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'हिन्दू-मुस्लिम दंगा, लॉ एंड ऑर्डर और नीतीश सरकार की भूमिका', पूर्व DGP गुप्तेश्वर पांडेय ने बताया- क्यों नहीं बन पाए राजनेता

बॉलीवुड एक्टर सुशांत सिंह राजपूत की हत्या के बाद सुर्खियों में आए गुप्तेश्वर पांडेय जी पहले रॉबिनहुड की भूमिका में आए. इसके बाद उन्होंने राजनीति की दुनिया में कदम रखा और फिर गेरुआ वस्त्र धारण कर गुप्तेश्वर पांडेय अंतरराष्ट्रीय कथावाचक बन गए. उन्होंने एबीपी डिजिटल टीम के साथ विस्तार से हर मुद्दे पर बातचीत की. आध्यात्मिक दुनिया के बारे में वो क्या सोचते हैं और रिटायरमेंट के बाद वह कथावाचक क्यों बने? इन सारी बातों पर आइये जानते हैं उनका क्या कहना है. 

मैं गरीब किसान परिवार से आता था. बहुत संघर्ष कर पुलिस की सेवा में आया, डीजीपी बना. राजनेता मैं बन नहीं पाया, हालांकि राजनीति में जाने की मेरी बहुत इच्छा थी. मेरा मन था कि मैं विधायक बनकर एक मानदंड स्थापित करूं. गरीबों की सुनना, उनके झोंपड़ियों में जाना, जनता की बात को ऊपर तक पहुंचाना, तो मैं एक मॉडल देना चाहता था. ये सच है कि इसी वजह से मैंने वीआरएस लिया, लेकिन मेरी एंट्री हुई नहीं राजनीति में. मैं नेता बन नहीं पाया. मेरा कुल मिलाकर एक सप्ताह का भी राजनीतिक जीवन नहीं रहा. मेरे स्वैच्छिक निवृत्ति लेने और साधु बनने के समय के छोटे अंतराल में ही इतना अनुभव हुआ, इतना एक्सपोजर हुआ कि मैं समझ गया कि राजनीति में जो गुण चाहिए, वो मुझमें नहीं हैं. तभी मैंने तय कर लिया कि मुझे राजनीति में जाना नहीं है. सेवा के और भी तरीके हैं. जहां तक पद के लोभ की बात है, तो डीजीपी का ऐश्वर्य ज्यादा होता है, पावर ज्यादा होता है, तो ये भी लालच नहीं था. कोई भी ऐसा नहीं मिलेगा जो डीजीपी का पद त्याग कर विधायक बनना चाहे. मेरे अंदर सेवा की भावना थी और नौकरी की अपनी सीमाएं हैं, तो उस वजह से मैं राजनीति में जाना चाहता था, लेकिन मुझे प्रवेश ही नहीं मिला. जब मैं समझ गया कि राजनीति मेरे लिए नहीं तो सेवा का दूसरा माध्यम चुना. समाज में भाईचारा हो, प्रेम हो, लोगों की चेतना में उत्कर्ष हो, इसलिए मैंने राम और कृष्ण की कथा के माध्यम से मैंने लोगों की चेतना में उत्कर्ष लाने का काम करने का ठान लिया. अब मैं केवल रामकथा करता हूं, देश और विदेशों में भी. भजन गाता हूं. राजनीति से मेरा कोई लेना-देना नहीं है. 

प्रश्नः आपको कब लगा कि आपको अध्यात्म की दुनिया में आना चाहिए और कथावाचक बनना चाहिए?

जो मुझे बचपन से जानते हैं, वे जानते हैं कि मैं ब्राह्मण कुल में पैदा हुआ था. हनुमान जी की पूजा करता था, घर में पूजा-पाठ का वातावरण था. मैं ये भी मानता हूं कि जो भी समृद्धि या बुलंदी मुझे मिली है, वह मेरे गुरु और हनुमानजी की कृपा से हुआ. मैं संस्कृत का विद्यार्थी था. उसी से मैंने ग्रेजुएशन किया. संस्कृत विषय होने के नाते मैंने वेद, पुराण, उपनिषद, रामायण, महाभारत और संस्कृत साहित्य पूरा पढ़ा था. मैंने न्यायशास्तर पढ़ा था. मीमांसा और वेदांत पढ़ा था, तो मेरे अंदर वह चीज पककर तैयार थी. समय से वह फूटा. वरना, मैं पूरी विनम्रता से कहूंगा कि आप अगर सर्वे करेंगे तो डीजीपी का पद छोड़कर कथावाचक  बनने वाला मैं पहला आदमी होऊंगा. ऐसा कोई अचानक नहीं बन जाता. भागवत की कथा करने के लिए कम से कम 10 साल की तैयारी चाहिए. 

