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क्या मणिपुर हिंसा संसद के लिए नहीं है गंभीर मुद्दा, बिना सार्थक चर्चा के ही बीत जाएगा मानसून सत्र

संसद के मानसून सत्र में अब महज एक हफ्ते का वक्त बचा है. उसमें भी सिर्फ़ 5 दिन ही बैठक होनी है. 20 जुलाई से शुरू हुए मानसून सत्र में मणिपुर हिंसा और वहां के हालात को लेकर दोनों सदनों की कार्यवाही लगातार बाधित होती रही. इस दौरान राज्यसभा और लोकसभा दोनों ही सदनों में कई घंटे बर्बाद हुए. लेकिन जो काम नहीं हो सका वो था मणिपुर के हालात को लेकर संसद में चर्चा.

संसद के लिए मणिपुर से भी गंभीर मुद्दा है कोई!

आखिरी हफ्ते में जो माहौल बन रहा है, उसको देखकर ये कहा जा सकता है कि मणिपुर के हालात पर गंभीर और सार्थक चर्चा के ही संसद का मानसून सत्र की मियाद खत्म हो जाएगी. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या मणिपुर में पिछले तीन महीने से जारी हिंसा और उससे पैदा हुए हालात संसद के लिए गंभीर मुद्दा नहीं है.

जब मानसून सत्र शुरू हुआ था, उससे पहले के ढाई महीने में मणिपुर के हालात इतने ज्यादा खराब थे, जिसके बारे में प्रदेश के बाहर के लोग सोच कर भी सिहर जाए. इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि मणिपुर के लोगों का क्या हाल होगा. उसमें भी सत्र की शुरुआत से ठीक एक दिन 19 जुलाई को मणिपुर का एक वीडियो वायरल होता है. उसमें दो महिलाओं को पूरी तरह से निर्वस्त्र कर भीड़ में से कुछ लोग बर्बरतापूर्ण हरकत कर रहे होते हैं. ये घटना 4 मई को मणिपुर के थोबल जिले में होती है. ढाई महीने तक इस घटना को लेकर मणिपुर के बाहर के लोग बिल्कुल अंजान रहते हैं. सत्र की शुरुआत से ठीक एक दिन पहले जब वीडियो वायरल होता है तो पूरे देश में आक्रोश और गुस्से का माहौल बन जाता है.

वीडियो से हालात का अंदाजा लगाना आसान

ऐसा नहीं है कि इस वीडियो के सामने आने के पहले मणिपुर के हालात को लेकर प्रदेश के बाहर लोगों को जानकारी नहीं मिल रही थी. हालांकि इस वीडियो ने ये जरूर बता दिया कि मणिपुर में हिंसा से हालात कितने ज्यादा बिगड़ चुके हैं. इस वीडियो में जिन महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न किया गया था, वे प्रदेश के कुकी आदिवासी समुदाय से आती हैं. मणिपुर हिंसा के लिए प्रमुख कारण गैर-आदिवासी समुदाय मैतेई और आदिवासी समुदाय कुकी के बीच  तनाव और संघर्ष है. मैतेई समुदाय एसटी स्टेटस की मांग कर रहा है और कुकी समेत वहां के तमाम आदिवासी समुदाय इसका विरोध कर रहे हैं.

मणिपुर को लेकर मोदी सरकार कितनी है गंभीर?

वीडियो वायरल होने के अगले दिन सत्र की शुरुआत से पहले पुरानी परंपरा के मुताबिक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संसद परिसर में मीडिया के सामने अपनी बात रखते हैं. उसी दौरान प्रधानमंत्री मणिपुर में वीडियो से जुड़ी घटना पर प्रतिक्रिया देते हैं. प्रधानमंत्री उस घटना को देश के लिए शर्मनाक बताते हुए दोषियों पर सख्त से सख्त कार्रवाई की बात कहते हैं. हालांकि प्रधानमंत्री अपने इस बयान में मणिपुर के हालात को लेकर कुछ नहीं कहते हैं. मणिपुर में  3 मई से हिंसा जारी है. इस दौरान प्रधानमंत्री की ओर से कोई बयान नहीं आया.

उसके बावजूद  जब 20 जुलाई को प्रधानमंत्री वीडियो से जुड़ी घटना पर प्रतिक्रिया देते हैं, तो ये उम्मीद जगती है कि मानसून सत्र के दौरान मणिपुर को लेकर संसद में संवेदनशीलता देखने को मिलेगी. वहां के हालात पर दोनों सदनों में सार्थक चर्चा होगी. उस चर्चा में विपक्ष मणिपुर हिंसा से जुड़े तमाम पहलुओं को उठाएगा और सरकार की ओर से उन हर पहलू पर जवाब आएगा. हालांकि ऐसा कुछ नहीं हुआ और मानसून सत्र का तीसरा हफ्ता खत्म हो चुका है और अब बस एक हफ्ते में 5 दिन की बैठक बची है. 

