कांग्रेस के लिए 2024 है अस्तित्व की लड़ाई, गठबंधन के लिए क़ुर्बानी पड़ सकती है भारी, यूपी में हालत सुधारे बिना नहीं आएंगे अच्छे दिन
लोक सभा चुनाव में अब चंद महीने ही बचे हैं. ऐसे तो 2024 का चुनाव हर दल के लिए बेहद महत्वपूर्ण है, लेकिन देश में सबसे लंबे वक्त तक सरकार चलाने वाली कांग्रेस के लिए ये चुनाव एक तरह से अस्तित्व की लड़ाई की तरह है. भारतीय राजनीति में इस वक्त कांग्रेस की हालत उस नैया की तरह है, जो भविष्य में किस किनारे पर जाकर लगेगी, ये 2024 के लोक सभा चुनाव नतीजों पर निर्भर करेगा. किनारा क्या होगा, ये होते जा रही है, जिस पर कोई सवारी नहीं करना चाहता.
कांग्रेस के लिए अस्तित्व की लड़ाई है 2024
हमने देखा है कि पिछले दो लोक सभा चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन अब तक का सबसे खराब रहा था. पिछला एक दशक कांग्रेस के लिए राज्यों में सत्ता के नजरिए से भी उतना अच्छा नहीं रहा है. हालांकि 2022 में हिमाचल प्रदेश में फतह के बाद इस साल मई में कर्नाटक में मिली बड़ी जीत के साथ ही राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा और आपराधिक मानहानि मामले में सुप्रीम कोर्ट से उनके कन्विक्शन पर फिलहाल रोक से कांग्रेस और उसके कार्यकर्ताओं के हौसले थोड़े बुलंद जरूर हुए हैं, लेकिन खोई राजनीतिक ज़मीन को वापस पाने के लिए इतना ही काफी नहीं होगा. इसके पीछे कारण ये है कि कांग्रेस पिछले एक दशक में केंद्र की राजनीति में काफ़ी पिछड़ गई है और बीजेपी काफ़ी मजबूत हो गई है.
विपक्षी गठबंधन से पार्टी की स्थिति नहीं सुधरेगी
कांग्रेस विपक्षी दलों के गठबंधन के जरिए बीजेपी को चुनौती देने के लिए मेहनत तो जरूर कर रही है, लेकिन 2024 उसके ख़ुद के अस्तित्व के लिए बेहद महत्वपूर्ण है. भले ही वो या विपक्षी गठबंधन बीजेपी को सत्ता से हटाने में कामयाब न हो पाए, लेकिन 2024 के चुनाव नतीजों में कांग्रेस अगर अपना प्रदर्शन बेहतर नहीं कर पाती है, तो पार्टी के भविष्य के लिए बेहद ही चिंताजनक स्थिति हो सकती है.
सिर्फ़ राज्यों की बात करें तो अपने दम पर कांग्रेस की सरकार सिर्फ़ 4 राज्यों में कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में है. इनमें से भी राजस्थान और छत्तीसगढ़ में इसी साल विधान सभा चुनाव होना है और कांग्रेस के सामन इन दोनों राज्यों में सत्ता बचाने की चुनौती है. वहीं इस साल मध्य प्रदेश, तेलंगाना और मिजोरम में भी विधान सभा चुनाव होना है. इन राज्यों में से मध्य प्रदेश में कमलनाथ की अगुवाई में कांग्रेस की स्थिति अच्छी दिख रही है. हालांकि वहां बीजेपी के दिग्गज नेता और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के सामने मुश्किलें खड़ा करना उतना आसान भी नहीं है. तेलंगाना और मिजोरम में कांग्रेस की स्थिति वैसी नहीं दिख रही है, जिससे ये कहा जाए कि इन राज्यों में कांग्रेस अपनी खोई हुई सियासी ज़मीन और सत्ता वापस पा लेगी.
कांग्रेस के लिए 'करो या मरो' की स्थिति
राज्यों की बात भूल जाएं, तो कांग्रेस के लिए केंद्र की राजनीति में अपने पैर मजबूत करने के लिए 2024 का चुनाव एक लिहाज़ से आखिरी मौके की तरह है. ये कहने के पीछे कारण है, जिसकी आगे चर्चा करेंगे. पहले एक नज़र कांग्रेस के स्वर्णिम चुनावी दौर पर डालते हैं. उससे ये समझना आसान होगा कि कैसे 2024 कांग्रेस के लिए अस्तित्व की लड़ाई है.
