिया गया लेकिन घर को बनाने वाली को कोई हक नहीं दिया गया. 2012 में एक बार महिला और बाल विकास मंत्रालय की तरफ से यह पेशकश की गई थी कि औरतों को अपने घर के कामकाज को करने के लिए पति की तरफ से सैलरी मिलनी चाहिए. लेकिन यह बात हंसी-हंसी में भुला दी गई. इस पर जया भादुड़ी ने सवाल पूछा था कि अगर पत्नी पति से ज्यादा कमाती है तो... लालू प्रसाद यादव ने कहा कि वह तो राबड़ी देवी को अपनी सारी सैलरी ही दे देते हैं.

सारी सैलरी देने के बावजूद पत्नी किस तरह पति का ही भोंपू बनी रहती है, यह राबड़ी देवी को देखकर कौन नहीं समझ सकता. सैलरी संभालने वाला खजांची तो हो सकता है, पर मालिक नहीं. इसीलिए मालकिन बनने की इच्छा मन में दबाए औरतें चुपचाप जोड़ती रहती हैं. सिर्फ रुपए नहीं, कपड़े, बर्तन, गहने सब कुछ. हमारे यहां इन्हें स्त्री धन इसीलिए कहा जाता है. औरतों के हक की लड़ाई लड़ने वाले संगठनों का कहना है कि यह छिपा धन तब भी उसके काम आता है, जब वह पति या ससुरालियों की सताई हुई होती है. पुलिस स्टेशन जाने के लिए. रिपोर्ट लिखवाने के लिए. महिला के हक के लिए काम करने वाले एक एनजीओ का कहना है कि उनके पास आने वाली 88.3% औरतें पैसों की कमी की वजह से अपना केस आगे तक नहीं ले जा पातीं. हां, जिनके पास पैसे होते हैं, उनके लिए अदालती लड़ाई लड़ना आसान होता है.

ब्लैक मनी के खिलाफ सरकारी अभियान ने औरतों के इसी अनौपचारिक जमा खाते पर चोट की है. यह जमा खाता किसी एंगल से काली कमाई नहीं है. जब तारा दोबारा पैसे जमा करने की बात करती है तो उसके पुरुषार्थ पर एक मित्र का सुनाया शेर याद आता है- अपने हिस्से के फूलों की खुशबू स्थगित कर, हम तो गमलों में भी अलाव सुलगा लेंगे. फिर अलाव सुलगाने में औरतें कभी पीछे नहीं हटतीं.

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