राजनीतिक टकराव में गौण होता मणिपुर का मुद्दा

दरअसल मणिपुर की हिंसा मैतेई और कुकी समुदाय के बीच के टकराव से हुई, जबकि संसद में इस मसले पर चर्चा नहीं होने का प्रमुख कारण भी टकराव ही है और वो टकराव राजनीतिक दलों के बीच का टकराव है. सत्ताधारी पार्टी और विपक्षी पार्टियों के बीच रस्साकशी की वजह से ऐसा लगने लगा है कि मणिपुर जैसे बेहद ही गंभीर मुद्दे पर संसदीय व्यवस्था की अहम कड़ी बेहद ही अगंभीर है.

राजनीति में उलझकर दम तोड़ते गंभीर मुद्दे

सत्र की शुरुआत से ही ये पूरा मसला राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप और उससे भी ज्यादा नियमों के हेर-फेर में उलझ कर रह गया. कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दलों ने ये मुद्दा उठाया जरूर, हंगामा भी किया, नारेबाजी भी देखने को मिली. इन सबके बावजूद विपक्ष सरकार को सार्थ चर्चा के लिए तैयार नहीं करवा पाया. दरअसल विपक्ष की दो प्रमुख मांगे थी. पहली मांग थी कि मणिपुर के मुद्दे पर दोनों ही सदनों में उन नियमों पर चर्चा हो, जिसमें लंबी चर्चा की व्यवस्था है और साथ ही वोटिंग का भी प्रावधान है. विपक्ष की दूसरी मांग ये थी कि चर्चा का जवाब सरकार की ओर से केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के बजाय खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दें.

सरकार लंबी चर्चा के पक्ष में क्यों नहीं?

जिस तरह से विपक्ष की ये दो मांगें थी, उसी के विपरीत सरकार दो बातों के लिए तैयार थी. सरकार चर्चा चाहती थी, लेकिन उन नियमों के तहत जिसमें अल्पकालिक चर्चा का प्रावधान हो. इसके साथ ही चूंकि मामला कानून व्यवस्था से जुड़ा है, इसलिए सरकार का कहना था कि चर्चा का जवाब प्रधानमंत्री नहीं बल्कि गृह मंत्री देंगे.

जहां विपक्ष लंबी चर्चा के जरिए मणिपुर पर सरकार को ज्यादा घेरने की कोशिश में था, तो लंबी चर्चा से बचते हुए सरकार अल्पकालिक चर्चा के जरिए सरकारी जवाबदेही पर संसद में कम बहस हो, इससे सुनिश्चित करने में जुटी रही है.

सत्ता पक्ष-विपक्ष का टकराव हो गया बड़ा मुद्दा

मानसून सत्र का 3 हफ्ता और उसमें हुई 12 बैठक इन्हीं दो बातों पर टकराव के साथ बीत गया. सत्र के दौरान संसद के लिए मणिपुर ही सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा था या  होना चाहिए था, लेकिन उसकी जगह सदन के नियम और राजनीतिक दलों के बीच का अहम और तनातनी मणिपुर से भी ज्यादा प्राथमिक और महत्वपूर्ण मुद्दा बन गया.

विपक्ष भी कह रहा है कि चर्चा हो और सरकार भी कह रही है कि हम चर्चा को तैयार है. फिर ऐसा क्या है कि संसद में मणिपुर को लेकर सार्थक चर्चा नहीं हो पा रही है. नियमों में  सरकार और विपक्ष ने इस मुद्दे को उलझा दिया है. 

नियमों के फेर में फंसी संसद की कार्यवाही

राज्य सभा में विपक्ष नियम 267 के तहत चर्चा की मांग करता रहा. इस नियम के तहत सदन के सभी कार्य स्थगित हो जाते हैं और जिस मसले पर चर्चा की मांग की उसी पर सिर्फ चर्चा होती है. जबकि सरकार राज्यसभा में नियम 176 के तहत चर्चा को राजी दिखी. राज्य सभा के प्रक्रिया और कार्य संचालक विषयक नियम के तहत उन नियमों का प्रावधान है जिससे सदन की कार्यवाही चलती है.  इसी के नियम 176 के तहत अल्पकालिक चर्चा की व्यवस्था है. इसके तहत की चर्चा ढाई घंटे से ज्यादा की नहीं होती है. नियम 176 के तहत चर्चा में सदन के सामने न तो कोई प्रस्ताव होता है और न ही चर्चा के बाद वोटिंग होती है.