हम सब जानते हैं कि कांग्रेस का आज़ादी की लड़ाई में कितना महत्वपूर्ण योगदान रहा था. आज़ादी के बाद भारत का अपना संविधान बना और उसके आधार पर केंद्र की सत्ता के लिए 25 अक्टूबर 1951 से 21 फरवरी 1952 के बीच पहला आम चुनाव हुआ.
1984 तक रहा कांग्रेस का स्वर्णिम काल
1977 का चुनाव हटाकर पहले आम चुनाव से लेकर उसके बाद से 1984 तक हुए लोकसभा चुनाव कांग्रेस के लिए स्वर्णिम काल रहा था. इस दौरान 8 बार लोकसभा चुनाव हुआ और 1977 को छोड़कर हर बार कांग्रेस बहुमत के साथ केंद्र की सत्ता हासिल करने में कामयाब रही.
आज़ादी की ख़ुमारी के साथ हुए पहले आम चुनाव में जवाहर लाल नेहरू की अगुवाई में कांग्रेस को 489 सीटों पर हुए चुनाव में से 364 सीटों पर जीत मिली. इस चुनाव में कांग्रेस 45 फीसदी वोट हासिल करने में भी कामयाब रही. उसके बाद कांग्रेस की जीत का जो सिलसिला शुरू हुआ वो 1977 में जाकर टूटा.
आपातकाल के बाद हुए 1977 के लोक सभा चुनाव में कांग्रेस को कई दलों के जमावड़े जनता पार्टी से शिकस्त मिली. 1977 से पहले कांग्रेस को लगातार 5 बार स्पष्ट बहुमत हासिल करने में कोई परेशानी नहीं हुई थी. आपातकाल के दंश से जूझ रहे लोगों के गुस्से के बावजूद 1977 में कांग्रेस 34.52% वोट शेयर के साथ 154 सीट जीतने में सफल रही थी. जनता पार्टी 295 सीटें जीतने में कामयाब रही थी. जनता पार्टी को कांग्रेस से महज़ 7 फीसदी के करीब ही ज्यादा वोट हासिल हो पाया था.
हालांकि कांग्रेस एक बार फिर से 1980 और 1984 के लोक सभा चुनावों में बड़ी जीत दर्ज कर केंद्र की सत्ता में मजबूती से बनी रही. इंदिरा गांधी की हत्या के बाद बने माहौल और संवेदना की लहर के बीच कांग्रेस ने 1984 के लोक सभा चुनाव में अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया था. कांग्रेस को 414 सीटों पर जीत मिली. हालांकि वोट शेयर के मामले में कांग्रेस का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन 1957 में था, जब उसे करीब 48 फीसदी वोट हासिल हुए थे.
1989 से कमज़ोर होने लगी कांग्रेस
कांग्रेस की केंद्र के सत्ता में सियासी पकड़ 1989 से कमज़ोर होने लगी. इस चुनाव में 197 सीट जीतकर कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी तो बनी, लेकिन कांग्रेस से ही अलग हुए जनता दल के दिग्गज नेता विश्वनाथ प्रताप सिंह की अगुवाई में नेशनल फ्रंट की सरकार बनी, जिसे बाहर से बीजेपी और लेफ्ट फ्रंट का समर्थन हासिल था. कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई.
हालांकि डेढ़ साल बाद ही हुए फिर से हुए 1991 के लोक सभा चुनाव में जीत हासिल कर कांग्रेस सत्ता में वापस आ गई. इस चुनाव के पहले चरण की वोटिंग के अगले ही दिन यानी 21 मई 1991 को कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व प्रधानमंत्री राज़ीव गांधी की तमिलनाडु के श्रीपेरंबदूर में बम धमाके के जरिए हत्या कर दी जाती है. उसके बाद दो चरण में और चुनाव होता है. राज़ीव गांधी की हत्या से उपजे संवेदना की लहर का लाभ कांग्रेस को मिलता है. कांग्रेस 244 सीट जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनती है और पी वी नरसिम्हा राव की अगुवाई में उसकी सरकार बन जाती है. पी वी नरसिम्हा राव कार्यकाल पूरा करने में कामयाब भी होते हैं.