प्रश्नः लोगों ने जब आपको कथावाचक की भूमिका में देखा तो बहुत चकित हुए. दो साल पहले आपको उन लोगों ने सुशांत सिंह राजपूत की मौत के समय बिल्कुल दबंग के तौर पर देखा था. आपके रोल रिवर्सल से बहुत हैरानी हुई लोगों को. 

मैं जन्मना ब्राह्मण था, लेकिन जो पेशा मुझे भगवान ने दिया वह क्षात्र धर्म का था. शासन-प्रशासन करना क्षत्रिय धर्म है. उसमें रजोगुण की प्रधानता होती है. पुलिस अधिकारी के रूप में जो भूमिका थी, वह एक रजोगुणी भूमिका थी. मुझे भरोसा है कि वह मैंने ठीक से भूमिका निभाई. ठीक है कि मेरे आलोचक होंगे, दुश्मन होंगे. आखिर मेरे समय 60-70 एनकाउंटर हुए. मैं बिहार में एसपी से डीजीपी तक पहुंचा. सैकड़ों को जेल में डाला. हालांकि, मेरा कोई दुश्मन भी हो तो वह नहीं कह सकता कि मैं एक पुलिस अधिकारी के तौर पर असफल रहा. मैंने व्यक्तिगत दुर्भावना से न तो किसी का एनकाउंटर किया, न किसी को जेल भेजा. मैंने बस राजधर्म और क्षात्रधर्म के तौर पर अपनी भूमिका निभाई. वह भूमिका जब मैंने छोड़ दी, तो मेरे जो स्वाभाविक संस्कार थे, वह सतह पर आ गए और मुझे खींचकर इस ओर ले आए. अब मैं बस सनातन की सेवा में हूं. लोगों में प्रेम कैसे बढ़े, उनकी चेतना का उत्कर्ष कैसे हो, बस यही काम करता हूं. 

प्रश्नः आपने अध्यात्म का मार्ग अपनाया. इसका क्या मतलब होता है और क्या मनुष्य का धार्मिक होना आवश्यक है?

धर्म का मतलब क्या है? परहित सरिस धर्म नहीं भाई...किसने कहा है? आप किसी भी देश को देखें, कोई दर्शन देख लें, हमारे पूर्वजों की ऊंचाई, उनका जो चिंतन है, वह कहीं नहीं मिलेगा- सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामया, सर्वे भद्राणि पश्यन्ति, माकश्चिद् दुख भागभवेत्..., यानी 84 लाख जीवों के कल्याण की कामना की गई है. हमारे लोगों ने ये नहीं कहा कि हिंदू भवन्तु सुखिनः, मुस्लिम भवन्तु दुखिनः...हमारे ऋषियों की चेतना का स्तर इतना ऊंचा था कि सभी जीवों का कल्याण हो, कीट-पतंग इत्यादि सभी की कल्याण-कामना की गई है. यह काम राजनीति से कभी नहीं होगा. मैंने देखा है अपनी पूरी जिंदगी में कि राजनीति लोगों को तोड़ती है, जोड़ती नहीं है. राजनीति बांटती है, भेद पैदा करती है. राजनीति कटना-लड़ना, मरना सिखाती है. धर्म लोगों को जोड़ता है, चेतना में उत्कर्ष लाता है और इसी माध्यम से राष्ट्र का, विश्व का, मानवता का कल्याण हो सकता है. हां, राजनीति में जाकर देश की सेवा जरूर कर सकते हैं, अगर आपकी चेतना में सत्व का उत्कर्ष हो. अगर आप अपने स्वार्थ के लिए, पैसों के लिए, अहंकार के लिए गए हैं, तो दुर्घटना ही होगी. एक सच्चा संत जिसके हृदय का उत्कर्ष हो चुका हो, वह अगर राजनीति में जाएगा, तो ही कल्याण होगा. खैर, संत तो जहां रहेगा वहीं कल्याण करेगा. वह तो डॉक्टर, वकील, समाजसेवी किसी भी तौर पर कल्याण करेगा अगर उसकी चेतना का उत्कर्ष हो गया है, वरना वह अनर्थकारी ही रहेगा, गड़बड़ ही करेगा. 

प्रश्नः राजनीति में जाकर क्या सेवा नहीं कर सकते, आज का कोई नेता नजर आ रहा है आपको, जिसमें चेतना का उत्कर्ष दिखे?