वहीं लोकसभा में भी सरकार और विपक्ष के बीच नियमों को लेकर ही तनातनी रही. विपक्ष नियम 184 के तहत चर्चा चाहता है, जबकि सरकार नियम 193 के तहत चर्चा को लेकर अडिग रही. लोकसभा में नियम 184 के तहत जब चर्चा होती है तो वो लंबी चलती है. जबकि नियम 193 के तहत चर्चा अल्पकालिक होती है. इस नियम के तहत चर्चा के दौरान सदन में न तो कोई औपचारिक प्रस्ताव होता है और न ही मतदान का प्रावधान है.

सत्र के आखिरी हफ्ते भी चर्चा की उम्मीद नहीं

इन्हीं नियमों में उलझकर संसद के मानसून सत्र के तीन हफ्ते बीत गए और मणिपुर का मुद्दा चर्चा के जरिए संसदीय कार्यवाही के दस्तावेज में रिकॉर्ड होने के लिए बांट जोहता रह गया. अब आखिरी हफ्ते के विधायी कार्यों और बाकी एजेंडा पर नज़र डालें तो इसकी संभावना बेहद कम नजर आ रही है कि मणिपुर पर चर्चा को लेकर सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच कुछ ठोस रास्ता निकल सकता है.

लोकसभा की बात करें तो सोमवार (7 अगस्त) को सदन के कामकाज के एजेंडे में डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन बिल, अनुसंधान नेशनल रिसर्च फाउंडेशन बिल, फार्मेसी संशोधन बिल और मीडीएशन  बिल लिस्टेट है. सरकार 7 अगस्त को लोकसभा में ज्यादा से ज्यादा विधेयक पारित करना चाहेगी क्योंकि उसके बाद के 3 दिन यानी 8, 9 और 10 अगस्त को कांग्रेस की ओर से लाए गए अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा होनी है. 10 अगस्त को ही इस चर्चा का जवाब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देंगे और फिर उसके बाद प्रस्ताव पर वोटिंग की औपचारिकता पूरी की जाएगी. यानी लोकसभा में सिर्फ एक दिन 11 अगस्त बचता है और उस दिन शुक्रवार होने की वजह से कम ही संभावना है कि मणिपुर के मसले पर कोई सार्थक चर्चा हो पाए.

दूसरी तरफ अगर आखिरी हफ्ते में राज्य सभा की बात करें, तो सरकार 7 अगस्त को दिल्ली में सेवाओं पर अधिकार से जुड़े विधेयक पारित कराना चाहेगी. लोकसभा से ये विधेयक पारित हो चुका है. उसके साथ ही आखिरी हफ्ते में सरकार राज्य सभा से रजिस्ट्रेशन ऑफ बर्थ एंड डेथ अमेंडमेंट बिल, नेशनल डेंटल कमीशन बिल जैसे महत्वपूर्ण विधेयकों को पारित कराना चाहेगी. 

विपक्ष का राज्यसभा में एक और नियम का दांव

ऐसे ये खबर आई है कि सरकार मानसून सत्र के आखिरी दिन राज्यसभा में मणिपुर पर चर्चा के लिए तैयार है. दरअसल विपक्ष की ओर से बीच का रास्ता निकालते हुए सरकार को राज्यसभा में नियम 167 के तहत चर्चा का प्रस्ताव दिया गया है. नियम 167 के तहत चर्चा के बाद मंत्री की ओर से जवाब दिया जाता है और उसके बाद वोटिंग होती है. विपक्ष की ओर से ये प्रस्ताव  नियम 267 और  नियम 176 को लेकर बने गतिरोध को तोड़ने के लिए दिया गया है.

हालांकि सरकार विपक्ष के इस प्रस्ताव पर राजी दिख रही है, लेकिन सरकार ने जो संकेत दिए हैं उसके मुताबिक शुक्रवार (11 अगस्त) को ही ये हो सकता है. इसके पीछे तर्क ये हैं कि केंद्रीय गृह मंत्री जो चर्चा का जवाब देंगे, शुक्रवार से पहले खाली नहीं हैं. सोमवार यानी 7 अगस्त को वे राज्यसभा में दिल्ली से जुड़े विधेयक को लेकर व्यस्त रहेंगे, वहीं उसके आगे के तीन दिन गृह मंत्री लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा होने की वजह से वहां रहेंगे. ऐसे में मानसून सत्र का आखिरी दिन ही बचता है, जिसमें राज्य सभा में मणिपुर के मसले पर किसी भी तरह की चर्चा हो सकती है.