हालांकि मई 1996 में कांग्रेस सत्ता से बाहर हो जाती है. 1996 के लोक सभा चुनाव में कांग्रेस दूसरे नंबर की पार्टी बन जाती है, पहला नंबर बीजेपी के पास चला जाता है. ये पहला मौका था जब कांग्रेस का वोट शेयर 30 फीसदी से नीचे चला जाता है. कांग्रेस 1996 में बनी संयुक्त मोर्चा सरकार को बाहर से समर्थन करती है. 1998 में कांग्रेस का वोट शेयर और भी कम हो जाता है, लेकिन 141 सीट जीतकर दूसरे नंबर की पार्टी बनी रहती है. 1999 के लोक सभा चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन सीटों के लिहाज से सबसे खराब रहता है. इसके बावजूद वो सौ का आंकड़ा पार करने में कामयाब हो जाती है.
केंद्र की सत्ता में कांग्रेस की वापसी 2004 में होती है. 2004 के चुनाव में 145 सीट जीतकर कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनती है और उसकी अगुवाई में यूपीए की सरकार बनती है. मनमोहन सिंह पहली बार प्रधानमंत्री बनते हैं. 2009 में कांग्रेस 206 सीट जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनते हुए यूपीए के तले ही सत्ता बरकरार रखने में सफल रहती है और मनमोहन सिंह दूसरी बार प्रधानमंत्री बनते हैं. अब तक 17 बार आम चुनाव यानी लोक सभा चुनाव हो चुके हैं. इन चुनावों में कांग्रेस के प्रदर्शन को इस चार्ट के जरिए समझा जा सकता है:
कांग्रेस का लोक सभा चुनावों में अब तक का प्रदर्शन
वर्ष सीट वोट शेयर
1952 - 364 (44.99%)
1957 - 371 (47.78%)
1962 - 361 (44.72%)
1967 - 283 (43.68%)
1971 - 352 (43.68%)
1977 - 154 (34.52%)
1980 - 353 (42.69%)
1984 - 414 (46.86%)
1989 - 197 (39.53%)
1991 - 244 (36.40%)
1996 - 140 (28.80%)
1998 - 141 (25.82%)
1999 - 114 (28.30%)
2004 - 145 (26.53%)
2009 - 206 (28.55%)
2014 - 44 (19.31%)
2019 - 52 (19.49%)
कांग्रेस के सबसे बुरे दौर की शुरुआत 2014 से
केंद्र की राजनीति के हिसाब से कांग्रेस का सबसे बुरा दौर 2014 से शुरू होता है. लेकिन उस पर चर्चा करने से पहले एक बात गौर करने वाली ये है कि कांग्रेस की सियासी ज़मीन 1996 से कमज़ोर होते गई है. 2004 और 2009 में गठबंधन सरकार बनाने के बावजूद कांग्रेस दोबारा अपने स्वर्णिम काल के आस-पास भी नहीं पहुंच पाई. वोट शेयर के मामले में कांग्रेस 1984 के बाद कभी 40 फीसदी से ऊपर नहीं जा पाई. वहीं 1991 के बाद हमेशा ही ये आंकड़ा 30 फीसदी से नीचे रहा है.
2014 में कांग्रेस का सबसे ख़राब प्रदर्शन
केंद्र की राजनीति के लिहाज़ साल 2014 को नए युग की शुरुआत भी कहा जा सकता है. एक तरफ केंद्रीय राजनीति में नरेंद्र मोदी का उदय होता है और बीजेपी का ग्राफ तेज़ी से आसमान छूने लगता है. दूसरी तरफ इसका सीधा नकारात्मक असर कांग्रेस की राजनीति पर पड़ता है. 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के हाथों से सत्ता तो चली ही जाती है, साथ ही आम भाषा में कहें तो उसका राजनीतिक ग्राफ रसातल में पहुंच जाता है.