मैं राजनीतिक जुमलों में नहीं जाऊंगा. मैं एक सिद्धांत की बात कर रहा हूं. अभी भी राजनीति में बहुत अच्छे लोग हैं. हरेक पेशे में रजोगुणी, तमोगुणी और सतोगुणी लोग हैं. मैं ऐसे विधायक को भी जानता हूं जो पांच टर्म विधायक रहकर भी साइकिल से घूमते हुए मर गए. ऐसे भी लोग थे. आज के विधायकों को भी देख लीजिए. मैं नाम किसी का नहीं लूंगा. अच्छे लोग कल भी थे, आज भी हैं. बस ये है कि आज अच्छे लोग कम हो रहे हैं. चेतना में निरंतर अपकर्ष आने की वजह से ये हो रहा है. तमोगुण और रजोगुण के उत्कर्ष की वजह से समाज में बुरे लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है.

प्रश्नः आप जब बिहार के डीजीपी थे तो कानून-व्यवस्था नाम की चीज नजर आती थी. आज की हालत पर क्या कहेंगे, जब चहुंओर लॉ एंड ऑर्डर में गिरावट है, बालू-माफिया हावी है, सरकारी अधिकारियों को मार रहा है.

चेतना में गिरावट ही मूल वजह है. आज की तारीख में पैसा महत्वपूर्ण है. हम तो पूरी दुनिया में देख चुके हैं. कहीं भी जाइएगा तो यह एक धारणा है कि पैसा महत्वपूर्ण है. आपकी शिक्षा-दीक्षा से लेकर सब कुछ तो उसी पर डिपेंड करता है. हालांकि, अगर किसी के दिमाग में यह बात बैठ गई कि केवल और केवल पैसा ही महत्वपूर्ण है, तो वह तो पैसे के लिए कुछ भी करेगा. कत्ल करेगा, चोरी करेगा, डाका डालेगा, अत्याचार करेगा. उसी तरह सत्ता भी अहम है, लेकिन जिसने ये समझ लिया कि केवल सत्ता अहम है, तो फिर वह तो पागल ही होगा न. ये खतरनाक स्थिति न आए, इसको रोकने का तरीका केवल धर्म है. धर्म का अनुशासन बहुत जरूरी है. आप कहीं भी रहें. आदमी बाहर के दंड-विधान से उतना अनुशासित नहीं होता है, जितना अपने भीतर के बिलीव-सिस्टम से, अपनी नैतिकता से, अपने मूल्यों से होता है. इनको विकसित करने के लिए धर्म का मार्ग जरूरी है.

प्रश्नः अध्यात्म हमें क्या सिखाता है, धर्म के मार्ग पर चलना क्यों जरूरी है?

धर्म का मार्ग इसलिए जरूरी है, आध्यात्म हमें यह सिखाता है कि यह सृष्टि एक है, वरना आप देखिए कि मुसलमानों का खुदा अलग, ईसाइयों का गॉड अलग, यहूदियों का मालिक अलग, हिंदुओं की तो हजारों जातियां-उपजातियां और सबके भगवान, तो झगड़ा न हो. ईश्वर के नाम अलग हो सकते हैं, उसको पूजने के, इबादत के तरीके अलग हो सकते हैं, यह बात आदमी की चेतना में आ जाए तो जात के औऱ धर्म के झगड़े खत्म हो जाएंगे. धार्मिक होना इसीलिए जरूरी है. मजहबी होना जरूर नहीं है, मूर्ख की तरह कट्टर होना जरूरी नहीं है, धर्म के कंटेन्ट, उसके अंतःस्वरूप पर डिस्कस हो. 

प्रश्नः बिहार में अभी पिछले दिनों दंगा हुआ. लॉ एंड ऑर्डर का मसला है ही. आपकी टिप्पणी. 

बाहरी आवरण यानी फॉर्म पर फोकस होने की वजह से ही दंगे होते हैं. हिंदू-मुस्लिम संघर्ष को रोकना मुश्किल है. यह बिलीफ-सिस्टम का संघर्ष है. जब चेतना का वह स्तर हो जाएगा कि सब तो एक ही है और हम बेकार लड़ रहे हैं, तो फिर ये लड़ाई भी बंद हो जाएगी. प्रशासन भी तो दंगों का टेंपररी हल ही निकालता है. इसमें जो अधिकारी है, जन-प्रतिनिधि हैं, उनकी बड़ी भूमिका होती है. अगर यह पता चल जाए कि फलाना अधिकारी ईमानदार है, निष्पक्ष है तो जनता भी उसकी आवाज की कद्र करती है, रुक जाती है. गुडविल बनाने में बहुत समय लगता है. लोग आपके ट्रैक रिकॉर्ड को देखते हैं और जज करते हैं. अधिकारियों की नीयत को परखा जाता है औऱ अगर एक बार जनता ने मान लिया कि आप निष्पक्ष हैं तो फिर वो आपकी बात भी मान लेते हैं.

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