खानापूर्ति करने में व्यस्त सत्ता पक्ष और विपक्ष

पूरे हालात को समझने पर एक बात तो स्पष्ट है कि मणिपुर पर संसद में चर्चा हो इसको लेकर न तो सत्ता पक्ष और न ही विपक्ष गंभीर दिखा. अगर नियम 167 पर मानना ही था तो विपक्ष ने इसके लिए पहले ही क्यों नहीं प्रयास किया, ये सवाल उठता है. जैसा कि कांग्रेस नेता जयराम रमेश कहते हैं कि I.N.D.I.A. नाम के बैनर तले विपक्षी गठबंधन ने राज्यसभा में नियम 167 के तहत चर्चा का प्रस्ताव सरकार को 3 अगस्त यानी गुरुवार को दिया था. विपक्ष को भलीभांति पता था कि मानसून सत्र के आखिरी हफ्ते में दोनों ही सदनों में किस तरह का कामकाज का एजेंडा है.  ऐसे में सरकार शुक्रवार यानी सत्र के आखिरी दिन ही चर्चा के लिए तैयार होगी. अब विपक्ष कह रहा है कि वो किसी भी तरह से नियम 167 के तहत राज्य सभा में चर्चा 7 या 8 अगस्त को चाहता है. विपक्ष का कहना है कि वो चर्चा को लेकर बेहद गंभीर है. हालांकि सब कुछ जानते हुए इस तरह का प्रस्ताव देकर विपक्ष महज़ खानापूर्ति करते ही नज़र आ रहा है क्योंकि अगर गंभीरता होती तो विपक्ष पहले ही ऐसा प्रस्ताव लेकर आगे बढ़ता.

अविश्वास प्रस्ताव से नहीं बनेगी बात

इस मसले पर भी सत्ता पक्ष और विपक्ष सिर्फ अपनी बातों पर अडिग नज़र आ रहा है. जब तक सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों नहीं चाह ले, किसी भी मसले पर संसद गंभीर हो ही नहीं सकती या फिर उस मुद्दे को संसदीय चर्चा का विषय बनने का मौका ही नहीं मिल सकता है. हालांकि कुछ लोग ये तर्क दे रहे हैं कि लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान विपक्ष को मणिपुर पर अपनी बात रखने का मौका मिलेगा. उसी तरह अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा का जवाब देने में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मणिपुर पर सरकार का पक्ष रखना पड़ेगा. लेकिन ये बात समझनी होगी कि अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा का जवाब देने के वक्त प्रधानमंत्री के ऊपर कोई बाध्यता नहीं होगी कि वो मणिपुर के मामले पर ज्यादा बोले. अलग से सिर्फ़ मणिपुर के मुद्दे पर चर्चा होती और उस वक्त अगर प्रधानमंत्री चर्चा का जवाब देते तो वहां सरकार की जवाबदेही ज्यादा तय होती. अब जो स्थिति है उसके मुताबिक मणिपुर का मुद्दा मोदी सरकार की कमजोर कड़ी के तौर पर उभरकर सामने आया है.

क्या मणिपुर को संसदीय चर्चा का हक़ नहीं?

ऐसे में एक बेहद ही गंभीर सवाल उठता है कि मणिपुर में जो हालात हैं, उसे अलग से संसदीय चर्चा का हक़ नहीं है. तीन महीने से मणिपुर के लोग हिंसा की आग में झुलस रहे हैं. 150 से ज्यादा लोगों की जानें चली गई है. हजारों लोग बेघर हो गए हैं. खुद राज्यपाल अनुसुइया उइके टीवी पर आकर बोल चुकी हैं कि उन्होंने अपने जीवन में ऐसे हालात कभी नहीं देखे, जैसे हालात मणिपुर में हैं.   30 लाख की आसपास की आबादी वाले मणिपुर में हिंसा पर नियंत्रण के लिए 40 हजार से ज्यादा सुरक्षाकर्मियों को तैनात करना पड़ा है.