कांग्रेस ने कभी सोचा नहीं होगा कि केंद्रीय राजनीति में उसकी हालत इतनी दयनीय हो जाएगी. सीट और वोट शेयर दोनों के लिहाज़ कांग्रेस के लिए 2014 का लोक सभा चुनाव बुरे सपने के हक़ीक़त में तब्दील होने जैसा साबित होता है. कांग्रेस सीट और वोट शेयर दोनों के लिहाज़ से अब तक का सबसे खराब प्रदर्शन करती है.
नेता विपक्ष का दर्जा भी मयस्सर नहीं
कांग्रेस 2014 के लोक सभा चुनाव में सीटों की संख्या के लिहाज़ से सौ ही नहीं बल्कि 50 से भी नीचे आ जाती है. उसी तरह कांग्रेस का वोट शेयर पहली बार 20 फीसदी से नीचे चला जाता है. 2014 में कांग्रेस महज़ 44 सीट पर सिकुड़ जाती है. बीजेपी और कांग्रेस के बीच सीटों का फ़ासला 238 हो जाता है. वहीं वोट शेयर के बीच का अंतर करीब 12 फीसदी हो जाता है. कांग्रेस की हालत कितनी नाज़ुक हो जाती है कि ये इससे पता चलता है कि कमोबेश सिर्फ़ एक राज्य में सीमित रहने वाली एआईएडीएमके 37 और ममता बनर्जी की टीएमसी 34 सीटें जीतने में कामयाब हो जाती है.
कांग्रेस के तमाम नेताओं और कार्यकर्ताओं के साथ ही उस वक्त तक बड़े-बड़े राजनीतिक विश्लेषकों ने भी नहीं सोचा होगा कि लोक सभा में कांग्रेस की हैसियत इतनी कमज़ोर या खराब हो जाएगी कि उसे नेता विपक्ष का दर्जा भी मयस्सर नहीं होगा.
2019 में भी कमोबेश स्थिति समान रही
इसके अगले लोकसभा चुनाव यानी 2019 में भी कांग्रेस की स्थिति में कोई ज्यादा तब्दीली नहीं होती. सीट की संख्या भले 8 बढ़ जाती है, लेकिन वोट शेयर 2014 के आसपास ही रहता है. इस बार भी कांग्रेस लोक सभा में नेता विपक्ष की हैसियत के लिए जरूरी न्यूनतम 10 प्रतिशत सीटों पर जीत दर्ज करने से पीछे रह जाती है. बीजेपी और कांग्रेस के बीच सीटों का फ़ासला 251 पर पहुंच जाता है और वोट शेयर के बीच का अंतर करीब 18 फीसदी तक पहुंच जाता है.
केंद्रीय राजनीति में प्रासंगिकता का सवाल
अब कांग्रेस 2024 के लोक सभा चुनाव के लिहाज़ से चुनावी रणनीतियों को अंजाम देने में जुटी है. उसी के तहत 26 दलों का गठबंधन I.N.D.I.A नाम से बना है. इस गठबंधन से कांग्रेस को अपनी स्थिति सुधारने में कितना फायदा मिलेगा, ये तो चुनाव नतीजे के बाद ही पता चलेगा, लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि कांग्रेस के पैन इंडिया जनाधार से गठबंधन के बाकी साझेदारों को कम या ज्यादा फायदा मिलना तय है. अभी भी बीजेपी के बाद कांग्रेस ही एकमात्र वो पार्टी है जिसका जनाधार वोट शेयर के मामले में पिछली बार दहाई के आंकड़े रहा था. विपक्षी गठबंधन में शामिल किसी भी दल का 2019 में वोट शेयर राष्ट्रीय स्तर पर 5 फीसदी से ज्यादा नहीं रहा था. बीजेपी और कांग्रेस के बाद सबसे ज्यादा वोट शेयर टीएमसी का था, लेकिन ये आंकड़ा महज़ 4 फीसदी ही था.
गठबंधन में कांग्रेस से बड़ी क़ुर्बानी की आस
विपक्षी गठबंधन के तहत भी चुनावी समीकरणों के लिहाज़ से रणनीति तैयार की जा रही है. चुनाव तक विपक्ष की एकजुटता को बनाए रखने के लिए गठबंधन के बाकी साझेदार सीट बंटवारे में कांग्रेस से सबसे ज्यादा क़ुर्बानी की आस लगाए हुए हैं. जैसे आम आदमी पार्टी दिल्ली और पंजाब में कांग्रेस से बलिदान की मंशा रखती है. उसी तर्ज़ पर ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल में और अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश में कांग्रेस से क़ुर्बानी के लिए लगातार दबाव बना रहे हैं. बिहार में भी नीतीश और तेजस्वी की नज़र इसी पहलू पर होगी.
केरल में कांग्रेस और सीपीएम एक-दूसरे के विरोधी हैं. वहां तो सीट जीतने के लिहाज़ से बीजेपी का अस्तित्व गौण है. कांग्रेस की अगुवाई में यूडीएफ और सीपीएम की अगुवाई में एलडीएफ चाहे तो केरल की सभी 20 लोक सभा सीटों पर विपक्षी गठबंधन की जीत एक तरह से तय है. हालांकि इसमें सीपीएम की चाहत होगी कि वो ज्यादा से ज्यादा सीटों पर लड़े क्योंकि अब उसके लिए केरल ही एकमात्र राज्य बच गया है, जहां उसकी सरकार और व्यापक जनाधार है. इसी तरह से सीटों के लिहाज से दूसरे सबसे बड़े राज्य महाराष्ट्र में भी शरद पवार की एनसीपी और उद्धव ठाकरे की शिवसेना की मंशा होगी कि वे कांग्रेस को कम से कम सीटों पर राज़ी कर लें.
पिछले कुछ महीनों में 26 दलों के इस विपक्षी गठबंधन को वास्तविक आकार लेने की प्रक्रिया में ही ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल और अखिलेश यादव ने ख़ासकर ये जता दिया था कि वे इसका हिस्सा तभी बनेंगे, जब उनके जनाधार वाले राज्यों में कांग्रेस अपने हितों को लगभग नजरअंदाज करेगी.
गठबंधन से कांग्रेस को ज्यादा फायदा नहीं
जिन बड़े या छोटे राज्यों में कांग्रेस को सीट बंटवारे में विपक्षी गठबंधन के साथ ज्यादा ज़ोर आज़माइश नहीं करनी पड़ेगी, उनमें राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, कर्नाटक, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, हरियाणा, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश जैसे राज्य हैं. हालांकि कांग्रेस के लिए विडंबना ये हैं कि इन राज्यों में उसे विपक्षी गठबंधन में शामिल बाकी दलों से कोई ख़ास मदद मिलने की उम्मीद नहीं है. तेलंगाना, आंध्र प्रदेश को छोड़ दें, तो इन राज्यों में बीजेपी लोकसभा चुनाव के लिहाज़ से काफी मजबूत स्थिति में है.
जबकि इसके विपरीत उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार, दिल्ली, पंजाब, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और केरल में कांग्रेस अगर ख़ुद के हितों को पूरी तरह से नज़रअंदाज कर देगी तो इससे विपक्षी गठबंधन के बाकी साझेदारों को अच्छा ख़ासा लाभ मिल सकता है. ये कांग्रेस के लिए तो बेहद नुकसानदायक होगा, लेकिन विपक्षी गठबंधन के लिए फायदेमंद साबित होगा.
कांग्रेस की बजाय दूसरे दलों को ज्यादा लाभ
इन सारे पहलुओं से एक बात को साफ है कि विपक्षी गठबंधन से कुछ दलों को काफी लाभ है, बीजेपी को चुनौती देने के पैमाने पर भी इसका फायदा नज़र आता है, लेकिन कांग्रेस को उस अनुपात में इस गठबंधन से लाभ मिलने की संभावना बेहद कम है और ये कांग्रेस के भविष्य के लिए सही नहीं है. विपक्षी गठबंधन के तहत सीट बंटवारे में कांग्रेस की बड़ी क़ुर्बानी पार्टी के अस्तित्व के लिए खतरा भी पैदा कर सकता है.