एक वक्त था, जब संसद के हर सत्र में जनता से जुड़ी परेशानियों के अलग-अलग विषयों पर दो से तीन चर्चा जरूर हो जाती थी. मणिपुर तो एक ऐसा मुद्दा है, जिसकी गंभीरता बताने के लिए किसी तर्क की जरूरत ही नहीं है. जो हालात हैं, महिलाओं के साथ जो बर्बरतापूर्ण यौन उत्पीड़न की घटनाएं सामने आ रही हैं, किसी भी देश की संसद के लिए उससे ज्यादा महत्वपूर्ण और गंभीर मुद्दा हो ही नहीं सकता.

लोकतांत्रिक व्यवस्था में संसदीय चर्चा का बेहद महत्व

लोकतांत्रिक व्यवस्था में संसदीय चर्चा का बेहद महत्व है. किसी भी मुद्दे पर जब संसद के दोनों सदनों में सार्थक बहस होती है, तो उस मसले से जुड़े अलग-अलग पहलुओं को और बेहतर तरीके से समझने में  देश के लोगों को मदद मिलती है. उस समस्या के प्रति लोगों की समझ बढ़ती है.

चर्चा से राजनीतिक जवाबदेही तय करने में मदद

इससे भी आगे जाकर जब मणिपुर जैसा गंभीर और संवेदनशील मुद्दा हो तो संसद में चर्चा के जरिए राजनीतिक जवाबदेही तय करने की कोशिश की जाती है.  राजनीतिक जवाबदेही से तात्पर्य सिर्फ़ सरकार की जवाबदेही नहीं है. संसदीय व्यवस्था में राजनीतिक जवाबदेही सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों से तय होती है. जब संसद में किसी मुद्दे पर चर्चा होती है, तो लोगों को ये भी पता चलता है कि विपक्ष से जुड़ी पार्टियां उस मसले पर, उस समस्या पर कितना पुरजोर तरीके से जनता और पीड़ितों का पक्ष संसद में रख रही है. वहीं जवाब में सरकार ये बताने के लिए मजबूर होती है कि उस समस्या के समाधान के लिए सरकार की ओर से क्या कदम उठाए गए, वो कौन सी कड़ी थी, जहां चूक होने से इतनी बड़ी घटना घट गई. 

मणिपुर के साथ पूरे देश का नुकसान

संसदीय चर्चा के लिहाज से ये सारे बेहद ही महत्वपूर्ण पहलू हैं और अगर संसद के मानसून सत्र में मणिपुर के हालात पर चर्चा नहीं हो पाती है तो ये न सिर्फ मणिपुर के लोगों का नुकसान है, बल्कि लोकतंत्र होने के नाते ये मणिपुर के साथ ही पूरे देश का नुकसान है. सरकार की तो जवाबदेही सबसे ज्यादा बनती है. उसमें भी जब प्रदेश की सरकार और केंद्र की सरकार दोनों ही एक ही पार्टी की हो, तब तो संसद में सार्थक चर्चा का महत्व और भी बढ़ जाता है. ये राजनीतिक जवाबदेही के साथ ही सरकारी जवाबदेही के लिए भी जरूरी है. मणिपुर के मामले में राज्यपाल के इतना कहने और रिपोर्ट भेजने के बावजूद प्रदेश सरकार यानी एन बीरेन सिंह की सरकार पर कोई कार्रवाई केंद्र से नहीं होती है, ये भी सोचने वाली ही बात है. न तो संविधान के अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल कर मणिपुर में राष्ट्रपति शासन लगता है और न ही प्रधानमंत्री या केंद्रीय गृह मंत्री की ओर राज्य सरकार से हुई चूक को लेकर कोई बयान आता है.

न तो राजनीतिक न सरकारी जवाबदेही हो पाई तय

मणिपुर के मामले में आखिरी उम्मीद वहां के लोगों और देश की बाकी आम जनता को संसद से ही बची थी. हालांकि संसद में सत्ता पक्ष से लेकर विपक्ष से जुड़ी तमाम पार्टियों का जो इस पर रुख रहा है, वो बताता है कि दोनों ही पक्ष की रुचि चर्चा से ज्यादा राजनीतिक खींचतान और राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप में रही है. सरकार तो जनता की भलाई के लिए होती ही है, संसदीय शासन व्यवस्था में विपक्षी दलों की जवाबदेही भी जनता के ही प्रति होती है, मणिपुर के मुद्दे पर संसद के भीतर सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच जिस तरह की तनातनी दिखी है, उससे ऐसा लगता है जैसे दोनों पक्षों की जवाबदेही जनता के प्रति नहीं बल्कि एक-दूसरे के प्रति है. इन सबके बीच संसद में मणिपुर मुद्दे की प्रासंगिकता और गंभीरता कहीं गौण होते नजर आ रही है.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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