कांग्रेस के कमज़ोर होने का AAP को फायदा
पिछले एक दशक में कांग्रेस जिस रफ्तार से कमज़ोर होते गई है, उससे भी तज़े रफ्तार से अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी का ग्राफ बढ़ा है. पार्टी के गठन के मात्र 10 साल के भीतर ही आम आदमी पार्टी राष्ट्रीय पार्टी बन चुकी है. दिल्ली और पंजाब में उसकी सरकार है. दिसंबर 2022 में हुए विधान सभा चुनाव में करीब 13 फीसदी वोट हासिल कर आम आदमी पार्टी ने गुजरात में भी अपना अच्छा ख़ासा जनाधार तैयार कर लिया है. केजरीवाल की पार्टी की नज़र जनाधार बढ़ाने के लिहाज़ से उन राज्यों पर ज्यादा है, जहां बीजेपी और कांग्रेस में सीधा मुकाबला देखने को मिलता है. इनमें गुजरात के अलावा राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड जैसे राज्य प्रमुख हैं.
कांग्रेस का विकल्प बनने पर नज़र
राजनीतिक दूरदर्शिता के हिसाब से राष्ट्रीय राजनीति में आम आदमी पार्टी की नज़र कांग्रेस के स्पेस को हथियाने पर है. कांग्रेस जितना कमज़ोर होगी, आम आदमी पार्टी के लिए ये उतना ही फायदेमंद है. सरल शब्दों में कहें तो आम आदमी पार्टी की मंशा कांग्रेस का विकल्प बनने पर भी है. हां, ये अलग बात है कि फिलहाल बीजेपी की मजबूती को देखते हुए 2024 के लिए आम आदमी पार्टी विपक्षी गठबंधन के तहत कांग्रेस से हाथ मिलाने को तैयार हो गई है. लेकिन ये भी तय है कि आम आदमी पार्टी दो राज्यों दिल्ली और पंजाब में सीट बंटवारे के मसले पर अपने हितों से पीछे झुकने को कतई राज़ी नहीं होने वाली है. हो सकता है कि वो गुजरात में भी कांग्रेस से त्याग की आस में हो.
इन संभावनाओं के बीच कांग्रेस ने अगर 2024 के लोक सभा चुनाव में खु़द का प्रदर्शन बेहतर नहीं किया, तो उसके लिए आगे की राह कठिन हो जाएगी. और कोई दल तो नहीं, लेकिन केंद्र की सियासत में कांग्रेस का विकल्प बनने की ज़ोर आज़माइश में आम आदमी पार्टी जुटी हुई है. ऐसे में कांग्रेस के लिए उसका प्रदर्शन काफी मायने रखता है. इसके लिए कांग्रेस को उन बड़े राज्यों पर फोकस करना होगा, जहां सीटें ज्यादा है और अभी भी उसका जनाधार ठीक-ठाक है.
उत्तर प्रदेश में कैसे सुधरेगी कांग्रेस की स्थिति?
कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी चिंता उत्तर प्रदेश है. अगर केंद्र की राजनीति में प्रभुत्व चाहिए तो कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में अपनी स्थिति में सुधार करने पर कड़ी मेहनत करनी होगी. उत्तर प्रदेश लोक सभा और विधान सभा सीटों के हिसाब से देश का सबसे बड़ा राज्य है. यहां 80 लोक सभा सीट है और 403 विधान सभा सीट है. एक वक्त था, जब उत्तर प्रदेश को कांग्रेस का मजबूत क़िला माना जाता था. लेकिन पिछले तीन दशक से यहां कांग्रेस की स्थिति यहां लगातार ख़राब होते गई. कांग्रेस दिसंबर 1989 से उत्तर प्रदेश की सत्ता से बाहर है. 2022 के विधान सभा चुनाव में तो कांग्रेस 2 सीटों पर सिकुड़ गई. उसका वोट शेयर भी ढाई फीसदी से नीचे जा पहुंचा. जबकि 1980 में हुए विधान सभा चुनाव में कांग्रेस को 425 में से 309 सीटों पर जीत मिली थी. उस वक्त कांग्रेस को करीब 38 फीसदी वोट मिले थे.
यूपी में कांग्रेस की हालत बेहद कमज़ोर
उसी तरह से लोक सभा चुनाव की बात करें, तो उत्तर प्रदेश कांग्रेस 2019 में एक और 2014 में दो सीटें जीत पाई थी. 2019 में तो राहुल गांधी तक को अमेठी से हार का सामना करना पड़ा था. 2019 में कांग्रेस का यूपी में वोट शेयर 7 फीसदी से नीचे आ गया था. जबकि 1980 के लोक सभा चुनाव में कांग्रेस उत्तर प्रदेश में 51 और 1984 में 85 में से 83 सीटें जीतने में कामयाब रही थी. उत्तराखंड के अलग राज्य बनने से पहले यूपी में 85 लोक सभा सीटें हुआ करती थी. 1977 को अपवाद मान लें, तो 1984 तक उत्तर प्रदेश से मिली सीटों की वजह से कांग्रेस हमेशा ही केंद्र की राजनीति में हावी रही थी.
केंद्र की राजनीति में कद बढ़ा पाएगी कांग्रेस?
अब भविष्य में अगर अपना अस्तित्व निखारना है और राष्ट्रीय राजनीति में प्रभावशाली कद हासिल करना है तो उसके लिए कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को उत्तर प्रदेश में पार्टी की जड़ों को फिर से मजबूत करने की सबसे ज्यादा दरकार है. लोक सभा चुनाव से चंद महीने पहले बृजलाल खाबरी को हटाकर पूर्व विधायक अजय राय को उत्तर प्रदेश इकाई का अध्यक्ष बनाना कांग्रेस की उसी रणनीति का हिस्सा है. खाबरी यूपी प्रदेश अध्यक्ष पद पर करीब 10 महीने ही रहे. हालांकि जैसी पार्टी की वहां स्थिति है, इस फैसले से ज्यादा बदलाव की उम्मीद नहीं की जा सकती है. ये सही है कि अजय राय वाराणसी से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ 2014 और 2019 में चुनाव लड़ चुके हैं, लेकिन कांग्रेस को जिस करिश्मे की उम्मीद उत्तर प्रदेश में हैं, उसके लिए पार्टी को ठोस रणनीति के साथ बड़े फ़ैसले लेने की ज़रूरत है.
उत्तर प्रदेश के लिए बड़े फ़ैसले की दरकार
उदाहरण के तौर पर उत्तर प्रदेश की कमान पूरी तरह से पार्टी महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा को सौंपा जाए और उन्हें उत्तर प्रदेश के ही किसी ऐसी लोक सभा सीट से चुनाव लड़वाया जाए, जहां से जीत हासिल करना आसान या मुमकिन हो. प्रियंका गांधी के वाराणसी से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ चुनाव मैदान में उतारने की कवायद या सोच से कांग्रेस को कुछ ज्यादा हासिल नहीं होने वाला है. इसकी बजाय कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में अपने संगठन को मजबूत करने, ज़मीनी स्तर पर फिर से कार्यकर्ताओं की एक बड़ी फ़ौज तैयार करने के साथ ही कुछ ऐसा करना होगा, जिससे प्रदेश की जनता का भरोसा फिर से पार्टी हासिल कर पाए. कांग्रेस को अगर भविष्य में केंद्रीय राजनीति का बड़ा खिलाड़ी बनना है तो उसके लिए उसे उत्तर प्रदेश में ख़ुद को मजबूत करने के अलावा कोई और चारा नहीं है.
सार में हम कह सकते हैं कि 2024 का लोक सभा चुनाव केंद्र की सत्ता के लिए तो सबसे ज्यादा महत्व रखता ही है, नरेंद्र मोदी लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री बनेंगे या नहीं, बीजेपी सत्ता बरकरार रखने में कामयाब होगी या नहीं, इन सबका जवाब मिलना है. उसके साथ ही 2024 के चुनाव का कांग्रेस के अस्तित्व के लिए भी काफ़ी मायने है. भविष्य में केंद्र की राजनीति में कांग्रेस की कैसी भूमिका रहेगी और उसका प्रभाव क्या रहेगा, ये भी 2024 के चुनाव नतीजों से तय होगा. ये सीधे तौर से केंद्रीय राजनीति में कांग्रेस की प्रासंगिकता को भविष्य के लिहाज़ से निर्धारित करने वाला चुनाव होगा.
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